राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर :
रामधारी सिंह दिनकर
राष्ट्र 'और 'चेतना'
दोनो स्वतंत्र शब्द हैं जिसके मेल से एक महान
शक्ति उद्भित होकर राष्ट्रीयता ,राष्ट्रीय भावना अथवा राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप धारण करती है।
यही भावना साहित्य में स्वर और सुर बनकर फूट पड़ती है और अनंतर प्रवाहित होती रहती
है। इससे जनमानस में सामूहिक चेतना का निर्माण होता है। “देश भक्ति का उद्वेलन कभी समर्पण तो कभी आंदोलन का रूप धारण
कर लेता है, जिससे व्यक्ति के स्वत्व से लेकर राष्ट्र तथा देश की स्वतंत्रता
और समानता की सुरक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण तक के भाव समाविष्ट होते हैं।"1 यहां यह जान लेना आवश्यक है कि राष्ट्र सर्वथा आधुनिक संकल्पना
नहीं है। इसका संबंध बहुत प्राचीन है। यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। यूं कहें तो यह
हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसका संस्कृति से अन्योन्याश्रित संबंध है। साहित्य
भी उसी संस्कृति का एक अंग है । यह परस्पर एक दूसरे में गुथे हुए होते हैं,जिससे जनमानस में राष्ट्रीय
चेतना को उत्तेजित तथा सुदृढ़ करने में सहायता मिलती है। इस पुनीत कार्य हेतु साहित्य सदैव अग्रणी की भूमिका में रहा है।
“संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया ।
‘साकेत’ की यह पंक्तियां जनमानस
में शक्ति का संचार करती हैं।उन्हें उद्वेलित करती हैं। इनकी कृति 'भारत भारती' का तो कहना ही क्या!
इस कृति ने इन्हें राष्ट्रकवि के पद पर आसीन करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है-
“सुख दुख में एक सा सब भाइयों का भाग हो ।
“तोड़ लेना वनमाली उस मुझे पथ पर देना तुम
फेंक ।
माखनलाल चतुर्वेदी एक तरफ स्वाधीनता हेतु क्रांतिकारी धारा से जुड़े रहे तो दूसरी तरफ उनकी रचनाओं में क्रांतिकारी
परिवर्तन हेतु की गई कुर्बानियों का वर्णन है। बालकृष्ण शर्मा 'नवीन 'भी इसी काव्य चेतना को अंगीकार करते हैं। इसी क्रम मे कवयित्री
सुभद्रा कुमारी चौहान का भी नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। एक रचना तो उनकी ऐसी
भी है जिसमें साफ-साफ उनकी क्रांति धर्मिता
परिलक्षित होती है- कहा मुझे कविता लिखने को /मैंने लिखा जालियांवाला बाग। इस कविता
की बानगी मात्र से ही सुभद्रा कुमारी चौहान की राष्ट्रीय चेतना का अंदाजा लगाया जा
सकता है और यह समझा जा सकता है कि उन्होंने 'झांसी की रानी 'कविता क्यों? और कैसे लिखी है ।
बहरहाल! इन सभी कवियों से भिन्न महाकवि रामधारी सिंह दिनकर का राष्ट्रीय चेतना का स्वर
है।
स्वाधीनता संग्राम में या बीसवीं सदी के आरंभ से ही राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीवाद
से भिन्न भी क्रांतिकारी संघर्ष होते रहे हैं ।इसके पीछे शीघ्र से शीघ्र परिणाम हासिल
करने का उद्देश्य रहता था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान ब्रिटिश सत्ता को शीघ्र से शीघ्र
उखाड़ फेंकने की जो आक्रोश भरी चेतना सक्रिय रही है, वही बीसवीं सदी के
तीसरे चक्र में सबसे अधिक संगठित और वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में अधिकार संपन्न तथा
