समीक्षायन- कई काम जो अभी भी सपने से हैं किए जाने शेष हैं / अनिरुद्ध वैष्णव

                              पुस्तक समीक्षा- 'शिक्षा'

एक राजनेता का पुस्तक लिखना कई मायनों में अन्य लेखकों से भिन्न अर्थ और महत्व रखता है।कई बार कुछ पुस्तकें किसी विशिष्ट व्यक्ति या पार्टी की लॉन्चिंग के लिए लिखी जाती हैं तो कभी अनटोल्ड स्टोरी के रूप में पुरानी भूली बिसरी घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास भी किया जाता है। वैसे मनीष सिसोदिया को विशुद्ध राजनीतिज्ञ कहना भी एक तरह से बेमानी होगी। टिपिकल राजनेताओं की तरह वे खद्दर कुर्ता पजामा धारी ना हो कर जींस और आधी बांह की शर्ट पहने 'आम आदमी' की तरह दिखाई देते हैं।

शिक्षा (दिल्ली के स्कूलों में मेरे कुछ अभिनव प्रयोग) पुस्तक के आमुख दिल्ली एक उम्मीद... में सिसोदिया अपनी पुस्तक लेखन की मंशा स्पष्ट करते दिखाई पड़ते हैं।

"वस्तुतः यह किताब मैं ऐसी व्यवस्था की कल्पना में लिख रहा हूं कि, जब किसी शहर में बढ़ती हिंसक वारदातों से चिंतित सरकार का मुख्यमंत्री अपने पुलिस प्रमुख को निर्देश देगा कि, 'अगले दो दिनों में, शहर में हिंसा रोकना आपकी जिम्मेदारी है' साथ ही में वह अपने शिक्षा प्रमुख को भी निर्देश देगा कि, 'अगले दो सालों में लोगों के व्यवहार और स्वभाव में हिंसा को रोकना आपकी जिम्मेदारी है' शिक्षा जैसी व्यवस्था का अगर हम यह इस्तेमाल नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि हमें शिक्षा की ताकत का अंदाजा नहीं है। (पृष्ठ xvi)

पुस्तक दो भागों में लिखी गई है पहले भाग में शिक्षा के प्रमुख भौतिक आधारों यथा बजट, इंफ्रास्ट्रक्चर सामाजिक आधारों प्रिंसिपल, शिक्षक, माता- पिता के योगदान चर्चा है और दूसरे भाग में शिक्षा स्वयं एक आधार के रूप में कैसे सिद्ध हो पाए उस पर चर्चा की गई है। पुस्तक के शुरुआती पन्नों में मनीष सिसोदिया अपने आंदोलन के तेवर में नजर आते हैं। मनीष अपनी बैठकों में यह सवाल उठाते हैं कि जिन इलाकों में बच्चे ना होने के कारण आप सरकारी स्कूल बंद कर रहे हैं उन स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों की स्थिति क्या है। (पृष्ठ 7)

इसके साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि बच्चों को अच्छी शिक्षा देना सरकार की जिम्मेदारी है और इसके लिए सबसे पहला काम शिक्षा के लिए जितना जरूरी हो इतना बजट उपलब्ध कराना है।
दिल्ली सरकार का बजट का 25% शिक्षा पर व्यय करना इस बात की पुष्टि भी करता है। प्रस्तुत पुस्तक को यदि पुस्तक ना कह कर मनीष सिसोदिया की डायरी कहा जाए तो भी अतिशयोक्ति न होगी। 'स्कूलों की टूटी फूटी कुर्सियां', 'बाबा आदम जमाने की लाइब्रेरी' और सड़ी हुई दरियों का जिक्र करते हुए मनीष सरकारी स्कूल के प्रति हमारी मानसिकता का बखूबी चित्रण करते हैं।

लेखक इस बात को भी भली-भांति जानता है कि शिक्षा को सुंदर-सुंदर क्लासरूम, सजी-धजी रंग बिरंगी डेस्क, चमचमाते श्यामपट्ट और नए आलीशान भवन कुछ ज्यादा सहयोग नहीं कर पाएंगे किंतु इनकी उपयोगिता को नकारा भी नहीं जा सकता। लेखक की भाषा में "हमारे लिए सरकारी स्कूलों को मॉडर्न लुक देना सिर्फ सुविधा के लिए नहीं बल्कि समाज के अंदर घुसी हीन भावना को निकालने के लिए भी जरूरी था।" (पृष्ठ 18) त्यागराज स्टेडियम में अपने मुख्यमंत्री के साथ संवाद करते 1000 प्रिंसिपल्स को चित्रित करते समय लेखक अपने आंदोलन के जोशीले अंदाज में दिखाई देता है।

