शिक्षा और
स्त्रियों के अधिकार
विश्व की आबादी का पचास प्रतिशत स्त्रियों का
है, किन्तु उन्हें वह एक समान
दर्जा नहीं प्राप्त है, जो पुरुषों को
प्राप्त है। स्त्रियों की यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में
है। पूरे विश्व में स्त्रियाँ दोयम दर्जे की नागरिक मानी जाती हैं। प्राचीन काल से
ही स्त्रियों के प्रति उपेक्षा का भाव चला आ रहा है। जिसके लिए "कला साहित्य-संस्कृति शिक्षा एवं सामाजिक
मूल्यों एवं मान्यताओं संस्थाओं के प्रत्येक दायरे में अनवरत् क्रान्ति की
प्रक्रिया को जारी रखे बगैर समाज की विषमताओं एवं उत्पीड़न के विविध सूक्ष्म एवं
स्थूल रूपों को कदापि समाप्त नहीं किया जा सकता। नारी-पुरुष असमानता, नारी उत्पीड़न आदि ऐसी ही सामाजिक मान्यताएँ हैं, जिन्हें समाजवादी समाज के भीतर अनवरत् सांस्कृतिक क्रान्तियों से गुजरने के
बाद भी क्रमशः निर्मूल किया जा सकेगा।"1
पितृसत्तात्मक प्रधान समाज में प्रभुत्व सदैव
से पुरुषों के हाथ में रहा है। पुरुषों ने सारे फैसले इस तरह से लिए हैं, कि स्त्री के अधिकारों की चाबी सदैव पुरुषों के
हाथों में रही है। स्त्री कितनी भी
आजाद हो जाए। "स्त्री की उस स्वतंत्रता को सह पाने और बर्दाश्त करने के लिए पुरुष
मन तैयार होना भी जरुरी है। स्त्री मुक्ति की मुहिम को पुरुष समर्थन की दरकार होती
है, चूँकि समानता के अधिकार
को समाज स्वीकृत करेगा।"2 क्योंकि पुरुष
सत्ता के लिए स्त्री जन्म ले या नहीं, वह जीवित रहे या नहीं, पढ़ें या न पढ़ें।
वह घर के बाहर रहे या चारदीवारी में, वह कब और किससे विवाह करे आदि विभिन्न व्यवस्थाओं का संचालन या तो पुरुष ने
किया है या फिर पुरुष प्रधान समाज के लोगों ने किया है।
शिक्षा के बिना स्त्री मुक्ति की कल्पना भी
नहीं की जा सकती है। इसलिए शिक्षा को स्त्री मुक्ति का आधार माना जाता है। शिक्षा
ही वह साधन है, जिसके द्वारा
स्त्रियाँ अपनी सशक्त समान एवं उपयोगी भूमिका निभा सकती हैं। स्त्रियों को इसके
लिए अनेक प्रयास करने चाहिए, जिसमें ‘‘स्त्री मुक्ति की अवधारणा, सम्पूर्ण मनुष्य की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य
में स्त्री-देह, स्वास्थ्य
वैचारिकता, शिक्षा, आर्थिक, स्वालंबन, आत्मनिर्णय,
ईमानदारी, बहादुरी, साहस, शौर्य की जरुरतों गुणों से लैस एक व्यक्तित्व
की अवधारणा के रूप में मानना और उसके भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक,
सामाजिक स्तर पर समानता के दर्जे तक पहुँचने के
लिए सक्षम बनाना है।"3 शिक्षा से ही स्त्रियों
में आत्मविश्वास अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होने की तथा अन्याय से लड़ने की
शक्ति पैदा होती है। अपने प्रति हो रहे सामाजिक, आर्थिक, भेदभाव को पहचान
कर उसका प्रतिकार करने के योग्य बन सकती हैं। शिक्षा के महत्व को स्पष्ट करते हुए
मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि, ‘‘पढ़ते-पढ़ते हम यह
भी जान गए हैं इस जमाने की चाल आपसे मंदिर के पट खुलवा रही है, क्योंकि विधानसभा और संसद में अब असुर पहुँचने
लगे हैं सो हमारी समझ में यह तो अच्छी तरह आ गया कि हम यहाँ किसी देवता के सहारे
