पर्वत, पर्यावरण और एस.आर. हरनोट
“जानि शुधू तुमि आछो ताई आमी आछी,
तुमि
प्राणमय ताई आमी बाँची,
जतो
पाई तोमाय आरो, ततो जाची
जतो जानि ततो जानि ने!” (रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
22 जनवरी, 1955 में शिमला में
जन्मे एस.आर.हरनोट गुज़री हुई सदी के अंतिम चरण की उस कथाकार पीढ़ी के नुमाइंदे हैं
जिन्होंने बिखरे हुए समय में कहानी की कश्ती को थामे रखा है। समझौते और बदलाव के
बीच एक संभ्रम। हरनोट ने अपनी ठेठ पर्वतान्चलिकता और स्थानीय होते हुए भी सार्वभौमिक
मानवीय तत्त्व से परिपूर्ण गल्प रचनाओं के कारण साहित्य में एक अलग जगह बनाई है।
(मुखपृष्ठ से)
पर्वतीय सौंदर्य के विपरीत जीवन के
खुरदरे यथार्थ को कलात्मकता में स्थापित करना एस.आर.हरनोट के कथा शिल्प की विशेषता
है। इस घातक सौन्दर्य के भीतर घुसकर यथार्थ को पकड़ लाने का साहस करते हैं हरनोट का
रचना संसार। यह एक ज़मीन से जुड़े हुए रचनाकार ही कर सकते हैं, जिन्होंने पर्वतीय अंचल में नज़र आनेवाली
खूबसूरती से परे उसके भीतर के दर्द की जटिलताओं, विवशताओं और अभावों को उजागर किया है। अब तक हमारे ज़हन में
जिन पर्वतीय अंचल का सौन्दर्य विराजमान था, उन सारे प्रतिमानों को एक-एक करके ध्वस्त करती हैं ये
कहानियाँ। ऐसी कहानियाँ जो पहाड़ों के सौन्दर्य को चीरते हुए उसके भीतर प्रवेश करके
वहां के दुर्गम एवं अभावग्रस्त जीवन-शैली को उकेरने का प्रयास करते हैं। इतना ही
नहीं हरनोट की प्रायः हर कहानी में पर्यावरण की चिंता दिखाई पड़ती है, जहाँ वे बताते हैं कि किस प्रकार यहाँ की
सीधी-सादी जीवन चर्या दिन-प्रतिदिन सत्ता, शासनतंत्र एवं विकास के नाम पर नेताओं की चालाकियों की भेंट चढ़ती जा रही है।
वैसे तो इनके प्रत्येक कहानी-संग्रह की अपनी एक अलग विशिष्टता है परन्तु यहाँ
विशेष बल कहानी संकलन ‘मिट्टी के लोग’
पर रहेगा जिसके अंतर्गत कई कहानियां शामिल हैं।
इन कहानियों में विषयों की विविधता मिलती है। शीर्षक के माध्यम से लेखक किस मिट्टी
से जुड़े हुए लोगों की बात करते हैं यह जानने की चेष्टा की जायेगी। इन कहानियों में
एक ऐसे समुदाय या वर्ग का चित्रण हैं जिन्हें उनकी जड़ों से बेदखल कर देने की साज़िश
निरंतर चली आ रही है। उनकी समस्याओं के प्रति रचनाकार की छटपटाहट, विवशता एवं चिंता को हम इन कहानियों में देख
सकते हैं – “गरीबी में आटा उस
समय गीला हो गया जब उस सड़क के काम पर भी कई किस्म की मशीनें पहुँच गईं। धीरे-धीरे
मजदूरों के लिए मशीने चुनौती बनकर खड़ी हो गईं। जो काम बीस-तीस मज़दूर करते थे,
उन्हें अब लंबी-लंबी गर्दनों वाली मशीनें करने
लगी थीं।”
इसी से मिलती-जुलती उनकी अगली कहानी है जो मिटते अस्तित्वबोध की कहानी है। नदी
का गायब होना अर्थात् हमारी जड़ों से हमारी चीजों को उखाड़ फेंकना है। नदी का गायब
होना कोई जादुई शब्द लगता है परंतु लेखक ने इस शीर्षक के माध्यम से एक बहुत बड़ी
समस्या को हमारे सामने रखा है। नदी का गायब होना कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि
यह एक सुनियोजित योजना है जिसे धीरे-धीरे अंजाम तक पहुँचाया गया था। लेखक इसी
योजना को समझाने का प्रयास करते दीखते हैं।
‘नदी गायब है’
हरनोट जी की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है, जहाँ प्रकृति से छेड़छाड़ करने एवं बिजली बनाने
जैसी योजनाओं के नाम पर वर्षों पुरानी नदी का अस्तित्व ही मिटा दिया गया है। यह
सारा शोषण-चक्र विकास के नाम पर चलाया जा रहा था। बिजली पैदा करने के लिए कभी न सूखने
वाली नदी का पानी ऐसे गायब हो गया जैसे इंद्रदेव ने पूरा पानी पी लिया हो, विकास के नाम पर अब वहां बड़ी-बड़ी चट्टानें
गिराई जा रही हैं डायनामाइटों द्वारा जिससे लोगों का अमन-चैन लुट चुका है। घरों की
नींव हिलने लगी है कि न जाने कब यह भरभरा के गिर पड़े। पहाड़ों को काटने का
दुष्परिणाम ही है कि तेज़ी से वहां के ग्लेशियर भी पिघलने लगे और लेखक की यह चिंता
कि यदि ग्लेशियर जाग गया तो सारा गाँव ही लील लेगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे
सामने सन 2012 में हुए
उत्तराखंड की त्रासदी है जो आज भी लोगों को भीतर तक कंपा देती है। जाहिर है
प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया और इस तांडव के माध्यम से लोगों को इस बात की
चेतावनी भी दी कि भविष्य में इससे भी भयंकर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। परन्तु
मानव जो आज सबसे बड़ा शत्रु बन चुका है प्रकृति का वह कहाँ दम भरने वाला है। उनमें
तो बस लूट-खसोट मची है। जो जितना बलवान, वह उतना ही प्रकृति के साधनों का दोहन कर रहा है। कभी नई तकनीक इजाद करने के
नाम पर तो, कभी अर्थव्यवस्था को
वैश्विक स्तर तक पहुंचाने के नाम पर। कभी बड़े उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने के नाम
पर तो कभी मल्टीनेशनल कंपनी को हर शहर और कस्बों तक सहज उपलब्ध कराने के नाम पर।
परन्तु यथार्थ क्या है यह आप भी जानते हैं कि वर्तमान समय में विकास-सूचकांक का
