भारतीय शिक्षा का स्वरूप, समस्या और समाधान - सत्यं, शिवं, सुंदरम की नई शुरुआत
विषय प्रवेश -
श्रीमद्भग्वद्
गीता, अठारहवां और अंतिम अध्याय
, इस अध्याय में
श्रीकृष्णार्जुन संवाद का अंतिम श्लोक -
”नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धः त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितिऽस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनं तवः ।।”
इस श्लोक में
अर्जुन, जिसे श्रीकृष्ण ‘हे भारत!‘ कह कर संबोधित करते हैं, वो अर्जुन अपने मोह के नष्ट होने और अपने गुरु व सखा कृष्ण
के वचनों को फलीभूत करने की घोषणा करता है। इसके साथ ही
घोषणा होती है इस भारत भूमि के साथ शिक्षा के अटूट जुड़ाव की। इसके साथ ही
घोषणा होती है , भारतीयों के “भा“ अर्थात प्रकाश में “रत“ रहने की। और इसके साथ ही
घोषणा होती है भारत के एक स्वअनुशासित शिष्य व सम्पूर्ण जगद हिताय गुरु बनने की। शिक्षा के चरम उद्देश्य
“सत्यं शिवं सुन्दरं“
को साकार करने वाली यह भूमि भारत वर्ष आज अपने
संक्रमण काल से गुजरते हुए समूचे विश्व को साथ लेकर चलने को तैयार है। शिक्षा मानव जीवन
की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य ने होमोसेपियन्स से मानव
और फिर महामानव तक का सफर तय किया है। इतिहास में विश्व की अलग-अलग सभ्यताओं ने
अपनी संस्कृति और विरासत को सुरक्षित करने के लिए शिक्षा का ही रास्ता अपनाया है।
इस तरह शिक्षा वह साधन और साध्य है जिससे हर आने वाली नयी पीढ़ी अपने से पुरानी
पीढ़ी से अधिक ज्ञान पूर्ण, अधिक प्रेम पूर्ण, अधिक सेवा पूर्ण जीवन जी
सकती है।
शोध के उद्देश्य
-
1. भारतीय शिक्षा
व्यवस्था के ऐतिहासिक व वर्तमान स्वरूपों को अलग अलग कालों में कारणों सहित देखना
।
2. भारत में आज की
शिक्षा की निराशाजनक स्थिति एवं बड़ी खामियों को रेखांकित करना।
3. वैश्विक शिक्षा
के पहलुओं और नवाचारों को ध्यान में लाना।
4. शिक्षा के
नैसर्गिक उद्देश्यों सत्यं, शिवं, सुन्दरं के तार्किक पक्ष को रखना।
5. इन उद्देश्यों को
प्राप्त करने के लिए व्यूहरचना बनाना।
6. वर्तमान ढांचे
में सुधार के कदम पहचानना।
शोध तकनीक -
निम्न तकनीकें
काम में ली गयी -
-क्रमिक ऐतिहासिक
शिक्षा के विश्लेशण द्वारा निष्कर्ष
-समस्या का
व्याख्यात्मक वर्णन
-शिक्षा में
नवाचारों के तथ्यों का संग्रहण
-सारणीयन व
तार्किक शैली द्वारा शिक्षा के मूल उद्देश्यों का प्रस्तुतीकरण
-विविध शैक्षिक
साहित्य में समाधानों के आयामों का पुनरीक्षण
परिकल्पना -
यदि भारतीय
शिक्षा की ऐतिहासिक व वर्तमान भूलें दूर करके वैश्विक नवाचारों को ध्यान में रखा
जाए और शिक्षा नीति में व्यष्टि परक तत्व समावेशित किये जाएँ तो “सत्यं शिवं सुंदरम“ की प्राप्ति की जा सकती है ।
शोध विवरण -
भारतीय शिक्षा का ऐतिहासिक पक्ष
भारतीय शिक्षा व
शिक्षा व्यवस्था के स्वरुप में इतिहास में कई बार परिवर्तन हुए हैं। अलग-अलग
