'टॉयलेट: एक
प्रेमकथा' का साहित्यिक स्वरूप और
वर्तमान समाज
गूगल से साभार |
भारतीय सिनेमा आरंभ से ही एक सीमा तक
भारतीय समाज का आईना रहा है जो समय-समय पर समाज में होने वाली गतिविधियों को
रेखांकित करता है| सिनेमा अपने
प्रस्तुतीकरण तंत्र के माध्यम सेसमाज में घटित होनी वाले क्रियाकलापों को बड़ी ही
सहजता से समाज के समक्ष प्रस्तुत करता रहा है| फिल्म की पटकथा, शैली, वैज्ञानिक शोध, जन संप्रेषणीयता, संवाद लेखन, प्रतीकात्मकता
बड़े ही सहजता से दर्शकों के ऊपर छाप छोड़ जाती है जो समाज के लिए एक प्रतिबिंब बन
जाती है|ऐसी ही एक फिल्म जो हाल
ही में भारतीय सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है, जिसका नाम है “टॉयलेट : एक प्रेमकथा”।
हममें से कइयों के लिए घर में टॉयलेट होना भले कोई बड़ी बात न लगती हो,
लेकिन यह एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि आज भी
हमारे देश की एक बड़ी आबादी खुले में शौच की आदी है। यकीन मानिए वे ऐसा करके खुश
नहीं हैं।संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दुनिया भर की कुल आबादी का छठा हिस्सा,
मतलब लगभग एक अरब लोग खुले में शौच करते हैं,
जिनमें से करीब 82.5 करोड़ लोग सिर्फ 10 देशों में रहते हैं। इनमें से पहला स्थान पर है भारत, यहाँ 59.7 करोड़ लोग शौचालय
का इस्तेमाल नहीं करतें जो देश की कुल आबादी का लगभग 47 प्रतिशत है।आंकड़ों के अनुसार भारतीय गांवों में ऐसे घरों
की संख्या करीब 11 करोड़ 50 लाख हैं, जहाँ शौचालय नहीं हैं| इन घरों में शौचालय की सुविधा देने की ख़र्च अनुमानतः 22 खरब से 26 खरब रुपए हैं|प्रश्न यह उठता है कि क्या टॉयलेट की आवश्यकता सिर्फ महिलाओं को ही है?
और वह भी बहू-बेटियों को? क्या बड़ी उम्र की महिलाओं को टॉयलेट की जरूरत
नहीं है, क्योंकि वे बाहर खेतों की
ओर बिना शर्म और संकोच के जा सकती हैं?
गाँवों की स्वच्छता और शौचालय की जरूरतमात्र आर्थिक मसला नहीं है बल्कि
सांस्कृतिक और समाजशास्त्रीय मसला भी है। यह वर्ग भेद, उम्र भेद और लिंग भेद का मामला भी है। पुरूष के खुलेपन और
औरतों के ढँकेपन की संस्कृति भी इससे जुड़ी है। कहीं अधिक खुला और निडर होना
वर्चस्व का प्रतीक तो नहीं? तो इस वर्चस्व की
परम्परा को चुनौती दिए बिना, शौचालयों के भरपूर उपयोग की परम्परा कायमनहीं की जा सकती
है।
सरकार इस समस्या से उबरने के लिए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चला रही है लेकिन एक सर्वे के अनुसार खुले में शौच जाना एक
तरह की मानसिकता दर्शाता है। इसके मुताबिक सार्वजनिक शौचालयोँ में नियमित रूप से
जानेवाले तकरीबन आधे लोगों और खुले में शौच जाने वाले इतने ही लोगों का कहना है कि
यह सुविधाजनक उपाय है। ऐसे में स्वच्छ भारत के लिए सोच में बदलाव की जरुरत है।
निर्देशक ने इस फिल्म के जरिए समाज को एक आईना दिखाने की कोशिश की है। फिल्म
के जरिए हमें दिखाया गया है कि कैसे हमारे अंधविश्वासी ग्रामीणों ने, आलसी प्रशासन और भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर हमारे