जागरूक रही है। असहयोग आंदोलन के वापस लिए जाने के बाद युवा पीढ़ी के नवयुवकों में
खासकर क्रांतिकारियों में अभूतपूर्व क्षोभ एवं रोष व्याप्त हो गया। इस दौर में पूरे
देश में समाजवादी ,मार्क्सवादी तथा क्रांतिकारी गतिविधियां आकर्षण पैदा कर रही
थी। भगत सिंह ,चंद्रशेखर आजाद तथा सुभाष चंद्र बोस आदि युवा पीढ़ी के दिलों
में बस रहे थे। यही वह दौर है जब दिनकर की राष्ट्रीय चेतना प्रखर रूप ले रही थी-
रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी
की अधिकांश कविताएं राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत हैं। इन कविताओं में क्रांति का उद्घोष
है। हृदय के अंदर जल रही धधकती ज्वाला है। दास्तां की पीड़ा है और उसके विरुद्ध विद्रोह
की भावना है-
दिनकर 'वीर '
,'ओज' और 'शौर्य 'के कवि हैं। सोई हुई धमनियों में भी रक्त का संचार कराने की
सामर्थ्य इनकी कविता में निहित है। दास्ता और अपमान से रोज घुट-घुट कर मरने से बेहतर
है अपनी शान के लिए लड़ते हुए राष्ट्र की पुण्य बलिवेदी पर एक दिन शहीद हो जाना। दिनकर
की कलम इन्हीं की जय बोलती है। ओज-उत्साह के साथ- साथ दिनकर में अपने देश के प्रति
अपार करुणा भी है तभी तो वह पीड़ित मानवता और दलित समाज के भूखे ,नंगे ,गरीब लोगों के प्रति दिनकर की सहानुभूति सहज ही फूट पड़ती है -
“श्वानों को मिलता दूध वस्त्र,
दिनकर की द्वितीय श्रेणी की कविताओं में विश्व कल्याण की महती भावनाओं की अभिव्यक्ति
मिलती है। वास्तव में देखा जाए तो ऐसी ही कविताएं दिनकर को देश काल की सीमा से मुक्त
कर उन्हें विश्वव्यापी ख्यात दिलाती हैं। यह कविताएं विश्वकल्याण की पोशाक हैं। इन
कविताओं ने कवि विश्वक्रान्ति द्वारा शांति चाहता है। विश्व की विषम परिस्थितियां दिनकर को उसी प्रकार बेचैन करती हैं जिस प्रकार
देश की विषम परिस्थितियां चैन नहीं लेने देती। जिन लोगों ने यह आरोप लगाया कि दिनकर
युद्ध के कवि हैं शायद उन्हीं लोगों के जवाब
में यह कविताएं लिखी गई हैं। युद्ध विश्व की
तथा मानवता की बड़ी समस्या है। यह एक अभिशाप है। दिनकर भी युद्ध के पक्ष में कभी नहीं
थे-
"आशा की प्रदीप को जलाए चलो धर्मराज ,
दिनकर की कविता का मूल लक्ष्य मानवतावादी है। यह मानव को आत्म सम्मान के साथ जीने
का तथा स्वाभिमान के साथ स्वतंत्र रहने की वकालत करती है। रामधारी सिंह दिनकर ने सहज
रूप में युद्ध को मनुष्य के लिए हितकर नहीं माना
है । विश्व बंधुत्व के लिए युद्ध घातक है। इससे सिर्फ और सिर्फ मनुष्यता की
हत्या होती है। इससे मानवीय भावनाओ की हत्या होती है-
“ भाई पर भाई टूटेंगे ,विष वाण बूंद से छूटेंगे ,
“
छिनता हो स्वत्व कोई और तुम त्याग तप से काम
ले ,यह पाप है ।
'कुरुक्षेत्र 'की यह पंक्तियां गुलामी और अन्याय का प्रतिकार करती हैं। देशवासियों
में पुनः स्वाभिमान का संचार करती हैं। उनमें राष्ट्र के लिए मर मिटने का जज्बा पैदा
करती हैं। दिनकर की कविता में ही सिर्फ राष्ट्रीयता के स्वर नहीं मिलते बल्कि उनका
जीवन भी राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत हैं। बचपन से ही दिनकर में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट
कर भरी पड़ी थी। पढ़ाई के दिनों में उन्होंने स्वयं अंग्रेजी स्कूल से अपना नाम कटवा