कालों में उस काल के राजनैतिक व सामाजिक - सांस्कृतिक स्थिति के हिसाब से शिक्षा व
शिक्षा व्यवस्था बदलती चली गई। कभी राजनैतिक शक्तियों ने तो कभी धार्मिक व
सामाजिक शक्तियों ने अपनी सत्ता को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था के स्वरुप
का निर्माण किया।
जहाँ उत्तर पाषाण
काल व सिंधु सभ्यता में शिक्षा जीविकोपार्जन व पारिवारिक उद्देश्यों की पूर्ति का
साधन थी , वैदिक काल व स्मृतियों के
युग आते आते यही शिक्षा धर्म का रक्षण व पोषण करते हुए साध्य बन चुकी थी। वैदिक
कालीन गुरुकुलों में दीक्षा, तप, जप, कठोर अनुशासन आदि के द्वारा शिक्षा के कई
उद्देष्यों जैसे चरित्र व व्यक्तित्व विकास, धर्म का अनुसरण, संस्कृति का रक्षण व विकास एवं सामजिक एकता आदि को साधा जाता था।
भारत में मौर्य
वंश, गुप्त वंश और अन्य राजाओं
के काल में शिक्षालय आश्चर्यजनक रूप से कला स्थापत्य व विज्ञान के केंद्र बने थे।
इस समय में विभिन्न धर्मों के उपाध्यायों व गुरुकुलों की सक्रियता थी। नालंदा ,
तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों की
कीर्ति पूरे विश्व में थी। धर्म, कला, विज्ञान, व दर्शन की शिक्षा हमारी संस्कृति का अंग बन चुकी थी।
उसके बाद सल्तनत
काल व मुग़ल काल संस्कृतियों के मिश्रण के गवाह बने। पाली, प्राकृत आदि प्राच्य भाशाओँ के साथ अरबी, फ़ारसी आदि भाषाएँ भी प्रचलित हुई। विभिन्न
कलाओं जैसे चित्रकला, मूर्तिकला,
संगीत व स्थापत्य की विदेशी शैलियों ने देशी शैलियों के साथ मिश्रण करके नए आयाम खोले। पूरे उत्तर भारत व दक्षिण भारत में
अगणित पाठशालाएं, महाविद्यालय,
मदरसे, गुरुकुल आदि अध्ययन केंद्र स्थापित हो चुके थे। शिक्षा अभी
भी अपने क्षेत्र, समाज व धर्म से
जुडी हुई थी।
औपनिवेशिक काल
में यूरोपीय शक्तियों के पूरे विश्व को गुलाम बनाने के स्वप्न से भारतीय शिक्षा के
परिदृश्य में बड़े परिवर्तन आये। अन्य उपनिवेशों की तरह ही भारत के राजकाज को चलने
लिए अंग्रेजों को नौकरशाही की आवश्यकता थी और इसके लिए बड़े पैमाने पर कर्मचारियों
को तैयार किये जाने की जरुरत थी। इस आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए विद्यालयों
को ऐसे कुशल कर्मचारियों के उत्पादन केन्द्रों की तरह काम में लिया जाने लगा।
शिक्षा का सम्बन्ध नौकरशाही से हो गया। प्रशासन, न्याय, वाणिज्य, राजस्व आदि विभागों के पहलु पाठ्यक्रम के अंग
बने। मैकाले, कर्जन, वुड , हंटर आदि के विचार व विवरण पढ़ने से हमें उनके उद्देश्य समझ आते हैं। इस तरह उद्देश्य बदलते गए, साँचे ढलते गए।
शिक्षा किसी न किसी रूप में पनपती रही।
अंग्रेजों ने
भारतीय शिक्षा व्यवस्था के ढांचे को इस प्रकार से ढाल दिया कि वह नौकरशाही की शाखा
के रूप में काम करने लगी और नौकरशाही ,जो पहले अंग्रेजों को स्थापित रखने के काम आती थी, आजादी के बाद अब वह लोकतंत्र का अनिवार्य अंग बन गयी थी।
आजाद भारत के संविधान निर्माताओं व स्वप्नदृष्टाओं ने भारत के सामने बहुआयामी
