आलेख : 'पलाश के फूल' और 'माटी र लुह' उपन्यास का तुलनात्मक अध्ययन / ज़िनित सबा

         'पलाश के फूल' और 'माटी र लुह' उपन्यास का तुलनात्मक अध्ययन 

उत्तराधुनिकता का युग विमर्शों का युग है।इस समय अनेक हाशियाकृत और पीड़ित वर्ग अपनी अस्मिता और पहचान को लेकर उठ खड़े हुए हैं।इस तरह अपने अस्तित्व और अस्मिता को लेकर लड़ी गयी वैचारिक लड़ाई विमर्श का रूप लेती है।इस दौर में विमर्श के रूप में दलित और स्त्री विमर्श का आगमन होता है।इसी कड़ी में नए विमर्श के रूप में आदिवासी विमर्श की भी शुरुआत होती है।एक ओर जहाँ दलित विमर्श वर्णवादी भेदभाव पर आश्रित है, वहीं स्त्री विमर्श के केंद्र में लैंगिक भेदभाव है।इसी कड़ी में अपनी अस्मितागत संघर्ष और नस्लीय भेदभाव को लेकर आदिवासी विमर्श भी अस्तित्व में आता है।कोई भी विमर्श किसी वर्ग विशेष के प्रति लड़ी गयी हिंसात्मक लड़ाई न होकर उस वर्ग विशेष के रूढ़िवादी तथा पूर्वाग्रहों से ग्रसित सोच से विचारधारात्मक लड़ाई है


आदिवासी विमर्श के केंद्र में जो प्रताड़ना है, इसकी पड़ताल करते हुए यह पाया गया है कि अतीत में ही बाहरी घुसपैठ के द्वारा यह प्रताड़ना प्रारंभ हुई।इसी सन्दर्भ का हवाला देते हुए भारतीय संविधान में भी यह निर्देश दिया गया कि-आदिवासियों के साथ किया गया अन्याय हमारे इतिहास का शर्मनाक अध्याय है|’ जो शोषण अतीत से प्रारंभ हुआ वही शोषण औपनिवेशिक काल में उतरोत्तर बढ़ता गया।अंग्रेज अपनी साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहे थे ।ये दोहन दरअसल जल, जंगल जमीन का अवश्य हुआ लेकिन इसका प्रभाव आदिवासियों पर ज्यादा पड़ा।इस तरह अंग्रेजों के आगमन के साथ उनकी मौलिक आवश्यकताओं तथा जिजीविषा के साथ-साथ अस्मिता पर गहरा संकट दिखाई पड़ा।इसलिए उस दौर में अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले आन्दोलन आदिवासियों ने किया।इसलिए अंग्रेजों के द्वारा क्रिमिनलट्राइबएक्टजैसा घोर अमानवीय कानून सामने आया।अंग्रेजों के शासन काल में आदिवासियों को यह लगा था कि स्वतंत्रता बाद उनकी यह समस्या हल हो जाएगी।किन्तु स्वाधीनता के बाद अंग्रेजों के स्थान पर सरकार और मुख्यधारा या दिकूलोगों ने उनकी कमी को पूरा कर दिया है।नस्लीय भेदभाव और सरकारी नीतियों तथा सरकारी सहायता की भारी कमी के कारण ही आदिवासी समुदाय विद्रोह करने पर मजबूर हुआ है।इसी तरह आदिवासी विमर्श ने बिगुल बजाया
  
 हिंदी में आदिवासी विमर्श को साहित्यिक जमीन देने का काम रमणिका गुप्ता और बी.पी. वर्मा पथिकजी ने किया।जबकि महाराष्ट्र और ओड़िशा में ये विमर्श हिंदी से पूर्व हो चुका था।अरावली उद्घोष’’ अंक 41 (जुलाई-सितम्बर 1998) में कुछ सवालशीर्षक संपादकीय ने रमणिका जी का ध्यान आदिवासी विमर्श की ओर प्रथम बार खींचा ।युद्धरत आम आदमीकी संपादिका रमणिका जी जो दलित विशेषांक निकालने में लगी थीं, उन्होंने अपनी पत्रिका को आदिवासी विमर्श पर केन्द्रित किया।रमणिका जी के कारण ही आदिवासी विमर्श का जन्म हुआ और युद्धरत आम आदमीके विशेषांक आदिवासी स्वर एवं नयी शताब्दीभाग-1 और भाग-2 के द्वारा आदिवासी विमर्श स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आया|”  इस तथ्य से यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वाधीनता के दौर में हुए आन्दोलन के बाद कई सालों तक आदिवासी चिंतन या समस्या पर लेखन प्रायः सुप्त अवस्था में रहा।


