शिक्षा का मतलब
साक्षरता मात्र नहीं है। मैं सोचती हूँ कि शिक्षा से तात्पर्य है— What is left with you
after forgetting the facts अर्थात् तथ्यों
को विस्मृति के बाद मनुष्य के पास जो कुछ आचरणगत गुणवत्ता शेष रहती है, वही शिक्षा है।
संविधान के
प्रावधान के अनुसार शिक्षा सरकार का मूलभूत दायित्व है, लेकिन शिक्षा अनुत्पादक उपक्रम होने के कारण शिक्षा के
प्रति सरकार का रवैया उदासीनता भरा होता है। इससे सरकार को किसी भी प्रकार के लाभ
की प्राप्ति नहीं होती। शिक्षा को संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों में भी
स्थान प्राप्त है। परन्तु अनुत्पादक होने के कारण सरकार ने हमेशा इसकी उपेक्षा ही
की है। इसी उपेक्षा का परिणाम हुआ है कि निजी क्षेत्र के लोगों ने शिक्षा के
प्रसार का जिम्मा उठाया है। स्वतंत्रता से पहले और उसके दो दशक बाद तक निजी
क्षेत्र के लोगों ने अनेक शिक्षण संस्थान खोले। राजस्थान का शेखावाटी क्षेत्र इसका
सबसे अच्छा उदाहरण है, जहाँ के सेठों ने
नि:स्वार्थ भाव से अनेक स्कूल-कॉलेजों की स्थापना की। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति
के बाद शिक्षा का जिस तरह से विकास होना चाहिए था, उस हिसाब से यह विकास नहीं हुआ। हालाँकि केरल में शत
प्रतिशत साक्षरता आई जिसके कारण केरल सबसे अग्रणी राज्य बना रहा है, लेकिन देश के अन्य क्षेत्रों में शिक्षा को
लेकर ऐसी जागृति नहीं आई।
शिक्षा का प्रसार
मानव सभ्यता तथा संस्कृति के विकास की ओर बढऩे की गारंटी है। शिक्षा से मनुष्य में
आत्मविश्वास एवं स्वावलम्बन की भावना का संचार होता है। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर
काल में शिक्षा पर आर्थिक भार बढऩे के कारण सरकार को शिक्षा एक बोझ लगने लगी।
परिणामस्वरूप सरकार ने शिक्षा की ओर ध्यान देने की गति मंद कर दी, इससे शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा मिला।
निजीकरण होने से शिक्षा को एक उत्पादक उपक्रम के रूप में देखा जाने लगा। इसे लाभ
प्राप्ति का एक साधन बना दिया गया और शिक्षा एक बड़े लाभकारी व्यवसाय के रूप में
फलने-फूलने लगा। शिक्षा के पतन का प्रमुख कारण इसके लाभदायी व्यवसाय के रूप में
बदलना है। फलस्वरूप शिक्षा में अनैतिक क्रियाकलापों को बढ़ावा मिलने लगा। जो
शिक्षण संस्थाएँ समाज कल्याण की भावना से स्थापित की गई थीं, उनकी दुर्गति होने लगी और उनकी जगह चमक-दमक
वाली संस्थाओं ने ग्रहण कर ली, जिनका उद्देश्य
आर्थिक लाभ कमाना रह गया।
आज शिक्षा देश के
सबसे लाभकारी व्यवसायों में से है। कोटा, बैंगलोर, पूना, दिल्ली इसके उदाहरण हैं। देश के विभिन्न अग्रणी
तथा ख्यातनाम संस्थाओं में जितनी फीस वसूली जाती है उन संस्थाओं की उपलब्धियों
शायद इतनी नहीं है। शिक्षा के गिरते स्तर का कारण सरकार की उदासीनता है। शिक्षा के
पतन का दूसरा कारण शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की अपने कार्य के प्रति उदासीनता
भी रही है। लगता है सरकार ने शिक्षा को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। लाभ
कमाने की दृष्टि से जिन शिक्षण संस्थाओं का विकास हुआ है तथा जिनका चरित्र
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानक रूप में प्रचलित किया गया है उनमें भौतिक संसाधनों
