नामवर सिंह के संपादन में ‘आलोचना’ पत्रिका
अगर मैं मरुँ
हिंदी साहित्य में नामवर सिंह विशेष रूप से उल्लेखनीय रहे हैं। बतौर एक आलोचक
उनका लिखना, न लिखना, बोलना, चुप रहना हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है। बावजूद इसके हिंदी आलोचना को
समृद्ध करने में नामवर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नामवर का लेखन बहुत कम
होने के बावजूद भी हिंदी साहित्य के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है। एक प्रकार से
अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने हिंदी में व्याप्त गतिरोधों को तोड़ने का काम
किया है। नामवर सिंह का वैचारिक पक्ष जितना विवादास्पद रहा है, उतना ही संघर्ष भरा उनका जीवन रहा है ।लेकिन इन
सभी गतिरोध को नामवर सिंह तोड़ते हुए अपने को स्थापित किये।
हिंदी की दुनिया में नामवर सिंह को एक गंभीर वक्ता, शानदार शिक्षक और जुझारू आलोचक के रूप में पहचाना गया। इसके
साथ ही नामवर सिंह मंझे हुए संपादक भी रहे हैं। ‘आलोचना’ पत्रिका और नामवर
सिंह दोनों ने हिंदी पत्रकारिता जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। इस पत्रिका
के माध्यम से नामवर सिंह द्वारा हिंदी आलोचना को केंद्र में रखकर संपादन का कार्य
किया गया। 1951 से निकलने वाली इस पत्रिका की शुरुआत शिवदान सिंह चौहान
द्वारा किया गया। शिवदान सिंह चौहान द्वारा इस पत्रिका को निकालने का मूल
मन्तव्य हिंदी आलोचना में आ रहे तमाम
गतिरोधों को समाप्त कर, आलोचना की स्वस्थ
परंपरा को विकसित करना मुख्य उद्देश्य रहा। इस पत्रिका के प्रथम संपादकीय में सवाल
करते हुए ‘आलोचना क्यों ?’ नाम से वे लिखते हैं- “आचार्य शुक्ल के पश्चात् हिंदी आलोचना ने अपने विकास के लिए
नए पथ खोजें समाजशास्त्र का आधार लेकर ‘प्रगतिवाद’ और मनोविज्ञान का
आधार लेकर ‘प्रतीकवाद’ की विचारधाराएं साहित्यालोचन का दृष्टिकोण बनी
।परंतु पिछले कई वर्षों से हिंदी का आलोचना साहित्य एक अवांछित गतिरोध की स्थिति
में पढ़कर मनमाने पथों पर भटकता रहा है ।.....’आलोचना’ इस गतिरोध को
तोड़ने का संकल्प लेकर जन्मी है।”1
शिवदान सिंह जिस गतिरोध को तोड़ने का
संकल्प लेकर ‘आलोचना’ पत्रिका की शुरुआत किए, उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सर्वाधिक योगदान नामवर सिंह
ने दिया। नामवर सिंह द्वारा आलोचना के संपादन कार्य से पूर्व, इस पत्रिका के तीन पड़ाव दिखाई देते हैं। पहला-
शिवदान सिंह चौहान के संपादन में केवल छह अंक ही निकल सका। इसके पश्चात् इस
पत्रिका का संपादन का दायित्व ‘संपादक मंडल’
के हाथों में गया, जिसमें-धर्मवीर भारती, रघुवंश, बृजेश्वर वर्मा
और विजयदेव नारायण साही रहे। इस मंडल ने कुल ग्यारह अंक निकाले। इसके पश्चात
नन्ददुलारे वाजपेयी द्वारा इस पत्रिका के कुल नौ अंकों का संपादन किया गया ।इस बीच
आलोचना का संपादन कार्य कुछ दिनों तक बंद रहा। जुलाई-सितंबर वर्ष-1963 से पुनः शिवदान सिंह चौहान के संपादन में ‘आलोचना’ पत्रिका निकलनी आरंभ हुई। देखा जाए वर्ष-1967 से इस पत्रिका को बतौर एक स्थाई संपादक के रूप
में नामवर सिंह मिले। नामवर सिंह द्वारा 1967 से लेकर 1990 तक लगभग 93 अंकों का संपादन
किया गया। इस अवधि में हिंदी आलोचना तथा ‘आलोचना’ पत्रिका को
संवारने का काम नामवर सिंह द्वारा बड़े शिद्दत से किया गया।
शिवदान सिंह चौहान अपने संपादन में साहित्य तथा विचारधारा को ही प्रमुखता से