नहीं आए।"4
वर्तमान समय में भी स्त्रियों की स्थिति बहुत
अच्छी नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि आज स्त्रियाँ हर जगह पर पहुँच गयी हैं,
जहाँ पहले केवल पुरुष का ही वर्चस्व था। इस
विषय पर मृदुला सिन्हा का कहना है कि "इन दिनों शिक्षा और विकास के अन्य अवसर पाकर आगे बढ़ रही युवतियों में एक होड़
प्रत्यक्ष देखी जा रही है- वह है पुरुषों के क्षेत्र में प्रवेश की होड़। बड़े
फक्र से कहा सुना जा रहा है- इस क्षेत्र में पुरुषों का ही वर्चस्व था। अब
महिलाओं ने वहाँ प्रवेश करना प्रारम्भ किया है।"5 लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी स्त्रियों को समानता का
हक मिल गया है ऐसी स्त्रियों का प्रतिशत बहुत ही कम है जो हर मुकाम पर पहुँच पाती
हैं। "नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे
ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि गत सात वर्षों में गाँवों में साक्षरता 12.1 प्रतिशत तक बढ़ गई है जबकि शहरों की लड़कियों की
साक्षरता मात्र सात प्रतिशत ही बढ़ पाई है।"6 आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं, जो पढ़ना लिखना चाहती है। आगे बढ़ना चाहती हैं, पर उन्हें साधन उपलब्ध नहीं होते हैं।
स्वतंत्रता के पश्चात हमारे देश में बस इतना
अन्तर आया है कि पहले जिन स्थानों पर एक फीसदी स्त्रियाँ भी नहीं पहुंचती थीं,
जहाँ सिर्फ पुरुष ही कार्य करते थे, लेकिन अब ऐसे क्षेत्रों में सात फीसदी
स्त्रियाँ कार्यरत हैं। स्त्रियाँ का प्रतिशत कम होने के कई कारण हो सकते हैं,
लेकिन इसका मुख्य कारण आज भी पितृसत्तात्मक
प्रधान समाज है जो "ऊपर-ऊपर से भले
ही आज समझदार भद्रजन स्त्री मुक्ति और स्त्री शिक्षा की हिमायत करते हो, किन्तु भीतरी तौर से स्त्री शिक्षा और स्त्री
के लिए रोजगार की अहमियत को समाज व्यवस्था आज भी पूरी तरह उसके स्वामी और परिवार
के सन्दर्भों से ही बांधकर रखने के आदी हैं।"7 इस कारण स्त्रियों को समाज में स्वतंत्र गतिशीलता नहीं मिल
रही है जिसके परिणामस्वरूप अनावश्यक रूप से सामाजिक बंधनों की जकड़ ढीली हो रही है।
किसी भी समाज में साक्षरता को सामाजिक व आर्थिक
विकास का प्रतीक माना जाता है। सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक विकास के लिए उच्च साक्षरता दर और
शिक्षा की गुणवत्ता आवश्यक है, लेकिन इन दोनों
में ही भारत बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। "मानव विकास रिपोर्ट 2000 के अनुसार भारत
में महिला साक्षरता दर 50 प्रतिशत है,
जो जांबिया, खांडा और नाइजीरिया जैसे अफ्रीका देशों से भी कम है।"8 विभिन्न सरकारी प्रयासों के बावजूद भी स्त्री
शिक्षा की दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं हो पा रहा है।
भारतीय समाज में आज भी स्त्रियों के लिए शिक्षा
महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती है। आज भी लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि लड़की को पढ़ा
लिखा कर क्या करना है, क्योंकि लड़की तो
पराया धन होती है, उसे दूसरे घर
जाना होता है, इस कारण से उनकी
शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता है। "बेटी को विदा करके माँ-बाप उसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो लेते हैं। जिस लड़की के
हाथ में अपने पैरों पर खड़े होने लायक शिक्षा की डिग्री भी नहीं, माँ-बाप की छत का आसरा भी नहीं, उसके लिए यातना की यातना के रूप में न पहचानने
के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता।"9 अशिक्षा के कारण
स्त्रियाँ स्वाबलम्बी नहीं बन पाती हैं। सारी जिन्दगी आर्थिक रूप से परतंत्र रहती
हैं जिसके कारण वह स्वयं ही यातना और प्रताड़ना को अपनी नियति मान लेती हैं।
पहले स्त्रियों की शिक्षित करने का उद्देश्य
उनके लिए योग्य, पढ़ा-लिखा वर
ढूँढना था। और अभी कुछ समय पहले स्त्रियों को शिक्षित तो किया जाता था, लेकिन उनसे नौकरी करवाना परिवार की शान के
खिलाफ समझा जाता था, लेकिन अब यह
पुराना दृष्टिकोण बदल रहा है। "ऊँची शिक्षा
द्वारा स्त्रियों को पूर्ण सशक्तीकरण किया जा सकता है और कालेजों से पढ़ लिखकर
निकली स्त्रियाँ अच्छी नौकरियों के क्षेत्र में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा
मिलाकर कामयाबी की राह पर चल पड़ती है।’’10 आज लड़कियों को अपनी मर्जी से विषय चुनने और अपनी इच्छा से नौकरी करने की
आजादी दी जाने लगी है। वर्तमान समय में स्त्रियाँ उच्च व व्यावसायिक शिक्षा
प्राप्त करके समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बना रही हैं। ‘‘जिन बालिकाओं को शिक्षा का अवसर मिला, वे प्राइमरी या मिडिल पास करके रुकना नहीं
चाहतीं। वे उच्च शिक्षा के अवसर के लिए प्रयत्नशील रहती हैं। इन दिनों तकनीकी
शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रचार-प्रसार हुआ है। लाखों महिलाएँ सरकारी
तथा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।"11
शिक्षा को जीवन की आम समस्याओं को सुलझाने के
लिए अत्यंत आवश्यक मानकर लड़कियों को उच्च शिक्षा दी जा रही है। वर्तमान समय में
लड़कियाँ, इंजीनियरिंग, कृषि, वाणिज्य, विधि, प्रबंधन, राजनीति, जनसंचार जैसे गैर
परम्परागत क्षेत्रों में भी आगे आ रही हैं, लेकिन "ज्ञान की
आकांक्षा में स्कूल-काॅलेज और व्यावसायिक शिक्षा के लिए लड़कियाँ जिस संख्या में
प्रवेश लेती हैं, उनमें से आर्थिक
आत्मनिर्भरता और पद पदवी कितनी ग्रहण कर पाती हैं? वे धीरे-धीरे लोप हो जाती हैं, मगर कहाँ? निश्चित ही विवाह
के घेरे और गृहस्थी के बंद मकानों में उनका बसर है, भले आजीवन व्यर्थता बोध से छटपटाती रहें।"12 इसी विषय पर नासिरा शर्मा कहती हैं कि "पत्नियाँ अधिकांश अनपढ़ नहीं होती। कई तो
शिक्षित एवं महत्वपूर्ण डिग्रीधारक भी होती हैं। कुछ अपने क्षेत्र में काम कर रही
होती हैं और कुछ अनेक व्यावहारिक कारणों से घर में बैठने पर मजबूर होती हो जाती
हैं।"13
स्त्रियाँ पहले आर्थिक मजबूरी के कारण घर की
चाहरदीवारी को लाँघकर व्यावसायिक क्षेत्र में सक्रिय होती थी, लेकिन अब स्त्रियाँ पढ़-लिखकर अपने फैसले खुद
लेने में सक्षम हो गयी हैं, वे आर्थिक मजबूरी
के कारण या विवाह के लिए योग्य वर की लालसा के लिए नहीं पढ़ना चाहती हैं। विवाह से
अब "गम्भीर और पढ़ी लिखी