अगले ही पन्ने पर लेखक बड़ी संजीदगी के साथ जोश और होश दोनों को बनाए रखने का अपना मंतव्य स्पष्ट करता दिखाई देता है। लेखक अपने घर में देर रात तक आराम से बैठकर प्रिंसिपल्स से बात करता है, अनौपचारिक गपशप में उनकी स्थितियों को समझता है और उनके साथ खाना खा कर उन्हें सहज करता है ताकि उनकी समस्याओं को गहराई से समझ पाए प्रिंसिपल्स की फाइनेंशियल पॉवर 5000 से बढ़ाकर 50,000 करने का निर्णय लेते समय मनीष अपने पत्रकारिता के लहजे में बड़े तर्कपूर्ण ढंग से नौकरशाह अधिकारियों को प्रश्न करते हैं कि जिस प्रिंसिपल पर हम 3000 बच्चों का भविष्य संवारने का विश्वास करते हैं उस पर इतना भरोसा क्यों नहीं कर पाते कि वह ₹5000 से ज्यादा ईमानदारी से खर्च कर लेगा? पूरी पुस्तक में एक शिक्षा मंत्री अपने शिक्षकों और प्रिंसिपल्स को महज सिस्टम का एक मशीनी पुर्जा ना मानकर मानव समझता है और उन पर विश्वास करता है।

एस्टेट मैनेजर की नियुक्ति और 2 शिक्षकों का ट्रांसफर का अधिकार प्रिंसिपल को देना भय व्याप्त करने की कोशिश की अपेक्षा लीडर में विश्वास का प्रतीक ज्यादा नजर आता हैं। सिसोदिया महज अपने शिक्षकों को काम करने की नसीहत देने की बजाय उनकी प्रशिक्षण की गुणवत्ता को भी सुनिश्चित करते हैं। प्रशिक्षण की यह यात्रा आईआईएम अहमदाबाद, कैम्ब्रिज, अमेरिका और फिनलैंड से होती हुई रायपुर से 22 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव अछोटी में पूर्ण होती है  जिसे लेखक ' शिक्षा एक आधार ' वाले भाग में 21 पन्नों में समझाता है।

शिक्षक पर विश्वास के साथ-साथ मनीष माता-पिता की भागीदारी को भी नहीं भूलते हैं और मेगा पीटीएम जैसे प्रयोगों से पूरे परिवार को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। शिक्षक को गैर शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करवाना, पाठ्यक्रम को पढ़ाने में पूरी आजादी देना, शिक्षकों द्वारा तैयार "प्रगति" गाइड बुक, शिक्षकों को टैबलेट के लिए ₹15000, स्टाफ रूम में फ्रिज और कॉफी मशीन जैसे छोटे मगर प्रगतिशील निर्णयों से एक शिक्षा मंत्री अपनी टीम की गरिमा बढ़ाता है और भरोसे की पुनर्स्थापना करता है। सिसोदिया अपनी पुस्तक को एक आपबीती आत्मकथा की बजाय एक प्रयोग के दस्तावेजीकरण के रूप में दिखाना चाहते हैं। यह अत्यंत सुखद सा लगता है कि एक मंत्री स्व-लिखित पुस्तक में लगभग 42 परामर्शदाता शिक्षकों और प्रिंसिपल्स के अनुभवों को सम्मिलित करता है। पुस्तक के ठीक मध्य में चार रंगीन पृष्ठों में शिक्षा के प्रयोगों को आठ फोटोग्राफ्स के माध्यम से समझाने का प्रयास भी मनीष करते दिखाई देते हैं।

बकौल सिसोदिया शिक्षा का काम गरीबी हटाने नौकरी दिलाने की योग्यता से कहीं ज्यादा आगे का है; यह विश्वास दिल्ली के प्रिंसिपल और अध्यापकों को दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका जीवन विद्या शिविर की रही। एक नया-नया शिक्षा मंत्री अपने, शिक्षा विभाग की पूरी टीम के साथ 8 दिन तक अपनी भागदौड़ से दूर, अपने शहर से दूर, एक गांव में बैठकर यह चर्चा कर रहा था कि शिक्षा को और शिक्षा के माध्यम से समाज और देश को कैसे आगे ले जाना है। (पृष्ठ 116)

मनीष का यह प्रयोग वास्तव में यह सिद्ध करता है कि वह सचमुच शिक्षा के लिए चिंतित है ना कि चिंतित होने का दिखावा कर रहे हैं। सह अस्तित्व मूलक शिक्षा मॉडल में 20 साल की शिक्षा के बाद एक व्यक्ति से स्वयं को, परिवेश को, समाज को, राष्ट्र को और पूरी प्रकृति को निम्नलिखित अपेक्षाएं बनती हैं।