 प्रेमचंद कालीन साहित्य में आदिवासी पात्र तो अवश्य आये किन्तु वे मुख्य पात्र की भूमिका में नहीं थे ।साथ ही अपनी अस्मिता को लेकर भी वे विरोध करते हुए नहीं दिखाई देते।इसलिए अरावली उद्घोषपत्रिका के संपादक बी.पी.वर्मा आदिवासी विमर्शनामक लेख की भूमिका में यह स्पष्ट करते हैं कि बीसवीं शताब्दी की समाप्ति तक हिंदी पट्टी में केवल दलित विमर्श और दलित साहित्य का बोलबाला रहा था।कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, तब न कहीं आदिवासी विमर्श और आदिवासी साहित्य का जिक्र होता था और न कभी इनकी आवश्यकता ही महसूस की जाती थी।चाहे गैर आदिवासी साहित्यकार हों या दलित साहित्यकार अधिकांश ने यही भ्रम पाल रखा था कि दलित संज्ञा में आदिवासी का भी समावेश है।समर्थन में अनुकूल तथ्य और तर्क जुटा लिए गए थे।इस भ्रम को तोड़ने का कभी किसी ने सार्थक प्रयास नहीं किया था|’इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि इस तरह की चिंताधारा ने ही इतने वर्षों तक आदिवासी अस्मिता जैसे प्रश्न को प्रस्तुत नहीं किया था 

आदिवासी विमर्श के अनेक मुद्दों को लेकर 80 के दशक के बाद ओड़िया और हिंदी दोनों भाषाओं में अनेक उपन्यास लिखे गए।जैसे- जंगल के गीत’(पीटरपौल एक्का), ‘धुणी तपे तीर’(हरिराम मीणा), ‘पलास के फूल’ (पीटरपौल एक्का), ‘मौन घाटी’(पीटरपौल एक्का), ‘सावधान नीचे आग है’(संजीव), ‘पाँव तले की दूब’(संजीव), ‘पठार पर कोहरा’(राकेश कुमार सिंह), ‘जो इतिहास में नहीं है’(राकेश कुमार सिंह), ‘रेत’ (भगवान दास मोरवाल), ‘धार’(संजीव), ‘जंगली’, ‘माटी र लुह’(अन्नदा प्रसाद राय), ‘भोरोसा र भीटामाटी’(श्री लक्ष्मी महांती), ‘आदि भूमि’(प्रतिभा राय) आदि 

 इन उपन्यासों में पलास के फूलऔर माटी र लुह’  आदि को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है ।इन उपन्यासों में भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, विकास बनाम विनाश का दंश, सरकारी नीतियों और परियोजनाओं की सच्चाई, आदिवासी को लेकर की गयी राजनीति जैसे मुद्दों को आधार बना कर लिखा गया है

पलास के फूलउपन्यास में अंग्रेजों के जाने के बाद सरकार की विकास नीतियों के नाम पर आदिवासियों की प्राकृतिक सम्पदा का अधिग्रहणका चित्रण हुआ है।विकास अगर समावेशी न हो तो उसकी सार्थकता और औचित्य पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है।सरकार विकास के नाम पर आदिवासियों की भूमि अधिग्रहण कर रही है।वे दो तरफ से प्रताड़ित हो रहे हैं।एक ओर वे प्रताड़ित हैं-दिकूओं के शोषण से, तो दूसरी ओर प्रताड़ना सरकार दे रही है।उन्हें तो  मुआवजे के नाम पर लूटा और ठगा भी जा रहा है|उनके लिए जो भी सरकारी योजनाएं बनाई जा रही हैं, वह  तो ज्यादातर कागजों में ही सिमट कर रह जाती हैं।साथ ही कुछ योजनाओं की रकम जो मिलती है वह भी एक चौथाई भाग ही होगा।दलालों के हाथों के गुजरकर उन्हें उतना ही पैसा मिल पाता है जिससे महीना भर का राशन ही ख़रीदा जा सकता है।बाद में ये योजनाएं भी दिखावे के साथ ख़त्म हो जाती हैं और आदिवासी समुदाय भाग्य के भरोसे बैठ असहनीय पीड़ा सहता है।इस उपन्यास में आदिवासी के हाथ किस तरह निराशा ही हाथ लगती है इसका स्पष्ट चित्र उपस्थित किया गया है।जैसे-बेहिसाब खदान, कोलियारी खुलेगी।नदियों में पुल बनेंगे।बिजली तैयार होगी, नहरें खुलेंगी।वर्षों की मेहनत से बनी बनाई जमीन डूब जाएगी।मुआवजे के नाम पर दिखावे की रकम मिलेगी।घर-बार छोड़ना होगा।घर के आदमी विस्थापित कर दिए जाएंगे।दूर के इलाके से आये लोगों का राज हो जाएगा।स्थानीय आदिवासी चाय बागानों, ईंट-भट्टों की राह लेंगे
  
