गली आगे मुड़ती
है: विश्वविद्यालयी शैक्षिक परिदृश्य
शैक्षिक स्तरीकरण में विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तर उच्च होता है। विश्वविद्यालय एक ऐसा स्थान होता है जहां छात्रों, शोधार्थियों और विद्वत्जनों के साथ भौतिक व आध्यात्मिक शक्तियों की खोज की जाती है। देश का भाग्य व सम्पन्नता वहाँ के विश्वविद्यालयों से जुड़ा होता है। उच्च शिक्षा के विकास में सम्पूर्ण मानवता का विकास निहित है। विश्वविद्यालय एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है जिसका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय हितों को जागृत करने के साथ ही मानव व प्राकृतिक वातावरण की रक्षा करना है।
’गली आगे मुड़ती है’ का प्रकाशन सन् 1974 में हुआ था। उपन्यास में विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त
अव्यवस्था की लेखक ने बहुत सटीक अभिव्यक्ति की है। उपन्यास का कथानक समसामयिक
समस्याओं द्वारा बुना गया है। इस उपन्यास के साक्ष्य पर युवा-आक्रोश के बीज को
मुख्यतः हमारी व्यवस्था की मिट्टी जन्म देती है। विश्वविद्यालयों के अध्यापक लोगों
की आपसी राजनीति का शिकार बनने वाले कई युवालोग अब भी हैं। इस उपन्यास के पात्र
रामानन्द भ्रष्ट राजनीति का शिकार है इस कुटिल राजनीति के कारण ही प्रथम
स्थान की बजाय तृतीय स्थान ही उसे मिलता है, जिसका अंक जान बूझकर कम कर दिया जाता है। वह इसलिए यू0 जी0 सी0 छात्रवृŸिा से वंचित हो जाता है। छात्रों पर हो रहे
अन्याय का उल्लेख करते हुए छात्र नेता शुक्ला कहता है-’’आपने गलत तरीके से अन्यायपूर्ण मार्किंग की है। आपने बिना
पढे़ कापियों पर नंबर चढ़ा दिये हैं । कुछ लोगों को जिन्हें पद-पाठ करना भी नहीं आता, सत्तर-अस्सी अंक दिये गये हैं और जिन्होंने बिल्कुल ठीक लिखा है, उन्हें तीस-बत्तीस अंक देकर चालू कर दिया गया है।’’1 शिक्षण संस्थानों में आए दिन परीक्षा प्रणाली व मूल्यांकन
में गड़बड़ी सुनने को मिलती है। छात्रों द्वारा नकल करने की संभावना जानकर कम अंक
दिए जाते हैं। योग्य छात्र रामानंद के साथ ऐसा ही किया जाता है। अधिकांश संस्थानों
में मूल्यांकन के समय ऐसी ही भावना देखी जाती है। परिवर्तनशीलता के चक्र ने तथा
छात्रों की जागरूकता ने इस स्थिति में परिवर्तन कर दिया है। आज सूचना के अधिकार के
अन्तर्गत कोई भी छात्र अपनी मूल्यांकित उत्तर-पुस्तिका का पुनः अवलोकन कर सकता है परन्तु इन नियमों के होते हुए आज भी
मूल्यांकन में अपारदर्शिता है।
’गली आगे मुड़ती है’ युवा छात्र शक्ति पर आस्था रखने वाला उपन्यास है। परीक्षाओं
में होने वाले पक्षपात, स्काॅलरशिप और
स्थानीय गुटबंदी जैसे कोई न कोई छोटे सवालों के नाम पर छात्र क्रुद्ध हो जाते हैं
और आन्दोलनों के नाम पर आतताई होकर गली-मोहल्लों पर अन्याय करते हैं। लेखक ने
स्वयं इस विषय पर अपना विचार व्यक्त किया है-’’युवा-आक्रोश पूरे युवा-समाज में फैली वस्तु है और उसे ठीक
से समझने के अभाव में न तो उसका सही निदान हो रहा है और न ही उसे सही दिशा देने की
कोई सार्थक कोशिश। युवा एक शक्ति है, नयी पीढ़ी के हाथ में ही भविष्य है। भले ही वे हाथ अभी कमजोर हों, भले ही कच्चे और बेडौल हों, पर इसमें संदेह नहीं कि भविष्य को मोड़ने का
कार्य इन्हीं हाथों संपन्न होगा, तो क्या यह जरूरी
नहीं है कि इनके असंतोष के मूल कारण को ठीक से समझकर इन्हें सही मोड़ देने की कोशिश
हो।’’2