आंकड़ा क्या है? अमीर और अमीर
होते जा रहे हैं और गरीब और गरीब। गरीबों के आय स्तर में वृद्धि होने के बजाय और
गिरावट आई है। ‘नदी गायब है’
इस बात की ओर भी संकेत करती है कि क्यों
मध्यकाल (भक्तिकाल) में मनुष्य ईश्वरवादी या भाग्यवादी हो गए थे? इसका कारण मानव की कुछ न कर पाने की विवशता थी।
ठीक यही स्थिति इस कहानी में भी लक्षित होती है, जहाँ गांववाले उस शासनतंत्र के आगे लाचार और मूकदर्शक बनकर
अंततः ईश्वर का आसरा लेते हैं और यही उनकी मज़बूरी भी बन जाती है। “देवता मंदिर में चुपचाप पड़ा था। शक्तिविहीन ।
कहाँ गई उसकी शक्ति ? क्यों उसने
सहायता नहीं की ? क्यों कोई
चमत्कार नहीं हुआ ? क्यों उसने विराट
रूप नहीं दिखाया ?” यहाँ लेखक ईश्वरवादी शील(पत्थर) को तोड़ते हुए अन्धविश्वास
का भी खंडन करते हैं कि इस बार उनका शाक्तिशाली ईश्वर भी उनकी रक्षा नहीं कर सके।
शायद इसलिए बहुत पहले नित्शे ने ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देते हुए कहा था कि
- “ईश्वर मर गया”। धर्म और कर्मकांड के नाम पर आज देखा जाए तो सबसे बड़ा शोषक ईश्वर है। परन्तु
हमारी समाज-संरचना इतनी जटिल है कि आप इस बात को कहने से भी कतराते हैं। कारण है- ‘आस्था’। जिसे आप चुनौती नहीं दे सकते वरना दंगे होंगे, हत्याएं होंगी और होंगे धर्म के नाम पर अवसरवादियों का नंगा
नाच।
ध्यान देने वाली बात
यह है कि यहाँ नदी महज़ एक नदी नहीं है बल्कि लोगों के जीविकोपार्जन का, किसानों की रोज़ी-रोटी का साधन भी है। लेखक के
ही शब्दों में - “इस छोटी सी नदी
से कई गाँवों की रोज़ी-रोटी चलती थी। इसी के किनारे किसानों के क्यार थे, जिसमें वे धान, गेहूं बीजते और सब्जियां उगाते। अभी भी पहाड़ों के इन गाँवों
में कोई पानी की योजना नहीं थी, इसलिए लोगों ने
ज़रूरत से पानी ले लिया था।”
पहाड़ी जीवन के चितेरे हरनोट ने अपनी कहानियों में पहाड़ी जीवन का अभाव, उसमें व्याप्त समस्याएं पाठक वर्ग के सामने
बहुत ही बेबाक़ी से रखने का प्रयास किया है जो आज और अधिक चिंता का विषय बनी हुई
है। संसाधनों का अभाव, विद्यालय,
महाविद्यालय, अस्पताल आदि की कमी आस-पास बड़े अस्पतालों का अभाव पर्वतीय
अंचल के लोगों के लिए कई बार जानलेवा भी सिद्ध होता है। पहाड़ों का दुर्गम मार्ग
गाँव के लोगों के लिए मौत का कारण बन जाती है। खासकर तब, जब किसी गर्भवती स्त्री को शहर के किसी अस्पताल में ले जाना
हो। इसका उदाहरण हम उनकी मार्मिक कहानी ‘चीखें’ में देख सकते हैं। इस
कहानी में न केवल पहाड़ी जीवन की समस्याओं पर फोकस है बल्कि पूरी की पूरी कहानी
स्त्री अस्मिता से जुड़ी हुई है। एक ऐसी कहानी जिसमें ग्रामीण परिवेश से लेकर शहरी
परिवेश का संवेदनहीन चरित्र पेश किया है लेखक ने। एक स्त्री जो अपनी प्रसव-पीड़ा से
कराह रही हो ऐसे में ससुराल और पति को इस बात की फिक्र ज़्यादा है कि यह बेटा जनेगी
या फिर से बेटी को ही जन्म देगी! “माघीराम बेटा
होने के लिए भगवान् और देवताओं को की गई मन्नतों की याद दिला रहा था। रामो की
चीखें जितनी तेज निकलतीं वह उतना ही देवताओं को याद दिलाता।” इतना ही नहीं
क्रूरता की हद अस्पताल के दृश्य में भी देख सकते हैं, जहाँ शहर की चकाचौंध में गुम हो जाने वाले लोग अपना
कर्त्तव्य भूलकर अमानवीयता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाते हैं।
इन सबके बावजूद भी ‘चीखें’ कहानी में रामो जिस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज से होड़ लेती है, उनका प्रतिरोध करती है, यह आज के भूमण्डलीकरण के दौर में आधुनिक समय के जागरूक
महिला सशक्तिकरण का उदाहरण है। यही कारण है कि कहानी के अंत में जब रामो को बेटी
पैदा होती है तो वह फुले नहीं समाती। पुरुष वर्चस्ववादी समाज में जहाँ लड़की को
अभिशाप माना जाता रहा है, उसे कोख में आते
ही उसका गला घोंट दिया जाता है, लिंग की जांच
कराई जाती है, वहां स्त्री
अस्मिता की बात करना बेमानी-सा लगता है। सन 1901 की जनगणना में एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया कि प्रति 1000 पुरुषों के पीछे 997 स्त्रियाँ थीं और सन 1999 तक इनका अनुपात
घटकर 900 रह गई। राष्ट्रीय नमूना
सर्वेक्षण के अनुसार सन 2011 तक स्त्रियों को
रोजगार के इतने अवसर मिले हैं जितने पहले कभी नहीं मिले। लेकिन भूमंडलीकरण के इस
दौर में स्त्री की स्थिति, विशेषकर
पूंजीवादी बुर्जुआ वर्ग की दृष्टि में क्या है इसे 8 मार्च 1983 को स्त्री दिवस
के अवसर पर दिए गए एक साक्षात्कार में स्त्रीवादी चिन्तक ‘सीमोन द बोउवार ने व्यक्त किया था - “मानव अधिकार उतने विश्वव्यापी नहीं है, जितना उन्हें होना चाहिए और अब भी मानव
अधिकारों में स्त्रियों के शोषण को समाप्त करने की मांग अधिकार संस्थाएं केवल
अनसुनी ही नहीं कर रहीं बल्कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों की ओर ध्यान भी
नहीं देतीं।” इसे हमारे सड़े हुए समाज की त्रासदी कहा जाए या उनका दुःख !
