वैदिक संस्कृति
और गुरु
तत्पदम् दर्षितम्
येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।
भारतीय संस्कृति ही नहीं अपितु विश्व संस्कृति एवं इतिहास में अज्ञान नाषक, ज्ञान-प्रदाता, मार्ग-प्रदर्षक, तिमिर-अपहर्ता ब्रह्मस्वरूप-दर्षयिता गुरु का माहात्म्य साक्षात्ब्रह्मवत् सुवर्णित है।
‘‘आचार्य देवो भव।‘‘
वेदों का यह उद्घोष गुरु के पूजनीयत्व एवं
अर्चनीयत्व को प्रदर्षित करता है। वेदों
से लेकर रामायण महाभारत एवं समस्त लौकिक साहित्य गुरुरूपी प्रकाश पुञ्ज की आभा से
भासमान है। वेदों में तो गुरु को ईश्वर के तुल्य बताया गया है।
‘‘यस्य देवे
पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता
ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
वेद बारम्बार यही
गर्जना कर रहे हैं, जैसी पराभक्ति
ईश्वर में हो वैसी ही गुरु में होनी चाहिए।
नारद भक्ति सूत्र
में भी कहा गया है-
ईश्वर' और गुरु
में भेद का अभाव है,
‘‘तस्मिंस्तज्जने
भेदाभावात्‘‘
अब प्रश्न यह
उठता है कि गुरु को हरि के सदृश्य क्यों माना गया है?
यह बात न केवल रामचरितमानस कहती है, अपितु वेदों का अन्तिम भाग उपनिषद् भी इसी तत्त्व का समर्थन करता है। आखिर गुरु ऐसा क्या कार्य करता है कि उन्हे ईश्वर सदृश्य मानते हुए उनकी उपासना की जाए। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए सर्वप्रथम गुरु की व्युत्पत्ति पर विचार करना चाहिए।
वेदादिशास्त्रों में गुरु शब्द की अनेक
परिभाषाएँ वर्णित हैं।
1. गृसेचने गिरति सिञ्चति कर्णयोज्र्ञानामृतम् इति
गुरुः
अर्थात् जो शिष्य के कर्णो में ज्ञान रूपी अमृत सींचता है, वह गुरु है।
2. गृ-निगरणे गिरति निगरति अज्ञानान्धकारम् इति
गुरुः
अर्थात् जो शिष्य के अज्ञानान्धकार का निगरण कर लेता है, वह गुरु है।
3. गृ शब्दे गृणादि उपदिषति ज्ञानम् इति गुरुः
अर्थात् जो शिष्य
को ज्ञान का उपदेश देता है, वह गुरु है।
4. गृ विज्ञाने गारयते विज्ञापयति शास्त्रदिरहस्यम् इति गुरुः
अर्थात् जो शिष्य
को शास्त्रादि का रहस्य बतलाता है, वह गुरु है।
5. गुरी उद्यमने गुरते सत्पथे प्रवर्तयति शिष्यम्
इति गुरुः
अर्थात् जो
शिष्य को सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रवृत करता है, वह गुरु है।
6. गुं = हृदयान्धकारं रावयति =दूरी करोतीति गुरुः
अर्थात् अज्ञानान्धकार को दूर करने वाला गुरु कहलाता है।
जो मनुष्य को
ज्ञान देता है और अज्ञान का नाश करता है वही गुरु है।
ददाति ज्ञानम् इति गुरुः।
गीरति अज्ञानम् इति गुरुः।।
जिस समय ज्ञान की
प्राप्ति हो जाती है तो अज्ञान की निवृत्ति स्वतः ही हो जानी चाहिये पुनः अज्ञान
के निवारण का कार्य पृथक रूप से क्यो?
केवल ज्ञान प्राप्ति से ही अज्ञान निवृत्ति हो जाए यह सर्वथा सम्भव नहीं यदि ऐसा होता तो शास्त्रों में भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ नहीं दी जाती। यदि बात केवल ज्ञान प्राप्ति की है तो वह तो ग्रंथों के महासागर से भी प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु अज्ञान की निवृत्ति तो केवल गुरु कृपा से ही संभव है।
यद्वत्सहरन्नकिरणः प्रकाशकोनिचितिमिरमग्नस्य।
तद्वद् गुरुरत्र भवेदज्ञान-ध्वान्त
पतितस्य।। (योगशास्त्र 12/16)
एकमात्र गुरु ही ऐसा तत्त्व है, जिसके बिना संसार का अति सरल से सरल कार्य भी सम्भव नहीं है तो ईशप्राप्ति, अज्ञाननिवृत्ति, तत्त्वज्ञान प्राप्ति जैसे कठिन कार्य तो असम्भव ही है।
कबीर दास इसी बात
को इन शब्दों में कहते हैं-
सहजो कारज जगत को गुरु बिन होत नाहि।
हरि तो गुरु बिन क्या मिलै सोच ले मन माहि।।
अद्वैत के
प्रणेता आदिशंकराचार्य भी ब्रह्म की अनुभूति तुल्य मोक्षफल प्राप्ति के लिए गुरु
की अनिवार्यता पर बल दिया गया है।
गुरु तत्त्च ही ऐसा तत्त्व है, जो ईशप्राप्ति के साथ-साथ इस संसार रूपी भवसागर से पार लगा देते हैं। इसी तथ्य को रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने पुष्ट करते हुए वर्णन किया है-
‘‘गुरु बिनु भवनिधि तरहि न कोई।
जो विरंचि शंकर
सम होई।।‘‘
इसी मत का
संस्थापन पुराणादि शास्त्रों में भी सम्यक् रूपेण किया गया है।
न विनायानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णवः।
नतेगुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णवः।। (आदिपुराण 9/175)
पापकूपे निम्नेभ्योधर्महस्तावलम्बन्।
ददता कः समो लोके संसरोत्तारिणः नृणाम्।। (हरिवंशपुराण)