लक्ष्य रखे। जहाँ एक ओर भारत को सामरिक-प्रशासनिक तौर पर संभलना था, वहीँ दूसरी ओर समाजवाद और पंथनिरपेक्ष जैसे
आदर्शों को भी निभाना था। इस स्थिति में शिक्षा को जल्दबाजी में समष्टि मूलक
तथ्य बना दिया गया जो अन्य सरकारी विभागों की तरह समाज में शांति, व्यवस्था एवं विकास बनाये रखने का साधन मात्र
था। वे ही उद्देश्य जो भारतीय समाज के सामने थे, शिक्षा नीति के आगे भी रख दिए गए। ऐसे उद्देश्य जो मापे
नहीं जा सकते। परिणामस्वरूप न तो स्कूली पद्धति में बदलाव की आवश्यता महसूस की
गयी ना ही पाठ्यक्रम, शिक्षणविधियों व गुरु-शिष्य संबंधों पर मौलिकता
से विचार हुआ।
शिक्षा के धुंधले
उद्देश्य, उधार की शिक्षण विधियां,
बेतुके पाठ्यक्रम और चरमराते पुराने स्कूलों से
आजाद भारत की नयी पीढ़ी शिक्षित होने को विवश हुई।
उसके पश्चात एक
के बाद एक उच्च शिक्षा के लिए राधाकृष्णन समिति, माध्यमिक शिक्षा के लिए मुदालियर आयोग, विद्यालयी शिक्षा के लिए कोठारी आयोग व साथ ही राष्ट्रीय
शिक्षा नीतियां 1986, 1992 ,2005 आदि कई सारे
प्रयास हुए परन्तु 10+2+3 व उच्च शिक्षा मात्र डिग्री व नौकरी प्रदाता
ही बनी रही।
वर्तमान स्वरूप की खामियां
सन 1947 के बाद भारत में आश्जचर्नयक रूप से
वैज्ञानिकों ने जन्म लेना बंद कर दिया। आजाद भारत के कई संभावित वैज्ञानिक और ना
सिर्फ वैज्ञानिक बल्कि गणितज्ञ, खगोलविद,
संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार,
हस्तशिल्पज्ञ, खिलाडी, दार्शनिक,
साहित्यकार, कवि, अर्थशास्त्री व
राजनीतिज्ञों आदि संभावित महापुरुषों की प्रतिभाएं स्कूलों की व्यवस्था के नीचे दबकर ख़त्म हो गयी।
सरकारों ने
आंकड़ों से प्यार किया और शिक्षा में गुणात्मक सुधारों को अपनाने की बजाय साक्षरता
के आंकड़ों को प्राथमिकता माना गया। मात्रात्मक वृद्धि को उपलब्धि समझ लिया गया।
पाठ्यक्रमों की ऐसी दुर्दशा हो गयी कि 15-20 साल में स्कूल-कॉलेज से निकलने वाला भारतीय विद्यार्थी सब
कुछ पढ़ लेता है, परीक्षा दे लेता
है, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण
हो जाता है पर आत्मसात कुछ भी नहीं कर पाता।
ऊपरी तौर पर तीन
आयामों में कमियां दिखती हैं -
पहली व्यवस्थागत
कमी - हमारी शिक्षा नीति के निर्माताओं ने शिक्षा की सफलता को व्यक्तिगत ना रखकर
सामूहिक कर दिया गया। उदाहरण के लिए एक कक्षा में 50 बच्चे हैं, सभी का मानसिक,
शारीरिक, पारिवारिक स्तर अलग अलग है फिर सभी को एक ही पाठ्यक्रम,
एक ही कक्षा, एक ही समय में परीक्षा व एक ही तरह से मूल्यांकन क्यों? इस तरीके से किसी
का सही विकास व मूल्यांकन नहीं हो पाता है और अंत में हमारी शिक्षा नीति ही फेल हो
जाती है। कक्षा 6-12 तक गणित, सामाजिक, विज्ञान आदि
विषयों की पाठ्यपुस्तकों में ऐसे बिंदु भी हैं जो इन विषयों में स्नातकोत्तर होने
के समय फिर पढ़ाये जाते हैं। ये विसंगति नहीं तो और क्या है?
