स्कूल की 'दृश्य' संस्कृति
इसी बीच मैंने प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार की एक नयी किताब “पढ़ना, जरा सोचना” पढ़ी। इसमें उन्होंने एक ऐसी बात कही कि सदन झा का सैद्धांतिक फ्रेमवर्क मेरे लिए और ज्यादा ज़रूरी हो गया। इसे पढ़ते हुए मेरा विश्वास और मज़बूत हुआ कि “दृश्य” स्कूलों को समझने में वाकई मदद कर सकते हैं। इसी के साथ मुझे लगने लगा कि स्कूलों को अध्ययन करने में यह फ्रेमवर्क एक अच्छा औज़ार हो सकता है। इस लेख में, मैं इन दोनों लोगो के विचारों को यहाँ अपने अवलोकन के आधार पर आपके साथ साझा करना चाहूँगा।
उपरोक्त बात को कुछ उदाहरणों से समझते हैं। जैसे जन लोकपाल के मुद्दे पर एक “अहिंसक” भीड़ का उमड़ना, एक ऐसा ही दृश्य है। हमारे काल में ऐसा कुछ हुआ कि लोग उमड़ पड़े और किसी मुद्दे के लिए अपनी आवाज उठाने लगे। यह एक सामूहिक अनुभव था। एक ऐसी घटना भी जो आम-तौर पर नहीं दिखती या यूँ कहें कि यह “भीड़” अपने आप में “आम भीड़” से अलग थी। आमतौर पर भीड़ हमेशा हिंसक होती है। लेकिन यह एक “अहिंसक” भीड़ थी। एक अलग ही “दृश्य”, एक अलग ही “नज़ारा”। यह नज़ारा ही “दृश्य” है। यदि हम इसका अध्ययन करें कि यह नज़ारा बना कैसे होगा, वो कौन से कारक होंगें जिन्होंने इसके निर्माण में मदद की तो हम सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ को पकड़ने का प्रयास कर रहे होंगे।
तो एक बार फिर याद कीजिए कि ऊपर “दृश्य” को कैसे परिभाषित किया गया है:
लेकिन उपरोक्त अनुभव कभी-कभार ही दृश्य के रूप में उभरता है। उन घटनाओं को भी दृश्य के रूप में देखा जाता हैं जो एक काल खंड में आमतौर पर देखने को मिलती हैं। इसे एक दूसरे उदहारण से समझते हैं। कल्पना कीजिए कि आप किसी सार्वजनिक स्थान पर बैठे जैसे, बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन, पार्क, बस के अन्दर, ट्रेन के अन्दर आदि और अचानक आपका ध्यान जाता है कि 90 प्रतिशत लोग अपने-अपने स्मार्ट फोन पर व्यस्त हैं। यह नज़ारा ही एक “दृश्य” है। आज से 20 साल पहले यह सामूहिक अनुभव नहीं था और शायद आज से 20 वर्ष बाद ना रहे।
इसके अलावा आम तौर पर किसी काल-खंड में दिखने वाले “इश्तेहार”, “पोस्टर्स”, “चित्र”, “टेक्स्ट” आदि भी दृश्य ही हैं। एक बहुत रोचक उदहारण सदन झा अपनी किताब में रखते हैं। जैसे उन्होंने ट्रेन की टॉयलेट्स में, महिलाओंके लिए रिजर्व्ड बस सीटों पर, सार्वजनिक टॉयलेट्स में, ट्रकों की पीछे, दीवारों आदि पर लिखे “टेक्स्ट” का अध्ययन किया, और इसके जरिये उन्होंने पुरुष-वादी जन-संस्कृति का अध्ययन किया। कुछ रोचक उदहारण हमें इस बात को समझने में मदद करेंगे। थोडा निम्न “दृश्यों” के उदाहरणों पर सोचिये:
यह सब जब एक आम नज़ारा हों तो यह एक “दृश्य” का निर्माण कर रहा है।इसी के साथ इन दृश्यों के अध्ययन के ज़रिये आप उस काल-विशेष के मानस को समझने की एक सार्थक कोशिश कर सकते हैं। ये सब दृश्य जन-संस्कृति के अनुभवों, मिथकों, धार्मिक विश्वासों, सपनों, रूपकों, व्यावहारिकताओं के सम्मिश्रण से बनते है। इन्ही के जरिये जन-समुदाय अपने अनुभवों को देखते और दिखाते हैं। अपने दृश्य गढ़ते है।