उठाते रहे। उनके संपादन में राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण की समस्या, हिंदी गीति काव्य का विकास, हिंदी रंगमंच और नाट्य रचना का विकास, हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का विकास, हिंदी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव,
हिंदी साहित्य पर लोक साहित्य का प्रभाव,
यूरोपीय साहित्य का हिंदी साहित्य पर प्रभाव
जैसे विषयों को ही प्रमुख रूप से स्थान दिया गया। उनके संपादन में ऐसे कई लेखों को
देखा जा सकता है, जिसका साहित्यिक
महत्व होते हुए भी, समकालीनता से
जुड़ाव उस स्तर पर नहीं दिखता। वहीं दूसरी तरफ संपादक मंडल द्वारा भी इस पत्रिका
को साहित्य के केंद्र में रखकर ही, संपादन का कार्य
किया गया। इस दौर के आलोचना में प्रकाशित लेखों को देखा जाए तो- महाकाव्य के उद्भव
की सामाजिक व्याख्या, हिंदी का अपना
साहित्यशास्त्र, जायसी की भूल,
रामचरितमानस का रचनाक्रम, भविष्यत साहित्य, संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, कला : एक नवीन दृष्टिकोण, समकालीन उपन्यास : सीमाएं और संभावनाएं, प्रबंध काव्य, रोमांस और उपन्यास, उपन्यास का उपकरण, उपन्यास और नीति,
उपन्यास के दायित्व, हिंदी उपन्यास शिल्प का विकास इसी प्रकार आगे भी देखा जाये
तो- साधारणीकरण का नवीन स्तर, प्रयोग, प्रगति और परंपरा, हिंदी उपन्यास में नए प्रयोग,लेखक का उद्देश्य महत्वपूर्ण है, नया साहित्य : नए प्रश्न, रीति, गीत और नई कविता,
संस्कृति-संघर्ष और वैयक्तिक संबंध,नये समाज का उदय जैसे लेखों को देखा जा सकता है।
नामवर सिंह ‘आलोचना’ पत्रिका को नए
कलेवर के साथ संपादित करने के लक्ष्य को लेकर आगे आये। नवांक-01, वर्ष-1967 के अंक में नामवर सिंह के संपादन कला को साफ-साफ देखा जा
सकता है। इस अंक में पहली बार आलोचनात्मक लेखों के अलावा ‘कविता’ के महत्व को
समझते हुए,इस पत्रिका में स्थान
दिया गया। पहले जहां इस पत्रिका का झुकाव साहित्य तक ही केंद्रित रहा, अब साहित्य के साथ-साथ समाज को भी साथ लेकर
चलने का काम नामवर सिंह के संपादन में आरंभ हुआ। उनके संपादन में पहला ही अंक ‘चुनाव के बाद भारत’ जैसे विषय पर केन्द्रित रहा है। नामवर सिंह के संपादन में
ऐसे कई विषयों को समाहित किया गया, जो एक ओर साहित्य
तथा दूसरी और राजनीति तथा समाज की दिशा को निर्देशित करने के लक्ष्य से प्रेरित
दिखाई देते हैं। ‘चुनाव के बाद
भारत’ नामक परिसंवाद में नामवर
सिंह द्वारा स्थापित आलोचकों के अलावा नए चिंतकों को भी स्थान दिया गया है,
जिसमें रामविलास शर्मा, रमेश कुंतल मेघ, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मन्मथनाथ गुप्त,
विष्णु प्रभाकर, राजकमल चौधरी के साथ ही भारतभूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धूमिल, मलयज, सुरेंद्र चौधरी, विष्णु चंद्र शर्मा तथा केदारनाथ अग्रवाल जैसे चिंतकों को
देखा जा सकता है।
नामवर सिंह के संपादन में आलोचना पत्रिका में आए बदलाव को देखा जाये तो,इस पत्रिका में अब संपादकीय लेख के अलावा
नियमित रूप से तीन या चार कविताएं जो हिंदी के अलावा भारतीय भाषाओं से अनुदित या
फिर विदेशी कविताओं के अनुदित रूप को देखा जा सकता है। वहीं ‘मूल्यांकन’ नामक एक नियमित खंड को भी
आरम्भ किया गया,जिसमें उपन्यास
तथा विभिन्न कहानियों पर समीक्षात्मक लेख प्रस्तुति आरम्भ हुई। इसके साथ ही ‘विनिमय’ नामक एक नियमित खंड को देखा जा सकता है, जिसमें विचारधारा, साहित्य लेखन, साहित्यकारों के दायित्व, रचनाकारों के
सामाजिक, राजनैतिक संबंध, शिक्षा के संदर्भ में विभिन्न संस्थानों का