लिया था। जवानी के दिनों में जब घर तंगी के हालात से गुजर रहा था उस वक्त उन्होंने
सामंती व्यवस्था के विरोध में सरकारी स्कूल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। सत्ता
और देशप्रेम में हमेशा उन्होंने देश के साथ खड़ा होना पसंद किया। इसी कारण वह सड़क
से संसद तक तथा जन-जन से जनपद तक बड़े चाव से पढ़े ,सुने और गुने जाते
हैं।
हिंदी साहित्य में राष्ट्रकवि का खिताब सिर्फ दो ही कवियों को प्राप्त है। प्रथम
मैथिलीशरण गुप्त को तथा द्वितीय रामधारी सिंह दिनकर को। दोनों कवियों के रचना और मिजाज
में अंतर है। राष्ट्रवादी चेतना की जो काव्य परंपरा चली आ रही थी उसे और तीव्र एवं
प्रखर बनाने का कार्य रामधारी सिंह दिनकर ने ही किया। उन्होंने आरंभ से ही ओज और तेज
से परिपूर्ण कविताएं लिखी। अपने को 'डिप्टी राष्ट्रकवि
'मानने वाली रामधारी सिंह दिनकर ने सर्वप्रथम गुप्त जी की रचना 'जयद्रथ वध 'के अनुकरण पर' प्रणभंग'
काव्य की रचना की। उसके बाद बहुचर्चित राष्ट्रवादी
चेतना को पोषित करने वाली हुंकार, रेणुका ,सामधेनी,
कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी,
पशुराम की प्रतीक्षा आदि रचनाए प्रकाशित हुई।
जिसमें दिनकर ने आर्थिक ,सामाजिक और धार्मिक समस्याओं की अपेक्षा देश की स्वतंत्रता प्राप्ति
के लिए क्रांति एवं विद्रोह का सिंहनाद करते हुए जन जागरण के भावना को ही सर्वाधिक
महत्व प्रदान किया है। जिन रचनाओं का प्रकाशन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुआ ;उनमें भी राज्यसभा सांसद होते हुए भी देश में व्याप्त राजनीतिक
दुर्बलता एवं समस्याओं पर अपने विचार खुलकर
प्रकट किए हैं। दिनकर की जब भी बात होती है तो लोग वह संस्मरण अवश्य सुनाते हैं कि
जब एक बार किसी कार्यक्रम में नेहरू जी शिरकत
करने मंच पर चढ़ रहे थे तो अचानक उनका पैर लड़खड़ा गया और दिनकर जी ने उन्हें संभाल
लिया। इसके उपरांत जब नेहरू जी ने कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहा तो दिनकर जी ने नेहरू
जी से कहा 'इसमें कृतज्ञता वाली कोई बात नहीं है हमारे देश का इतिहास रहा
है कि जब जब राजनीत लड़खडाती है तो साहित्य उसे सहारा देता है '।दिन कर का यह जवाब उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है ।यह जब तक
रहे ,जहां रहे राष्ट्र और कलम के साथ रहे।
“ऊंच-नीच का भेद न माने वही श्रेष्ठ ज्ञानी है ,
“अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है ,
चीनी आक्रमण एवं आजादी के बाद देश ने जितनी भी आपदाएं झेला दिनकर उसके साक्षी थे।
उस हर आपदा से कवि ने मुठभेड़ किया। हाथ पर हाथ रखकर बैठने से कुछ नहीं होगा जिसका
जो सामर्थ्य है वह उसके साथ आपदा से मुकाबला करने सामने आएं। सत्ता में रहते हुए सत्ता
को चुनौती देना आसान बात नहीं थी। सत्ता को आइना दिखाना, उसे गलत ठहराना बहुत जोखिम का काम था। आज सत्ता प्रमुख है ,शासन प्रमुख है और देश बाद में है। लोग जी हुजूरी करने में, चापलूसी करने में अपनी पूरी कूबत खपा देते हैं। दिनकर ठीक इसके
विपरीत थे। वह सच को सच कहने का साहस रखते थे। दिनकर जिस बात को कह देते थे आज कोई
नहीं कह सकता ।वह कांग्रेस के सांसद होते हुए भी नेहरू जी से बहस कर लेते थे और उन्हें
चुनौती दे देते थे। हमारे इतिहास और सांसद की गरिमा का प्रतीक बनने वाली दास्तान है।
