भावना मासीवाल- आत्मकथा लेखन पर आपके परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी?
मैत्रेयी पुष्पा- लेखन तो मैंने बाद में किया जो मेरा सोच विचार था जिसके
अनुसार मैंने अपनी लड़कियों को पाला। उनको लेकर मेरे विचार क्या है मेरे घरवालों को
पता था। मेरे परिवार वालों को पता था मैं वैसी स्त्री हूँ, जैसी पारंपरिक स्त्रियाँ होती है। क्योंकि मेरी माँ भी ऐसी स्त्री नही थी। मेरे
नजरिये मेरे व्यवहार को परिवार वालों ने नीची नजर से नही देखा जैसे एक बहु का
सम्मान होता है वह दिया। या मैं सबसे ज्यादा पढ़ी–लिखी आई थी। ससुराल वाले अपने ही लगे थे।
भावना मासीवाल- आत्मकथा लिखने के दौरान या उसके बाद जिन लोगों का उल्लेख आपने
आत्मकथा में किया है उन्होंने आत्मकथा पढ़ने पर क्या कोई प्रतिक्रिया दी?
मैत्रेयी पुष्पा-परिवार की बुराई तो है नहीं उसमे जो शिकायतें है वह पति से
है। पति के लिए ऐसा नही लिखा जैसा और लोगों ने लिखा है। जो आत्मकथा लिखते है वह
अपने को बचाने के लिए नहीं लिखतें हैं। हम कैसे थे, वह कैसा था, आपसी व्यवहार
कैसा था, इसको लिखना नाराजगी भी होती
थी, वह गुस्सा भी करते थे पर
मैं पलट कर जवाब नही देती थी। तो क्या यह मेरी गलती थी। इसे चाहे मेरा ‘इग्नोर’ करना व दब्बूपन कह लो। इससे तो मेरा काम रुक जाएगा इसलिए
मैं कुछ नही कहती थी, एक शब्द भी नहीं।
उनको फिर बाद में लगता था कि शायद मैंने गलत कहा है। हम अपने पुरुषों को चिल्लाकर
नही बदल सकते उन्हें स्वयं यह एहसास हो कि मैंने गलत किया है।
भावना मासीवाल- स्त्री आत्मकथाओं पर हमेशा से ही नैतिकता का सवाल उभरता है?
मैत्रेयी पुष्पा- नैतिकता का सवाल पुरुष आत्मकथाओं पर भी उठता है। वह भी
दुश्चरित्र आदमी को कम पसंद करेगा। दुष्चरित्रता कैसी होती है, कितनी होती है, इसका कोई मापदंड है नही। स्त्री के लिए बंधन अधिक है इसलिए
वह उस बंधन से जरा भी पाँव आगे रखती है तो नैतिकता का खंडन हो जाता है। अब तक
स्त्रियाँ आत्मकथा नहीं लिखतीं रही हैं। पर अब
लिख रही है पर ऐसा क्या कारण है कि उनके पास एक ही डंडा है नैतिकता का चला
लेते हैं। स्त्रियों ने खुलकर लिखने की कोशिश की तो इतना खुल गयी कि ज्यादा लिख
दिया। जिनको पढकर वितृष्णा न हो वो तो
आत्मकथाएँ है। जिनको पढ़कर वितृष्णा हो वह फिर आत्मकथा नही रह जाती है।
भावना मासीवाल-आपके लेखन पर भी सवाल उठता है कि आपका लेखन में अश्लीलता है?
मैत्रेयी पुष्पा- आत्मकथाओं पर तो नहीं उठता है। उसमें कुछ नहीं हैं। पहले
बहुत सवाल हुए, हल्ला मचा परंतु
अब उसकी तारीफ करने लगे। ये क्या था ? क्योंकि अब उनकी समझ में आ गया कि दो सीन जो मैंने दिए है। वह कोई अपनी मौज के
लिए, मस्ती के लिए नही थे। वह
दोनों थे एक में नपुसंक आदमी जिसको वह पुरुषत्व प्रदान करती है जिससे उसकी हिम्मत
बढ़ती है। जो दुष्ट आदमी है उनका संहार करता है। दूसरा आप मेरी नायिकाओं को अश्लील
कहते रहिए मैं कुछ नही कहूँगी लेकिन मेरी नायिकाओं के मकसद अश्लील नही थे। उनके
मकसद अश्लील प्रमाणित करके तर्क से बता दीजिए तो मैं मान जाऊँगी।
भावना मासीवाल-आपकी आत्मकथा पढ़ने पर बहुत चुटीले वाक्य आते हैं आमतौर पर वहां
आए है जहाँ आप नए तरीके से बात करना चाह रही है क्या यह आपके लेखन प्रक्रिया का
हिस्सा है या फिर कुछ और?