की दृष्टि से तो पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था हुई। अपने ढाँचागत स्वरूप में ये
संस्थान वास्तविक चमक-दमक बनकर सम्मान प्राप्त कर रहे हैं। किन्तु इनमें कुशल तथा
दृष्टिवान शिक्षकों का सर्वथा अभाव है। कोई भी भौतिक उपादान या संसाधन मानव का
विकल्प नहीं हो सकता। लेकिन निजी संस्थानों के मालिक लाभ कमाने के चक्कर में अच्छे
शिक्षकों की तलाश नहीं करते और न शिक्षकों को अच्छा वेतन देने पर जोर देते हैं। जो
शिक्षक इन संस्थाओं में काम करते हैं वे मालिकों के डर के कारण युवाओं को अपना
सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाते। जो शिक्षक असुरक्षा के भाव से ग्रसित रहेगा वह बौद्धिक
रूप में विकास नहीं कर सकता। अगर हम सर्वेक्षण करें तो पूर्ण रूप से शैक्षिक
योग्यता धारण करने वाले शिक्षक सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं में ही मिलेंगे। पर वहाँ
सरकार की उदासीनता के कारण वे निष्क्रियता का शिकार रहते हैं। वे यही चाहते हैं कि
उन्हें समय पर पूरा वेतन मिलता रहे। यह अधिक सुरक्षा है क्योंकि इन शिक्षकों पर
कोई जवाबदेही नहीं है। इसलिए शिक्षा के लिए शिक्षक की जवाबदेही तय की जानी अत्यन्त
आवश्यक है।
इसके साथ ही इन
चमक-दमक वाले संस्थानों की गुणवत्ता का वस्तुनिष्ठ आकलन कभी नहीं होता। नैक आदि के
द्वारा संस्थाओं के मूल्यांकन की जो प्रक्रिया है वह संसाधनों के प्रदर्शन पर अधिक
निर्भर है। संस्थानों के मालिकों का जोर इस बात पर अधिक रहता है कि वे अपने संस्थान
को ब्राण्ड बनायें इसलिए वे नैक टीम से अच्छी से अच्छी रैंक पाने की कोशिश में
रहते हैं। एक अच्छा संस्थान ब्राण्ड बन जाता है तो वह उनके लिए आर्थिक लाभ का औजार
बन जाता है। वे गर्व से लिखते हैं नैक से A+ प्राप्त। किन्तु A + रैंक शिक्षा की
गुणवत्ता की गारंटी नहीं होती। भारत के विषय में यह माना जाता है कि ब्रिटिश सरकार
ने भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात किया जबकि धर्मपाल जैसे शिक्षाविद ने अपने
अध्ययन और शोध के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत में
एक सुदृढ़ और समृद्ध शिक्षा व्यवस्था थी जिसे विदेशी सरकार ने ही ध्वस्त किया। आज
की शिक्षा के रूप में हम उसी ध्वस्तीकरण का परिणाम भुगत रहे हैं।
इसका कारण यह है
कि इन संस्थाओं की शैक्षिक गुणवत्ता का आकलन और मूल्यांकन कभी नहीं होता। इसलिए
जरूरी यह है कि इन मानक माने जाने वाले संस्थानों का गुणवत्ता की दृष्टि से
मूल्यांकन हो तथा गुणवत्ता के मानकों पर कोई संस्थान खरा न उतरता हो तो उसे दण्डित
किया जाए। दण्ड स्वरूप संस्थान को बंद करने तक उसकी सीमा हो। इस दण्ड का मीडिया
में प्रचार खूब होना चाहिए ताकि दूसरे संस्थानों को सबक मिले। आज दिक्कत यह है कि एक
बार जो संस्थान ब्राण्ड बन जाता है वह आय के बड़े स्रोत के रूप में विकसित होता
चला जाता है और वह अपने आपको इतना समर्थ मानने लगता है कि कोई उसका कुछ नहीं
बिगाड़ सकता? सबसे अधिक आवश्यक
यह होना चाहिए कि हर संस्थान में सभी अनुशासनों के शिक्षक योग्यता के निर्धारित
मानदण्डों के आधार पर नियुक्क्त हों तथा सरकार यह आश्वस्ति कर ले कि सभी शिक्षकों
को सरकार द्वारा निर्धारित वेतन तथा अन्य सुविधाएँ दी जा रही हैं। शिक्षक तभी अपना
सर्वोत्तम दे सकते हैं जब उन्हें सेवा-सुरक्षा प्राप्त हो। उनका वर्तमान तथा