1. उसका स्वयं पर विश्वास हो।
2. वह स्वस्थ जीवन जी सके।
3. परिवार में समृद्धि के साथ जी सके।
4. संबंधों में सामंजस्यता के साथ जी सके।
5. व्यवस्था में अपनी उपयोगिता से पूर्ण भागीदारी के साथ जी सके।

प्रस्तुत पुस्तक में मनीष सिसोदिया वर्तमान शिक्षा की तीन बड़ी गलतियों पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं- अर्थशास्त्र में एडम स्मिथ का साधन सीमित आवश्यकताएं असीमित वाला सिद्धांत समाजशास्त्र में डार्विन का योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत और मनोविज्ञान में फ्राॅयड का मनुष्य का हर काम काम-वासना से प्रेरित है का सिद्धांत। मध्यस्थ दर्शन के अनुसार इन तीनों स्थापित मान्यताओं के कारण मानव, परिवार, समाज, देश और प्रकृति की संपूर्ण व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। यह तीनों सिद्धांत मानव को लाभ, भोग और काम के उन्माद की ओर धकेलते हैं। मनीष इस शिक्षा मॉडल के प्रेरणा स्रोत श्री नागराज को बताते हैं जिनके अनुसार "कई समस्याएं ऐसी हैं जिन्हें हम आंदोलनों और कानूनों के जरिए हल करने की कोशिश कर रहे हैं मगर उनका समाधान शिक्षा में ही निहित है।" (पृष्ठ 132) लेखक ने अपनी इस पुस्तक में हैप्पीनेस करिकुलम के अपने प्रयोग को काफी खूबसूरती के साथ समेटा है।

हैप्पीनेस क्लास में भारतीय चिंतन और शिक्षण के अनुभवों को इमोशनल साइंस से जोड़कर एक संगम बनाया गया है। इसमें माइंडफुलनेस मेडिटेशन, प्रेरक कहानियां और एक्टिविटी आधारित चर्चा मुख्य रूप से सम्मिलित हैं। यहां लेखक सिसोदिया शिक्षा के प्रति अपने स्वयं के दर्शन एवं दृष्टिकोण को भी अभिव्यक्त करते दिखाई पड़ते हैं मेरी राय में शिक्षा के दो ही मकसद है- आदमी पर लिखकर आनंद पूर्वक जीने की योग्यता हासिल कर सके और दूसरों को आनंद पूर्वक जीने में सहयोग देने की योग्यता हासिल कर सके।(पृष्ठ 153) यहां आते आते पाठक कई बार इस भ्रम में आने लगता है कि मनीष किसी यूटोपियन सपने को लेकर चल रहे हैं, जो शायद वास्तविकता से कहीं दूर है; किंतु अगले ही पृष्ठ पर "एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट" करिकुलम की चर्चा पुस्तक को पुनः व्यावहारिक धरातल पर ला खड़ा करती है।

शिक्षा के बाद निकलने वाले बच्चे की जॉब-सीकर्स से जॉब प्रोवाइडर तक की यात्रा में मनीष को भारत की बेरोजगारी का एक व्यावहारिक हल दिखाई पड़ता है। बकौल लेखक इसमें मुख्यतः काम बालक के माइंड सेट पर किया जाता है। मनीष सिसोदिया अपनी इस छोटी सी सफलता से अभिभूत होकर स्वयं को प्रकांड शिक्षाविद् होने की जल्दी में बिल्कुल भी दिखाई नहीं पड़ते हैं और स्वीकार करते हैं कि आसमां अभी और भी है.... लेखक अपनी भावी योजनाओं पर चर्चा करते हुए लिखता है कि कई काम जो अभी भी सपने से हैं किए जाने शेष हैं- वर्तमान पाठ्यक्रम को लगभग आधा करना, शिक्षा विभाग के ढांचे में परिवर्तन करना, परीक्षा प्रणाली में बदलाव, नए शिक्षा बोर्ड का गठन, टीचर ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी की स्थापना, अप्लाइड साइंस यूनिवर्सिटी की स्थापना, स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी की स्थापना और 40 लाख से अधिक बच्चों के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर। इस सीधी और सच्ची स्वीकार्यता से लेखक की ईमानदार किंतु गंभीर सोच की बानगी भी दिखाई पड़ती है। लेखक पुस्तक को उम्मीद की किरण के साथ समाप्त करता है- उम्मीद है एक दिन शिक्षा हमारे देश में राजनीतिक विमर्श का सबसे प्रमुख विषय बनेगी उस दिन संघर्ष की नहीं केवल मेहनत की जरूरत पड़ेगी।(पृष्ठ 184)

शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में मेरे कुछ अभिनव प्रयोग/मनीष सिसोदिया/penguin books/मूल्य ₹150.


अनिरुद्ध वैष्णव 
'गुरुकुल' 
सांगानेर, भीलवाड़ा

            अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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