लड़कियों का जी उचट गया है। वे पढ़-लिखकर अपने पांवों पर खड़ी भी हुई तो विवाह नहीं
करना चाहतीं वहाँ उन्हें फरेब ही फरेब दिखता है, शारीरिक सौन्दर्य की जरुरत से ज्यादा तूल देने वाला ढोंग और
दिखावा।"14 लेकिन ऐसा नहीं है कि
सभी स्त्रियों के विचार ऐसे ही हैं। स्त्रियों का दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो इससे
भिन्न रखता है। ‘‘स्त्रियों का
दूसरा वर्ग घर-परिवार के दायरे से निकलकर कैरियर की नयी-नयी ऊँचाईयां छूकर
उपलब्धियों को अंबार लगाना चाहता है। साथ ही साथ वह अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति
आस्था और घर परिवार के बीच पूरी तरह जीने का सामाजिक सरोकार भी बरकरार रखने का
इच्छुक है।’’15 कामकाजी
स्त्रियों के प्रति पुरुषों के रुख में भी अब सकारात्मक बदलाव आया है। कामकाजी
स्त्रियों की समस्याओं को समझकर परिवार की ओर से उन्हें पूरा सहयोग दिया जाता है,
उनकी घरेलू जिम्मेदारियों को सीमित किया जा रहा
है।
हमारे समाज में स्त्री की स्थिति को देखते हुए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि
स्त्री शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन जायें। विवाह से पूर्व पिता के ऊपर आश्रित रखने
वाली स्त्री, विवाह के पश्चात
पति का आश्रय पाती हैं। ऐसी स्थिति में जब स्त्री शिक्षित न हो तब, उसका जीवन अंधकारमय हो जाता है लेकिन अब स्त्री
के जीवन में और उसकी स्थिति में एक नया मोड़ आया है। "बचपन में जिनके विवाह हो गए हैं और अब वे शिक्षित पत्नी
चाहते हैं, इसका एक अच्छा पक्ष भी है,
हो सकता है कि इस घर से कि बड़ा होकर लड़का कहीं
लड़की की अशिक्षित होने के कारण छोड़ न दे, इसलिए माता-पिता अपनी लड़कियों को पढ़ाने लगे हैं।"16 स्त्री यदि शिक्षित होंगी तो वह अपनी योग्यतानुसार
कोई भी नौकरी प्राप्त करके आत्मनिर्भर बन सकती है।
आधुनिक समाज में शिक्षा ही एकमात्र साधन है,
जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति विकास के अवसरों
का लाभ उठाकर सफलता प्राप्त कर आत्मनिर्भर बन सकता है। वे विकास के अवसर कौर-कौन
से हैं, सबसे पहले तो यही जानने
के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है शिक्षा के महत्व को स्पष्ट करते हुए नासिरा शर्मा
कहती हैं कि "शिक्षा में जहाँ
समझ बढ़ाई है, वहीं पर थोथी
भावुकता को भी कम किया है। मगर यह बदलाव उन औरतों में नहीं आया है जो अशिक्षित हंै
और शताब्दियों से एक रिवायती जीवन व्यतीत कर रही हैं।"17
शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में तो
स्त्री को प्रारम्भिक शिक्षा से भी वंचित होने के कारण शोषण व अत्याचार का शिकार
बनाया जाता है। "आज औरत का पूरा
संघर्ष अपने उस छोटे से हिस्से को बचाने में है। जिस पर उसके दोनों पांव टिके हैं।
उस हिस्से को बचाए रखना उसकी पहली प्राथमिकता है। इसे बचाए रखने की ताकत शिक्षा से
ही मिलेगी, इसलिए बहुत आवश्यक है कि
गांव हो या शहर हो या महानगर में बसे छोटे-छोटे उपनगर, हिन्दुस्तान के हर राज्य में लड़कियों के लिए हर जगह शिक्षा
मुफ्त और अनिवार्य हो।"18 यह एक ऐसा कार्य
है जिसको पूरा करने के लिए स्वयं स्त्रियों के साथ-साथ समाज में सभी वर्ग के लोगों