उच्च शिक्षा में फैशन की तरह डिग्री - डिप्लोमा नए आते जाते हैं और पुराने पड़ते जाते हैं। B.A., B.Sc., B.Com., इंजीनियरिंग ,नर्सिंग के अलावा B.B.A, M.B.A., B.Tech., M.Tech., यहाँ तक कि CA, CS, MBBS और Ph.D. करने वालो की तादाद इतनी है फिर भी हमें योग्य सैनिक, योग्य भाशाविद, योग्य राजनेता, योग्य अर्थशास्त्री, योग्य चिकित्सक या योग्य नागरिकों तक की कमी खलती है।
दूसरी बड़ी खामी
ये देखने को मिलती है कि बच्चों को हम सही ढंग से शिक्षण सेवा उपलब्ध नहीं करा पा
रहे हैं। ये केवल स्कूलों की संख्या की ही नहीं बल्कि स्कूलों की गुणवत्ता का भी
प्रश्न है । बच्चे चाहे अमीर परिवार के हों, चाहे गरीब परिवार के। चाहे गांव के हो, चाहे शहर के हों। चाहे किसी जाति, धर्म, क्षेत्र के हो। मनोवैज्ञानिक स्तर पर पढ़ने के प्रति सबका रवैया एक जैसा होता
है। दुःख की बात है कि बहुत कम या न के बराबर बच्चे भारत में रुचिपूर्ण शिक्षा
प्राप्त कर पातें हैं। हम उनके लिए वो
वातावरण उपलब्ध नहीं करा पाते जो उन्हें विकसित करने में सहायता करे। उन्हें
मात्र नामांकित कर देने से, पांचवी पास कर
देने से मुफ्त पुस्तकें, गणवेश, लैपटॉप आदि दे देने से उनके मन पर हम क्या असर करना चाहते हैं?
और अब एक तीसरी व अति भयंकर भूल जो अंग्रेजों के काल में उनकी उपलब्धि थी और हमारे लिए गुलाम बनने व बनाने की मशीन। इसे B.Ed. कहा जाता है। शिक्षक प्रशिक्षण के नाम पर धड़ल्ले से डिग्रीयां बेचीं जाती हैं वो तो अपराध हैं ही। साथ ही पूरे शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को तल्लीनता से पूरा कर एक मशीन बन जाना भी एक नैतिक अपराध ही है इस स्तर पर दो तरफा गड़बड़ी चल रही है। अव्वल तो शिक्षक प्रशिक्षण की जटिल मशीनी प्रक्रिया का अनुसरण देश के हजारों B.Ed. कॉलेज करते नहीं हैं। B.Ed. की डिग्रीयां बांटी जाती है और लाखों फर्जी शिक्षकों की फ़ौज़ करोड़ों विद्यार्थियों के भविष्य के साथ सरकारी व गैर सरकारी विद्यालयों में खेलने लगती हैं। और अगर इस शिक्षक प्रशिक्षण की प्रक्रिया आत्मसात कर भी ली जाए तो इंसान शिक्षक बनने की बजाय पाठ्यक्रम पूरा करवाने वाली संवेदन हीन मशीन बन कर रह जाता है जिसका बच्चों के व्यक्तित्व, चारित्रिक व सर्वांगीण विकास से कोई लेना देना नहीं हैं। उसे तो बस समय पर कोर्स पूरा करवाने, गृहकार्य, परीक्षा आदि करवाने की फ़िक्र रहती है। हम जब शिक्षकों का निर्माण ही नहीं कर पा रहे हैं तो शिष्यों का निर्माण कैसे करेंगे?
विश्व परिदृश्य
में शिक्षा
इन सब से इतर
वैश्विक शिक्षा के स्थिति को देखें तो उपनिवेश काल के बाद सभी देशों ने अपनी अलग
अलग राह चुनी। कई उत्पादन की राह पर आगे बढे, कई वितरण के बाजार बने तो कई अब भी आपसी संघर्ष में लगे रहे। चीन ,अमेरिका, अफगानिस्तान, जापान, सिंगापुर आदि देशों की अलग अलग राष्ट्रीय दिशाएं व स्थिति देखने को को मिलती हैं। इनकी दिशाओं
से इन देशों में शिक्षा के स्तर व शिक्षा का इनके समाज में योगदान का प्रतिशत तय