 आदिवासी समुदाय की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है।वे बंजारे की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि वे जिन जंगलों और प्राकृतिक स्थलों पर अपना घर बना रहे हैं सरकारी योजना उनका पीछा करते हुए वहां तक पहुँच रही है।वे अनेकों जंगलों और स्थानों में विस्थापित हो रहे हैं।सोचने वाली बात यह है कि विकास के नाम पर जितने भी बदलाव किये जा रहे हैं, उस विकास में आदिवासी कहाँ है? ये आज की व्यवस्था की सबसे बड़ी सच्चाई है।इस उपन्यास का प्रमुख पात्र आनंद बाबू इस क्रूर व्यवस्था की सच्चाई से अवगत कराते हुए कहता है कि –“यह भी नियति का कैसा मजाक है।जिनके लिए इतनी मेहनत से सड़कें, पुल बनवाता रहा, उस पर चलने वाले ही लोग गाँव-घर छोड़ कर बहुत दूर अनदेखी दिशाओं में चले जा रहे हैं ।इन आदिवासियों के भाग्य में क्या यही लिखा है, जो बाँध बनते हैं, नहरें खोदी जाती हैं, जो सड़कें बनती हैं, खानें खुलती हैं, वह सब उनके लिए नहीं होते हैं, औरों के लिए होते हैं।उनके लिए हमेशा की वही मजूरी है, बेगारी, जंगल के जानवरों की सुबगती निरीह, बेरौनक-सी जिंदगी है” 

 आदिवासी समुदाय जल-जंगल और पहाड़ों पर ही पूरी तरह आश्रित है।इसलिए वे जंगल के द्रवों को बेच कर अपना जीविकोपार्जन करते रहे हैं।जिस धरती पर वे बसते हैं, उनके गर्भ में खनिज सम्पदा है।और ये खनिज सम्पदा नदियाँ और जंगलों में हैं।अब उनके लिए सरकार ने फारेस्टएक्टबना दिया है।इसके तहत वहां उनका प्रवेश वर्जित है।यहाँ ये प्रश्न खड़े होते हैं कि जिस जंगल की रखवाली आदिवासी समाज कर रहा है,उसी जंगल पर उनका अधिकार क्यों नहीं है? वे प्रकृति को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि कौन से द्रवों से जंगल को नुकसान होगा।साथ ही  वे जंगल में ही अपने अराध्य देव/देवी को देखते हैं, फिर उनके लिए ये पाबंदी क्यों? इससे तो एक बात यह साफ़ हो गयी कि ये नीतियाँ सरकारी स्वार्थ पूरा करने के लिए किये गये, जिसमें आदिवासी कहीं नहीं है।इस तरह के कानून के पास होने की वजह से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा है, वे कृषक से मजदूर बन गए हैं।उनकी आर्थिक स्थिति का बेहतर न होना ही उन्हें मजदूरी करने के लिए मजबूर करता रहा है।उन्हें जल, जंगल, जमीन जैसी मूल अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। विडम्बना यह है कि ये सब उनके विकास या उनकी स्थिति में सुधार के नाम पर हो रहा 

 इसी कड़ी में माटी र लुहओड़िया उपन्यास जुड़ता हुआ दिखाई देता है।इस उपन्यास में भी इसी चिंता को व्यक्त किया गया है कि विकास आखिर किसका? विकास के नाम पर उनके घर उनके पूर्व पुरुषों की जमीन छिनी जा रही है, जंगल और प्राकृतिक परिवेश को नष्ट किया जा रहा है।उन्हें जबरन निर्वासित भी किया जा रहा है।ऐसे में वे इसका विरोध न करें तो क्या करें।वे विकास विरोधी नहीं हैं।उनकी सोच और हमारी सोच में अंतर है।हमने कभी भी उस समाज को जानना नहीं चाहा।उस समाज को न जानने के कारण ही वे हमारे समक्ष अजूबे की तरह देखे जाते हैं।इस उपन्यास में उनकी क्या आकांक्षा रही है, इसका चित्रण किया गया है।इस उपन्यास का मुख्य पात्र बंधुआ आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए कहता है - मैं चाहता हूँ, हमारे यहाँ विद्यालय बनाये जाएँ किन्तु जंगल काट कर नहीं बल्कि बंजर जमीन पर।लेकिन उस विद्यालय की उच्चता इन वृक्षों से अधिक न हो।हमारे विद्यालय में हमारी मातृभाषा में शिक्षा दी जाये।हमारे लिए अस्पताल भी हों, जिसमें हमारी वन-सामग्री निर्मित औषधि उपलब्ध हो” 

