सार्वजनिक पुस्तकालय
इस बात
से इनकार करना मुश्किल है, आज पढ़े-लिखे लोगों के लिए
भी गम्भीर ज्ञानान्वेषण के बजाय पैसा और प्रतिष्ठा अर्जित करना ही जीवन का परम
लक्ष्य होता जा रहा है और इसीलिए किसी विषय के गहन अध्ययन में उनकी रुचि पहले की
अपेक्षा कम होती जा रही है। पर बौद्धिक रूप से जागरूक हर व्यक्ति की इच्छा किसी न
किसी चीज़ के बारे में तो विस्तार से जानने की होती ही है अतः यदि सार्वजनिक
पुस्तकालयों में अधिक लोगों को अपनी पसंद की पाठ्य-सामग्री उपलब्ध हो तो निश्चय
रूप से इनके सदस्यों की संख्या में वृद्धि होगी।
पुस्तकें व्यक्ति को उसकी पसंद की सामग्री उपलब्ध करवाने व उसकी
रुचियों को नई दिशा देने के साथ-साथ उसे आनंदित करने तथा उसे मानसिक रूप से स्वस्थ
व संतुलित रखने में भी सहायक होती हैं ; इसीलिए जनजीवन में किसी
सार्वजनिक पुस्तकालय का महत्व किसी सार्वजनिक उद्यान या किसी खेल के मैदान से कम
नहीं होता। यदि हम साक्षर लोगों की ज्ञानवृद्धि के लिए उनमें पढ़ने-लिखने का शौक
पैदा करना चाहते हैं तो सार्वजनिक पुस्तकालयों की ओर ध्यान देना हमारे लिए ज़रूरी
होगा। पुस्तकालयों का महत्व अब इस दृष्टि से भी बढ़ गया है कि अच्छी पुस्तकों की
निरंतर बढ़ती जाती कीमतों के कारण आम आदमी का उन्हें खरीद कर पढ़ पाना पहले जितना
आसान नहीं रह गया है।
यदि हम चाहते हैं कि सार्वजनिक पुस्तकालयों का उपयोग करने वाले
नागरिकों की संख्या में वृद्धि हो तो यह ज़रूरी है कि उनमें आकर्षक व लोगों के दिल
लुभाने वाली पुस्तकें हर समय बड़ी संख्या में उपलब्ध रहें। सार्वजनिक पुस्तकालय की
तुलना हम किसी ऐसे चश्मे से कर सकते हैं जहां लोग अपने ज्ञान की प्यास बुझाने आते
हैं और इसीलिए यह निहायत ज़रूरी है कि वहां पहुंचने पर वे ज्ञान की यह प्यास बुझाने
के लिए स्वच्छ व स्वस्थ्यकर ज्ञानजल हर समय पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध पाएं। किसी
पुस्तकालय में जाकर हर व्यक्ति को संतुष्ट व प्रसन्न अनुभव करना चाहिए। ऐसा न होने
पर पुस्तकालय किसी व्यक्ति के लिए बहुत लम्बे समय तक आकर्षण का केन्द्र नहीं बना
रह सकता।
भौतिक रूप से भी किसी
पुस्तकालय का वातावरण पढ़ने के लिए पूरी तरह अनुकूल रहना चाहिए। किसी पुस्तकालय या
वाचनालय में प्रवेश करते ही व्यक्ति का मन चुप होकर बैठने और कुछ पढ़ने-जानने के
लिए उत्सुक हो जाना चाहिए। यदि पुस्तकालय का वातावरण किसी व्यक्ति को वहां कुछ और
करने के लिए प्रेरित करता है तो उस वातावरण को पाठक और पुस्तकालय के लिए अनुकूल
वातावरण नहीं कहा जा सकता। यदि किसी पुस्तकालय में धीमी आवाज़ में भी कोई गपशप चलती
रहे, या वहां कोई रोमांस चल रहा
हो या वहां यदि चाय भी पी जा रही हो तो इसे मैं पुस्तकालय धर्म के मुताबिक अनैतिक
आचरण कह कर उसकी निन्दा करूंगा। पुस्तकालय के वातावरण में केवल बौद्धिक ऊर्जा का
तीव्र प्रवाह अनुभव किया जाना चाहिए, फिर चाहे वह ऊर्जा दीवार पर
पोस्टर लगा कर उत्पन्न की जाए या पुस्तकालय प्रांगण में कोई अन्य बौद्धिक गतिविधि
आयोजित करके। पुस्तकों व पुस्तकालयों को लोगों की ज्ञान-क्षुधा-पूर्ति के लिए उसी