शिक्षाविद कृष्ण कुमार अपने लेखन में अक्सर बार-बार इस बात पर जोर देते हैं और दुखी से होकर अपनी एक आकांक्षा भी साझा करते जाते हैं कि स्कूलों में “पढ़ने” के दृश्य देखने को ही कहाँ मिलते हैं। वो कई जगह कहते हैं कि कुछ ऐसे दृश्य हैं जिन्हें वे अपने लम्बे कार्यकाल में देखने को तरस गए। वो कहते हैं कि उनकी आकांक्षा है कि वे किसी स्कूल में एक नीम के पेड़ के नीचे अकेले बैठे किसी शिक्षक को निराला पढ़ते देंखे। उनका मानना है कि आज के परिदृश्य में यह कितना दुर्लभ दृश्य है कि कोई बालक स्कूल के किसी कोने में, या फिर भीड़ से अलग कहीं सीढ़ियों पर बैठा कहानी पढ़ रहा हैं।
मुझे लगता है कि कृष्ण कुमार यूँ ही इस तरह की आकांक्षा या सपना अपने मन में पाले हुए नहीं हैं। इसके पीछे उनकी एक आधारभूत मान्यता है कि ऐसे दृश्य स्कूल की संस्कृति का दर्पण होते हैं। इनके माध्यम से हमें एक अंदाजा मिलता है कि पढ़ने की एक संस्कृति इस स्कूल में पनप पायी है।
कुलदीप गर्ग
(लेखक अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, जयपुर में शिक्षक प्रशिक्षक हैं)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
कुछ दिन पहले मैंने एक युवा इतिहासकार सदन झा की एक किताब पढ़ी- “देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति। इस किताब में
उन्होंने “दृश्यों” का इतिहास रचा है। मेरे लिए यह एक बेहद रोचक और
इनसाइटफुल किताब थी। इस किताब के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि “दृश्य” भी अध्ययन किये जा सकते हैं और इनके अध्ययन के माध्यम से हम सामजिक-सांस्कृतिक
यथार्थ को समझ सकते हैं। उस समय से मेरे अन्दर यह विचार पनपता रहा है कि कैसे इन
सारे सैद्धांतिक औज़ारों (जो सदन झा ने अपनी किताब में सुझाए हैं) का इस्तेमाल मैं
स्कूलों के अपने अध्ययन में करूँ?
इसी बीच मैंने प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार की एक नयी किताब “पढ़ना, जरा सोचना” पढ़ी। इसमें उन्होंने एक ऐसी बात कही कि सदन झा का सैद्धांतिक फ्रेमवर्क मेरे लिए और ज्यादा ज़रूरी हो गया। इसे पढ़ते हुए मेरा विश्वास और मज़बूत हुआ कि “दृश्य” स्कूलों को समझने में वाकई मदद कर सकते हैं। इसी के साथ मुझे लगने लगा कि स्कूलों को अध्ययन करने में यह फ्रेमवर्क एक अच्छा औज़ार हो सकता है। इस लेख में, मैं इन दोनों लोगो के विचारों को यहाँ अपने अवलोकन के आधार पर आपके साथ साझा करना चाहूँगा।
भाग-I
इसलिए सबसे पहले यह समझते हैं कि यह “दृश्य” क्या हैं? और इसे अध्ययन कैसे कर सकते हैं? एक इतिहासकार की दृष्टि से (या यूँ कहें कि
समाज-विज्ञान में एक सैद्धांतिक संकल्पना के तौर पर) दृश्य केवल चित्र, फोटो या प्रतीक ही नहीं बल्कि एक ख़ास समय के
पटल पर सामूहिक अनुभवों के वो बिम्ब भी है जो इस पर बनते-बिगड़ते रहते है- एक समय
वें संघनित होकर एक रूप (दृश्य) धारण करते हैं और कालांतर में धुआं हो जाते है।
उपरोक्त बात को कुछ उदाहरणों से समझते हैं। जैसे जन लोकपाल के मुद्दे पर एक “अहिंसक” भीड़ का उमड़ना, एक ऐसा ही दृश्य है। हमारे काल में ऐसा कुछ हुआ कि लोग उमड़ पड़े और किसी मुद्दे के लिए अपनी आवाज उठाने लगे। यह एक सामूहिक अनुभव था। एक ऐसी घटना भी जो आम-तौर पर नहीं दिखती या यूँ कहें कि यह “भीड़” अपने आप में “आम भीड़” से अलग थी। आमतौर पर भीड़ हमेशा हिंसक होती है। लेकिन यह एक “अहिंसक” भीड़ थी। एक अलग ही “दृश्य”, एक अलग ही “नज़ारा”। यह नज़ारा ही “दृश्य” है। यदि हम इसका अध्ययन करें कि यह नज़ारा बना कैसे होगा, वो कौन से कारक होंगें जिन्होंने इसके निर्माण में मदद की तो हम सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ को पकड़ने का प्रयास कर रहे होंगे।