जहाँ एक तरफ तो स्त्री को देवी की संज्ञा दी जाती है, तो दूसरी तरफ़ रण्डी की गाली से नवाज़ा जाता है ! ये जो समाज
का दोहरा चरित्र है, क्या इसका
मूल्यांकन नहीं होना चाहिए? क्या इतना ही
काफ़ी नहीं कि स्त्री को केवल स्त्री होने के नाते ही सम्मान मिले ! ‘नेशनल क्राइम ब्यूरो’ ने प्रतिवर्ष स्त्रियों के यौन उत्पीड़न, दहेज़ हत्या और ‘ह्यूमन ट्रेफिकिंग’ के मामलों में सन 2000 के बाद रिकॉर्ड
वृद्धि दर्ज की है। देश में अनुमानतः 24 करोड़ 50 लाख स्त्रियाँ
निरक्षर हैं। मानव विकास रिपोर्ट 2000 के अनुसार भारत में स्त्री साक्षरता दर (50%) सहारा (अफ्रीका) से भी कम है। इसके अतिरिक्त भारत में
स्त्री स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक है, यहाँ लगभग 50 प्रतिशत विवाहित
स्त्रियों में रक्त की कमी है। भारत में 14.5 प्रतिशत माताओं की मृत्यु का कारण असुरक्षित गर्भपात है।
सन 1972 में गर्भपात को वैधानिक
करा दिया गया था, फिर भी हमारे
अधिकांश राज्यों में अधिकांश स्त्रियाँ अन्यान्य कारणों से सुरक्षित गर्भपात नहीं
करा पातीं।
‘चीखें’ कहानी के रचनाकार कहीं न कहीं उपर्युक्त सभी
स्थितियों की ओर भी हमारा ध्यान ले जाते हैं, जहाँ स्त्री का श्रम विकास सूचकांक में दर्ज नहीं हो पाता
परन्तु सत्य तो यह है कि यदि घरेलू काम काजी औरतें काम करना बंद कर दें तो भारत की
अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी। इसका उदाहरण हमें इस कहानी में भी दिखाई देती है,
जैसे - “उसकी घरवाली रामो खूब सुरमी थी। वह घर का सारा काम संभालती।
उसके पास एक बैल जोड़ी, तीन गायें और
सात-आठ भेड़-बकरियां थीं जिन्हें उसने खूब पाला था।” भूमंडलीकरण और
उदारीकरण की नीतियों से वह परिचित नहीं है। उसके किए हुए श्रम को ‘अनुत्पादक श्रम’ माना जाता है जबकि सर्वेक्षण में घरेलू कामों से सकल
राष्ट्रीय आय और बचत में इजाफ़ा होती है इनकी प्रतिभागिता से। स्त्री-श्रम से
संबंधित दूसरी कहानी है ‘मिट्टी के लोग’
जिसमें अमरो के माध्यम से स्त्री-श्रम एवं
हथकरघा शैली पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही स्त्री को शिक्षा से वंचित रखने की
दलीलें भी। लेखक ने अपनी इस कहानी में स्त्री-श्रम के महत्त्व को दिखाते हुए लिखा
है कि- “गज़ब की कला है अमरो के
हाथ में। पत्तों से बनी बहुत सी कलाकृतियाँ तहसील तक के स्कूलों और दफ्तरों की दीवारों में लगी है। जो चीज़ बनाती
है, लगता है किसी मशीन से बनी
होगी।”
लेकिन इस कहानी का दूसरा पक्ष देखा जाए तो इस कहानी में भी स्त्री-शोषण को
केन्द्रित किया गया है, जहाँ एक ही
परिवार में माँ और बेटी दोनों का शोषण साथ-साथ एक ही खानदान के लोगों द्वारा किया
जाता है। गरीब तथा दलित स्त्री का शोषण समाज के धनाढ्य वर्गों द्वारा किया जाता
है। परन्तु दलित स्त्री या कहें जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता उन्हें किसी
से डर नहीं लगता। न घर में और न ही बाहर, वह निडर हो जाती है। सीमोन द बउआर ने पुस्तक ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं’ में इसी बात का विश्लेषण किया है कि “औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए,
इससे पहले कि समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो।
इसके साथ ही मुझे यह भी लगता है कि समाजवादी देशों में भी स्त्रियों और पुरुषों के
बीच वास्तविक बराबरी हासिल नहीं की जा सकी
है। इसलिए अब यह बहुत ज़रूरी हो गया है कि स्त्रियाँ अपना भविष्य स्वयं अपने हाथों
में लें।” और रामेशरी की गर्जना इसी का उदाहरण है - “चौधरी ! अपने इस हरामी को बाहर कर। देखती हूँ
इसकी माँ ने कितणा दूध पलाया है इस लफंगे को। अमरो ने तो इसके दो दांत ही तोड़े हैं,मैंने इसकी गर्दन न काट दी तो रामेशरी न
बोलियो।” हरनोट जी के यहाँ प्रायः स्त्री का मुखर रूप ही दृष्टिगत
होती है, जहाँ स्त्री अपना
प्रतिरोध दर्ज कराती हुई दिखाई देती हैं। अपनी अस्मिता को बचाने की जद्दोजहद करती
रामेशरी और बेटी अमरो पहले अपने घर में और फिर समाज, दोनों से लोहा लेती है। घर में रामेशरी का पति है जो दोनों
की ही अस्मिता पर चोट करता है, जब वह कहता है
कि- “रांड, महाराणी बन के बैठी रहती है। न खुद कुछ करती है,
न अपनी इस लाडली को कमाणे देती। गाँव में
ज़मींदारों का इतणा काम पड़ा है उसको करते अब तुम्हारे को शर्म आने लगी है। मेरे से
नी होता अब कुछ कि तुम्हारे को बैठ के खिलाया करूँ। रण्डी निकल जा यहाँ से और इन