जिस प्रकार छोटे
सागर को पार करने के लिये नौका की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार भवसागर को पार
करने के लिये गुरूपदेश रूपी नौका की अनिवार्यता है। लेकिन इस संसार रूपी सागर को
वही पार कर सकता है, जो गुरूपदेश व
आज्ञा का अक्षरषः पालन करता है। कालिदास रचित रघुवंश महाकाव्यं में भी कथित है।
आज्ञा गुरुणां ह्यविचारणीया।। (रघुवंश 14/46)
चाणक्य नें भी इस
तथ्य का समर्थन इस प्रकार किया गया है।
न मीमांस्याः गुरवः।
भागवत में भगवान्
श्री कृष्ण ने भी उद्धव को उपदेश देतेे हुए गुुरु को मानवीय बुद्धि से आंकलित न
करने योग्य बताया है।
आचार्यं माम् विजानीयात् नावमन्येत् कर्हिचित्।
न मर्त्य बुद्ध्या असूयेत् सर्वदेवमयो गुरुः।
अतएव अनावश्यक संषय और मीमांसा न करते हुए गुरु के साथ श्रद्धा पूर्वक शास्त्रोचित व्यवहार करना
चाहिए। इसी संदर्भ में वेदव्यास ने भी कहा है-
गुरुणा चैव निर्बन्धो न कर्तव्य कदाचनः।
अनुमान्यः प्रसादष्च गुरुः क्रुधो युधिष्ठिर।।
अर्थात् हे
युधिष्ठिर गुरु के साथ नहीं करना चाहिए तथा क्रुद्ध गुरु को मनाना एवं प्रसन्न
चाहिए। इस सद्व्यवहार के अतिरिक्त गुरु के साथ व्यवहार में भी छल एवं प्रपञ्च से
रहित रहना चाहिए। गुरु के साथ माया रहित आचरण करने वाले से तो स्वयं भगवान भी
प्रसन्न होते हैं।
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु श्रेय उत्तमम्।
शब्दे परे च निष्णातं
ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।। भागवत 11/3/21
तत्र भागवतान्
धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः।
अमाययानुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्माऽऽत्मदो
हरिः।। भागवत 11/3/22
शुभेच्छु एवं
कृपापेक्षी शिष्य द्वारा गुरु की सेवा एवं आज्ञापालन से अतिरिक्त और कोई मार्ग
नहीं है। जो शिष्य अपना कल्याण चाहता है उसे गुरु के शरण में जाना चाहिए एवं
समर्पित भाव से सेवा करनी चाहिए।
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो,
निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्,
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।। (मुण्डकोपनिषद् 1/2/12)
इसी सन्दर्भ में श्रीमद्भगवत् गीता में भी श्रीकृष्ण ने उपदिष्ट किया है कि वह तत्त्व ज्ञान तो
गुरु के शरण में जाकर उनकी सेवा करने व जिज्ञासा से प्राप्त होता है।
तद्विद्धि
प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीता
3/34)
यही मत
नीतिशास्त्र में भी प्रतिष्ठापित है-
गुरु शूश्रुषया विद्या
इस जीव जगत में
मनुष्य का अस्तित्व, पशुओं से भिन्न
इसलिये है, क्योकि गुरु ही पशुवत्
प्राणी को पुनर्जन्म देकर संस्कारयुक्त सामाजिक प्राणी अर्थात् मानव के रूप में
स्थापित करता है।
गुरु ही वह दिव्य दृष्टि देते हैं जो जगत् को सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ, आशाओं के समन्वित संसार के रूप में देखनें में सहायक बनती है। गुरु ही वह वाक् शक्ति देते हैं जिससे हमारी कीर्ति प्रसार प्राप्त करती है। गुरु ही विवेक युक्त बुद्धि प्रदान करते हैं जो सद्-असद् का निर्धारण करने में सक्षम होती है।
गुरुर्नेत्र गुरुर्दीपं सूर्याचन्द्रमसौ गुरुः।
गुरूर्देवो गुरुः पन्था दिग्गुरुः
सद्गतिर्गुरुः।। (अर्हद्गीता 24/15)
जीवन में
गुरुतत्त्व की अनिवार्यता को प्रतिपादित करते हुए आदि कवि नें भी रामायण में
पुरुषोत्तम राम को उपदिष्ट करवाया है-
पुरुषस्येव जातस्य भवन्ति गुरवस्त्रयः।
आचार्यश्चैव काकुत्स्थपितामाता च राघव।।
(वाल्मिकिरामायण 2/111/12)
अर्थात् हे
रघुनंदन! इस संसार में उत्पन्न प्रत्येक पुरुष के तीन गुरु अनिवार्यतः होते हैं और
वे हैं - आचार्य, पिता, और माता।
निश्चित रूप से गुरुतत्त्व का आर्विभाव ही जीवन
में सभी प्रकार के कष्टों व्याधियों और दुःखों का हरण करने के लिए होता है।
स्वयं को नष्ट करके भी शिष्य के पाप-ताप-संताप
का निवारण करने वाले गुरु के पूजनीय चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।
तापत्रयाग्नितप्तानामषान्तप्राणिनां भुवि।
गुरुदेव परा गङ्गा तस्मै श्री गुरवे नमः।।
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्री गुरवे नमः।।
डाॅ. जितेन्द्र थदानी
सहायक आचार्य
स. पृ. चौ. राजकीय महाविद्यालय, अजमेर (राज.)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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