भारत को गंदगी का सबसे बड़ा तालाब बना रखा है। खेतों और खुले में जाकर शौच करने की
हमारी पुरानी आदत पर व्यंग्य करते हुए यह फिल्म बड़े ही मजेदार ढंग से फिल्माई गई
है।
इस फिल्म का सारांश ‘स्वच्छ भारत
अभियान’ के तहत लोगों में
स्वच्छता के प्रति-जागरूक करने तथा देश को
खुले में शौच से मुक्ति का संकल्प दिखाया गया है।
इस फिल्म का दूसरा पक्ष समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच को सामने रखती
है, जो स्वच्छता को लेकर अपनी
मानसिकता बदलने में अपनी मान्यताओं की तौहीन समझता है। ग्रामीण क्षेत्रों की
महिलाओं में वर्ग चेतना जागृत करने की पटकथा पर आधारित इस फिल्म के नायक और नायिका
अपने संवाद के जरिये समाज पर एक गहरी छाप छोड़ते हैं। भविष्य की समस्याओं से
अनभिज्ञ नायिका जब विवाह कर अपने ससुराल जाती है तो पहली रात की सुबह ही उसके जीवन
में समाज से लड़ने की जिद उसके जेहन में बैठने लगती है| वहाँ लोग दैनिक नित्य-क्रिया के निस्तारण के लिए घर में
शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित हैं| यह नई जगह नायिका को इस आश्चर्यजनक समस्या से रूबरू कराती है तो उसके जीवन का
मकसद उस समस्या के निदान के उपाय पर केन्द्रित हो जाता है| ससुराल आने पर नायिका को पता चलता है कि यहाँ तो टॉयलेट
नहीं है और सुबह उठकर महिलाओं के साथ समूह में जाकर ‘लोटा-पार्टी’ करनी है| खुले में शौच
करने में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को होती है| लेकिन उन्हें इस समस्या का एहसास न होना कार्ल मार्क्स के
अनुसार महिलाओं का “स्वतः में वर्गकी
स्थिति को परिभाषित करता है। सूर्योदय होने के पूर्व उन्हें गाँव से बाहर जाना
होता है| दिन में जरूरत हो तो पेट
पकड़कर बैठे रहो। मनचलों की छेड़खानी अलग से सहो| ऐसी स्थिति में नायिका, नायक को साफ़-साफ़ मना कर देती है कि उसने बचपन से आजतक हमेशा
घर में बने शौचालय का ही इस्तेमाल किया है, इसलिए वो खुले में नहीं जायेगी।
नायक के पिता एक ब्राह्मण हैं, जो परम्पराओं के
खिलाफ जिस आंगन में तुलसी की पूजा होती है, वहां शौचालय बन ही नहीं सकता की जिद पर अड़ जाते हैं। पंचायत
भी शौचालय बनने के खिलाफ़ हो जाती है। पंचायत में उपस्थित ग्रामीण महिलाएं भी ‘लोटा पार्टी’ से अपनी सहमति जताती हैं। नायक और नायिका को इस निर्णय से
बहुत कष्ट होता है लेकिन नायक अपनी पत्नी को घर लाने की जिद और अपनी इच्छा को
साकार रूप देने के लिए जी तोड़ प्रयास करता है| उधर नायिका अपनी शर्तों पर अडिग है कि ‘शौचालय नहीं तो शादी नहीं’ और न्यायालय में अपने पति से तालाक की अर्जी दे
देती है। यह मुद्दा मीडिया के माध्यम से बड़ी तेजी से फैलता है और सरकार के पूर्व
प्रयासों को विफल करने वाली सारी घटनाओं को उजागर करता है| इस फिल्म के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया गया है
कि सरकार के किसी भी योजना की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि इस योजना को
कितनी जनसहभागिता मिलती है। सामुदायिक भागीदारी से योजनाओं को सफल बनाने के साथ ही