अपणे जायों को भी साथ ले जा...।”
पितृसत्तात्मक समाज में
स्त्रियों के मानवाधिकार के संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि स्त्रियों के अधिकार
मानवाधिकार हैं और स्त्रियाँ केवल लैंगिक भेदभाव के कारण अन्याय का शिकार बनती
हैं। इसी कहानी में हम देखते हैं कि यह न केवल स्त्री समस्या पर बात करती दिखाई
देती हैं अपितु स्त्री अस्मिता की लड़ाई को भी पुरज़ोर तरीके से पेश करते हैं। हम
जानते हैं कि स्त्री अस्मिता की लड़ाई की शुरुआत भी इसी संघर्ष और असमानता की लड़ाई
से हुई थी। समान काम के लिए समान वेतन की मांग और स्त्री पारिश्रमिकी की गिनती न
होने के एवज में ये आंदोलन उग्र हुए। आगे चलकर इस मुद्दे पर कई महत्वपूर्ण आंदोलन
हुए जिसे हम राधा कुमार की पुस्तक ‘स्त्री संघर्ष का
इतिहास’ में देख सकते हैं।
हरनोट जी की
प्रायः प्रत्येक कहानी पहाड़, वन, पशु एवं पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के
हिमायती हैं। प्रत्येक कहानी दलितों की समस्या, स्त्री समस्या, जल, जंगल, ज़मीन की समस्या पर चिंता व्यक्त करते नज़र आते
हैं। उभयलिंगी अर्थात् किन्नर समुदाय की वास्तविकता पर गहन अध्ययन का परिचय देते
हुए किन्नर एवं हिजड़ा जैसे प्रचलित शब्दों का स्पष्ट भेद भी करते दिखाई देते हैं।
ब्राह्मण एवं दलित समुदायों के बीच का टकराव अमूमन हर कहानी में बयां हुई है। इनके
साक्ष्य हैं संग्रह की समस्त कहानियाँ जिनके नाम हैं– ‘सड़ान’, ’चीखें’, मिट्टी के लोग’, बेजुबान दोस्त’, ’दीवारें’, ‘किन्नर’,
‘नदी गायब है’, ‘अ-मानव’ एवं ‘नंदी मेनिया’। ये कहानियाँ छोटी मुँह बड़ी बात कहती हैं और पाठक वर्ग को
सोचने विचारने के लिए विवश करती है।
हरनोट जी का एक और
महत्वपूर्ण कहानी-संग्रह है ‘लिटन ब्लॉक गिर
रहा है’ जिसमें संकलित नौ
कहानियाँ अलग-अलग मुद्दों पर बात करती हुई दिखाई पड़ती है। इस संग्रह की पहली कहानी
है ‘आभी’। शीर्षक अपने-आप में नया लगता है ‘आभी’ ! यह किसी मनुष्य जाति अथवा किसी खाने योग्य वस्तु का नाम नहीं है वरन एक चिड़िया
का नाम है। एक ऐसी चिड़िया जिसने अपने डैनों पर मनुष्यों के कर्तव्यों का बोझ उठा
रखा है। इस चिड़िया का मानवीकरण कर हरनोट ने मनुष्यता के मुंह पर बहुत ज़ोरदार तमाचा
मारा है। वह मनुष्य जो खुद को ईश्वर से भी बलवान समझने लगा है, हरनोट जी ऐसे लोगों की शक्तियों को चुनौती
दिलवाते हैं ‘आभी’ के माध्यम से। जो कार्य हमारा है उसे एक नन्हीं
चिड़िया करती हुई दिखाई देती है। मानवता के लिए इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या
होगी। ‘आभी’ प्रतिदिन सरेऊलसर झील के पानी को साफ़ करती है।
उस झील के पानी पर गिरनेवाले हर एक तिनके को आभी अपनी चोंच से उठाती है और उसे दूर
कहीं जाकर फेंक आती है। लेखक के शब्दों में – “ ‘आभी’ नहीं चाहती उसकी
झील को कोई गंदा करे। उसमें कोई ऐसी-वैसी चीज़ न फेंके जो पानी को गंदला या खराब कर
दे। आभी वहां आए पर्यटकों से लड़ती है। हवा से झगड़ती है। जंगलों के पेड़ों से लोहा
लेती है। जैसे ही उसमें कोई तिनका जाए, वह झट से अपनी चोंच से उठाकर किनारे फेंक देती है। लोग तरह-तरह की चीजें झील
में फेंकने लगे हैं। वे नहीं जानते नदियों, झीलों के पानी का मोल। उन्हें नहीं पता हवाओं की ताज़गी।
उन्होंने नहीं देखी हैं देवदारूओं की तपस्याएँ। उन्हें नहीं पता कि वे अपने साथ
मैदानों से लाए इस कचरे को फेंककर कितना अनर्थ कर रहे हैं !” लेखक की चिंता
यहाँ साफ़ झलकती है पानी को लेकर, पर्यावरण को लेकर,
प्रकृति को लेकर। और आश्चर्य होने वाली कोई बात
नहीं क्योंकि यह काम वह आभी सदियों से करती आ रही है, जिसे आने-जाने वाले हर पर्यटक और वहां के बाशिंदे देख रहे
होते हैं।
लेखक की कल्पना अद्भुत है। एक ओर जहाँ मनुष्य समूर्ण प्रकृति का शत्रु बन चुका
है वहीं दूसरी ओर रचनाकार ने पशु-पक्षियों के माध्यम से समस्त प्रकृति को बचाने की
चेष्टा करते हुए दिखाया है। वन माफियाओं और पेड़ों को बड़ी संख्या में काटने वाले
लोग अपने छद्म लाभ के लिए किस क़दर वन्य पशु-पक्षियों का जीवन नष्ट करते जाते हैं
इसका गहरा संदेश हरनोट इस कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। विकास और सुविधा
मुहैया कराने के नाम पर जिस तेज़ी से वनों को उजाड़ा जाता रहा है, वह आने वाले समय के ख़तरे की उम्र को और कम कर
रहा है। सुरसा के मुंह की तरह प्रकृति अपना विकराल रूप लेने को मुंह बाए खड़ी है।