बंधुआ जैसे आदिवासी विकास विरोधी नहीं हैं किन्तु वे अपने तरह से चीजों की उपलब्धता चाहते हैं जिसमें उनका और उनके परिवेश की हानि न हो।इस उपन्यास में इसी समस्याओं को लेकर विरोध प्रकट किया गया है, जिसके फलस्वरूप आदिवासी आन्दोलन का बिगुल बजा है।जब सत्ता में स्थित सरकार और प्रशासन कलिंगघाटी जंगल को काट कर शिल्प प्रतिष्ठान निर्माण करने के लिए प्रयत्नरत हैं तभी बंधुआ और अन्य आदिवासी इसके प्रति विरोध दर्ज करते हैं।इस विरोध ने देश भर के लोगों को उनके प्रति हो रहे अन्याय की ओर  संकेत किया है।साथ ही यह भी सिद्ध किया है कि क्या सरकार द्वारा अपने स्वार्थ के लिए आदिवासी समूह को उनके घर से निकालना न्यायोचित है? “ये मिट्टी उसके निवास स्थान हैं, जिसकी बुनियाद में उनके पूर्वपुरुष का इतिहास है।उनके जैसे और उनसे पूर्व पुरुषों की पदचिह्न इस मिट्टी ने धारण किया है।वर्षों से उनके श्रम, निष्ठा इस मिट्टी में मिली हुई है ।इसलिए वे अपने इस निवास स्थान को नहीं छोड़ सकते|” इस उपन्यास में यह स्पष्ट किया गया है कि किस तरह यह बाहरी और आंतरिक समस्या को लेकर उनका अस्तित्व बाधित होता है 


 अतः निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि भारत में वैश्वीकरण के आगमन के साथ विकास जैसी अवधारणा क्यों न सामने आई हों,किन्तु  ये विकास बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के लिए रहा, जिसमेंआदिवासी को कुछ नहीं मिला।उनके लिए बहुत सी योजनाएं बनाई गयीं, किन्तु इन योजनाओं से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला|उनके साथ योजनाओं के नाम पर बस छल किया गया।उन्हें मुआवजे की रकम भी पूरी तरह नहीं दी गयी।जब भी कभी आदिवासी समुदाय इन परियोजनाओं का विरोध करता हुआ दिखाई देता है तो उन्हें विकास विरोधी, बर्बर, जंगली या नक्सली की संज्ञा दी जाती है।कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि जिन आदिवासी समुदाय ने उस परियोजनाओं का विरोध किया उनकी पूरी बस्ती को हीनक्सली साबित कर दिया गया है|आदिवासियों का पर्यावरण सम्बन्धी चिंतन तथा उसके दुष्प्रभाव पर बोलना ही दिकूओं की दृष्टि में उन्हें जाहिल और गंवार बनाती है।विकास के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई, खनिजपदार्थों का खनन, कारखानों, कंपनियों और अत्याधिक वाहनों के प्रयोग ने परिवेश को प्रदूषित किया है।आदिवासी इन सारी चीजों से वाकिफ़ हैं, इसलिए विकास के द्वारा विनाश की गर्त में बढ़ रहे व्यवस्था के विरोधी हैं|इस तरह आदिवासियों की सारी समस्याओं को केंद्र में लेकर आदिवासी विमर्श उपस्थित होता है, ऐसे में आदिवासी विमर्श अन्य विमर्श से ज्यादा लोकतान्त्रिक और तार्किक लगता है|लेकिन आज भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारवादी व्यवस्था में आदिवासियों का शोषणचक्र बहुआयामी हो गया है।2014 में आये नए भूमि अधिग्रहण के अध्यादेश के कारण आदिवासियों की जमीन हक़ से सरकार द्वारा छिनी जा रही है।ये कैसी व्यवस्था है जहाँ अन्याय और अत्याचार भी दंभ भर कर किया जा रहा है।ऐसी स्थिति में इन उपन्यासों की प्रासंगिकता और भी जान पड़ती है।

सन्दर्भ सूची :
1. हिंदी आदिवासी साहित्य में स्त्री, थीसिस,प्रणव कुमार ठाकुर
2.  पलास के फूल,पीटरपौल एक्का, पृ.सं.-59
3.  पलास के फूल,पीटरपौल एक्का, पृ.सं.-59
4. माटी र लुह, पृ.सं,-36
5. माटी र लुह, पृ.सं,-36

ज़िनित सबा
शोधार्थी, पी-एच.डी. हैदराबाद विश्वविद्यालय
हिंदी विभाग,मानविकी संकाय,हैदराबाद-500046
सम्पर्क zinitsaba33@gmail.com9492263706

              अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी

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