होता है। जीवन के लिए कठिन
एवं अविकसित अफ़्रीकी देश व अफगानिस्तान-इराक जैसे देशों में शिक्षा में साक्षरता
के स्तर पर ही संकट है वहीँ जापान, अमेरिका, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में शिक्षा के क्षेत्र में नवाचारों
की भरमार हैं। विश्व में एक ओर
तालिबान द्वारा बच्चों को विद्यालय जाने से रोका जाता है, साक्षर होने पर गोली मारी जाती है वहीँ दूसरी ओर अमेरिकी या
ऑस्ट्रेलियाई बच्चे को पढ़ने के लिए स्कूल जाने की जरुरत भी नहीं पड़ती वह ऑनलाइन
क्लासेस व एग्जाम देता है।
कुछ नवाचारों की
बात करें -
खान अकादमी एवं
सोल जैसी शिक्षण संस्थाओं ने क्लास रूम को पृथ्वी जितना बड़ा कर दिया है जहाँ
शिष्य इंटरनेट के माध्यम से अपनी गति-इच्छा-रूचि के अनुसार जो चाहे जब चाहे पढ़-सीख
सकता है।
अमेरिका की एक
संस्था KIPP(नॉलेज इज पॉवर) ह्यूस्टन स्कूल द्वारा कई विद्यालयों को जोड़कर चलाये जा रहे कार्यक्रम
में बालकों में गुणात्मक विकास पर काम किया जाता है महान शिक्षक तैयार किये जाते है शिष्यों में धैर्य, दया, शील, आत्मविश्वास जैसे गुण परीक्षा व पाठ्यक्रम के
माध्यम से सिखाये जाते हैं और इन्हे मापा जाता है। जापान, इंडोनेशिया और सिंगापुर आदि देशों में देशभक्ति
व ईमानदारी जैसे चारित्रिक गुण बाकायदा सिलेबस में पढ़ाये-सिखाये जाते हैं। विकसित देशों में
शिक्षा सूचनात्मकता से गुणमूलकता की ओर बढ़ रही है, भारत स्वयं को इस विश्व में कहाँ पाता है ये सोचने का विषय है ।
शिक्षा:- मूल प्रवृति व चरम उद्देश्य
शिक्षा के बारे
में व्यष्टि परक सोच रखते हुए सर्वप्रथम हमें यह विचार करना होगा कि एक व्यक्ति के
लिए शिक्षा के उद्देश्य क्या हो सकते हैं? शिक्षा की प्राचीन पाश्चात्य व भारतीय परिभाषाओं को देखने
से हमें पता चलता है कि शिक्षा एक प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति के भीतर अन्तर्निहित
गुणों व पूर्णता का प्रकटीकरण एवं विकास होता है।
कुछ परिभाषाएं
देखें -
पश्चिमी विचारकों के द्वारा -
पश्चिमी विचारकों के द्वारा -
1. फ्रोबेल - “शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव की
जन्मजात शक्तियां बाहर प्रकट होती हैं।“
2. पेस्टोलॉजी-“शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का
स्वाभाविक, समरूप व प्रगतिषील विकास
है।“
3. सुकरात - “शिक्षा का अर्थ है संसार के उन सर्वमान्य
विचारों को प्रकाश में लाना जो कि प्रत्येक मानव के मस्तिक्ष में निहित होते हैं।“
भारतीय चिंतन के
अनुसार -
सा विद्या या
विमुक्तये अर्थात विद्या वह है जो मनुष्य को (बंधनों से) मुक्त (भीतर से बाहर की
ओर) करे
1. स्वामी विवेकानंद
- “शिक्षा मनुष्य के अंदर
सन्निहित पूर्णता का प्रदर्शन है। “
2 श्री अरविन्द - “अंतःनिहित ज्योति की उपलब्धि के लिए शिक्षा
विकासशील आत्मा की प्रेरणादायी शक्ति है।“
3. महात्मा गांधी - “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य में
अन्तर्निहित शारीरिक, मानसिक व