जिसका उदाहरण हमें समय-समय पर देखने को मिल ही जाता है। फिर चाहे वो केरेला में आई
हुई बाढ़ हो या उड़िसा का तूफान ‘तितली’ हो, नेपाल में भूकंप से मची तबाही हो या बिहार में आई हुई बाढ़। उत्तराखंड के
महाप्रलय को कौन भूला सका है अभी तक जिसने चंद मिनटों में ही हज़ारों को निगल लिया।
फिर भी मनुष्य इस प्रकार नादान बना हुआ रहना चाहता है जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं
कि प्रकृति अपना यह विकराल रूप क्यों धारण करने लगी है। जैसे-जैसे मनुष्य विकास की
सीढ़ी चढ़ते जाता है वह प्रकृति का शत्रु बनते जाता है। सो कॉल्ड शो-ऑफ मॉल संस्कृति
ने प्रकृति का और सत्यानाश कर दिया है। आज मानव स्वच्छ वायु, स्वच्छ पानी और स्वच्छ पर्यावरण के लिए न जाने
किस-किस स्थानों की यात्रा करते फिरते हैं। अपनी मिट्टी की रक्षा करनी आई नहीं और
चला मुसद्दी देश भ्रमण को। घर का जोगी जोगड़ा वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती है।
पर्यावरण के प्रति हमारी उदासीनता ने ही आज हमें नाना प्रकार के रोगों से घेर रखा
है। आंकड़े बताते हैं कि हर साल हजारों-लाखों की संख्या में बच्चे-बूढ़े सभी दमे और
केंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। इसका कारण तेज़ी से बढ़ते
प्रदुषण के ए.क्यू.आई. की मात्रा है जो असंख्य वाहनों, मॉल्स, डीज़ल से चलने
वाले वाहन, ई-कचरा (जो बड़ी संख्या
में नदी-नालों में बहाए जा रहे हैं।) जनसंख्या का महाबिस्फोटक रूप और जलवायु का
ऋतू के अनुसार परिवर्तित न होना है। इन सभी का मूल एक ही है प्रकृति का दोहन। और
इस दोहन के एकमात्र कर्ता हैं मानव। इतनी सारी समस्याओं का समाधान अकेले ‘आभी’ के बस की है क्या ? विचारणीय है !
ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये समस्याएँ सिर्फ़ महानगरों में रहने वाले लोग ही
नहीं झेल रहे बल्कि गांवों और कस्बों तक में भी ये समस्याएं अपने पैर फैला चुकी
है। हरनोट जी जिस समस्या की बात कर रहे हैं वह किसी महानगर में रहने वाले की नहीं
बल्कि गाँव से शहर बने नव्य शहरीकरण की बात कर रहे हैं।
एक दूरदर्शी रचनाकार का
महत्त्व इसी बात में होती है कि वे भविष्य को भांप लेते हैं। आनेवाला समय कैसा रूप
ले सकता है इस बात का उन्हें आभास हो जाता है। जैसे कवियों के लिए यह उक्ति है कि ‘जहाँ न पहुंचे कवि वहां पहुंचे रवि’ ठीक यही स्थिति लेखक के लिए भी उपयुक्त है।
एस.आर.हरनोट की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने छोटी-से-छोटी चीजों को
भी अपनी कहानी का विषय बनाया है। इसे उनकी कलात्मकता ही कही जाएगी। कहानी के कथानक
(प्लॉट) का ताना-बाना वे ऐसे क्षेत्रों से चुनते हैं जो पाठक वर्ग को क्षण भर के
लिए आश्चर्य में डाल देता है । इसका उदाहरण है कहानी ‘हक्वाई’।
औपनिवेशिक भारत की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी ‘हक्वाई’ एक आज़ाद भारत के पूर्व के परिदृश्य को दिखाती है। साथ ही
आज़ादी के पूर्व भारत की दशा को ‘हक्वाई’ कहानी के माध्यम से बताने की चेष्टा की गई है।
हम जानते हैं कि ब्रिटिश गवर्नमेंट ने किस छलकपट की नीति से भारत में अपने पैर
जमाए। इसमें उनकी मदद करने वाले हमारे देश के बड़े-बड़े महान विभूतियां भी शामिल थे,
जिनका ये मानना था कि अंग्रेज़ों का भारत में
आना भी एक देवीय इच्छा थी ! उनकी अर्थव्यवस्था नीति, शिक्षा नीति, राजव्यवस्था नीति और शासन नीति ने हम भारतियों को इतना प्रभावित किया कि हमने
उन्हें अपनी सल्तनत ही बक्श दी। हमारे खेतों और फसलों पर भी उनका ही एकाधिकार हुआ।
हम क्या और किस चीज़ की खेती करें इसका निर्णय भी ईस्ट इंडिया कंपनी लेने लगी और
भारत धीरे-धीरे उनके मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में गुलाम होती गई। देश की
आतंरिक दशा को भांप कर ब्रिटिश सरकार ने चलाई अपनी ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति जिसने जन्म दिया हिन्दू-मुस्लिम दंगों को। जिसने
धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले इस देश में सांप्रदायिक भेदभाव के ज़हरीले बीज बोए और
आपसी भाईचारे को शत्रुता में तब्दील कर दिया। हिन्दू-मुस्लिम अब एक-दूसरे के खून
के प्यासे थे। यहाँ तक कि हिन्दुओं में भी आपसी फूट डाल दी गई कभी रियासत के बाबू
को उच्च पद पर आसीन करके और कभी साम्राज्य का एकाधिपति बनाकर। समाज कई खेमों में
बंट चुकी थी ब्राह्मण, शुद्र, वैश्य और क्षत्रिय। ऊँच-नीच आदि। हालांकि जाति