मैत्रेयी पुष्पा- कोशिश करके नही आते भाषा है और वह भाषा ग्रामीण भाषा की देन
है। जहाँ मैंने जीवन बिताया है। शादी के बाद दिल्ली आई पर मेरा कभी मन नहीं लगा
।दिल्ली डॉ.शर्मा की पत्नी बनी रही। मैत्रेयी पुष्पा गाँव से निकली भी नहीं। न मैं
वह भाषा भूली न मैं वह व्यवहार भूली। मेरे परिवार, गाँव,घर में मिलकर
रहने की एक संस्कृति थी।
भावना मासीवाल-आपकी रचना में जो पात्र है, क्या उनसे कभी आपने बातचीत की ?
मैत्रेयी पुष्पा- हाँ उनसे बात तो होती है और मैंने उनसे कहा की देखो मैंने
तुम सबको इस (उपन्यास) में रखा है। सब घर के ही पात्र है घर के रिश्तेदारों में ही
है। ब्याह शादी में सब जुड़तें है। हम आज भी मिलते हैं उन्हें पता है,उपन्यास में उनका जिक्र है।
भावना मासीवाल- कभी किसी ने आपत्ति
दर्ज कि की आपने मेरे बारे में ऐसा लिख दिया ?
मैत्रेयी पुष्पा- जिनको दुश्मनी है उनको आपत्ति है वह ताना भी मारते हैं। कुछ
पात्र तो गर्व भी करते हैं। आत्मकथा लिखने पर मेरे पति को थोडा सा लगा था कि मेरे
लेखन में उनका संदर्भ नहीं आना चहिए। उन्होंने परिवार के लोगो ने कभी नहीं कहा मैं
नहीं लिखूँ। वह कहते है कि हमारे लिए गर्व की बात है।
भावना मासीवाल-आप एक घरेलू महिला रही हैं। आपने घर और लेखन के बीच तादात्म्य
कैसे स्थापित किया? क्या कभी बिखराव
भी महसूस किया?
मैत्रेयी पुष्पा- कभी बिखराव महसूस नहीं किया। हमारे गांव की स्त्रियाँ खेत
में भी काम करती हैं घर में भी उसी तरह से मेरा भी है। अगर मैं वैसे वातावरण
से नहीं जुड़ती तो आज जो शहरीकरण है वह मुझ
पर हावी होता। फिर मैं छोटी-छोटी बातों पर लड़ती। मुझसे कितना भी काम करवा लो कितना
भी लिखवा लो मुझे कोई समस्या नही। मैंने अपने लेखन और घर के बीच एक लकीर खिंचीं है।
इतने समय मैं लेखन करूँगी इतने समय घर का कार्य। जब पति घर में है तब मै नहीं
लिखतीं हूँ। चाहे तुम इसको कुछ भी कहो। उनका टाइम उनके लिए है या उनकी सैकड़ों
समस्या होती है उनको कौन सुने? मैं अपने लेखन
में लगी हूँ और वह परेशान है। या मेरी समस्या होती है तो वह सुनते हैं हम दोनों एक
दूसरे से सुनते हैं। हममें टकराव न हो इसलिए।
भावना मासीवाल-आपके समकालीन जो महिला आत्मकथाएँ लिखीं गई थी। आप उनसे अपनी
आत्मकथा को किस स्तर पर अलग मानती है ?
मैत्रेयी पुष्पा-सबका जीवन अलग-अलग होता है। मेरा जीवन तो इन लोगों से बहुत ही
अलग है। मैंने इलीट वर्ग देखा ही नहीं, भले ही डॉक्टर की पत्नी रही। तुमने पढ़ा होगा व देखा कि मैं कितनी असभ्य टाइप सी रही हूँ। जैसे
गाँव की होतीं हैं।
भावना मासीवाल-आपकी आत्मकथा में परस्पर दो अस्मिताएँ प्रतिस्पर्धा करती नजर
आती है। पहली परम्परागत दूसरी आधुनिक स्त्री की अस्मिता। आप इन दोनों ही अस्मिताओं
से टकरातीं भी हैं। आप किस अस्मिता के साथ जीना चाहती हैं?