जब चीनी आक्रमण के समय नेहरू की ढीली रवैया को देखकर रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें
एक तरह से ललकारते हुए कहा कि-
“ समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध ,
दिनकर सत्ता में रहते हुए सत्ता से जवाब तलब करने वाले सांसद थे। जब उनका कांग्रेस
से मोहभंग हो गया तो उन्होंने सत्ता बदल देने का भी आह्वान किया-
“ दो राह !समय के रथ को
सत्ता और सम्मान का लोभ दिनकर में नहीं
था। वह एक निर्भीक एवं स्वतंत्र चेतना के कवि थे। वह नेहरू जी का बहुत सम्मान करते
थे किंतु उनके लिए सब रिश्तो से बड़ा रिश्ता राष्ट्र का था। उन्होंने उन सभी राजनीतिज्ञों
का सम्मान किया जिनके अंदर राष्ट्रप्रेम की भावना थी। जिनके अंदर समाज के लिए कुछ करने
की ललक थी। उन सभी पर दिनकर ने कविताएं भी लिखी है। चाहे वह गांधी हो ,नेहरू हो,
लोहिया हो या जयप्रकाश हो।
राष्ट्रप्रेम अथवा राष्ट्रीय चेतना
इस देश में सदैव से रही है,
जैसा कि हमें विदित है- कोई भी देश बनता है
भौगोलिक क्षेत्र से,
उस क्षेत्र में रहने वाली जनता से, उसकी भाषा से, उसकी रहन-सहन तथा संस्कृति
से और इन सबका प्रतिबिंब साहित्य में मिलता है ।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस बात को
इस प्रकार स्वीकार किया है कि "प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति
का संचित प्रतिबिंब होता है ।"2 तब यह निश्चित है
कि हिंदी साहित्य के प्रत्येक कालखंड में अपने
युगबोध के सापेक्ष कवियों ने अपनी कविता में राष्ट्रीयता के स्वर अवश्य दिए होंगे।
उन्होंने दिया भी है, क्योंकि राष्ट्रवाद का कोई एक रूप नहीं होता ।क्रांतिकारी राष्ट्रवाद, सुधारवादी राष्ट्रवाद, जन राष्ट्रवाद ,पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद आदि राष्ट्रवाद के विचारधारात्मक प्रकार हैं। इन्हें हम हिंदी साहित्य के आदिकाल
,भक्तिकाल तथा रीतिकालीन
साहित्य में पाते हैं ,किंतु राष्ट्रीय चेतना एक प्रवृति के रूप में अपनी पूरी धमक
के साथ हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में ही प्रतिष्ठित होती है।
आधुनिक काल में हिंदी साहित्य
की एक प्रमुख विशेषता राष्ट्रीयता रही है ।हिंदी
साहित्य का आधुनिक काल पराधीनता तथा स्वतंत्रता का युग है, इसलिए इस कालखंड की कविता में राष्ट्रीयता की चटख कुछ ज्यादा
है ।इसकी शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। भारतेन्दु तथा भारतेंदु मंडल के कवियों के
बाद यह उत्तरोत्तर पुष्पित और पल्लवित होती चली गई। जिसके संवाहको में मैथिलीशरण
गुप्त, जयशंकर प्रसाद, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा' नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी तथा रामधारी सिंह दिनकर आदि का नाम प्रमुख
रूप से लिया जाता है। इन सभी कवियों ने संपूर्ण भारत के प्रति आस्था, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा, मानवता के प्रति समर्पण, सामंती प्रवृत्ति के
प्रति विद्रोह तथा स्वतंत्रता के लिए संकल्प एवं हुंकार भरते रहे हैं। हिंदी साहित्य के इन सब कवियों की अपनी -अपनी
विशेषता रही है और सब में परस्पर फर्क भी। इन सब में दिनकर की विशेषता को समझने के