आध्यात्मिक शक्तियों को प्रकाश में लाना है।“
शिक्षा के
उद्देश्य वही है जिसे प्राचीन भारत में सत्यं, शिवं, सुंदरम कहा गया
और 1948 में ब्लूम ने किसी मनुष्य का ज्ञानात्मक, भावात्मक व मनोगत्यात्मक विकास करना या मनुष्य
को ज्ञानपूर्ण, प्रेमपूर्ण व
कुशलतापूर्ण जीवन जीने के लिए तैयार करना।
भारतीय व
पश्चिमी शिक्षा दार्शनिकों के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि प्राचीन भारतीय विचारकों
ने मनुष्य को नैसर्गिक रूप से ज्ञानवान, प्रेमभावी व कुशल माना था एवं उसके अनुसार गुरुकुलों में वातावरण निर्मिति की
गयी थी। आधुनिक पश्चिमी शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य को पशुओं के समान
प्रशिक्षित कर के उसे शिक्षित करने की आवशयकता महसूस की है। पावलव, स्किनर , थार्नडाइक आदि मनोवैज्ञानिकों के चूहे, कुत्ते, गोरिल्ले आदि पर किये गए प्रयोग आज भी शिक्षण तकनीकों का
आधार बने हुए है।
उद्देश्यों को थोड़ा गहरे से समझने के लिए हम इस प्रश्न का सहारा ले सकते हैं कि एक मनुष्य पशु से किस प्रकार भिन्न हैं? विज्ञान के अनुसार मनुष्य जैविक रूप से बन्दर से विकसित हुआ है या धार्मिक सोच के अनुसार ईश्वर ने प्रत्येक नस्ल के जोड़े का निर्माण किया, उसी में मनुष्य बना है।
जो भी है,
पर मनुष्य पशुओं से भिन्न है, अधिक विकसित है तो इसके पीछे तीन ठोस कारण हैं
-
पहला है मनुष्य
का मस्तिष्क। जिसने मनुष्य को विचारवान व तार्किक बनाया। ज्ञान के असीम भण्डार
की शुरुआत आदिमानव के उन्नत मस्तिष्क के एक विचार से ही हुयी।
दूसरा - मनुष्य
वो एकमात्र सौभाग्यशाली जीव है जो मुस्करा सकता है। मुस्कान व प्रेम इस सद्भाव
पूर्ण समाज की नींव है जिससे मनुष्य एक सामाजिक पशु बना।
तीसरा है मनुष्य
के हाथ की बनावट। ये वह अंग है जिसे
मनुष्य की प्रथम मशीन कहा जा सकता है। सभ्यताओं के विशाल संसार इसी हाथ की बनावट
एवं अंगूठे की विशिष्ठ स्थिति के कारण बन पाये। इससे मनुष्य कुशल बना, औजार बनाये और अपना जीवन स्तर ऊँचा उठाया।
और वास्तव में इन
तीनो यानी मस्तिष्क सदभावना व कुशलता का अधिकाधिक विकास ही मनुष्य को पशुत्व से
देवत्व की ओर ले जाता है और ये ही शिक्षा का उद्देश्य भी है। इस शिक्षा दर्शन को धरातल पर उतारने में आज की परिस्थितियों को देखते हुए कठिनाई आ सकती है पर
सुधारों की शुरुआत किसी न किसी पीढ़ी को तो करनी ही होगी। सत्यं, शिवं, सुंदरम को धरातल पर उतारने के लिए भारतीय शिक्षा नीति व व्यवस्थाओं में
विभिन्न स्तरों पर छोटे बड़े बदलावों की आवश्यकता है। वर्तमान में आज के शिक्षण
ढांचे व उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रखते हुए निम्न उपाय काम में लिए जा सकते
हैं -
1. प्राथमिक शिक्षा
के समय छोटे बच्चों को किसी पाठ्यक्रम, कालांश, कक्षाएं,
परीक्षाएं आदि के बंधन
में न बांधकर
स्वतः सीखने के लिए प्रेरित करने वाला वातावरण बना कर देना होगा। प्रसिद्ध
यूरोपीय शिक्षाविद सर कैन रोबिनसन के इस विचार से हमें सहमत होना चाहिए कि