तरह आकर्षित करने में समर्थ होना चाहिए जिस तरह आजकल बच्चों या युवाओं को उनकी
सामान्य क्षुधापूर्ति के लिए चाकलेट या आइसक्रीम - बार आकर्षित करते हैं ।
पुस्तकालयों का एक प्रमुख
कर्तव्य लोगों की संवेदना का परिष्कार भी है। नियमित रूप से पुस्तकालय जाने वाले
में धीरे-धीरे उन चीज़ों की समझ विकसित होनी चाहिए जिन्हें हम मानव मस्तिष्क की
उच्चतर बौद्धिक व कलात्मक उपलब्धियां कह सकते हैं। जिन चीज़ों की प्रशंसा अपरिष्कृत
रुचियों वाले लोग नहीं कर सकते उनकी प्रशंसा करने और उनका आनंद लेने में समर्थ कम से कम पुस्तक-प्रेमियों को तो होना ही चाहिए। आज के निरंतर
विकसित होते यांत्रिक साधनों - यथा सीडी प्लेयर, एल सी डी स्क्रीन आदि - के
उपयोग करके सार्वजनिक पुस्तकालय समकालीन काव्य, संगीत, कला आदि के उत्कृष्ट नमूनों से भी वहां आने वालों को परिचित करवा
सकते हैं और इस तरह विभिन्न विधाओं में उनकी रुचियों के परिष्कार में सक्रिय
भूमिका अदा कर सकते हैं।
किसी सार्वजनिक पुस्तकालय
के प्रभावी और जनोपयोगी होने के लिए यह आवश्यक है कि उसका पुस्तकालयाध्यक्ष स्वयं
कोई ज़बरदस्त पुस्तक-प्रेमी हो। जो लोग लाइब्रेरियन की नौकरी महज नौकरी और तनख्वाह
के लिए करते हैं वे वस्तुतः पाठकों और पुस्तकालयों को बहुत ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाने
की स्थिति में नहीं होते। वही पुस्तकालयाध्यक्ष एक अच्छा पुस्तकालयाध्यक्ष हो सकते
हैं जो अपने पुस्तकालय में संग्रहित किसी एक महत्वपूर्ण पुस्तक की क्षति को या
उसके खो जाने को दिल से महसूस करें। किसी पुस्तकालय के मूल उद्देश्यों की पूर्ति
के लिए अप्रतिबद्ध पुस्तकालयाध्यक्ष को किसी पुस्तकालयाध्यक्ष की आवश्यक अर्हता से
विहीन माना जाना चाहिए क्योंकि केवल इन उद्देश्यों के लिए प्रतिबद्ध
पुस्तकालयाध्यक्ष से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह पुस्तकालय से संबंधित अन्य
गतिविधियों (जैसे वार्ता, गोष्ठी, सेमिनार, पुस्तक-प्रदर्शनी आदि) में
रुचि लेकर उनके संचालन में अपने सहयोग देंगे। केवल तनख्वाह उठाने के इच्छुक
लाइब्रेरियन को ये तमाम चीज़ें निश्चय रूप से झंझट
लगेंगी।
केवल वही व्यक्ति एक सफल और उपयोगी पुस्तकालयाध्यक्ष हो सकते हैं जो किसी कठोर
द्वारपाल, फ़िक्रमंद गृहस्वामी और
पुस्तक की रक्षार्थ मर मिटने को उद्यत सैनिक की भूमिकाओं का निर्वाह एक साथ करने
में सक्षम हो।
हमें इस कड़वी सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि आज पुस्तकालयों को सबसे
ज़्यादा ख़तरा बहुत से उन लेखकों और प्रकाशकों की ओर से पैदा हो गया है जिनका उद्देश्य श्रेष्ठ ज्ञान का संवर्द्धन व प्रसारण
न होकर महज उनकी लेखन-प्रकाशन संबंधी इच्छाओं की पूर्ति या पुस्तकों का व्यापार
है। इस प्रवृत्ति के चलते कम बिक्री वाली श्रेष्ठ किन्तु अलोकप्रिय पुस्तक उसी तरह
खदेड़ कर बाज़ार से बाहर कर दी जाती है जिस तरह कोई उत्कृष्ट फिल्म लोकप्रियता के
अभाव में बॉक्स ऑफिस से बाहर कर दी जाती है।
आज के बाज़ारवादी परिदृश्य
में सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए पुस्तकों की ख़रीद के