मुख्य रूप से यह उपन्यास काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के हिन्दी आंदोलन पर केन्द्रित रहा है। किन्तु इस आन्दोलन के माध्यम
से लेखक का उद्देश्य भारत में सर्वत्र व्याप्त छात्र आंदोलन के कारणों को सामने
लाना है। यह युवा संघर्ष केवल छात्र वर्ग तक ही नहीं सीमित है। समाज का हर युवा
कहीं न कहीं जूझ रहा है। कहीं पुरानी पीढ़ी से कहीं गुटबंदी और भ्रष्टाचार से तथा
अपने भ्रम से भी लगातार जूझ रहा है। इस समस्त संघर्ष की उपस्थिति करने का प्रयत्न
ही इस उपन्यासकार का उद्देश्य रहा है। इस आन्दोलन की आड़ में विभिन्न राजनीतिक दल
छात्रोें को प्रलोभन देकर उन्हें अन्याय के पथ पर अग्रसर करते हैं। छात्रों पर
लाठी चार्ज और गोलियाँ चलायी जाती हैं। इससे छात्र कई तरह के अत्याचार का शिकार हो
जाते हैं। ऐसे माहौल का चित्रण लेखक ने इस उपन्यास में किया है।
हिन्दी आन्दोलन को छात्र ’अभिव्यक्ति’ की समस्या के रूप में अंग्रेजी का बहिष्कार करने के लिए
छोड़ते हैं पर हजारों छात्रों का जमावड़ा जब भीड़ के रूप में अनियंत्रित हो जाती है
तब वह समाज विरोधी रूप धारण कर लेती है। सारे देश में भाषा आंदोलन ने गति पकड़ ली
थी। छात्रों ने नारा दिया था। ’’अंग्र्रेजी में
काम न होगा, फिर से देश गुलाम
न होगा।’’3 अपनी हिंदी भाषा के
प्रति समर्पित होकर उसकी मांग करना गलत बात नहीं थी। परन्तु उसे भी गलत रूप दे
दिया गया। ’’अंगे्रजी हटाओ
आंदोलन ’हिंदी लाओ’ में कब कैसे और किसने परिवर्तित कर दिया,
छात्रनेता कुछ भी समझ नहीं पाये। परिणाम यह हुआ
कि छात्रों के शांतिपूर्ण जुलूस पर पी0ए0सी0 ने अश्रुगैस के गोले छोड़, लाठी चलायी और गोली भी। पी0ए0सी0 ने छात्रों को भगाने का मौका तक नहीं दिया। कई
छात्र बुरी तरह से घायल हुए। छात्र नेताओं ने माँग की पी0ए0सी0 हटाओ। बात अंग्रेजी हटाओ से शुरू हुई और पी0ए0सी0 हटाओ पर आकर समाप्त हो
गई।’’4 आन्दोलन या हड़ताल से
कितनी क्षति होती है? यह घटना को
अवलोकित कर ही कहा जा सकता है। अन्य क्षेत्रों में हुई हड़तालें व आन्दोलन अधिक
प्रभावी नहीं होते हैं परन्तु शैक्षिक परिवेश में होने से इस पर उनका प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है। व्यवस्था के चरमराने के साथ ही वहाँ की संपत्ति तथा वर्षों से सजोए गए उपकरणों व साधनों को
पल भर में छिन्न भिन्न कर दिया जाता है। साधनों व उपकरणों के नष्ट हो जाने से
शिक्षण प्रक्रिया में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। लेखक ने सन् 1967 ई0 के छात्रों द्वारा भाषाई आन्दोलनों की घटना को यथातथ्य अंकित किया है। प्रो0 रामकली सराफ कहती हैं-’’दरअसल आंदोलन तो तोड़-फोड़ की प्रकृति से जुड़ा ही होता है।
आंदोलन की गर्माहट रूढ़ तत्वों को तोड़ेगी।
वह पारंपरिक जकड़न को झकझोर डालती है। परंपराओं से भी चुनौती मिलती है। यहां ’अंग्रेजी हटाओ आंदोलन’ सत्ता की
अभिमान्यताओं के लिए चुनौती बनता है। यह आंदोलन कुल मिलाकर सत्ता का विरोध था। अंग्रेजी इस देश की भाषा को
रोकती है। यह औपनिवेशिक गुलामी का अवशेष है।’’5
इस प्रकार अन्तरात्मा से जुड़ा
अभिव्यक्ति के संकट का सवाल धरा का धरा रह जाता है। युवा-आक्रोश के रूप में इस
जुलूस के साथ हुई उन शातिर चालबाजियों की शक्लें भी लेखक पेश करता है, जो छिपी रहकर हथकंडों का इस्तेमाल करती हैं और
ऐसे आन्दोलनों को गलत रास्तों पर मोड़कर अपने-अपने हितों की सिद्धि के लिए राजनीति
का रूप भी यहाँ मिलता है जो देश की युवा शक्ति को बर्बाद करती जा रही है- भविष्य