तो एक बार फिर याद कीजिए कि ऊपर “दृश्य” को कैसे परिभाषित किया गया है:
“एक ख़ास समय के पटल पर सामूहिक अनुभवों के वह बिम्ब जो इस पर बनते-बिगड़ते रहते
है- एक समय वें संघनित होकर एक रूप (दृश्य) धारण करते हैं और कालांतर में धुआं हो
जाते है।”
लेकिन उपरोक्त अनुभव कभी-कभार ही दृश्य के रूप में उभरता है। उन घटनाओं को भी दृश्य के रूप में देखा जाता हैं जो एक काल खंड में आमतौर पर देखने को मिलती हैं। इसे एक दूसरे उदहारण से समझते हैं। कल्पना कीजिए कि आप किसी सार्वजनिक स्थान पर बैठे जैसे, बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन, पार्क, बस के अन्दर, ट्रेन के अन्दर आदि और अचानक आपका ध्यान जाता है कि 90 प्रतिशत लोग अपने-अपने स्मार्ट फोन पर व्यस्त हैं। यह नज़ारा ही एक “दृश्य” है। आज से 20 साल पहले यह सामूहिक अनुभव नहीं था और शायद आज से 20 वर्ष बाद ना रहे।
इसके अलावा आम तौर पर किसी काल-खंड में दिखने वाले “इश्तेहार”, “पोस्टर्स”, “चित्र”, “टेक्स्ट” आदि भी दृश्य ही हैं। एक बहुत रोचक उदहारण सदन झा अपनी किताब में रखते हैं। जैसे उन्होंने ट्रेन की टॉयलेट्स में, महिलाओंके लिए रिजर्व्ड बस सीटों पर, सार्वजनिक टॉयलेट्स में, ट्रकों की पीछे, दीवारों आदि पर लिखे “टेक्स्ट” का अध्ययन किया, और इसके जरिये उन्होंने पुरुष-वादी जन-संस्कृति का अध्ययन किया। कुछ रोचक उदहारण हमें इस बात को समझने में मदद करेंगे। थोडा निम्न “दृश्यों” के उदाहरणों पर सोचिये:
पहला, बस में महिलाओं के लिए
आरक्षित सीट के पीछे लिखा रहता है – “महिलाएँ”
किसी ने इस शब्द के “म” को खुरच कर मिटा दिया, तो यह बन गया – “हिलाएँ”
अब सोचिये जरा कि यह क्या है? इसके पीछे का
क्या मनोविज्ञान है? महिलाओं के प्रति
यह कैसी सोच है? यह तब और
महत्वपूर्ण हो जाता है जब इस तरह के “टेक्स्ट” आम हों।
दूसरा, किसी ट्रक के पीछे लिखा
है:
“अरे ओ छम्मक छल्लो कहाँ जाती हो लगाकर क्रीम
पास आओ इस ड्राईवर के खिलायेगा आइसक्रीम ।”
ऐसे कई और उदहारण हमें हमारे जीवन में मिलते हैं| जैसे, किसी दीवार पर
लिखा है:
“कुत्ते के पूत यहाँ ना मूत”
इसी प्रकार हम आमतौर पर देखते हैं, किसी टॉयलेट में लिखा है:
“I love your ********”
यह सब जब एक आम नज़ारा हों तो यह एक “दृश्य” का निर्माण कर रहा है।इसी के साथ इन दृश्यों के अध्ययन के ज़रिये आप उस काल-विशेष के मानस को समझने की एक सार्थक कोशिश कर सकते हैं। ये सब दृश्य जन-संस्कृति के अनुभवों, मिथकों, धार्मिक विश्वासों, सपनों, रूपकों, व्यावहारिकताओं के सम्मिश्रण से बनते है। इन्ही के जरिये जन-समुदाय अपने अनुभवों को देखते और दिखाते हैं। अपने दृश्य गढ़ते है।
भाग- II
यह सब पढ़ते और समझते हुए मुझे यह आभास हुआ कि “दृश्य” हमारे जैसे
शिक्षा कर्मियों के लिए काम की युक्ति है। स्कूलों के यथार्थ को समझने के लिए यह
हमें काफी मदद कर सकते हैं। स्कूलों की दीवारों पर लिखे कथन, स्कूलों के अँधेरे कमरों में धूल-चाट रहे
अनेकों कार्यक्रमों के TLM, स्कूलों के