मैत्रेयी पुष्पा-जो परंपराएँ स्त्री के पक्ष में नहीं हैं या उसके अस्तित्व को,व्यक्तित्व को कमतर करती हैं। मैं उन
परंपराओं को नहीं मानती हूँ। ये सारा संघर्ष चला है परम्पराओं को बदलने के लिए।
मैं बदलना चाहती हूँ। प्यार और मोहब्बत से सबको गले लगाकर बदलाव लाना चाहती हूँ।
आधुनिक लड़कियाँ जिनसे मैं स्कूल, कॉलेज में मिलती
हूँ सब कहतीं हैं कि मैम आपको हमारे समय में पैदा होना चाहिए था। वे लड़कियाँ मेरे
साथ होती है।
भावना मासीवाल- आपके लिए स्त्री मुक्ति का क्या संदर्भ है?
मैत्रेयी पुष्पा- स्त्री मुक्ति लोगों के हिसाब से यौन मुक्ति है। वह पाँच
कर्मेन्द्रियों को पांच ज्ञानेन्द्रियों को नहीं गिनेंगे। वह सिर्फ एक सेक्स इन्द्रियों को गिनेंगे। मैं
हमेशा ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियों की स्वतंत्रता की बात करती हूँ। हमारे कानों
पर बंधन,हमारे जुबान व कानों पर
बंधन थे। ये नहीं सुनोगी यह नहीं देखोगी। मैं इस मुक्ति की बात करती हूँ। सेक्स तो
चोरी छिपे किसी भी तरह कर लिया जाता है। परंतु मुख्य प्रश्न है हम पर लगी
पाबंदियोंसे मुक्ति का। हम अपने मन से चौखट लांघे तो हमसे सवाल न हो कि कहाँ जा
रही हो ।
भावना मासीवाल- आप अपने अनुभवों के आधार पर मानती है कि आज की महिलाओं को जाति,वर्ग और जेंडर भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
यह भेदभाव साहित्य में आपने किस तरह महसूस किया ?
मैत्रेयी पुष्पा-करना क्या पड़ता है करवाया जाता है। स्त्री की कोई जाति,धर्म होते नहीं है। जिस पिता से पैदा हुई उसकी
जाति, शादी होती है लड़के की
जाति,लड़कों के साथ ऐसा नही
होता है। मुस्लिम से शादी करती है तो हिन्दू का प्रहार, दलित है तो सवर्ण का प्रहार सहती है। वह अपने पुरुषों
द्वारा ही जाति व धर्म की यातनाओं को भुगतती है।
भावना मासीवाल-साहित्य में लंबे समय से आप जुड़ी हैं, क्या आपको लैंगिक स्तर पर कभी भेदभाव का सामना करना पड़ा?
मैत्रेयी पुष्पा- भेदभाव लैंगिक स्तर पर होता है क्योंकि स्त्री को नीची निगाह
से देखा गया है। क्योंकि ये (पुरुष )मानने को तैयार ही नहीं होते कि स्त्रियाँ भी
लिख सकती हैं या कोई और इनकी कहानी लिखता रहा है। पहले, पहल जब स्त्री लिखने को आई तो उसका लेखन थोड़ा झिझका हुआ था।
पुरुष के अनुसार भी था जैसा वो चाहता था वैसा है।
भावना मासीवाल-इस दौर में लैंगिक चेतना और वर्गीय चेतना में से स्त्री लेखन पर
कौन सबसे ज्यादा हावी है ?
मैत्रेयी पुष्पा-अब तो लगभग बराबर पर आ रहा है। वर्गीय चेतना में आदिवासी भी
लिख रहे है,दलित भी लिख रहे है। दलित
स्त्रियाँ भी लिख रही है। लैंगिक चेतना में तो यह है कि जब स्त्रियाँ लिखने लगी है
तो अपना लोहा भी मनवा रही है हम बतायेंगे हमारा मुकाम है क्या? अब भी उस अनुपात में न सही पर थोड़ा है उसे पाने
के लिए स्त्रियाँ बराबर संघर्ष कर रही है। स्त्रियों का संघर्ष ही उनका लेखन है।
भावना मासीवाल- हिंदी की लेखिकाओं में आंदोलन
का तत्व बहुत कम देखने को मिलता है। जबकि साहित्य का आंदोलन से गहरा सम्बन्ध रहा है। ऐसे में उन पर आरोप
लगाया जाता है कि उनका आंदोलन देह केंद्रित दायरे में घिरा है। तत्कालीन समस्याओं
की ओर रुख नहीं करता है। आपकी क्या राय है?