के आधार पर हिन्दुओं का बंटवारा हमारी पौराणिक इतिहास की घटना है।
जब इस देश में ‘मनुस्मृति’
जैसे ग्रंथों को लिखा गया था। लेकिन अंग्रेज़
सरकार ने इस आग में घी डालने का काम और अधिक मात्रा में किया। वर्तमान में इस
कहानी की पृष्ठभूमि बहुत प्रासंगिक है क्योंकि लेखक ने भाग्यराम उर्फ़ भागीराम के
माध्यम से जिस ज्वलंत मुद्दे को उठाया है वह इस समय अपनी चरम पर दिखाई देती है।
सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण, उनसे उनका रोज़गार
करने का हक़ छिनना और चमड़े का व्यापार करने वाले को मुस्लिम कहकर उसकी पिटाई करना
इत्यादि तमाम ऐसे मुद्दे हैं, जिसे लेखक ने इस
कहानी के माध्यम से उजागर किया है।
भागीराम अपने स्वप्निल भारत में, अपने स्वप्निल दिनों को याद करता है जब उसके पास अपनी ज़मीन थी, अपने पशु थे, अपने घर और अपनी एक पहचान थी। समाज में उनका भी अपना रुतबा
था। परन्तु आज वह सब भागीराम के लिए एक स्वप्न से बढ़कर और कुछ नहीं। सवर्णों ने
उनके चमड़े के व्यापार को तहस-नहस कर दिया और उनपर मुसलमानों को पनाह देने का आरोप
लगाकर उनकी पूरी संपत्ति को नष्ट कर दिया। उन्हें बेघर किया और सड़क पर लाकर खड़ा कर
दिया। हिन्दू-मुस्लिम एक दूसरे के दुश्मन बन गए। आलाअफसरों ने भी भागीराम को
बेइन्तेहाँ परेशान किया। इतना कि भागीराम ताउम्र भागता ही रहा। भागते-भागते
भागीराम कब किसान से मज़दूर और बाबू से दलित बन गया खुद भागीराम को भी नहीं मालूम।
उसके नाम का अर्थ ही बदल गया। भाग्यराम से भागीराम !
अद्भुत ! देखिए रचनाकार की रचना-दृष्टि। वह किस कदर मुख्य पात्र का
पूरा-का-पूरा चरित्र ही बदल देता है और
पाठक को पता ही नहीं चलता कि भाग्यराम कब और कैसे भागीराम में परिवर्तित हो गया।
चमड़े का व्यापारी कब जूतों में कीलें गांठने वाला ‘हक्वाई’ बन गया। हक्वाई
होते हुए भी भागीराम ने सर्वधर्म समभाव की भावना को खुद में समन्वित कर रखा था जो
लेखक के धर्मनिपेक्ष होने का प्रमाण देता है।
सरसठ वर्षीय भागीराम ने देश में अंग्रेज़ राज़ देखा है और भारत में प्रदर्शित
होनेवाली सैन्य-शक्ति की झांकियां भी देखी है। सबका प्रतिबिंब भागीराम की आँखों के
आगे तैरता हुआ नज़र आ रहा है। लेकिन इस बाबत किसी ने भी उससे मुफ़्त की बूट पालिश
नहीं करवाई हाँ पड़ोसियों ने ज़रूर तंग किया मुफ़्त जूता चमकाने और उसका टीन का घर हटाने
के लिए। लेखक का इशारा यहाँ अपने ही लोगों (भारतीयों) से परेशान किए जाने की ओर
है। जिनकी आंखों में उसका घर रेत की किरकिरी की तरह कचकचाने (खटकने) लगा था। हरनोट जी की एक खास शैली है जिसे वे प्रायः हर
कहानी में अपनाते हैं और वह है पर्यावरण पर आधारित ऐतिहासिक और समकालीन तथ्यों का
उल्लेख करना। इस कहानी में भी लेखक ने जल, जंगल और ज़मीन की समस्या को उकेरा है। उपनिवेश हुए भारत में चमड़ा व्यापार किस
कदर उन्नत था और उसकी कितनी मांग थी इन बातों से भी लेखक ने हमें अवगत कराया है।
इतना ही नहीं बल्कि चमड़े की निर्मिति की पूरी प्रक्रिया का वर्णन भी यहाँ हमें
पढ़ने के लिए मिलता है। इस व्यापार में हर छोटे-बड़े जानवरों की खालों को उपयोग में
लाया जाता था जिससे यह अनुमान लगता है कि पशुओं की तस्करी भी उस समय बड़ी संख्या
में होती होगी ! लेखक के ही शब्दों में कहें तो, “दादा बताया करते कि ज़्यादा चमड़ा बड़े गोजातीय तथा भेड़ और
बकरी की खालों से बनता है। दादा उसे (भागीराम को) इनके साथ कुछ विशेष प्रकार की
खालें भी दिखाते जो घोड़े, सुअर, हिरण, समुद्री घोड़े इत्यादि की होतीं, जो छोटे और विशेष काम के लिए होती थीं। भागी बताते कि उस समय भारत खालें पैदा
करने में दूसरे तथा बकरी और मेमनों की खालें पैदा करने में नंबर एक पर था।”
हरनोट जी ने अपनी कहानियों में स्त्री श्रम को कहीं भी नज़रंदाज़ नहीं किया है।
प्रायः हर कहानी में उन्होंने स्त्री कामगारों की बात अवश्य की है। इससे उनके
स्त्रीवादी दृष्टिकोण का पता चलता है जो कहीं-न-कहीं स्त्री-पुरुष समानता को
दर्शाता है। ये कहानी अपने साथ कई विषयों को आपस में समेटे हुए है।
अंत में ये कहना अनुचित नहीं होगा कि एक मोची और उसके जूते गांठने वाले हक्वाई
को लेकर कहानीकार ने जो इतिहास की जानकारी दी है वह सराहनीय है। इतिहास की कथाभूमि
को लेकर वर्तमान की बात करना रचनाकार की सूक्ष्म और पैनी दृष्टिकोण का परिचायक है।
यह कहानी तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक देश में साम्प्रदायिक भेदभाव की स्थितियां