रवैया आदि समाज से जुड़े मुद्दों को देखा जा सकता है। इसके अलावा उनके संपादन में ‘संवाद’ नामकखंड को भी बीच-बीच में देखा जा सकता है। इस खंड में विषय का चुनाव तथा
उसका विस्तारीकरण स्वयं नामवर सिंह द्वारा संपादकीय लेख के रूप में किया गया है
तथा उसके विस्तारीकरण में विभिन्न आलोचकों, चिंतकों द्वारा भाग लिया जाता रहा है। जनवरी-मार्च,1968 में ‘युवा लेखन पर एक बहस’ नामक परिसंवाद को
उदाहरण रूप में देखा जा सकता है। इस पूरे बहस में युवा रचनाकारों और चिंतकों
द्वारा स्थापित आलोचकों के प्रति बेरुखी को चिंता का विषय बनाया गया है। इस बहस पर
नामवर सिंह लिखते हैं-“ नई पीढ़ी हमसे
संवाद के लिए बहुत इच्छुक नहीं है क्योंकि हमारे पास अपनी-अपनी सुरक्षा के लिए कवच
और दुर्ग है, एक सुनिश्चित
भविष्य है और ये निस्सार करुणा की मुद्राएं हैं जो संवाद की सभी संभावनाओं को
समाप्त कर देती हैं।”2
इस बहस में नामवर सिंह द्वारा ‘बहस का प्रारूप’,
लक्ष्मीकांत वर्मा द्वारा तथाकथित साठोत्तरी
पीढ़ी : एक ऐतिहासिक संदर्भ, मुद्राराक्षस
द्वारा युवा एनार्की और समय का गुस्सा, सुरेंद्र चौधरी का युवा लेखन ; रचना दृष्टि पर
एक बहस, विजय मोहन सिंह द्वारा
वक्तव्यों और वक्तव्यों की लड़ाई, केदारनाथ सिंह के
युवा लेखन : प्रतिपक्ष का साहित्य, जगदीश चतुर्वेदी
द्वारा युवा पीढ़ी : प्रतिबद्धता पर पुनर्विचार,पूरनचन्द्र जोशी का भारतीय युवजन : सामाजिक विश्लेषण आदि
चिंतकों द्वारा कुल 60 पृष्ठों में इस
बहस को प्रस्तुत किया गया है। ऐसे कई मुद्दों को समय-समय पर इस पत्रिका में बहस
रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है।
नामवर सिंह के संपादन में ‘आलोचना’ पत्रिका का स्वरूप तो बदला ही साथ ही हिंदी
आलोचना में भी व्यापक परिवर्तन दिखाई दिए। 1936 के पश्चात् प्रगतिशीलता और विचारधारा के सवाल ने, हिंदी साहित्य पर इस कदर प्रभाव छोड़ा की बाद
का संपूर्ण साहित्य और उस पर केंद्रित आलोचना, किसी न किसी विचारधारा की इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती है।
प्रगतिवाद के बाद प्रयोगवाद, नई कविता,
नई कहानी,अकहानी, सहज कहानी,
सहज कविता,अकविता, सक्रिय कहानी,
समानांतर कहानी आदि कई रूप में इसके विस्तार को
देखा जा सकता है ।इस विस्तार में एक तरफ साहित्य का रूप बदला तो दूसरी तरफ चीजों
को समझना लगभग कठिन सा हो गया। नामवर सिंह अपने प्रयासों से नई समीक्षा, हिंदी में नई समीक्षा, संरचनावादी समीक्षा,भाषा और शैली पर समीक्षाओं को प्रस्तुत कर एक प्रकार से इस गतिरोध को तोड़ने
का काम किए। हिंदी साहित्य में कविता की नवीनता तथा अन्य विदेशी रचनाओं के अनुदित
रूप तथा उनके वैचारिक पक्षों को भी समय-समय आलोचना में प्रस्तुत होते रहे हैं। वे ‘कविता की दूसरी परंपरा’ नामक संपादकीय में लिखते हैं-“ हिंदी में इन कविताओं का प्रवेश निश्चय ही देर से हुआ।
लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद। यह देर भी अकारण नहीं है ।हिंदी में जैसी ‘सुरुचि-संपन्न’ कविता का वर्चस्व था उसकी चकाचौंध में इस ग्रामीण कविता का
अदृश्य रहना आश्चर्य की बात नहीं। यदि नागार्जुन-त्रिलोचन की कविता अपना तेज प्रकट
न करती तो शायद अब भी हिंदी के लिए वह संस्कृत कविता अपरिचित ही रहती। और आज भी
यदि कमलेश दत्त त्रिपाठी और राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे प्रबुद्ध पंडितों ने इस दिशा
में पहल की तो उसका एक कारण यह भी है कि ये रंग कर्म से जुड़े हैं और भरतमुनि के
नाट्यशास्त्र के आधार पर विशेष रूप से रूप लोकधर्मी नाट्य परंपरा को पुनर्जीवित
करने का साहसिक प्रयास कर रहे हैं।”3