लिए इनके अंतर को समझना होगा। आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम घोषित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण
गुप्त को पुनरुत्थानवादी कवि कहा जाता है। इस मान्यता पर दिनकर जी भी सहमत हैं। राष्ट्रीयता
के भीतर एक प्रवृति पुनरुत्थानवादी की रही
है। वैसे मैथिलीशरण गुप्त पुनरुत्थान वादी थे ? यह हिंदी आलोचना में
विवादास्पद है । वह अपने देश के अतीत गौरव
की ओर देखते हैं,
वहां जाते हैं तथा पाठकों को पहुंचाते हैं
। यह बात सत्य है ,किंतु उनका मुख्य रूप से ध्यान स्वाधीनता का ही रहा है। वह महाभारत
और रामायण के साथ इतिहास के किसी दौर की कथा और चरित्र को जब उठाते हैं तो उसको आधुनिक
राष्ट्रीयता की दृष्टि से ही देखते और प्रस्तुत करते हैं-
इस भूतल को ही
स्वर्ग बनाने आया”।।3
अंतः करण में गूंजता
राष्ट्रीयता का राग हो।।”4
मैथिलीशरण गुप्त पर गांधीवाद का जबरदस्त प्रभाव था। रामनरेश त्रिपाठी यद्यपि कभी
अतीत में नहीं जाते। वह अपने सामने हुए आंदोलन की घटनाओं को समेटकर अपनी कथा तैयार
करते हैं। इस दृष्टि से माखनलाल चतुर्वेदी का कार्य सबसे भिंन्न है। यह राष्ट्रीय भावना
के ओजस्वी कवि हैं-
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक।।”5
“ रे !रोक युधिष्ठिर को न
यहां ,
जाने दो उनको स्वर्ग
धीर ।
पर फिरा हमें गांडीव
गदा,
लौटा दे अर्जुन
भीम भीम वीर।।”6
'हिमालय' कविता की ये पंक्तियां राष्ट्रीय भाव को व्यक्त करने के लिए
बहुत प्रसिद्ध हैं। यही वह दौर है जब बिहार प्रांत के सिमरिया गांव के इस सूर्य के
ताप को पूरा हिंदुस्तान महसूस करने लगा था। जिसके हुंकार से न जाने कितने वर्षों के
सोए इस देश की नींद में खलल पैदा कर उसमें
नई शक्ति का संचार पैदा किया। स्वाधीनता के लिए उन्हें ललकारा तथा उनके अंदर की शक्ति
को बाहर निकालने का प्रयास किया। उस दौर के हनुमानों के भीतर छिपी शक्ति को बाहर लाने के लिए दिनकर ने अपनी कविता
के माध्यम से जामवंत की भूमिका का निर्वहन किया-
“ सच है विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती
है ।
है कौन विघ्न ऐसा
जग में ,
टिक सके वीर नर के
मग में ।
मानव जब जोर लगाता
है ,
पत्थर पानी बन जाता
है।
बत्ती जो नहीं जलाता
है ,
रोशनी नहीं वह पाता
है।।”7
“जातीय वर्ग पर क्रूर प्रहार हुआ है ,
मां के किरीट पर ही यह
बार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े नहीं
डरना है,
जन्मे है तो दो बार नहीं
मरता है।।”8
भूखे बालक अकुलाते
हैं ।
मां की हड्डी से
चिपक ,
ठिठुर जाड़े की रात
बिताते हैं।।”9
एक दिन होगी भूमि
रणभीति से। या
धर्म का दीपक ,दया का दीप ,
कब जलेगा, कब जलेगा,
विश्व में भगवान।"10
वापस श्रृंगाल सुख लूटेंगे
,सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।।”11
यह बात आज के समय में भी चरितार्थ होती महसूस होती है। युद्ध तो प्राय: पड़ोसी
देशों के बीच ही हुआ करते हैं। इसमें हथियारों का कारोबार करने वाले श्रृंगार ही सुख
लूटते हैं। किन्तु दिनकर उस वक्त युद्ध के पक्ष में भी खड़े होते हैं जब इसके अलावा
कोई अन्य विकल्प नहीं हो। अन्याय के विरुद्ध निर्भयता के लिए यह आवश्यक है-
पुण्य है बिछिन्न कर देना उसे ,बढ़ रहा तेरी तरफ जो
हाथ है।।”12
किसी भी देश का सच्चा राष्ट्रकवि
कौन हो सकता है?
