क्या भोजपुरी सिर्फ़ मनोरंजन की अश्लील भाषा बनकर रह गई है
भोजपुरी भाषा बोलने वालों की दृष्टि से हिन्दी की सबसे बड़ी बोली है। यहाँ तक
की ब्रिटिश राज में काम और खेती कराने के उद्देश्य से देश के बाहर ले जाए गए
मज़दूरों की वजह से मारीशस, फ़िजी, सूरीनाम वगैरह में भी भोजपुरी बोली जाती है।
बाहर ले जाए गए इन मजदूरों को गिरमिटिया मजदूर कहा गया। 2011 की जनगणना के अनुसार भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 3.3 करोड़ है, फिर भी एक मोटे अनुमान के अनुसार बोलने-समझने वालों की
संख्या लगभग 5 करोड़ है क्योंकि
बहुत सारे लोग जनगणना के वक्त अपनी मातृभाषा भोजपुरी की जगह हिन्दी लिखवा देते
हैं। यदि भोगौलिक रूप से देखा जाए तो भोजपुरी पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बिहार
में प्रमुख रूप से बोली जाती है।
भाषा वैज्ञानिकों ने भोजपुरी को
बिहारी उपभाषा के अंतर्गत रखा है। इसीलिए कई बार अन्य प्रांत के लोग भ्रमवश
भोजपुरी बोलने के कारण बिहार से होने का अर्थ भी लगा लेते हैं। भिखारी ठाकुर,
राहुल सांकृत्यायन, गोरख पांडे जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ब्रज, अवधी, मैथिली, मारवाड़ी इत्यादि
की तरह भोजपुरी में साहित्य प्रचुर मात्रा में नहीं लिखा गया। ब्रज, अवधी आदि भाषा के जैसी साहित्य की कोई समृद्ध परंपरा भी
नहीं दिखाई देती है। यहाँ तक कि भोजपुरी क्षेत्र में रहते हुए भी महान
साहित्यकारों में कबीर, भारतेन्दु
हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद और
प्रेमचंद ने भी या तो हिन्दी में लिखा या ब्रज में किन्तु भोजपुरी में साहित्य
लिखने की कोशिश इन लेखकों में दिखाई नहीं दी है।
इतनी बड़ी आबादी की भाषा होते हुए भी
यह कहने में हमें कोई संकोच नहीं है कि भोजपुरी साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से एक दरिद्र भाषा रही है। जिस
भाषा में इस तरह की वैचारिक उत्तेजना का अभाव हो वह भाषा सामाजिक विमर्श की भाषा
नहीं बन सकती। उस भाषा में
सिर्फ अश्लील और फूहड़ गाने ही रचे जा सकते हैं। भोजपुरी भाषा के साथ यह समस्या
बहुत जटिल और गंभीर रही है। जो भाषा वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से इतनी पिछड़ी हुई
हो उसकी भरपाई आज भोजपुरी के अश्लील और बाज़ारू गानों से हो रहा है तो इसमें कोई
आश्चर्य की बात नहीं है।
प्रत्येक भाषा अपने समाज और संस्कृति का
अभिन्न हिस्सा होती है। भाषा उसके दर्पण की तरह होती है जिसमें व्यक्ति की सोच और
संस्कार की झलक मिलती है। अमुक भाषा में कितने समृद्ध साहित्य ग्रंथ रचे गए हैं,
कितनी पत्र–पत्रिकाएँ निकाली गईं, उस भाषा ने कितने समाज सुधारक और आंदोलनकारी पैदा किए हैं यह
सब कारक मिलकर उस भाषा में सामाजिक विमर्श के आधार तय करते हैं। भोजपुरी के साथ यह
सब समस्या विकराल रही है। भोजपुरी का दुर्भाग्य ही है कि मध्यकाल में इसी क्षेत्र
में पैदा हुए कबीर जैसे क्रांतिकारी समाज-सुधारक और रैदास जैसे संत ने भी भोजपुरी