समाज से भ्रष्टाचार जैसी कुरीतिओं को दूर करने में भी मदद मिलती है| सामूहिक चेतना के निर्माण की दिशा में प्रयासरत
नायिका का अपने पति से तलाक लेने का कदम उस पुरुष प्रधान समाज को एक सकारात्मक
सन्देश देने का कार्य करता है जो विगत दिनों के अख़बारों की सुर्ख़ियों से समय-समय
पर अवगत होते रहें हैं।
ख़बरों के मुताबिक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहने वाले सरफराज और शबा की
कहानी फिल्म ‘टॉयलेट : एक
प्रेम कथा’ की कहानी की तरह ही है|
सरफाराज की शादी 21 जनवरी 2018 को शबा के साथ
हुई| हालांकि इनकी शादी की बात
एक साल पहले शुरू हुई थी, लेकिन सरफराज के
घर में टॉयलेट नहीं होने के कारण बिलासपुर में रहने वाली शबा ने शादी से इनकार कर
दिया था और तब जाकर सरफराज ने घर में टॉयलेट बनवाया।
ऐसी ही एक घटना मध्य-प्रदेश के हरदा
शहर की है, जहाँ की रहने वाली अंजुम
शादी के बाद जब अपने ससुराल पहुंची तो वहां शौचालय ना होने की शिकायत अपने ससुराल
वालों से की, जिसके बाद अंजुम
को एडजेस्ट करने की बात कह कर मामला टालने की कोशिश की गई| लेकिन अंजुम के शौचालय की मांग पर अड़े रहने के कारण विवाद
इतना बढ़ गया कि मामला थाने तक पहुंच गया| दरअसल, 17 सदस्यों के सयुंक्त
परिवार में बहू अंजुम को पहले ही दिन से शौचालय की परेशानी से गुजरना पड़ा| परिवार बड़ा होने और एक ही शौचालय होने के कारण
बहू और अन्य सदस्यों में शौचालय का विवाद बढ़ता गया| अंजुम ने ससुरालवालों से अपने लिए अलग शौचालय की मांग की,
जिससे घर में विवाद बढ़ गया और बात-बात पर घर
में झगड़ा होने लगा| परेशान अंजुम ने
हरदा थाने में शिकायत कर अपने पति और ससुरालवालों पर मारपीट कामामला दर्ज कराया|
मामला एक परिवार का होने की वजह से पुलिस ने
बारीकी से जांच की, जिसमें विवाद का
कारण बहू द्वारा शौचालय निर्माण की मांग करना निकला| पुलिस ने दोनों पक्षों को बैठाकर मामले का हल निकाला,
अंततः अंजुम के सास-ससुर एक नए शौचालय के
निर्माण के लिए राजी हुए, जिसमें पुलिस भी
आर्थिक मदद देने को तैयार हुई।
इनकी कहानी जानने के बाद दिल्ली से आई
स्वच्छता सर्वेक्षण की टीम ने मोबाइल देकर इस दंपत्ति को सम्मानित किया है। दिल्ली
की सर्वेक्षण टीम के सामने दोनों ने बीते 31 जनवरी को टॉयलेट के भीतर एक-दूसरे को वरमाला भी पहनाया।
इसी प्रकार की अन्य ख़बरों में प्रियंका भारतीय जिसने अपने पति का घर इसी कारण छोड़ा
था, भी इस फ़िल्म की कहानी की
प्रेरणा है। उसके बाद उत्तर-प्रदेश की पारो देवी, बिहार की सुनीता, मध्यप्रदेश की अनीता जैसे कई उदाहरण भी सामने आये, जिन्होंने ससुराल में खुले में शौच जाने से साफ़ इनकार कर
दिया। जिस समाज में सामाजिक कुरीतियों और व्याप्त बुराइयों के खिलाफ बोलने में
झिझक होती है उस समाज में एक महिला का अपने ससुराल में टॉयलेट न होने के खिलाफ
आवाज उठाना क्रांति का ही द्योतक है।
नायिका का पारिवारिक जीवन भी इस दौरान संकट की घड़ी से गुजरता है। परिवार बचाने
कीना जिम्मेदारी निभाते हुए नायक-नायिका एक दूसरे के सहयोग से इस मुसीबत का सामना
करने की जहमत उठाते हैं|नायिका का पति