इस पर गेटे की स्थापना बहुत महत्वपूर्ण है।
उनके अनुसार राष्ट्रकवि उसे कहना चाहिए “जिसने अपने जाति के
इतिहास के सभी प्रमुख घटनाओं के पारस्परिक संबंध का संधान पा लिया है । जिसे यह ज्ञात
हो चुका है कि उसके जाति इतिहास में कौन-कौन
सी बड़ी घटनाएं घटी है। उसके परिणाम
क्या निकले हैं?
राष्ट्रकवि की एक पहचान यह भी है कि उसे अपने
देशवासियों के भीतर निहित महत्ता का ज्ञात होता है। अपनी जाति की गहरी अनुभूतियों से
परिचित होता है। उसे इस बात का पता होता है कि उसकी जात की कर्मठता का प्रेरक स्रोत
क्या है। राष्ट्रकवि का एक लक्षण यह भी है कि उसकी जाति जिस उमंग से चालित होकर संपूर्ण
इतिहास में काम करती आई है उसे वह कलात्मक ढंग से व्यक्त करें। राष्ट्र कवि केवल वह
कवि हो सकता है जिसकी रचना में जाति अपनी आत्मा
की प्रति छाया देखती हो। जिसमें उस जाति के बाहुबल का आख्यान हो। उसके विचारों
की ज्योति और भावनाओं का गुंजन विद्यमान हो। और कोरे कवि जातीय कवि होने का दावा कर
भी नहीं सकते जातीय कवि तो वे ही लोग होते हैं जिनमें कल्पना के साथ कर्मठता को भी
प्रेरित करने की शक्ति हो। जो केवल अतीत की आराधना नहीं करके अपने व्यक्तित्व के जोर
से भविष्य को भी प्रभावित करता है।
राष्ट्रकवि वह वैनतेय (गरूड़) है जो बहुत ऊंचाई
पर उड़ता है। जिसकी एक पाख तो अतीत को समेटे रहती है किंतु जो अपने दूसरी पाख से भविष्य
की ओर संकेत करता है। राष्ट्रकवि उसे कहना चाहिए जो अपने देश के प्रत्येक संस्कृति
को अपने में समा लेता है। जो देश के प्रत्येक वर्ग का अपने को प्रतिनिधि समझता है।
और सभी संप्रदायों के बीच जो देशगत एक्य है उसे मुखर बनाता है।"13 उक्त बातें रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं पर अक्षरश: फिट बैठती है। इन सब का सांगोपांग निर्वहन
दिनकर की कविताओं में हुआ है। इनके यहाँ भारतीय संस्कृति, आत्म गौरव एवं पराक्रम
के संगम का अद्भुत उदाहरण मिलता है-
दया धर्म जिसमें हो सबसे
वही पूज्य प्राणी है ।।
तेजस्वी सम्मान खोजते
नहीं गोत्र बतला कर,
पाते हैं जग से प्रशस्ति
अपना कर्तव्य दिखला कर।।”14
दिनकर की एक बड़ी विशेषता उनकी राजनीतिक चेतना है। देश स्वतंत्र होने के बाद जो
कुछ भी चीजें धुधली थी वह सब सब साफ हो गई। सड़क से लेकर संसद तक की पहुंच ने दिनकर
को वह मौका दिया जिससे वह शासन और सत्ता के बीच रहकर उसकी कमियों एवं आम जनता के शोषण
के केंद्रों को ठीक ढंग से पहचान सकें। उनसे सवाल-जवाब कर सके। उन्हें आईना दिखा सके-
पौरूष का आतंक मनुज कोमल
होकर खोता है।।
क्षमा शोभती उस भुजंग
को जिसके पास गरल हो ,
उसको क्या जो दंत हीन
विष रहित विनीत सरल हो।”12
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा
उनका भी अपराध।।16”
पहिए का घर घर नाद
सुनो।
सिंहासन खाली करो कि
जनता आती है।।”17
राष्ट्रवादी विचारधारा की हिंदी कविताओं में वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे
और उसकी गूंज सालों साल तक सुनाई दे, जिसको सुनकर रोए भड़क
उठे ,ऐसा बहुत ही कम देखने एवं सुनने को मिलती है। जिन कवियों को
यह ख्याल मिलती है जिनको यह यश या लोकप्रियता हासिल है वह कुछ जन कवि होते हैं या राष्ट्र
कवि होते हैं। ऐसा कवि जो जन कवि भी हो और राष्ट्र कवि भी हो यह इज्जत बहुत कम कवियों
को प्राप्त हो पाती है। रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं। जिनकी कविता
किसी अनपढ़ किसान को भी उतने ही रुचिकर लगती है जितना कि उन पर शोध कर रहे एक शोधार्थी
को लगती है। ऐसा क्यों है ?इस बात का जवाब एवं जवाब की पुष्टि उनकी कविता से ही हो जाती
है-
मैं
निस्तेजो का तेज़,
युगों के मूकमौन की बानी हूं ।
दिल -जले शासितो के दिल
की मैं जलती हुई कहानी हूं।।”18
संदर्भ सूची:
1- महाले ,डॉ. सुभाष ,'माखनलाल चतुर्वेदी और वि. दा . सावरकर की कविताओं में
राष्ट्रीय चेतना',( 1997), चंद्रलोक प्रकाशन
,कानपुर ,पृष्ठ -25।
2-शुक्ल,आचार्य रामचंद्र,' हिंदी साहित्य का इतिहास ',(2008), प्रकाशन संस्थान ,नई दिल्ली ,पृष्ठ-21।
3-रस्तोगी ,डॉ.देवी शरण ,'आधुनिक कवि और उनका काव्य',( 1983) राजहंस प्रकाशन ,मेरठ ,पृष्ठ सं.-0 7।
4- वही, पृष्ठ सं.-36।
5-त्रिपाठी,
विश्वनाथ ,'हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास ',(2000), एन .सी .आर .टी .नई दिल्ली ,पृष्ठ सं. 118।
6-दिनकर ,रामधारी सिंह, 'संचयिता',( 2015 ),भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली पृष्ठ-31।
7-दिनकर ,रामधारी सिंह ,'रश्मिरथी'( 2002 ),लोकभारती प्रकाशन ,इलाहाबाद ,पृष्ठ संख्या -27।
8-दिनकर ,रामधारी सिंह, 'संचयिता',( 2015 ),भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली,
पृष्ठ संख्या-49।
9-आधुनिक काव्य,
संपादक -हिंदी विभाग ,काशी हिंदू विश्वविद्यालय( 2011 ),विश्वविद्यालय प्रकाशन ,वाराणसी , पृष्ठ संख्या -145।
10-दिनकर ,रामधारी सिंह, 'संचयिता',( 2015 ),भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली पृष्ठ
संख्या-95।
11-वही, पृष्ठ संख्या-100।
12-वही, पृष्ठ संख्या-27।
13-दिनकर ,रामधारी सिंह ,'उर्वशी'( 2001 ),लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद पृष्ठ 134।
14-दिनकर ,रामधारी सिंह ,'रश्मिरथी' (2002 )लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ,
पृष्ठ संख्या -9।
15-दिनकर ,रामधारी सिंह, 'संचयिता',( 2015 ),भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली पृष्ठ
संख्या-9।
16-वही , पृष्ठ संख्या-101।
17-वही, पृष्ठ संख्या-133।
18-आधुनिक काव्य,
संपादक ,हिंदी विभाग ,काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी ,(2011),विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ संख्या 45।
डॉ.निरंजन कुमार
यादव,असिस्टेंट
प्रोफेसर-हिंदी, राजकीय महिला
स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,गाज़ीपुर
बेहतरीन
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