मैत्रेयी पुष्पा- बिलकुल है। आंदोलन नहीं करती है डरतीं हैं, झिझकती है, उतने दायरे में रहती है। दायरा लांघना जरूरी है अभी अनुभवों
की अभाव है। कब तक देह, देह करती रहोगी।
राजनैतिक हस्तक्षेप करो। समाजिकता में जाओ। धार्मिक रूप में क्या-क्या बताया गया
उसमें हस्तक्षेप करो। बड़े केनवास में रचनाएँ रचो। जोकि 2000 के पहले था परंतु 2000 के बाद नजर नहीं आता है। लेखन में भटकाव आया है यहाँ लम्बी
तपस्या का अभाव है।
मैत्रेयी पुष्पा- आज साहित्य जिस स्त्री विमर्श की बात कर रही है उससे पता
नहीं मैं कितनी सहमत हूँ, कितनी असहमत हूँ।
लेकिन मैं स्त्री विमर्श उसको मानती हूँ जो ‘फॉर दी विमेन’,‘बाई दी विमेन’,‘ऑफ़ दी विमेन’। उसके हर आयाम की बात करता है उसके ‘एटमोसफेयर’ की बात करता है। उसकी परम्पराओं पर बात है उसकी संपत्ति की
बात होती है।
मैत्रेयी पुष्पा- विरोध पढ़ने में, लिखने में नही आया, विरोध तो उन
परम्पराओं से था, जो हमारे यहाँ
रूढ़ियाँ हो गयी है तो मेरी माँ उसका विरोध करती थी कि तुम्हारी शादी नहीं करुँगी।
मैं कहती थी मेरी शादी कर दो। वह तो मुझे आगे बढ़ाने के लिए विरोध था। तो वह विरोध
कैसे हुआ? मैं नहीं मानती स्त्री,
स्त्री की दुश्मन होती है तो क्या मैं यह माना
जाए कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है। क्योंकि पुरुष ही पुरुष से डरता भी है।
इसलिए वह अपनी बेटियों,बहनों को बाहर
नहीं जाने देता है। क्योंकि वह जानता है कि उस पुरुष की नजर क्या है? वही जानता है
इसलिए रोकता है। स्त्री, स्त्री की दुश्मन
नहीं होती है। वह उन पुरुषों की लठैत होती है जिन पुरुषों ने यह परंपराएँ बनाई है।
वह उसी परम्परा को पालती व रखवाली करती है जो पितृसत्ता ने बनायी है। वह दुश्मन
कैसे हो गयी बनाई तो आपने ही है। वह तो अपनी सुरक्षा के लिए रखवाली करती है। अगर
मैं ऐसे चलूँगी तो मैं ठीक रहूँगी। सुख सुविधा का लालच उसे कमजोर कर देता है। वह
कमजोर औरत होती है जो दूसरी औरत पर जुल्म करने की सोच रही है,कडुवा बोल रही है,गलियाँ दे रही है। क्योंकि वह उस पुरुष सत्ता की छाँव चाहती
है।
भावना मासीवाल- आत्मकथा के सन्दर्भ में सदा ही प्रमाणिकता का प्रश्न उभरता है। आत्मकथा व्यक्ति के जीवन का निजी दस्तावेज हैं, ऐसे में आत्मकथा की प्रमाणिकता पर सवाल उठता है तो हम कैसे उसकी प्रमाणिकता को साबित करेंगे ? आपकी अपनी आत्मकथाओं के सन्दर्भ में क्या राय है?
मैत्रेयी पुष्पा- मैंने “कस्तूरी कुंडल
बसै’ में साफ़ लिख दिया है की
ऐसा भी हो सकता है कि कुछ घटनाएँ न हुई हो और मैंने लिख दी हो। और कुछ घटनाएँ हुई
हो जो मैंने न लिखी हो। उसका एक कारण है कि यह मेरे जन्म से पहले की बातें हैं। जो
मैंने देखी नहीं है। यह बातें मुझे बताई गई है। उसमें कितना झूठ है और कितना सच है?