महिलाओं की समस्या को समझता है| अपनी पत्नी को
मनाने के लिए तमाम असफल जुगाड़ करता है और अपने पिता सहित गाँव वालों से लड़ता है।
उधर नायिका अपने लोटा-समूह की महिलाओं को उनकी समस्याओं से अवगत कराती है, जिससे
आये दिन उनको दो-चार होना पड़ता है।उनके अन्दर एक सामूहिक चेतना का निर्माण
करती है, अब ये महिलाएं ‘स्वतः में वर्ग’ से ‘स्वतः के लिए
वर्ग’ में परिवर्तित करती
है। फलस्वरूप गाँव की सारी महिलाएंसामूहिक
रूप से अपने घरों में टॉयलेट न होने के कारण अपने पतियों से तलाक लेने के लिए
न्यायालय में अर्जी देती हैं| न्यायालय में
सुनवाई होती है जिसमें न्यायालय उस गाँव में टॉयलेट के लिए निर्माण कार्य शुरू
करने का आदेश जारी करता है। फिल्म अपने उद्देश्य में सफल होती हुई स्वच्छता के लिए
सफल सन्देश देती हुई-सी प्रतीत होती है। यह फिल्म लोगों को जागरूक कर उन्हें खुले
में शौच से मुक्त कराने का देश के अभियान को और प्रबल बनाती है।
यह फ़िल्म निश्चित तौर पर वर्तमान
सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के समर्थन में एक ईमानदार प्रयास है। आज भी भारत के
कई हिस्सों में महिलाओं को मुंह अंधेरे खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। इसके कई
तर्क दिए जाते हैं। मगरमहिलाओं की अस्मिता, साफ़-सफाई, बीमारियों आदि के
मुख्य कारण भी खुले में शौच को ही माना गया है। शायद इसी कारण वर्तमान की केंद्र
सरकार स्वच्छता और शौचालय के निर्माण पर इतना जोर देर ही है|स्वच्छ भारत अभियान या स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत 2 अक्टूबर 2014 को भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने
की थी| महात्मा गाँधी का ‘क्लीन इंडिया’ का सपना स्वच्छ भारत अभियान एक राष्ट्रीय स्तर का अभियान है
जिसका उद्देश्य गली-गली में साफ़ सफाई को बढ़ावा देना तथा सार्वजानिक शौचालयों का
निर्माण कर खुले में शौच को बंद करना है।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना
चुका विश्व शौचालय दिवस अब संपूर्ण विश्व में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। यह
हमारी सभ्यता के लिए आवश्यक स्वच्छ शौचालय के महत्व पर बल देता है। यह समारोह
स्वच्छ भारत के निर्माण की ओर एक कदम है, जो महात्मा गाँधी भी चाहते थे। महात्मा गाँधी ने कहा था- ‘मैं स्वच्छ भारत की कामना पहले करता हूँ और
स्वतन्त्र भारत की बाद में।’सुलभ-स्वच्छता-आंदोलन
के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने सिंगापुर में संपन्न वर्ल्ड टॉयलेट सम्मिट में
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी के जन्म-दिन अर्थात् 19 नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस के रूप में मनाने
का सुझाव दिया, जिसे सर्वसम्मति
से स्वीकार किया गया। यह सुलभ इंटरनेशनल के सार्थक प्रयासों का ही परिणाम है कि आज स्वच्छता के विषय
को सामाजिक जीवन के एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में पहचान मिली है एवं अपेक्षित
विषय के रूप में इसकी आवश्यकता और महत्ता पर विचार किया जाता है।