रचनात्मकता साक्षरता के जितनी ही महत्वपूर्ण है और रचनात्मकता तभी पैदा हो सकती है जब बंधन हटा लिए जाएँ। एक अन्य
शिक्षाविद का ये विचार उल्लेखनीय है कि प्राथमिक शिक्षा को सिर्फ सर्वोत्तम
शिक्षकों ,जो यूनिवर्सिटी प्रोफेसर
बनने लायक हैं, के ही हाथों में
देना चाहिए क्योंकि सर्वोत्तम की आवश्यकता शुरुआत में होती है।
2. मशीनी तरीके से
कक्षाओं में आधा घंटे विज्ञान, आधा घंटे हिंदी,
आधा घंटे सामाजिक और आधा आधा घंटे के कालांषों
में पढने-पढ़ाने से हम उस घुड़दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं जिसे पाठ्यचर्या कहा जाता
है यह एक लैटिन भाशा का शब्द है जिसका अर्थ है घोड़ों की रेस का मैदान इस सन्दर्भ में
एक भारतीय शोधकर्ता सुगाता मित्रा की SOLE (Self Organized
Learning Environment) व्यवस्था उपाय
प्रस्तुत करती है विज्ञान, सामाजिक व भूगोल
आदि विषय सत्यं की श्रेणी में आते हैं और सत्य सदैव शोध करके पाया जा सकता है द्य
हम उसे पढ़ कर याद तो कर सकते हैं लेकिन आत्मसात नहीं कर सकते। इस व्यवस्था में
शिक्षक प्रश्नों के क्रमिक सेट पाठ्यक्रम के रूप में बच्चों के सामने रखता है और
बच्चे शोध व खोज का तरीका अपना कर सीखते हैं। इसकी तुलना प्राचीन दार्शनिक सुकरात
के Dialectic Method से की जा सकती है। यदि ये तरीका अभी
तात्कालिक रूप से अति अव्यावहारिक लगता हो तो भारतीय शिक्षाविद गिजू भाई बधेका की
पुस्तक “दिवास्वप्न“ में बतलाये तरीकों से हम वर्तमान ढांचे में
रहते हुए ही अभूतपूर्व सुधार के कदम उठा सकतें हैं। इस पुस्तक में शिक्षक
प्रयोगवादिता द्वारा रुचिपूर्ण व वैज्ञानिक ढंग से बालकों को पढाने व पाठ्यक्रम,
परीक्षा आदि कसौटियों पर खरा उतारने का कार्य
करता है।
3. विद्यालयों को
बाहरी समाज से थोड़ा अधिक परिष्कृत व भौगोलिक अलगाव लिए हुए होना होगा जब तक समाज
की विषमताएं न्यूनतम ना हो जाएँ। बालकों को पनपने के लिए हमें उन्हें शुद्ध
वातावरण देने की व्यवस्था बनानी होगी। बड़े व बहुत सारे
स्कूल खोलने की बजाय स्कूलों की आधारभूत संरचना में पर्याप्त जगह , प्राकृतिक परिवेश, विचारों के सम्प्रेशण की सुविधाएं आदि को सम्मिलित करना
होगा जिससे स्पंदन युक्त वातावरण बने। इस सन्दर्भ में एक जापानी भाषा की पुस्तक Dialectic Method अच्छा मार्गदर्शन करती है जिसमें एक नन्ही सी बच्ची के प्यारे से स्कूल और उसके प्रयोगवादी
प्रिंसिपल की सुन्दर सी कहानी है । इसमें बताया गया है कि किस प्रकार बच्चों को एक
खुला मगर व्यवस्थित वातावरण देकर उनकी प्रतिभाओं व अच्छे गुणों का अर्थात शिवं का
विकास किया जा सकता है।
4. इसके साथ ही
कक्षा 6 से बच्चों को ध्यान की
विधियों का अभ्यास कराया जाए। ध्यान, योग आदि क्रियाएं बचपन से ही मनुष्य को स्वयं के प्रति जागरूक रहना सीखती हैं
द्य इससे विद्यार्थियों के मन, बुद्धि व शरीर का
विकास होगा। ध्यान, योग, प्राणायाम आदि
दिव्य क्रियाओं का समावेश यदि भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में नहीं होगा तो कहाँ
होगा?