बनी रहेंगी, जब तक सर्वहारा
वर्ग को न्याय नहीं मिलेगा, जब तक आला अफसरों
की मनमानी ख़त्म नहीं होंगी।
इसी संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी है ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’। वैसे ये तय करना बड़ा कठिन काम है कि कौन सबसे ज़्यादा और
कौन सबसे कम महत्वपूर्ण है। हर कहानी अपने आप में अपना एक अलग महत्त्व रखता है। और
यहाँ प्रत्येक कहानी पर बात न करते हुए कुछ ही कहानियों का उल्लेख किया जा रहा है।
दरअसल ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’
कहानी-संग्रह का नाम होने के कारण इस पर चर्चा
नितांत आवश्यक हो जाता है।
इस कहानी की कथावस्तु भी ब्रिटिश सरकार को आधार बनाकर लिखी गई है। ब्रिटिश राज
के दौरान लॉर्ड लिटन शिमला में बतौर वायसराय 1876 से 1880 तक रहे। लिटन
ब्लॉक भवन उन्हीं के नाम पर बनाया गया था। वास्तव में शिमला के प्रख्यात
ग्रैंडहोटल परिसर में ऐसे कई भवन उस दौरान बनाए गए जो यहाँ आए गवर्नरज़ जनरल और
वायसरायों के नाम पर निर्मित हुए, उन्हीं में से
लिटन ब्लॉक एक था। इस भवन को 2010 में जब गिराया
गया तो मानो एक युग ढह गया। इसी स्थिति पर लेखक ने अपनी संवेदना और कहीं-न-कहीं
दुःख व्यक्त करते हुए इस कहानी का सृजन किया है। यहाँ इतिहास और परंपरा के प्रति
लेखक की रुचि का भी पता चलता है।
हरनोट जी ने इस कहानी के माध्यम से ब्रिटिश राज की भव्यता, उनकी शान-ओ-शौकत, उनकी स्वच्छता के प्रति गंभीरता और विलासितापूर्ण जीवन को
दर्शाने का प्रयास किया है। जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है। ब्रिटिश हुकूमत की
अच्छाईयों को लेखक ने प्रस्तुत किया है जिससे अंग्रेज़ों की एक साफ़-सुथरी छवि हमारे
सामने प्रस्तुत होती है। ब्रिटिशस ने शिमला शहर की खूबसूरती को बनाए रखने के लिए
बहुत अधिक संख्या में पेड़ लगवाए यदि एक पेड़ कहीं काटे जाते तो। इस बात से सहमत हुआ
जा सकता है लेकिन सिर्फ़ शिमला के संदर्भ में संपूर्ण भारत के संदर्भ में नहीं।
क्योंकि इतिहास हमें यह भी बताता है कि भारत में सबसे ज़्यादा प्रकृति का दोहन
योरोपियन देशों ने ही किया, रेल की पटरियों
को बिछाने के लिए इतने अंधाधुंध पेड़ काटे गए कि फिर उसकी भरपाई सदियों तक नहीं हो
पाई। रेल की व्यवस्था अंग्रेज़ों ने अपनी सुविधा और व्यापारिक गतिविधियों को सुगम
बनाने के उद्देश्य से किए। लेकिन अज्ञान भारतीयों ने समझा कि इन गोरी चमड़ी वाले
लोगों को हम काले और असभ्य कहे जानेवाले लोगों की कितनी चिंता है। ये हमारे कितने
बड़े हितैषी हैं। इन घटनाओं का प्रमाण हमें ‘सबाल्टर्न हिस्ट्री’ में मिलता है। अंग्रेज़ों की कुटनीतियों और लूटनीतियों ने
भारत और भारतीय दोनों को अन्दर से खोखला कर दिया था।
अंग्रेज़ों की भारतियों के प्रति घृणा का प्रमाण भी हमें इस कहानी में देखने को
मिलता है जब माल के प्रवेशद्वार पर एक बड़ा-सा बोर्ड लटका रखा था जिसमें लिखा रहता-
“डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट
अलाउड”।
अर्थात् एक भारतीय और एक कुत्ते (जानवर) में कोई अंतर नहीं। कुत्ते की तुलना
भारतीयों से की जाती थी। इतना ही नहीं जिस गांधी का अपमान आज अपने ही देश के लोग
करते नहीं थकते, उन्होंने भी
उन्हें ‘ब्लैक इंडियन’ कहकर अपमानित किया था। वो तो अजनबी, लुटेरे और फिरंगी थे, उनका अपमान करना तो समझ भी आता है परंतु भारतीयों ने भी कोई
कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय अपमान कोई बड़ी बात नहीं थी।
उन्होंने भारतीयों का नाम ही ‘काले और असभ्य
लोग’ रख दिए थे।
इस कहानी में लेखक ने लिटन ब्लॉक हाउस की जर्जर होते खंडहर का ज़िक्र जिस
भावनात्मक शैली में किया है वह इतिहास के प्रति कहीं-न-कहीं उनके प्रेम और दुःख
दोनों को व्यक्त करते दिखाई देते हैं। लिटन ब्लॉक का प्रांगण, उसके भीतर की सजीवता और वायसरायों की चहलकदमी
इन सभी से मानो आज भी लिटन ब्लॉक गुंजायमान है। लेखक की मंशा इस ढहते हुए इमारत का
वजूद, उसका महत्त्व और ब्रिटिश
हुकूमत के प्रभाव को इस कहानी के माध्यम से उजागर करना रहा है। जो इतिहास के एक नए
अध्याय को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। परंतु आज़ादी के बाद जिस तरह से लिटन भवन
की गत हुई वह अतीत में किये बुरे कार्यों का ही परिणाम कहें या भारत सरकार की
उदासीनता ! जो उसे सुरक्षित रखने में असफल रही। फलस्वरूप कुत्ते, बंदर और भिखारियों का अड्डा बन गया था। इतना ही
