शिक्षा में
स्वराज के मायने
सन 1950 और 1960 के दशक में जब तीसरी दुनियां के अधिकांश देश
आज़ाद हुए तब दुनिया के तमाम देशों के साथ भारत ने भी पश्चिम की नकल पर आधारित
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का चुनाव किया और पश्चिम के सन्दर्भों के लोकतंत्र को
स्थानीय सन्दर्भों में ढालने की कोशिश की गयी। राजनैतिक तंत्र के साथ-साथ शैक्षिक
तन्त्र की भी नकल पश्चिम के विकसित पूंजीवादी देशों से की गयी और इन देशों को मॉडल
मानकर अन्य संदर्भों में उपजी शिक्षा प्रणाली को अपना लिया गया। भारत के
लोकतान्त्रिक मॉडल ने दुनिया भर में अपनी पहचान बनायीं लेकिन भारत की शिक्षा
व्यवस्था वैश्विक स्तर पर लगातार पिछड़ती ही रही।
अपने इस दावे के विपरीत की भारत विश्व
गुरु है और दुनिया में ज्ञान का प्रसार भारत से हुआ है, भारत की शिक्षा प्रणाली न केवल विश्व के शैक्षिक जगत में
अपनी पहचान बनाने में असफल सिद्ध हुई बल्कि राष्ट्र के लिये एक अच्छा नागरिक बनाने
का कार्य भी व्यवस्थागत अनियमितताओं के भेंट चढ़ गया। ऐसी स्थिति में जब देश की
कानून व्यवस्था पर भीड़ तंत्र हावी हो रहा है और जनता अपना विवेक को तिलांजलि देकर
सांप्रदायिक शक्तियों के बहकावे में आ रही है ज़रूरत है शैक्षिक व्यवस्था में सुधार
करने की शिक्षा व्यवस्था में स्वराज लाने की ताकि न केवल इस व्यवस्था से एक बेहतर
विवेकशील नागरिक का निर्माण हो पाये साथ साथ अच्छे व्यवस्था अच्छे इन्सान भी समाज
को दे पाए।
भारत का शिक्षा तंत्र योरप की कोरी
नक़ल के अलावा कुछ और नहीं है जिसका इजात अंग्रेजों ने केवल अपनी प्रशासनिक
व्यवस्था को बनाये रखने के लिये किया था।
रही सही कसर तब और पूरी हो गयी जब शिक्षा मंत्रालय का नाम मानव संसाधन
मंत्रालय हो गया। आज भारत को जरूरत है शिक्षा के इस परम्परागत ढर्रे से निकल कर इस
क्षेत्र में स्वराज लाने की और इसके भारतीयकरण और विउपनिवेशीकरण की और प्रणाली को
स्थानीय सन्दर्भों में गढ़ने की। यहाँ भारतीयकरण का कतई ये अर्थ नहीं है कि हमें
इतिहासवादी हो जाना चाहिए और ‘विश्व गुरु’
के खोखले दंभ को अपना लेना चाहिए बल्कि
सकारात्मक अर्थों में ज्ञान का और शिक्षा का स्थानीयकरण करना होगा ताकि ये
व्यवस्था ज्यादा लोकतान्त्रिक बन सके और समस्याओं के मूर्त समाधान दे सकने में मददगार
सिद्ध हो।
शिक्षा में स्वराज्य के अर्थ को चार
हिस्सों में समझा जा सकता है। पहला हिस्सा है, शिक्षा का संस्थागत तंत्र का जिसमे में सुधार की आवश्यकता
है। भारतीय शिक्षा तन्त्र की खास कमी ये है कि मोंतेंसरी से लेकर आधुनिक अमरीका के
शोध केन्द्रित विश्वविद्यालयों तक ये पूरा तंत्र पश्चिम की अधूरी नक़ल है। जहाँ
सीखने से ज्यादा अंकतालिकाओं पर जोर दिया जाता है, जहाँ आईआईटी, आईआईएम, जेएनयू सरीके कुछ अच्छे शिक्षा की संस्थाओं के नाम पर
ज्ञान के टापू बन चुके हैं, और जहाँ स्वत: ही
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में असमानता हस्तांतरित की जा रही है, जहाँ नए ज्ञान के
निर्माण से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं है और जहाँ रोज़गार की सीढ़ी के अपने अदृश्य
दरवाज़े हैं। शिक्षा में स्वराज के लिये इस व्यवस्था का मूलमंत्र होना चाहिए सबको
शिक्षा, समान शिक्षा, सुलभ शिक्षा और मुफ्त शिक्षा। जहाँ व्यक्ति में
किसी भी प्रकार का कोई भेद हो और न ही तंत्र के पास इतनी ताकत हो कि वे व्यक्ति
में भेदभाव कर पाये।
दूसरा हिस्सा शिक्षण शास्त्र में सुधार से जुड़ा हुआ है। शिक्षण की पद्धति क्या
हो? भारत में शिक्षण पद्धति का प्राचीन इतिहास गुरु-शिष्य
परम्परा और श्रुति-स्मृति परम्परा का रहा है और फिर रटंत विद्या पर आधारित शैक्षिक
प्रणाली। आज इन दोनों पद्धतियों पर सवाल उठाने का समय है। ये पद्धतियाँ न केवल
भारत में सामन्ती किस्म के शोषण का माध्यम बनी है बल्कि इसने शिक्षा से समाज के एक
बड़े तबके को भी बाहर रखने का भी काम किया है। शिक्षण
शास्त्र में सबसे पहले भाषा का सवाल महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज इस बात को समझने
