समीक्षायन: मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा/ डॉ. प्रशान्त कुमार

           समीक्षायन: मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा लेखक: आलोक मिश्रा 

वर्तमान दौर कुछ ऐसा है कि सामान्यतः एक शिक्षक होने की कसौटी केवल अपने विषय की अच्छी समझ और परीक्षा परिणाम अच्छे से अच्छा रहने को एक मान्यता सी प्राप्त हो गई है। एक समय था जब एक शिक्षकगण समाज का प्रबुद्ध, बौद्धिक, चिंतनशील व्यक्तित्व होने के साथ ही साहित्यिक संपदा का भी स्रोत समझे जाते थे। ऐसे समय की पुनः याद दिलाते है- आलोक मिश्रा। हाल ही में प्रकाशित उनका काव्य संकलन ‘‘मैं सीखता हूँ बच्चो से जीवन की भाषा’’ इस बात की पुष्टि भी करता है कि वे टीचर बाय चांस नही बल्कि टीचर बाय चॉइस होने की अपनी प्रतिबद्धता पर किस गंभीरता से खरे उतरते है। एक संवेदनशील शिक्षक होने के साथ अपने विद्यार्थियों को शिक्षा के भुला दिए गए मुख्य उद्देश्य यानी कि केवल डिग्री एंव नौकरी प्राप्त करने नही, बल्कि जीवन निर्माण हेतु उन्हें तैयार करने, की और वे किस तरह प्रयत्नशील है। दिल्ली सरकार के वर्तमान शिक्षा मंत्री एंव दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के पुरोधा श्रीमान मनीष जी सिसोदिया द्वारा लिखा गया पुस्तक का आमुख पढकर ही पाठक को समझ आने लगता है कि पुस्तक अपने आप में कितनी महत्वपूर्ण है। उसके बाद इस पुस्तक की समीक्षा लिखना अपने आप मे मुझ जैसे एक सामान्य पाठक के लिए आलोक जी की प्रतिभा को सूरज के सामने दिया दिखाने के बराबर मालूम होता है। जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठकी तर्ज पर अपनी कक्षा में एक शिक्षक होने की बजाय स्वंय अधिगमकत्र्ता के रूप में नित्य उपस्थित होते हुए अपने बच्चो की कल्पनाओं, सपनो, जिज्ञासाओं, प्रश्नों की गहराई में गोता लगाते हुए वे हर दिन एक बेहतर शिक्षक हो कर शिक्षण कौशल के अमूल्य खजाने को वृहद करते जाते है और शिक्षक समुदाय के लिए अपने अनुभवों पर आधारित एक अतुल्य विरासत का प्रबंध करते नजर आते है, जो उनकी कविताओं में स्पष्ट झलकता है।