मुख्य-द्वारों और दीवारों पर अंकित “टेक्स्ट”, स्कूलों में घटने
वाली ढर्रागत घटनाएं आदि सब एक “दृश्य” हैं। इन्हें रिकॉर्ड करना और इनका अध्ययन किया
जाना चाहिए।
शिक्षाविद कृष्ण कुमार अपने लेखन में अक्सर बार-बार इस बात पर जोर देते हैं और दुखी से होकर अपनी एक आकांक्षा भी साझा करते जाते हैं कि स्कूलों में “पढ़ने” के दृश्य देखने को ही कहाँ मिलते हैं। वो कई जगह कहते हैं कि कुछ ऐसे दृश्य हैं जिन्हें वे अपने लम्बे कार्यकाल में देखने को तरस गए। वो कहते हैं कि उनकी आकांक्षा है कि वे किसी स्कूल में एक नीम के पेड़ के नीचे अकेले बैठे किसी शिक्षक को निराला पढ़ते देंखे। उनका मानना है कि आज के परिदृश्य में यह कितना दुर्लभ दृश्य है कि कोई बालक स्कूल के किसी कोने में, या फिर भीड़ से अलग कहीं सीढ़ियों पर बैठा कहानी पढ़ रहा हैं।
मुझे लगता है कि कृष्ण कुमार यूँ ही इस तरह की आकांक्षा या सपना अपने मन में पाले हुए नहीं हैं। इसके पीछे उनकी एक आधारभूत मान्यता है कि ऐसे दृश्य स्कूल की संस्कृति का दर्पण होते हैं। इनके माध्यम से हमें एक अंदाजा मिलता है कि पढ़ने की एक संस्कृति इस स्कूल में पनप पायी है।
भाग – III
अभी हाल की ही बात है| अपने एक सहकर्मी
के साथ मैं कुछ सरकारी स्कूलों की विजिट कर रहा था| इन विजिट के दौरान एक स्कूल में हमने देखा कि लंच-ब्रेक में
सभी बच्चे भोजन करने में व्यस्त हैं| लेकिन एक छोटी सी बच्ची, जो पहली कक्षा की
विद्यार्थी थी, सबसे अलग-थलग
बैठी हुई अपनी स्लेट पर कुछ लिखने में लीन है| “दृश्य” का पूरा विचार
मेरे मन में उस वक्त चल ही रहा था,उस बच्ची जा देखा
तो मुझे वह एक महत्वपूर्ण “दृश्य” लगा|मेरे साथी और मैंने जब उस लड़की को सबसे अलग-थलग बैठे देखा और अपने काम में लीन
पाया तो हमें एक सुखद अनुभव हुआ। हम उस वक़्त भी इस पर बात कर रहे थे कि यह कोई आम
दृश्य तो नहीं। उस स्कूल में हमने उस दिन कई और दृश्य भी देखे। जैसे बच्चों का
हमें उत्साह के साथ किताब पढ़ कर दिखाना, अपने द्वारा तैयार किया गया एक नाटक करके दिखाना, आदि। यहाँ की शिक्षिकाएं एक बच्ची द्वारा बनाए गए एक चित्र
को हमसे साझा करते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहीथी|यह अपने आप में ही एक “दृश्य” था| जो इस स्कूल में व्याप्त सीखने-सिखाने की एक
संस्कृति को हमारे सामने उजागर कर रहा था| बाद में इस स्कूल में हम लगातार विजिट करते रहें, हमें अब यहाँ के आंतरिक जीवन को देखने और विश्लेषित करने के
और मौके मिल रहे हैं| धीरे-धीरे “दृश्य-संस्कृति” का महत्व समझ में आ रहा है| क्योकि यहाँ के आंतरिक जीवन के अवलोकन से समझ में आया कि
यहाँ शिक्षकों-विद्यार्थियों के रिश्ते बेहद सोहार्दपूर्ण हैं, शिक्षक बच्चों की रूचि और प्रवृति का काफी
सम्मान करते हैं| यही कारण है कि
बच्चे अपनी रूचि के काम करते हुए दिख जाते हैं| कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि “दृश्य” का अध्ययन किसी
भी शिक्षा-कर्मी के लिए एक उपयोगी सैद्धांतिक-औजार है|
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कुलदीप गर्ग
(लेखक अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, जयपुर में शिक्षक प्रशिक्षक हैं)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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