में बिलकुल नाकाम रहा है कि भाषा ज्ञान तक पहुँचने और संप्रेषण का का केवल मात्र एक जरिया है। वैश्विकरण के दौर
में जहाँ सब कुछ ग्लोबल हो गया है वहां अग्रेज़ी सीखना जानना ज़रूरी है लेकिन
अंग्रेजियत और औपनिवेशिक मानसिकता आज भी समाज के दिमाग में गहरी पैठ किये हुए हैं।
जहाँ अंग्रेजी भाषा के बजाय अग्रेजी माध्यम में शिक्षा पर जोर दिया जाता है और
बच्चों के सीखने समझने की नीवं शुरू से ही कमज़ोर रह जाती है। इसके विपरीत एक
व्यवहारिक समाधान प्रस्तुत करते हुये राष्ट्रीय पाठचर्या रूपरेखा 2005 यही सुझाती है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा
उनकी मातृभाषा में होनी चाहिए। पूरी दुनिया के मनोविज्ञानियों से शोध से सिद्ध
किया है कि बच्चेके शुरुआती अध्ययन मातृभाषा में होने से बच्चे की संज्ञानपरक
क्षमता बढती है। दूसराज़रूरी सवाल शिक्षण की विधियों से जुड़ा हुआ है। इस हेतु हमें
गाँधीजी की नई तालीम की विधियों की ओर लौटना पड़ेगा जहाँ गांधीजी श्रम को विचार से
ज्यादा महत्व देते थे जिसे आज की भाषा में करते हुए सीखना या ‘लर्निंग बाय डूइंग’कहा जाता है। आज के समय में जहाँ हाथसे किये गये कार्य औरशारीरिक श्रम से जुड़े पेशों को समाज में
इज्जत की नज़र से नहीं देखा जाता है गांधीजी कर्म कौशल पर बल देते हैं और उसे ही
ज्ञान की पहली सीढ़ी मानते हैं। जहाँ हर व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने के लिए हाथ
मैले करने पड़ेगें और इसी से ही शिक्षा व्यवस्था विसामंतीकरण, विउपनिवेशीकरण, विपश्चिमीकरण और विब्राह्मणीकरण संभव हो पायेगा।
शिक्षा में स्वराज से जुड़ता हुआ तीसरा हिस्सा पाठचर्या से जुड़ा हुआ है।
समकालीन भारत का शैक्षिक पाठ्यक्रम पश्चिम की भौंडी नकल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
है। जहाँ पश्चिम से चला ज्ञान अपने सन्दर्भों से काटकर भारत में अपना लिया गया है।
भारत के पाठ्यक्रमों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये अपने नजदीकी सन्दर्भ और अपनी
ज़मीन से जुड़ा न होकर अमूर्त सिद्धातों से जुड़ा हुआ है। इस क्षेत्र में स्वराज का
अर्थ है कि ज्ञान का निर्माण स्थानीय सन्दर्भों से जुड़ा हुआ हो और इसके निर्माण
में भारतीय लोक विद्या और प्रगतिशील परम्पराओं का उपयोग करना चाहिये। और इन सब में
सबसे ज़रूरी बात ये है कि इन सब में मूल्यों का समावेश होना चाहिये इसके साथ यहाँ
भारतीय मूल्य का सीधा अर्थ ये है कि सम्पूर्ण व्यवस्था को संवैधानिक मूल्यों जैसे
समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता इत्यादि को
पोषित करने वाला होना चाहिये। इन मूल्यों के समावेशीकरण से ही पाठ्यचर्या में
स्वराज आ पायेगा।
चौथा और अंतिम हिस्सा शिक्षा के
उद्देश्यों से जुड़ा हुआ है। आज के समय में शिक्षा का सीधा उद्देश्य रोज़गार से
लगाया जाता है और शैक्षणिक संस्थाओं के
दरवाज़े के बाहर लिखा एक वाक्य ‘ज्ञानार्थ प्रवेश
सेवार्थ प्रस्थान’ नेपथ्य में चला
गया है। विद्यार्थियों के हाथों में कौशल
पैदा करने की बजाय व्यवस्था केवल मल्टीनेशनल कंपनियों के लिये मुलाजिम ही तैयार कर
रही है। शिक्षा के लक्ष्यों के बारे में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा बेहद
खूबसूरती से ये सुझाती है कि ज्ञान का लक्ष्य अच्छा विवेकशील मनुष्य बनाना है जो
कि आत्मवंचना, आत्मनिभिज्ञता को
दूर कर सकने में सक्षम हो और आत्मज्ञान प्राप्त कर सके और पूर्वाग्रहों से दूर कर
सके। लेकिन समकालीन दौर में ये भी हाशिये पर जाता दिखाई दे रहा है।
अकसर सरकारें शिक्षा के भारतीयकरण और
स्वराज के नाम पर केवल अपने वैचारिक आईने से पाठ्य पुस्तकों को बदलने पर ही जोर
देकर अधूरा, नकली और फूहड़
कार्य करती रही हैं । जबकि शिक्षा में स्वराज का इससे कहीं भिन्न और सकारात्मक
अर्थ है जिसे इस क्षेत्र में समग्रता से ही कार्य करने पर लाया जा सकता है।
विजय मीरचंदानी
शोधार्थी, राजनीति
विज्ञान
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
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