एक कविता जिसमें शिक्षक होने की अनिवार्य शर्त के रूप में एक बच्चा बना रहना आवश्यक बताया गया है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एंव मिसाइलमैन के नाम से विख्यात वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम से एक बार किसी बच्चे ने प्रश्न किया कि दुनिया का पहला वैज्ञानिक कौन था?’ तो उनका जवाब था- कोई बच्चा ही रहा होगा।वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पहली आवश्यक शर्त है- जिज्ञासा। एक बच्चे की जिज्ञासाओं की कोई सीमा नही होती। वह अपने वातावरण को समझने के लिए सब कुछ जानना चाहता है और यही से शुरू होता है- अंतहीन सवालों का सिलसिला। लेकिन इस देश की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का यह एक स्याह पक्ष ही कहेंगे कि हमारे यहाँ बच्चो को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित ही नही किया जाता। जबकि प्रश्नोपनिषदजैसे ग्रंथ की रचना और नचिकेताजैसे जिज्ञासु बालक की कथाएं कहने वाली गौरवशाली सभ्यता में यह इस राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था हेतु एक विचारणीय बिंदु होना चाहिए। स्वंय एक शिक्षक भी डिग्री लेने और नौकरी प्राप्त करने के पश्चात अध्यनन के प्रति उदासीन नजर आते है। यह कविता उन शिक्षकों को आत्ममंथन करने को विवश करती है क्योंकि एक शिक्षक हेतु ताउम्र एक शिक्षार्थी बने रह कर, अपनी नवीन जिज्ञासाओं की खोज में संलग्न रहते हुए ही अपने शिक्षण धर्म की सार्थकता सिद्ध की जा सकती है। अन्यथा कालिदास ने मालविकाग्निमित्रं में कहा है- यस्यागमः केवलं जीविकाये तं ज्ञानपण्यं वणीजं वदन्तिअर्थात जिसका शास्त्र ज्ञान केवल जीविकानिर्वाह के लिए है वो तो ज्ञान बेचने वाला वणिक(व्यापारी) है। मुन्नी की अठखेलियाँ और शरारतों की चुप्पी पर आज एक शिक्षक रुकेगा इसी बात पर लिखी गई पंक्तियां दिल को छू जाती है। एक शिक्षक के लिए अपने बच्चों से भावनात्मक लगाव बहुत आवश्यक है। प्रत्येक बच्चे को व्यक्तिगत रूप से पहचानना एक शिक्षक का सबसे पहला कार्य होना चाहिए। किन्तु आज के समय मे शिक्षक पाठ्यक्रम समाप्ति को ही अपना मुख्य ध्येय समझते है। यहाँ तक कि प्रशासन व अभिभावको का भी सारा ध्यान इसी पर केंद्रित रहता है। विडम्बना ये है कि शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान मनोवैज्ञानिक शिक्षण सिद्धांतो व सूत्रों को पढ़ने के बावजूद चुनिंदा शिक्षक ही है जो अपने शिक्षण में बालक के मन की समझ के उद्देश्य को व्यवहारिक रूप देते है। कविता साजिश, शिक्षा पर राजनीति एंव एजेंडे में स्कूल पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि शिक्षाविद प्रो. कृष्ण कुमारकी पोलिटिकल एजेंडा ऑफ एजुकेशनएंव राज समाज शिक्षाजैसी पुस्तक के निहितार्थ व सार संक्षेप को कवि आलोक जी ने मात्र ग्यारह पंक्तियो में समेट देने के असम्भव प्रयास को संभव बना कर अपनी प्रतिभा को सिद्ध किया है। कविता पाठ देशप्रेम का वर्तमान युग मे एक शिक्षक के उस पशोपेश का आईना बन कर उभरती है, जिसमें केवल भारत ही नही वरन सम्पूर्ण विश्व एक पहचान के संकट से जूझ रहा है। धर्म, जाति, क्षेत्र, नस्ल आदि के पहचान के संकटने इस समय समाज मे एक वर्ग संघर्ष खड़ा कर दिया है। ऐसे में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के बारीक अंतर को पाटने की कोशिश करते हुए शिक्षक आलोक एक कवि के रूप में किसी नक्शे, किसी झंडे, किसी नारे की बजाय उस धारणा को पुष्ट करते नजर आते है की किस तरह एक राष्ट्र में रह रहे लोगो से देश बनता है, न कि भौगौलिक या सामाजिक प्रतिमानों मात्र से। ऐसे ही एक शिक्षक के लिए मनोविज्ञान की भूमिका की महत्ता दर्शाती कई कविताएं जैसे - अब यहाँ हरियाली है, गुरुत्वाकर्षण का नियम, मिड डे मील से ठीक पहले आदि शिक्षक समुदाय से गहन समझ व विस्तृत दृष्टिकोण के बोध की अपेक्षा करती है। कवि पुस्तक के प्रारंभ में दिए अपने स्पष्टीकरण में ही ये स्वीकार करते है कि वे शिक्षाशास्त्र विषय के विद्यार्थी के रुप मे कन्सट्रक्टिविजम थ्योरीके समर्थक है। अतः एक शिक्षक द्वारा ज्ञान थोपे जाने की विकृत परंपरा से विलग कर स्वंय को मार्गदर्शक व चालक के रूप में बच्चो में निहित जन्मजात प्रतिभा को निखारने व उद्दीप्त करने की भूमिका निर्वहन का संदेश देते है। कवि ने विवेकानंद, टैगोर, गिजुभाई, पाउले, डीवी, मांटेसरी जैसे शिक्षाविदों द्वारा दिये गए शिक्षण सिद्धांतो को 'हट जाता हूँ दायरे से, इतना ही कर पाऊंगा,' शिक्षण के मायने आदि कविताओं के माध्यम से एक सौंदर्यात्मक रूप देकर शिक्षणशास्त्र की गहन साधना का परिचय दिया है। कलाम साहब का मानना था कि शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो बच्चो के कंधों से बस्ते का बोझ हटाकर उनके चेहरे पर मुस्कान ला सके। किंतु हमें बनाने है ऐसे स्कूल वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से उपजी बच्चो की पीड़ा का केवल 20 शब्दो मे किया गया ऐसा संक्षिप्त विवरण है जो पाठक के मन मे उस यक्ष प्रश्न की पुनर्स्थापना करता है जो आजाद भारत के लिए अब तक अनुत्तरित है। यह काव्य संकलन न केवल शिक्षा से जुड़े मनोवैज्ञानिक वरन सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक सरोकारों का परत दर परत विवेचन करता नजर आता है। शिक्षा से आबद्ध ये सभी पहलू प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विद्यार्थी एंव शिक्षक को सदा से प्रभावित करते रहे है। इन्हें दृष्टि में रखे बिना शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया बड़ी ही यांत्रिक होती है। एक शिक्षक हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षा से जुड़े इन सभी मुद्दों के प्रति वह न केवल संवेदनशील वरन जागरूक तथा अद्यतन भी रहे। निरीह लाचार मत बनना कविता में सत्ता एंव प्रशासन के खेल में मोहरे बने शिक्षक समुदाय के प्रति एक सहानुभूति बरबस ही जाग्रत होती है। परीक्षा प्रणाली की विसंगतियो एंव पाठ्यक्रम के सैद्धान्तिक-व्यवहारिक अंतर के बारे में अक्सर चर्चायें होती है। कई आयोगों, नीतियों, गोष्ठियों व कार्यशालाओं में ये महत्वपूर्ण मुद्दे केवल भाषणों, नारो, संकल्पों की औपचारिकता मात्र सिद्ध हुए है। एक बच्चा अपनी कक्षा में फेल होता है लेकिन शिक्षक, व्यवस्था, विद्यालय व सरकारें कभी फेल नही होते। किसी बच्चे के बालमन पर लगाया गया असफलता का तमगा उसके अचेतन मन तथा भावी व्यक्तित्व पर कितना असर डालता है, इन मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज करती स्कूल भी असफल हुआ कविता अधिगम यानी कि व्यवहार में परिवर्तन के मूल उद्देश्य का गहराई तक विश्लेषण करती है। नवीन-पुरातन नीति क्रियांवयनो के खेल एंव राजनीतिक पार्टियों के मंसूबो के चलते इस राष्ट्र के विद्यालय एक प्रयोगस्थली बन कर रह गए है। एक सुदृढ शिक्षा व्यवस्था हमे आज भी दूर की कौड़ी नजर आती है।

पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर ही छायाचित्र में स्वंय लेखक एंव विद्यार्थियों के साथ ग्लोब का होना असल मे दुनिया की समझ प्रदान करते शिक्षकका प्रतीकात्मक स्वरूप लिए हुए है जो पुस्तक को हाथ में लेते ही उसमें सन्निहित सभी कविताओं के मूलभाव की एक पूर्व सूचना प्रदर्शित करता है। बोधि प्रकाशन की टीम एंव विशेषकर मायामृग जी पुस्तक के संपादन, छपाई एंव प्रदान किये गए कलेवर हेतु प्रशंसा के पात्र है। निश्चित रूप से बोधि प्रकाशन द्वारा अत्यंत कम लागत पर गुणवत्तापूर्ण, वैविध्य एंव रोचक साहित्य उपलब्ध करवाना साहित्य प्रेमियों व सुधि पाठको के बीच निरंतर उसकी लोकप्रियता के मानदंड स्थापित कर रहा है। कविताओं के संदर्भ से मिलते जुलते चित्रांकन को साथ में प्रस्तुत कर पुस्तक की रोचकता को बढ़ाया जा सकता था। पुस्तक के सूक्ष्म पठन के पश्चात शिक्षा जगत हेतु इस पुस्तक की गंभीरता को समझते हुए मेरा अनुरोध है कि राष्ट्र में संचालित विभिन्न शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमो में अध्यन्नरत प्रशिक्षणार्थियों एंव वर्तमान सेवारत शिक्षकों द्वारा तो यह पुस्तक अवश्य ही पढ़ी जानी चाहिए। आलोक जी का यह काव्य संकलन शिक्षकों में अपने पेशे के प्रति गहन बोध, सौंदर्य, संवेदना, निष्ठा एंव समर्पण जाग्रत करने का अनुपम साधन सिद्ध होगा। आलोक जी की अविराम लेखनी को शुभकामनाये। वे निरंतर साहित्यसृजन में रत अपने अनुभवों से लेखों एंव काव्य की शब्दो रूपी निर्मल अविरल धारा यूँही बहाते रहे। इस पुस्तक की रचना कर शिक्षा जगत के प्रति इस अतुल्य योगदान के लिए आलोक जी को साधुवाद।


डॉ. प्रशान्त कुमार
सहायक आचार्य (शिक्षाशास्त्र)
एल. डी. पी. एस. कन्या महाविद्यालय, जिला- पाली 
सम्पर्क: gurjarprashant1988@gmail.com   

              अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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