यह मैं नहीं जानती हूँ। वहीं गुड़िया भीतर
गुड़िया आत्मकथा के लिए तो किसी ने कुछ नही कहाँ।
भावना मासीवाल- आत्मकथा के सन्दर्भ में कहाँ जाता है कि वह पूरा सत्य नहीं
होता है। लेखक का कोई न कोई कोना ऐसा होता है तो छुपा रह जाता है। क्या आप सहमत है?
मैत्रेयी पुष्पा- नहीं, सारे कोने तो
शायद पूरे जिंदगी भर लिखता रहेगा तो भी नही खुलेंगे। लेकिन जो प्रमुख स्थान उसके
जीवन में आते हैं उन्हें वह लिखता चलता है। आत्मकथा का अर्थ ही होता है कि आपकी
आत्मकथा दूसरों के लिए क्या है? दूसरों को कौन सा
रास्ता दिखा रही है? मुझे एक कविता
संग्रह पर शिला सिद्धांत पुरस्कार मिला था उसने कहा कि मैं तो नहीं लिख रही थी
उसके बाद मैंने मैत्रेयी पुष्पा की गुडिया भीतर गुडिया पढ़ी थी। तो मुझे लगा कि जब
उन्होंने लिखना शुरू किया और बाद में लिखना शुरू किया तो मैं क्यों नहीं लिख सकती
हूँ। तब मैंने भी लिखना शुरू किया और मुझे आज यह पुरस्कार मिला है। तब मुझे लगा कि
मैंने बहुत कुछ लिखा और किसी एक तो रास्ता दिखाया है।
भावना मासीवाल- महिला लेखन को लेकर सवाल है कि नामवर सिंह ने कहा था कि
स्त्रियाँ तो सिर्फ इसलिए छाप दिया जाता है कि वह केवल स्त्री है। राजेन्द्र यादव
कहतें हैं कि स्त्री लेखन सुखी,समृद्ध पुरुषों
की,उभरी पत्नियों का लेखन
है। ऐसे में साहित्य में महिला लेखन के प्रति दृष्टि उस समय मौजूद थी। क्या आज भी
कुछ बदलाव आया है या आज भी स्थिति वैसे की वैसी है?
मैत्रेयी पुष्पा- आज नहीं है। राजेन्द्र यादव,नामवर सिंह के ज़माने में वैसा रहा है। फिर जमाना भी बदल रहा
है और स्त्रियाँ ज्यादा से ज्यादा आई पहली तो गिनी चुनी थी। साहित्यकार के
रिश्तेदार,जैनेन्द्र की रिश्तेदार,
फलाने की रिश्तेदार यही था, अब तो ऐसा नहीं है अब तो नंगे पाँव का सफ़र है
लेखिकाओं का,जो चल तो अकेले
ही रही है ।
भावना मासीवाल– मन्नू भंडारी की
आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ उसके सन्दर्भ में आप क्या सोचती है वो आत्मकथा
कही न कही सब कुछ तो नहीं कहती हैं। उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो छिपा रह गया है?
मैत्रेयी पुष्पा-अब वो नही कहना चाहती तो मत कहें वो तो यह भी कहती है कि यह
आत्मकथा ही नहीं है वो आत्मकथा नहीं है तो है क्या?अब जो भी हो लिखने वाला ज्यादा जानता है। बहुत कुछ अगर छिपा
रह गया है जिसे उन्होंने नहीं लिखा है अगर वह न भी लिखतीं तो क्या हो जाता और उनके
जीवन की सभी घटनाएँ तो आ गयी है। मुझे नहीं लगता कि कुछ रह गया है सब कुछ कह दिया
गया है।
भावना मासीवाल- आपकी आत्मकथा में कितना औपचारिक तत्व मौजूद रहा है कुछ कल्पना
भी है या सब कुछ यथार्थ है।
मैत्रेयी पुष्पा- कल्पना नहीं वो दूसरे का कहाँ हुआ सुना जिसे किस्सा कहतें
हैं। कुछ मेरी माँ कहती थी। वह कितनी सही थी, कितनी गलत मैंने तो नहीं देखा। कुछ दादी के मुंह से सुना,
इसलिए मैं इसे वही मानती हूँ जो मैंने सुना है।
भावना मासीवाल
सहायक
प्राध्यापक(अतिथि), दिल्ली विश्वविद्यालय, सम्पर्क 8447105405
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