नहीं इस कहानी में भी हमें पर्यावरण की चिंता दिखाई देती है जो लेखक के प्रकृति
प्रेम को दर्शाता है। कहीं–कहीं अंधविश्वास
और आस्था की लड़ाई भी मुखर हुई है। लेखक ने ऐतिहासिक इमारतों के जीर्ण-शीर्ण स्थिति
का चित्रण बहुत ही मार्मिक और कारुणिक रूप में किया है जो अपने धरोहरों को खो देने
के दुःख से मन अतीत के किसी सुदूर घटनास्थल पर जा पहुँचती है। लिटन ब्लॉक की दशा
को देखकर लगता है कि जब हम अपनी विरासत को अपनी आँखों के आगे ध्वस्त होते हुए
देखते हैं तो मन कितने गहरे अवसाद में डूब जाता है।
यहाँ लिटन ब्लॉक के माध्यम से लेखक ने पाठक वर्ग के मन में ब्रिटिश वायसराय के
प्रति सहानुभूति का संचार करने का प्रयास किया है, जिसमें कुछ हद तक वे सफल भी हुए हैं। कहा जाता है कि यदि आप
अपने इतिहास को याद नहीं रखते तो इतिहास भी आपको याद नहीं रखती, ठीक उसी तरह जिस तरह आज लिटन ब्लॉक को भुला
दिया गया। कभी अपनी वैभवपूर्णता के लिए जाने जाने वाले लिटन ब्लॉक को आज कोई नहीं
जानता सिवाय कुत्तों, बिल्लियों,
भिखारियों और बंदरों के अलावा। कहते हैं न कि
इतिहास अपने आपको दोहराता ज़रूर है। सच है। एक समय था जब लिटन ब्लॉक के प्रवेशद्वार
में कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित था वहीं आज सिर्फ कुत्तों और अन्य जानवरों
का ही प्रवेश है किसी ब्रिटिश अधिकारी का नहीं। भारतीय तो अपने उस अपमान का बदला
नहीं ले सके परंतु इतिहास ने लिया।
हरनोट जी की कहनियों को पढ़ते हुए जो बात मन में खटकती है वह है कहानी का बड़ा
कलेवर। कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि कहानी में अनायास ही विस्तार दे दिया गया है। कई
घटना-प्रसंगों को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होने लगता है कि कुछ चीजों को नहीं भी जोड़ते
तो कहानी में तब भी उतना ही प्रभाव पड़ना
था जितना कि उन्हें जोड़ने से पड़ रहा है। कहानी की विशेषता उसके छोटे कलेवर में ही
है। लम्बी कहानियां, कहानी को अक्सर
बोझिल और नीरस बना देती है। भाषा सरल-सहज रूप में है जो समझने के लिए उपयुक्त है
परंतु कहीं-कहीं बेमेल शब्दों का प्रयोग खटकने लगती है। जैसे कई स्थानों पर एक
शब्द पढ़ने को मिलता है – ‘जैसे-कैसे’
यहाँ जो सटीक शब्द होनी चाहिए वह ‘जैसे-तैसे’ होनी चाहिए।
अंततः उपर्युक्त जिन तीन कहानियों पर
यहाँ चर्चा की गई है वह कुछ गंभीर विषयों को छू रही थी, जिनपर और गहन अध्ययन संभव है। पहाड़ों की सुंदरता, पर्यावरण की शुद्धता और पर्वतीय इलाकों में
बसते जीवन, इन तीनों का ही समावेश
हमें हरनोट जी की कहानियों में ही मिलती है यह कहना अनुचित नहीं होगा। एक सजग
रचनाकार होने का परिचय वे अपनी कहानियों के माध्यम से देते हुए दिखाई पड़ते हैं। इस
संग्रह की अन्य कहानियां हैं – ‘शहर में रतीराम’,
‘लोग नहीं जानते थे उनके पहाड़ खतरे में हैं’,
‘माँएं’, ‘जूजू’, ‘गाली’, ‘आस्थाओं के भूत’।
संदर्भ सूची
1. एस.आर.हरनोट,’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16,
पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010
: पृष्ठ. 29
2. वही, पृष्ठ. 83
3. वही, पृष्ठ. 77
4. वही, पृष्ठ. 108
5. वही, पृष्ठ. 103
6. वही, पृष्ठ. 27
7. मनीषा पांडेय (अनु.) ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है’, संवाद प्रकाशन, आई-499, शास्त्रीनगर,
मेरठ- 250004 (उ.प्र.), पहला संस्करण :
फरवरी, 2004 : पृष्ठ. 39,
(मुंबई : मेरठ)
8. एस.आर.हरनोट,’मिट्टी के लोग’, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16,
पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2010
: पृष्ठ. 37
9. वही, पृष्ठ. 39
10. एस.आर.हरनोट, ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ (कहानी-संग्रह), आधार प्रकाशन प्रा.लि., एस.सी.एफ. 267,सेक्टर-16 पंचकुला-134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2014;
पृष्ठ. 11-12
11. वही, पृष्ठ. 23
12. वही, पृष्ठ. 124
चैताली सिन्हा
शोधार्थी,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ( भारतीय भाषा केंद्र, दिल्ली )
सम्पर्क chaita।isinha4u@gmai।.com, 9643353110
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
सहजता से सजाई सुंदर आलोचना है यह
जवाब देंहटाएंएस आर हरनोट एवं उनके रचनात्मक कार्य से परिचित कराने के लिए धन्यवाद
बहुत बहुत आभार।
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