से इतर भाषाओं में साहित्य सृजन किया। इधर बाद के दौर में भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी
में साहित्य सृजन करके भोजपुरी समाज को उद्वेलित करने और सामाजिक चेतना विकसित
करने की कोशिश की, लेकिन उसकी कोई
विकसित परंपरा आगे नहीं बढ़ पाई।
भोजपुरी में भले साहित्य रचना न के बराबर हुई हो, सामाजिक चिंतन का अभाव हो लेकिन लोकगीतों की लंबी परंपरा ज़रूर रही है। सावन के महीने में महिलाओं द्वारा गाई जाने वाली ‘कजरी’, भोजपुरी भाषा में
ही गाई जाती है। जो सुनने में काफी मधुर और अश्लीलता-रहित होती है। इसमें प्रेम और दाम्पत्य जीवन की अद्भुत झलक मिलती है। 'बिरहा' जैसे लोकगीत भी भोजपुरी भाषा की खास
उपलब्धि है लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इसमें भी सामाजिक विमर्श छेड़ने के
बजाय हल्के, और फूहड़ मनोरंजन
वाले बिरहा का ही बहुतायत रहा है जिसमें ज़्यादातर महाभारत, रामायण और पुराणों से कथाओं को उठाकर भक्ति–भाव पूर्ण मनोरंजन किया जाता है या फिर किसी
बहुचर्चित कांड या घटना को विषय बनाकर गाया जाता है। भोजपुरी समाज के सामाजिक और
मानसिक पिछड़ापन, छुआछूत, भेदभाव, जाति वर्चस्व, स्त्री समस्या इत्यादि पर कोई गिने-चुने ही बिरहा मिलेंगे।
आज के दौर में तो भोजपुरी भाषा एक
अजीब समस्या से गुजर रही है। भोजपुरी फिल्मों और गीतों के माध्यम से इस भाषा का
जितनी तेजी से प्रचार हो रहा है उतनी ही तेजी से भोजपुरी समाज भी अपने पतन की ओर
जा रहा है। भोजपुरी में फूहड़ता और अश्लीलता का भाष्य रचा जा रहा है। ऐसा प्रतीत हो
रहा है कि इस समय भोजपुरी गीतकार वात्स्यायन के कामसूत्र का भोजपुरी अनुवाद रच रहे
हैं। काम-क्रीड़ा और वासना की हर एक भाव-भंगिमा पर बेशर्मी से गीत लिखे और गाये जा
रहे हैं, जिसे भोजपुरी जनता सहजता
से स्वीकार करके बड़े चाव से सुन रही है। भोजपुरी टीवी चैनलों ने इस अश्लीलता को घर–घर पहुंचा दिया है और उसे एक सामाजिक मान्यता दे दी है। इसे देख देखकर भोजपुरी समाज की पूरी पीढ़ी जवान हो रही है। आर्केस्ट्रा,
डीजे और आइटम सोंग समाज के मनोरंजन की आधार
रेखा बन चुके हैं।
एक निजी घटना का जिक्र करना जरूरी
होगा कि एक बार एक महिला का बच्चा जो अभी महज स्कूल जाना शुरू ही किया था यानी अभी
काफी छोटी उम्र का था, वह कई लोगों के
सामने भोजपुरी के उन फूहड़ गानों को बिना अर्थ जाने ज़ोर–ज़ोर से सबके सामने गा रहा था, जिसकी वजह से उस महिला को लोगों के सामने शर्मिंदगी झेलनी
पड़ रही थी। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे घर पर ज़्यादातर लोग भोजपुरी
सिनेमा देखते और गाने सुनते हैं, यह भी घर पर मेरे
मना करने के बावजूद सबके साथ देखता और सुनता है जिसके कारण यह काफी बिगड़ गया है।
बच्चों के मन और मस्तिष्क पर पड़
रहे कुप्रभाव को इस उदाहरण से भली–भांति समझा जा
सकता है।
भोजपुरी की दुनिया में अश्लील अभिनेता, गायक और अश्लील गीतकार बनने की होड़ मची हुई है। जो जितना फूहड़ गाना गा रहा है