और सरकारी संगठनों को मिलकर प्रयास करने होंगें।
आज हमारे देश में स्त्रियाँ कृषि, वैज्ञानिक, कृषि, पुलिस, सेना, सूचना, तकनीशियन, व्यापार-व्यवसाय संचालक आदि सभी क्षेत्रों में
कार्यरत है, लेकिन नये
क्षेत्रों में और विभिन्न उच्च पदों पर स्त्रियों की संख्या संतोषजनक नहीं है। उच्च
शिक्षा में भी स्त्रियों की संख्या बहुत कम हैं। इस बात से इन्कार नहीं किया जा
सकता है कि पढ़ लिखकर स्त्रियाँ सरकारी और गैर-सरकारी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
में बड़े-बड़े पदों पर आसीन हैं। लेकिन यह अवसर बहुत ही कम स्त्रियों को मिला है।
स्त्रियों की शिक्षा को लेकर आज भी लोगों का नजरिया पक्षपातपूर्ण है। शिक्षा के
मामले में आज भी वे सामाजिक व आर्थिक दबावों को शिकार हैं। इसलिए स्वतंत्रता के
इतने वर्षों बाद भी पढ़ी-लिखी स्त्रियों का अनुपात 2.5 प्रतिशत तक ही पहुँचा है। राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान
स्त्रियों को शिक्षा दिलाने में प्रयत्नशील अवश्य हैं, मगर उसमें या तो योजनाएं एवं कार्यक्रम अपर्याप्त है या फिर
उनका अपेक्षित लाभ स्त्रियों तक नहीं पहुँच रहा है।
शिक्षा जगत में नई नीतियों की बात जोर-जोर से
उठाई जा रही है। स्त्री सशक्तीकरण के दौरान बड़े-बड़े राजनेता भी शिक्षा को स्त्री
सशक्तीकरण में प्रमुख मान रहे हैं, क्योंकि बिना
शिक्षा के स्त्रियों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता है।
डॉ. शिवानी कन्नौजिया
(shivanilu87@gmail.com)
संदर्भ सूची
1. कात्यायनी,
दुर्ग द्वार पर दस्तक, वही, पृ0 सं0-45
2. कात्यायनी,
दुर्ग द्वार पर दस्तक, वही, पृ0 सं0-110
3. गुप्ता रमणिका,
स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, वही, पृ0 सं0-110
4. गुप्ता रमणिका,
स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, वही, पृ0 सं0-31
5. पुष्पा मैत्रेयी,
खुली खिड़कियाँ, वही, पृ0 सं0-33
6. सिन्हा मृदुला,
मात्र देह नहीं है औरत, वही, पृ0 सं0-174
7. शर्मा क्षमा,
स्त्रीत्ववादी विमर्श समाज और साहित्य, वही, पृ0 सं0-39
8. पाण्डेय मृणाल,
जहाँ औरते गढ़ी जाती हैं, वही, पृ0 सं0-140
9. अग्रवाल रोहिणी,
स्त्री लेखन, स्वप्न और संकल्प, वही, पृ0 सं0-41
10.अरोड़ा सुधा,
आम औरत और जिन्दा सवाल, वही, पृ0सं0-98
11. पाण्डेय मृणाल,
जहाँ औरते गढ़ी जाती है, वही, पृ0 सं0-140
12. सिन्हा मृदुला,
मात्र देह नहीं है औरत, वही, पृ0 सं0-146
13. पुष्पा मैत्रेयी,
खुली खिड़कियाँ, वही, पृ0 सं0-65
14. शर्मा नासिरा,
औरत के लिए औरत, वही, पृ0 सं0-25
15. अनामिका, स्त्री विमर्श का लोकपक्ष, वही, पृ0 सं0-115
16. गुप्ता रमणिका,
स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, वही, पृ0 सं0-102
17. शर्मा क्षमा,
स्त्रीत्ववादी विमर्श समाज और साहित्य, वही, पृ0 सं0-43
18. शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, वही, पृ0 सं0-73डॉ. शिवानी कन्नौजिया
(shivanilu87@gmail.com)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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