भविष्य संस्थानों के मालिकों के हाथों में न होकर उनकी अपनी कार्यशैली तथा तज्जन्य
परिणामों पर होना चाहिए।
राजस्थान
विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति तथा अर्थशास्त्री एम.वी. माथुर ने कहा था,
विश्वविद्यालयों के दरवाजों पर लिख दिया जाना
चाहिए कि यहाँ शिक्षा मिलती है, रोजगार नहीं। लेकिन
वर्तमान समय में देश के नामी उच्च शिक्षण-संस्थान शिक्षा के मन्दिर कम, राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के संयंत्र ज्यादा
प्रतीत होते हैं। देश के विभिन्न उच्च शिक्षण-संस्थानों में विभिन्न मुद्दों को
लेकर आन्दोलन हो रहे हैं। कहीं यह आन्दोलन फीस में बढ़ोत्तरी को लेकर हो रहा है,
तो कहीं सत्ता के द्वारा धर्म एवं नागरिकता के
नाम पर किए जा रहे ध्रुवीकरण के कारण। शिक्षा के गिरते स्तर का सबसे बड़ा कारण इन
संस्थाओं में हो रहा राजनैतिक हस्तक्षेप है। शिक्षा मनुष्य को विनम्र बनाती है,
परन्तु इन शिक्षण संस्थानों में हो रहे आन्दोलनों,
अमानवीय हिंसा को देखकर ऐसा नहीं लगता है। शायद
यह राजनैतिक दखलअंदाजी का ही परिणाम है कि एक विश्वविद्यालय में एक शिक्षक की
नियुक्ति को उसके धर्म से जोडक़र अनुचित ठहराने की कोशिश की गई। देश की जिस युवा
पीढ़ी को शिक्षा, रोजगार व राष्ट्र
की प्रगति को लेकर चिन्तित होना चाहिए, वह आज शिक्षण संस्थाओं मेें हिंसा करने एवं हिंसा का शिकार होने में व्यस्त
है। हर एक पुरानी संस्था का नवीनीकरण करने के प्रपंच में जहाँ एक ओर योग्यता
बेरोजगारी के शिकंजे में जकड़ती जा रही है, वहीं शिक्षा का स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है। नागरिकता,
सीएए, एनआरसी के नाम पर सरकार ने देश की शिक्षित परन्तु बेरोजगार युवा पीढ़ी को उलझा
रखा है ताकि सरकार की कमियों पर, बिगड़ी शासन
व्यवस्था पर किसी का ध्यान ही न जाए। शिक्षा के मन्दिरों को राजनैतिक अखाड़ा बना
दिया गया है, जहाँ शिक्षा,
सभ्यता को छोडक़र अन्य सभी अनैतिक कार्य किए जा
रहे हैं। कहा जाता है ज्ञान बाँटने से बढ़ता है, पर हर नई सरकार आते ही यह तय कर देती है कि कौनसा ज्ञान
बाँटकर बढ़ाना है और कौनसा नहीं? जहाँ शिक्षा
स्वावलम्बन का भाव लाती है, वहीं शिक्षा आज
एक धर्म तक सीमित होकर पुन: दासता की ओर बढ़ रही है।
कुल मिलाकर भारत
में शिक्षा का परिदृश्य डरावना तथा भयानक है और ऐसा लगता है कि हमारे उच्च तथा
नामी शिक्षण-संस्थान युवाओं को बेरोजगारी के साथ अनुशासनहीनता और अशान्ति का पाठ
पढ़ा रहे हैं। इसका कारण यह है कि हर संस्थान किसी-न-किसी राजनीतिक दल का अखाड़ा
है। अत्यधिक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण हमारे संस्थान घृणा और असहिष्णुता के
वायरस फैला रहे हैं। व्यावसायिक स्तर पर एक भी संस्थान या विश्वविद्यालय स्वायत्त
नहीं है। किसी कुलपति को विश्वविद्यालय के हित में निर्णय लेने की न स्वतंत्रता है
न उसमें इसकी हिम्मत है। ऐसे में शिक्षा को हम निरर्थकता के गड्ढे में धकेल रहे
हैं।
पूर्वा भारद्वाज
शोधार्थी, राजनीति विज्ञान
विभाग
मोहनलाल सुखाडिय़ा
विश्वविद्यालय,उदयपुर
(राजस्थान)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
sundar abhivyakti.... sadhuvad:)
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