5. आज प्रत्येक उच्च
माध्यमिक सरकारी विद्यालयों व अधिकांश निजी विद्यालयों में Projector-Computer की सुविधा है परन्तु उपयोग बहुत कम हो रहा है। सामाजिक, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि विशयों के हजारों वीडियो इंटरनेट पर
उपलब्ध हैं। इन्हे दिखवाने की व्यवस्था बाकायदा सिलेबस में करवाई जाए।
मनोवैज्ञानिकों ने अनुसार शिक्षकों के बोले हुए को सुन कर शिष्य जितना सीख सकता है
उससे कई गुना अधिक टी.वी. पर देख कर समझ सकता है और याद कर सकता है।
6. आज विश्व के देश
इतने घुल-मिल गए हैं कि किसी एक भाषा में समस्त ज्ञान भण्डार उपलब्ध नहीं हैं।
हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की भी अपनी समृद्धता है।
विद्यार्थियों को
अलग-अलग समय में हिंदी, अंग्रेजी व कोई
एक अन्य भारतीय भाषा सिखाई जाए। प्राथमिक व उच्च प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से
मातृभाषा में ही हो।
7. परीक्षाओं में
मूल्यांकन से अधिक प्रस्तुतीकरण की महत्ता होती है। परीक्षाओं का उद्देश्य ये होना
चाहिए कि छात्रों को प्रस्तुतीकरण सिखाया जाए, छात्रों का प्रस्तुतीकरण मौखिक, लिखित, साक्षात्कार व
सार्वजनिक प्रस्तुतियों द्वारा करवाया जा सकता है। सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण द्वारा
मूल्यांकन स्वतः ही हो जाता है। प्राचीन काल में पांडवों का युद्ध कौशलों का
प्रदर्शन, वर्तमान समय में संगीत के
रियलिटी शोज व विदेशों में होने वाले स्पेलिंग कॉम्पिटिशन आदि भी तो आखिर
परीक्षाएं ही हैं।
8. शिक्षक और छात्र
दोनों ही शिक्षण प्रक्रिया के एक ही छोर पर खड़े तत्व है, दूसरे छोर पर ज्ञान है। विद्यालय में शिक्षक खुद भी
ज्ञानार्थ शोध करे, छात्रों की मदद
ले। छात्रों द्वारा अपने से कम श्रेणी के छात्रों को पढ़ाने की व्यवस्था (Monitory teaching system) भी की जाए।
विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या नहीं बल्कि गुणवत्ता छात्रों को प्रभावित करती
है द्य पुराने समय में एक ही गुरु के आश्रम में हज़ारों विद्यार्थियों के पढ़ने के
पीछे यही रहस्य था।
9. विद्यालयों में
शिक्षक-छात्रों के आवास की व्यवस्था हो। पूर्ण आवास संभव ना हो तो समय-समय पर
शिविर लगाकर पूर्णकालिक शिक्षा का अभ्यास कराया जाए। इससे शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध
मजबूत होंगे द्य शिक्षक छात्रों की प्रकृति को पहचान पाएंगे व जिस दिशा में छात्र
का उन्मुखीकरण हो , झुकाव हो उस दिशा
में शिक्षक छात्रों को निर्देशित कर पाएंगे। इस व्यवस्था के द्वारा ही सुंदरम
अर्थात विद्यार्थियों में किसी कला, हुनर, हस्तशिल्प या तकनीकी
ज्ञान जैसी कुशलताओं का विकास किया जा
सकता है।
10. रेडियो पर आने
वाले Education Channels गाँवो के विद्यालयों के लिए जबदस्त काम आ सकते हैं।
इग्नू का शैक्षिक चैनल ‘ज्ञानवाणी‘ NCERT & UGC के साथ मिलकर रोजाना 4-12 घंटे तक शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता
है। इसके संसाधनो को बढ़ाकर इसकी पहुंच गाँवो तक कर दी जाए तो इनसे कम संसाधनो में
स्तरीय शिक्षा संभव है। साथ ही इसरो का प्रथम शैक्षिक उपग्रह edusat भी इस
दिशा में चमत्कारिक रूप से काम में लाया जा सकता है द्य इस के माध्यम से पूरे देश
के शिक्षण संस्थानों को जोड़कर शिक्षा के गुणात्मक स्तर में वृद्धि लायी जा सकती है और इस उपग्रह की स्थापना के दस साल के बाद भी हम इसकी क्षमता का बहुत काम हिस्सा
काम में ला पाये हैं।
इस प्रकार कई
उपायों द्वारा हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नए आयाम दे सकते हैं। हमारी भारत माता को जगद्गुरु
बनाने के लिए ये जरुरी है कि हम भारतीय आदर्श शिष्यों की भूमिका का निर्वहन करें। तभी शिक्षा के
स्वर्ग इस भारतवर्ष में जहाँ अर्जुन अपने गुरु श्री कृष्ण से शिक्षित हो सत्य के
लिए कर्म करने को तत्पर होता है वहीँ दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय, भगवद गीता के अंतिम श्लोक में कह जाते हैं -
“यत्र योगेष्वर
कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्री र्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।“
अर्थात जहाँ
योगेश्वर श्री कृष्ण जैसे शिक्षक हैं, जहाँ धनुर्धर अर्जुन जैसे शिष्य हैं वहीँ पर श्री, विजय, विभूति एवं अचल
नीति का निवास होता है ।
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आदित्य देव वैष्णव
'गुरुकुल'
सांगानेर, भीलवाडा
'गुरुकुल'
सांगानेर, भीलवाडा
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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