की हत्या करती जा रही है। विश्वविद्यालय की शिक्षा पद्धति में व्याप्त
दुव्र्यवस्था को लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।
आज साहित्यकार न तो सम्राटों की
यशोगाथा गा रहा है और न ही अब ऐसे मनोरंजनपूर्ण व कल्पना से सिक्त साहित्य को ही महत्व दिया जा रहा है। मनुष्य
के जीवन स्तर को उठाने के लिए मानवता से युक्त साहित्यकार सर्जना करके अग्रिम
पंक्ति में खड़ा होना चाहता है। देश की एक तिहाई जनसंख्या युवाओं की है। उनमें कुछ
ही शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लेकर शिक्षा ग्रहण करते हैं। इन्हीं युवाओं के
हाथों में देश की बागडोर होती है। यही छात्र आगे चलकर देश को उच्च शिखर पर
पहुँचाते हैं। जब इन्हीं युवाओं के अन्तर्मन पर चोट की जाती है तो क्रोध, आवेश व विद्रोह का भयंकर विस्फोट होता है। समाज व देश के अनेक विषयों को विषयांकित कर
साहित्यकार उनकी अप्रत्यक्ष भविष्यवाणी कर सतर्क रहने की शिक्षा देता है। उस समय
के ऐसे ही युवा साहित्यकार ’जब देश प्रगति के
पथ पर कदम बढ़ा रहा था’ शिवप्रसाद सिंह
सामने आते हैं। इन्होने युवा आक्रोश को प्रत्यक्ष देखा था। जिसे देखा उसे ’गली आगे मुड़ती है’ में व्यक्त किया है। उपन्यास में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
तथा उसके परिवेश में फैले युवा संघर्ष के संदर्भ को प्रस्तुत किया गया है।
शिक्षक, छात्रों के मध्य कभी मधुर सम्बन्ध हुआ करते थे
परन्तु आज उनमें क्षीणता आ गयी है। अब छात्र और शिक्षक में वैसा सम्बन्ध नहीं रह
गया है। वह उसे दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी मानने लगा है वह न तो शिक्षक का आदर करता
है और न ही उसके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करता है। परीक्षोपरांत कम अंक
प्राप्त होने पर छात्र, शिक्षकों के ऊपर
आक्षेप लगाते हैं। शैक्षिक वातावरण सुधरने के स्थान पर दिन-प्रतिदिन बदतर होता जा
रहा है। कहीं प्रशासनिक व्यवस्था अव्यवस्थित है तो कहीं अधिकारियों व कर्मचारियों
का व्यवहार अनैतिक होता जा रहा है। शिक्षकों की आपसी ईष्र्या-द्वेष छात्रों के ऊपर
निकाली जाती है। वे विद्रोह करने के लिए छात्रों को हथियार के रूप में प्रयोग करने
लगे हैं। छात्र भी बिना सोचे-समझे उचित-अनुचित कार्य करने को सहर्ष उद्यत हो जाते
हैं।
प्रत्येक चालाक व चापलूस छात्र अपना कार्य
सहज रूप् से करवा लेता है, जबकि सीधा,
सरल स्वभाव वाला छात्र कार्य न होने पर लाचार व
मायूस होकर पीछे की पंक्ति में खड़ा रह जाता है। आज वह राजनीतिक कुचक्रों में पड़कर
अपना अध्ययन व मूल्यवान समय नष्ट कर रहा है। अल्प लाभ देकर छात्रनेता व राजनेता
उनका शोषण करते रहते हैं। वे छात्रों को आगे करके स्वयं बचने का प्रयास करते हैं।
लेखक के शब्दों में-’’इसमें अस्वाभाविक
क्या है? कोई छात्र ऐसा नहीं है जो
बहुत धनी हो और उसे पैसों की जरूरत न हो, एकाध महीने यदि चुनावों के दौर से गुजरते हुए किसी को एक जोड़ी गरम कपड़े मिल
जाते हैं, किसी के लिए नाश्ता-पानी
और मुफ्त में भोजन की व्यवस्था हो जाती है, तो इसे अस्वाभाविक क्यों कहेंगें । यह तो लोकतंत्र की विशेषता
है।’’6
भाग्य जैसा चाहेगा मनुष्य को वैसे
ही रहना पड़ेगा। योग्य व प्रतिभावान छात्र कुछ स्वप्न व इच्छाएँ लेकर संस्थान में
प्रवेश करते हैं परन्तु यहाँ आकर दूषित परिवेश में स्वयं को दूषित कर सब कुछ चैपट
कर लेता है। परिसर का वातावरण अनेक समस्याओं व विकृतियों से ग्रस्त होता है।