वह उतनी ही तेजी से चर्चित और लोकप्रिय हो रहा है। भोजपुरी समाज उनके पीछे भेड़ की
तरह भाग रहा है, उन्हें देखने और
सुनने के लिए हजारों–लाखों का हुजूम
उमड़ रहा है। यह अपने इसी लोकप्रियता को आधार बनाकर भोजपुरी फिल्मों में एंट्री कर रहे हैं और रातों–रात सेलिब्रेटी
बन रहे हैं। जबकि साफ–सुथरा और बढ़िया
गाना गाने वाले भरत शर्मा और मदन राय जैसे गायकों के नाम भी यह पीढ़ी भूलती जा
रही है।
भोजपुरी सिनेमा जिस तरह से अश्लीलता परोस रहा है उससे भोजपुरी समाज गर्त की ओर
ही जाएगा। उन फिल्मों को देखकर कोई व्यक्ति समाज के प्रति अपना अच्छा दृष्टिकोण
नहीं पैदा कर सकता। इधर दस सालों में भोजपुरी सिनेमा ने कोई ऐसी उल्लेखनीय सामाजिक
फिल्में नहीं बनाई होगी जो बड़े स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा हो और सराही गई हो।
जबकि मराठी भाषा में एक से बढ़कर एक बढ़िया फिल्में बन चुकी हैं।
भोजपुरी सिनेमा सामाजिक बदलाव का एक बढ़िया जरिया हो सकता था लेकिन फिल्म
निर्माता पैसा कमाने के चक्कर में वही बाजारू घीसी-पीटी, तड़क–भड़क शैली में फिल्में बना रहे हैं जिसमें स्त्री और समाज के प्रति कोई
प्रगतिशील नजरिया नहीं है। बाज़ार के लिए लिए स्त्री
इंसान न होकर वस्तु या माल भर है और उनकी स्टीरियोटाइप छवि पेश कर रहा है। शहर
का रहन–सहन आदि सब कुछ खराब है और
गाँव का रहन-सहन आदि सबकुछ अच्छा है, इस मानसिकता को भी थोपने की कोशिश दिखाई देती है। इस पंक्तियों के खुद लेखक ने एक
फिल्म में देखा है कि शहर से प्रेम करके गाँव लाई हुई प्रेमिका को हीरो गाँव के
अभाव और दरिद्रता को भी बड़े शान से पेश करता है। खुले में शौचालय जाने के लिए और
गंदे तालाब में अपनी प्रेमिका को स्नान के लिए मजबूर करना प्रेमी गाँव की शान और
अपनी हेकड़ी समझता है।
कई बार देखा गया है कि सार्वजनिक
जगहों और वाहनों में बजते हुए बेलगाम भोजपुरी फूहड़ गीत लड़कियों और स्त्रियों को
असहज कर देते हैं। अश्लील गानों के बीच उन्हें पुरुषों की ताड़ती और पीछा करती हुई
नजर किसी बुरे अनुभव से कम नहीं होती है। इन गानों ने हमारी रुचि और मानसिकता को
इतना घटिया स्तर पर ला दिया है कि अब घटिया से घटिया स्तर की भोजपुरी फिल्म और
गाना हमारे लिए सामान्य-सी बात हो गई है।
यदि भोजपुरी समाज अपनी भाषा, साहित्य, कला, लोकगीत, लोक संस्कृति को
लेकर सचेत है और उसे सही दिशा में विकसित होना देखना चाहता है तो उन्हें खुद आगे
आना होगा और इन कुकुरमुत्तों की तरह उभरते हुए गायकों और गीतों का
बहिष्कार करना होगा जो हमारी रुचि को अपने पैसे और मुनाफे के कारण निम्न से
निम्नतर की ओर ले जा रहे हैं। दोष जनता का देते हैं कि जनता सुनना चाहती है। ये
अपने गीत में निजी यौन कुंठा और भड़ास निकालकर समाज को विकृत कर रहे हैं। भोजपुरी
समाज को इनके खिलाफ एक प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। ताकि इनके
मनमाने और विकृत सोच वाले गानों को जनता के ऊपर थोपने से बचाया जा सके।