स्वच्छ भारत से अभिप्राय सिर्फ स्वच्छ
शौचालय अथवा स्वच्छ पर्यावरण ही नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक क्रांति भी शामिल है, जिससे लोगों के विचार और व्यवहार में परिवर्तन आए, ताकि लोग आपस में प्रेमपूर्वक रहते हुए अपने
आस-पास के क्षेत्रों और राष्ट्र को साफ-सुथरा रख सकें। इस देश के लोगों के व्यवहार
में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाने और राष्ट्र की स्वच्छता-नीति में सुधार लागू करने के
लिए प्रयास होने चाहिए। मनुष्य के जीवन जीने को सम्मान के साथ जीने के लिए घरों
में टॉयलेट का होना अनिवार्य होना चाहिए| इस सम्मान के लिए समाज के सभी वर्ग के लोगों में चेतना जागृत करने की आवश्यकता
है| यह समस्या केवल भारत में
ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी देखी जा सकती है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया
जा सकता है कि लोगों में जागरूकता लाने के लिए ही वैश्विक स्तर पर विश्व शौचालय
दिवस का आयोजन किया जाता है।
‘विश्व-शौचालय-दिवस’ का आयोजन तभी
सार्थक होगा, जब स्वच्छता को
एक सामाजिक विषय बनाने के लिए सुलभ के आह्वान को समाजशास्त्र के अंतर्गत लाया जाए।
स्वच्छता को व्यक्ति, समाज और पर्यावरण
के स्तर पर अपनाकर नए दर्शन की घोषणा की जाए और फिर सबके घर में कम-से-कम एक
शौचालय का निर्माण किया जाए। तभी जाकर अस्वच्छता, मैला ढोने की प्रथा तथा बीमारी-रहित मानव-समाज का निर्माण
होगा। अस्पृश्यता की समस्या दूर होगी| मानव और मानव के मध्य घृणा-मुक्त मानव-समाज का सृजन होगा।डॉ रूपचन्द्र
शास्त्री ‘मयंक’ की कविता के तर्ज पर मैं अपनी बात को इन शब्दों
में रख सकती हूँ...
जिंदगी सवाँर लो।
आदतेंसुधार लो।।
उदित लोकतन्त्र है
स्वच्छता ही मूल-मन्त्र है
स्वच्छता में जीत है
ज़िन्दगी में गीत है|
गन्दगी में हार है
वक्त की पुकार है||
स्वच्छता को आधार दो|
आदतें सुधार लो।।
हम देखते हैं कि जिस प्रकार साहित्य और समाज को अलग नहीं किया जा सकता ठीक उसी
प्रकार सिनेमा औरसाहित्यको भी।साहित्य सिनेमा को गति देता है तथा सिनेमा समाज को
गतिशीलता प्रदान करता है। विभिन्न साहित्यिक कृतियां इसके गवाह हैं, जो सिनेमा को उसके गंतव्य तक पहुँचाती हैं।
कहानी से लेकर उपन्यास तक की विभिन्न कृतियों पर फिल्म धारावाहिक आदि बने है,
जैसे-मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’,रेणुजी की कहानी ‘तीसरी कसम’ की शानदार
प्रस्तुति जिसके बोल ‘सजन रे झूठ मत
बोलो खुदा के पास जाना है’ आज भी सबकी जुबां
पर है। उसी तरह राजेंद्र यादव का उपन्यास ‘साराआकाश’ पर बनी फिल्म
समूचे मध्यम वर्गीय जीवन के यथार्थ को दर्शाता है| प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’की धारावाहिक रूप में प्रस्तुति भी हुई है|भारतीय सिनेमा निश्चय ही समाज में व्याप्त
सामयिक मुद्दों को लोगों के सामने रखता है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ है, जो प्रचार-प्रसार
के माध्यम से स्वच्छता के संदेश को लोगों तक पहुँचाने में सकारात्मक भूमिका का