अपने संपादकीय लेखों के माध्यम से नामवर सिंह हिंदी साहित्य में लोक की रचनाओं
तथा विश्व साहित्य की रचनाओं से हिंदी के पाठकों का परिचय कराने के उद्देश्य को
लेकर आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। जनवरी-मार्च, वर्ष-1987 अंक में ‘लोरका’ की आठ कविताओं को अनुदित रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण स्वरूप देखे
तो-
तो छज्जा खुला छोड़ देना।
बच्चा नारंगी खा रहा है
(छज्जे से मैं उसे देखता हूं )
किसानहंसिये से बाली काट रहा है
(छज्जे से मैं उसे सुन रहा हूं )
अगर मैं मरुँ
तो छज्जा खुला छोड़ देना।4 अनुवाद- विष्णु खरे
इस तरह की कई कविताओं को जो विभिन्न
देश दुनिया की हैं, जिसमें लोक के
जनजीवन की महक समाई हुई है, ऐसी रचनाओं को
नामवर सिंह द्वारा समय-समय पर ‘आलोचना’ पत्रिका में जगह दिया गया है। इस दौर के हिंदी
साहित्य में केदारनाथ सिंह, धूमिल, रघुवीर सहाय जैसे रचनाकारों की रचनाओं को भी
आलोचना में बराबर देखा जा सकता है। नामवर सिंह अपने संपूर्ण प्रयासों में हिंदी
साहित्य के रचना-विधान तथा आलोचना के परिप्रेक्ष्य को समृद्ध करने के उद्देश्य को
लेकर आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। इस दौर में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। नामवर सिंह का
वैचारिक विवादों से नाता छठे दशक तक अपने चरम पर था। विचारधारा को लेकर उत्पन्न इस
मतभेद में मार्क्सवाद, प्रगतिशील तथा
जनवादी तीन खेमें बने थे। इसमें नामवर सिंह का मतभेदजनवादी खेमें से रहा। जिसमें
धर्मवीर भारती तथा अज्ञेय मुख्य भूमिका में थे। इलाहाबाद में ‘परिमल’ नामक संस्था का गठन भी इसी अंतर्विरोध की परिणति थी। नामवर सिंह द्वारा आलोचना
पत्रिका के संपादक का दायित्व संभालने के बाद भी इस परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में
अपने आलोचकों से रूबरू होते रहे। आशीष त्रिपाठी लिखते हैं-“ उन्होंने 1967 में ‘आलोचना’ के संपादक के रूप में इस बहसों में हिस्सेदारी
की। इस दौर में ‘आलोचना’ में प्रकाशित उनके अधिकांश निबंध और संपादकीय
इस नई बहसों की पृष्ठभूमि में लिखे गए हैं ।”5
नामवर सिंह के ऐसे कई गतिरोध से एक
गतिरोध भाषा के सवाल पर भी रहा है। हिंदी के विभिन्न आलोचकों द्वारा जहां हिंदी के
नाम पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी को ही अधिक महत्व दिया गया ।वहीं नामवर सिंह इस मांग को
बेबुनियाद ठहराते हैं। भाषा और साहित्य संबंधी उनकी मान्यताओं में हिंदी से उर्दू
कभी अलग नहीं रही है। इस प्रकार नामवर सिंह के योगदान को एक आलोचक के रूप में तथा
एक कुशल संपादक के रूप में देख सकते हैं। जिनके प्रयासों से हिंदी साहित्य और
आलोचना को नयी पहचान मिल सकी है।
सन्दर्भ
ग्रन्थ
1. आलोचना (त्रैमासिक), संपादक : शिवदान सिंह चौहान, अंक-एक वर्ष (1951) पृष्ठ
संख्या-5(संपादकीय से)
2. आलोचना (त्रैमासिक), संपादक : नामवर सिंह , अंक-68, वर्ष (1968) पृष्ठ संख्या-1
3. आलोचना (त्रैमासिक), संपादक : नामवर सिंह , अंक-83, वर्ष (1987) पृष्ठ संख्या-34
4. आलोचना (त्रैमासिक )संपादक : नामवर सिंह, अंक 80, वर्ष (1987) पृष्ठ संख्या-6
5. आलोचना और विचारधारा : नामवर सिंह, संपादक, आशीष त्रिपाठी, पहला
संस्करण- 2012, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 13
इमरान
अंसारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, मानविकी
संकाय,हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद,सम्पर्क 9573757203
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