शिक्षक, छात्रों, प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों के मध्य हो
रहे संघर्ष उनके उत्साह को कम कर देते हैं। राजनेताओं व छात्रनेताओं की
कुदृष्टियों व कुचक्रों में फंसकर वह अपने भावी जीवन को बर्बाद कर लेता है। अध्ययन
के प्रति उसके मन-मस्तिष्क में जो संकल्प होता है वह टूट जाता है। लेखक ने पात्र
रामानंद तिवारी के माध्यम से इस तथ्य को स्पष्ट किया है-’’मैंने कोशिश की थी कि मैं एक सद्-विद्यार्थी बनूँगा।
स्कालरशिप लेकर रिसर्च करूँगा। प्रथम श्रेणी में प्रथम और पी0एच0डी0। डाॅ रामानन्द तिवारी
किसी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक होंगे। एक गृहिणी होगी, जो पति की सेवा करेगी और डाॅ0 तिवारी वैदिक शोध के अनुपम प्रयत्न से भारत को ही नहीं उन तमाम
विदेशी संस्थानों को चमत्कृत कर देंगे, जहाँ आज भी वैदिक अध्ययन को बकवास नहीं कहा जाता। पर सब कुछ गया। सारी कामना
धूतपापा के गर्त में समा गयी।’’7
स्पष्टतः सप्तम दशक में विभिन्न कारणों
से उत्पन्न हुए छात्र असंतोष और भाषाई आन्दोलन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही
नहीं उसके आस-पास का समस्त शैक्षिक परिवेश क्षुब्ध और अशान्त था जिसको लेखक ने
प्रमाणिकता व सजीवता के साथ अंकित किया है। काशी भारत की प्राचीन धार्मिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक नगरी है। जहाँ देश की
समस्त संस्कृतियाँ एक-दूसरे से टकराती और सम्मिश्रत होती हैं। लेखक ने उस समय की
गंगा में आई बाढ़ से उत्पन्न स्थिति को चिन्तनीय ढंग से व्यक्त किया है। यह बाढ़
प्राकृतिक आपदा के रूप में ही नहीं युवा पीढ़ी के नए तेवर और अराजक दिग्भ्रम के
प्रतीक रूप में चित्रित हुई है।
लेखक ने निश्छलता के साथ स्वीकार
किया है कि इस असंतोष और आक्रोश के कारणों
को समझकर उसे सही मोड़ देने का स्तुत्य प्रयास कम ही किया गया है। भारत की युवा
पीढ़ी जिसमें छात्र प्रमुख हैं, सातवें दशक में
जितनी असंतुष्ट और दिग्भ्रमित तथा अकर्मण्य थी, उससे अधिक आज है। उपन्यास का प्रमुख पात्र रामानंद तिवारी
अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मजदूर और किसान के बाद छात्र को तीसरी शक्ति
के रूप में देखना भ्रम मात्र है। आठवें दशक की सम्पूर्ण क्रान्ति के रूप में उभरी
युवा शक्ति का अनैतिक से युक्त रूप जो आज दिखाई देता है, लेखक का इससे निष्कर्ष की पुष्टि होती है। उपन्यास की
भूमिका में आशावादी दृष्टिकोण है। रामानंद का काशी की गलियों में भटकना सम्पूर्ण
छात्र वर्ग व युवा पीढ़ी के भटकाव को ही अंकित करता है। अतः शैक्षिक परिवेश से
सम्बन्धित सभी घटनाओं-प्रघटनाओं से युक्त उपन्यास का केन्द्र बिन्दु शिक्षा ही है।
संदर्भ ग्रन्थ:
1. गली आगे मुड़ती है, शिवप्रसाद सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2018, पृ0-30
2. गली आगे मुड़ती है, भूमिका से (नुक्कड़ सभा से)
3. गली आगे मुड़ती है, शिवप्रसाद सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2018, पृ0-127
4. शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास साहित्य, डाॅ0 राजेन्द्र खैरनार, पृ0-123
5. बीहड़ पथ के यात्री, प्रेमचन्द जैन, पृ0-144
6. गली आगे मुड़ती है, शिवप्रसाद सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2018, पृ0-273
7. वही, पृ0-348
गजाधर
यादव शोध छात्र, हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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