निर्वाह कर रहा है। फिल्म अपने किरदार के माध्यम से यह सिद्ध करने में सफल हुई है
कि स्वच्छता सिर्फ एक अभियान ही नहीं, बल्कि मनुष्य का गुण एवं व्यवहार भी है।
डॉ. संगीता मौर्य
सहायक प्रोफेसर (हिंदी),राजकीय
स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, गाजीपुर
सम्पर्क sangitam84@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
सिर्फ सुनना जो सब को अच्छा लगता है,
जवाब देंहटाएंपर कुछ करने की ठान लो l
गंदगी एक बीमारी है,
यह अच्छे से जान लो l
बदल लो अपने आप को,
सब बदला नजर आएगा l
कम होंगी सबकी मुश्किल,
जिंदगी संवर जाएगा l
स्वस्थ रखो खुद को,
निरंतर तुम योग करो l
शौच प्राकृतिक जरूरत है,
शौचालय का उपयोग करो l
यह जरूरत नहीं एक दिन की,
ये रोज की जरूरत है l
चमन यह फिर से मुस्कुराएगा,
बस बदले हुए सोच की जरूरत है l
हर एक सामाजिक प्राणी को जोड़कर बढ़ो,
पुराने रीति-रिवाजों को छोड़कर बढ़ो l
गर लाना है एक नया सवेरा स्वच्छ भारत का,
तो मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर बढ़ो l
यह चार लाइने डॉक्टर संगीता मौर्या को हमारी तरफ से समर्पित हैl
आप को सलाम है आपकी सोच को सलाम है,
सुधार के हर एक लहजे वाली आपकी खोज को सलाम हैl आप आशा की किरण लेकर चलिए,
उस किरण से दीपक हम जलाएंगे l
अगर जरूरत पड़ी कुछ अनजाने साथो की,
तो साथ हम निभाएंगे l
गर कामयाब हुए आप अपनी इस सोच में,
तो खुशी से आप झूमिएगा दूर से हम मुस्कुराएंगे l
सिर्फ सुनना जो सब को अच्छा लगता है,
जवाब देंहटाएंपर कुछ करने की ठान लो l
गंदगी एक बीमारी है,
यह अच्छे से जान लो l
बदल लो अपने आप को,
सब बदला नजर आएगा l
कम होंगी सबकी मुश्किल,
जिंदगी संवर जाएगा l
स्वस्थ रखो खुद को,
निरंतर तुम योग करो l
शौच प्राकृतिक जरूरत है,
शौचालय का उपयोग करो l
यह जरूरत नहीं एक दिन की,
ये रोज की जरूरत है l
चमन यह फिर से मुस्कुराएगा,
बस बदले हुए सोच की जरूरत है l
हर एक सामाजिक प्राणी को जोड़कर बढ़ो,
पुराने रीति-रिवाजों को छोड़कर बढ़ो l
गर लाना है एक नया सवेरा स्वच्छ भारत का,
तो मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर बढ़ो l
यह चार लाइने डॉक्टर संगीता मौर्या को हमारी तरफ से समर्पित हैl
आप को सलाम है आपकी सोच को सलाम है,
सुधार के हर एक लहजे वाली आपकी खोज को सलाम हैl आप आशा की किरण लेकर चलिए,
उस किरण से दीपक हम जलाएंगे l
अगर जरूरत पड़ी कुछ अनजाने साथो की,
तो साथ हम निभाएंगे l
गर कामयाब हुए आप अपनी इस सोच में,
तो खुशी से आप झूमिएगा दूर से हम मुस्कुराएंगे l
Veer maurya
अच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंधन्यवाद!!
जवाब देंहटाएंपर यह लाइने जिनके सपोर्ट में लिखी गई है उन्होंने तो अभी तक कोई जवाब नहीं दिया l
Veer maurya
अच्छी कहानी अच्छा लेख लोगों को इस फिल्म से सीख लेते हुए देश को स्वच्छता की ओर ले जाना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंfind out more articles and entertainment news -
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