इसी क्रम में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय में भोजपुरी साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ‘भोजपुरी अध्ययन केंद्र’ खोला गया। इसकी स्थापना के लगभग एक दशक पूरा होने के बावजूद भी
यह अध्ययन केंद्र कोई ऐसा उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाया है जो कि बड़े स्तर पर लोगों
का ध्यान आकर्षित किया हो। न ही ऐसे
अश्लील गानों के खिलाफ कोई लिखित वक्तव्य, अभियान या मुहिम ही चलाई गई है। हाँ, अलबत्ता एक काम जरूर दिखाई दिया था कि इस अध्ययन केंद्र के
एक अध्यक्ष ने पदभार पर रहते हुए प्रतिदिन सुबह से शाम तक सोशल मीडिया पर भोजपुरी
को संवैधानिक दर्जा देने के लिए अभियान छेड़ रखा था। संवैधानिक दर्जा दिलवाने के
लिए ट्विटर पर ट्वीट ट्रेंड करवाते थे लेकिन जैसे ही पदभार से हटे उनका रुख बदल
गया। उसके बाद शायद ही सोशल
मीडिया पर उनका भोजपुरी प्रेम दिखा हो। ऐसी मानसिकता भोजपुरी को कभी भी न्याय नहीं
दिला सकती।
भोजपुरी का सम्मान और गरिमा बढ़े, यह प्रत्येक भोजपुरी भाषी चाहता है क्योंकि यह उसकी मातृभाषा है जिससे उसका
गहरा लगाव और जुड़ाव है। किन्तु इसके लिए ज्यादा से ज्यादा उसके व्याकरण लिखे जाएँ,
साहित्य सृजन हो, संगोष्ठियाँ हों। फूहड़ता की जगह प्रगतिशील तत्वों का समावेश
हो तब जाकर भोजपुरी की गरिमा बढ़ेगी। वरना संवैधानिक दर्जा मिल भी गया तो उसका
फायदा मलाईदार पदों पर बैठे लोगों और फिल्मी दुनिया तक ही सीमित रहेगा। आम जनता को
इससे कुछ लाभ नहीं होने वाला है। एक बात और नोटिस करने वाली है कि अन्य राज्यों
में अपनी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलवाने के लिए बड़े–बड़े जन आंदोलन हुए हैं लेकिन भोजपुरी के लिए जनता की तरफ से उस तरह
की मांग देखने को नहीं मिलती है।
आज भोजपुरी सिनेमा और गानों से जुड़े कलाकारों की एक खेप राजनीति में भी उतर
चुकी है। इधर बीच राजनीति में उनकी मांग बढ़ गई है। कुछ राजनीति में सीधे उतरकर जीत
चुके हैं, कुछ जाने की तैयारी में
हैं और जो शेष बचे हुए हैं वे अन्य राजनेताओं को जितवाने के लिए स्टार प्रचारक की
भूमिका निभा रहे हैं। किन्तु जिनकी वजहों से आज भोजपुरी भाषा अश्लीलता और फूहड़ता
के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई है यदि भविष्य में ऐसे ही लोग संस्कृति का रक्षक बनकर मंत्री का दारोमदार संभाल ले तो इसमें हमें और आपको कोई आश्चर्य नहीं
होना चाहिए।
इस अंक के लिए वंदना कुमारी ने अपना बेहतरीन चित्र उपलब्ध कराया है, हम उनके शुक्रगुजार हैं।चर्चित पत्रकार रविश
कुमार को रमन मैगसेसे पुरस्कार और युवा
कवि विहाग वैभव को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिलने पर अपनी माटी पत्रिका की तरफ
से उन्हें बधाई।
जितेंद्र यादव
(संपादक)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
भोजपुरी के प्रति हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए आपको धन्यवाद। 🙏🙏🙏
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