संबंध में जिस किस्म की अनैतिकताएं बरती जाती हैं उनसे हम सभी वाकिफ़ हैं। हमारे
पुस्तकालय आज इन्हीं व्यावसायिक अनैतिकताओं के चलते अपठनीय पुस्तकों से भरते जा
रहे हैं। यदि अधिकांश सार्वजनिक पुस्तकालयों का कोई ईमानदारी भरा सर्वेक्षण करवाया
जाए तो हम पाएंगे कि उनमें अच्छी पुस्तकें बहुत कम और कचरा पुस्तकें बहुत ज़्यादा
हैं। जब मुनाफ़ा ही हर व्यक्ति का लक्ष्य हो जाए तो यह स्वाभाविक है कि सार्वजनिक
पुस्तकालयों के माध्यम से भी अच्छी पुस्तकों का लोगों तक पहुंचना कम हो जायेगा; ख़राब पुस्तकों के मगरमच्छ उन्हें बीच रास्ते में ही लील जायेंगे।
पुस्तकालयों के आर्थिक साधन सीमित होने की दशा में यह ज़रूरी है कि किसी पुस्तक की
श्रेष्ठता व उपयोगिता ही उसके चयन का आधार बनी रहे।
किसी सार्वजनिक पुस्तकालय में श्रेष्ठ लेखकों की श्रेष्ठ पुस्तकें
अधिकाधिक संख्या में उपलब्ध रहें इसके लिए किसी केन्द्रीय स्तर पर निर्देश दिया
जाना भी संभव है। पर ये निर्देश तभी कारगर और उपयोगी हो सकते हैं जब वे निस्वार्थ
व ईमानदार बुद्धिजीवियों द्वारा दिये जाएं न कि किन्हीं स्वार्थी या किसी प्रकार
की राजनीति से प्रेरित लोगों द्वारा।
जिस तरह किसी विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए एक पाठ्यक्रम
तैयार किया जाता है उसी तरह किसी सार्वजनिक पुस्तकालय के लिए भी उसे उपलब्ध बजट के
मुताबिक आवश्यक पुस्तकों की एक सूची तैयार की जा सकती है। किसी केन्द्रीय स्तर पर
उस ज्ञान की कोई रूपरेखा भी तैयार की जा सकती है जिसे कोई सार्वजनिक पुस्तकालय
मोटे तौर पर अपने पाठकों तक संप्रेषित करने का इरादा करे। आवश्यकता इस बात की है
कि इस हेतु पुस्तकों की ख़रीद में राजनीतिक हस्तक्षेप न रहे। अच्छे संदर्भ-ग्रंथों
को, जिनकी उपादेयता लंबे समय तक
बनी रहती है, पुस्तकालय के लिए क्रय की
जाने वाली इन पुस्तकों का एक महत्वपूर्ण अंश होना चाहिए।
गांवों और छोटे कस्बों में
विद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों के बीच भी एक ख़ास तरह का संबंध स्थापित किया
जा सकता है जिसके द्वारा सार्वजनिक पुस्तकालय वह पूरक पाठ्य-सामग्री अपने पाठकों
को उपलब्ध करवाए जिसकी तलाश ज्ञानान्वेषी छात्रों व शिक्षकों को रहती है। दो
सार्वजनिक संस्थाओं के बीच इस प्रकार का सहयोग और समन्वय किसी स्थान के सांस्कृतिक
विकास में सार्थक भूमिका अदा कर सकता है।
अंत में जो एक महत्वपूर्ण
बात सार्वजनिक पुस्तकालयों के संबंध में मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि तथाकथित कम्प्यूटर- क्रान्ति के इस युग में यदि किसी पुस्तकालय का
पुस्तकालयाध्यक्ष 15 मिनट के भीतर- भीतर पुस्तकालय आने वाले को इस बात का उत्तर न
दे पाये कि कोई अमुक पुस्तक उस पुस्तकालय में है या नहीं, और यदि है तो इस समय वह कहां है ,तो ऐसे पुस्तकालयाध्यक्ष को
पुस्तकालयाध्यक्ष की आवश्यक अर्हता से शून्य माना जाना चाहिए।
(अनौपचारिका पत्रिका से साभार)
सदाशिव श्रोत्रिय
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हिरन
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
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