शोध आलेख: हिंदी दलित आत्मकथाओं में स्त्री चेतना का वर्तमान / माणक चंद सोनी
स्त्री मुक्ति के सवालों पर चर्चा का आरम्भ चाँद पत्रिका के उस
विशेषांक से करना बेहतर होगा जो 1927 के साल प्रकाशित हुआ था, उसी में अछूत-नारी की
दुर्दशा को लेकर लेख है कि “यह कहते हुए हृदय विदीर्ण होता
है; एवं लज्जा से हमारा सिर विनम्र हो जाता है कि अछूत और
शूद्र जाति की देवियों को पथ-भ्रष्ट करने में द्विजाति के पुरुष-पुंगवों का भी
बहुत कुछ हाथ रहता है। जैसा कि हम कह चुके हैं कि पाप के प्रलोभन और पुरुषों के
कपट-व्यापारों से उद्भ्रांत होकर अनेक अछूत जाति की स्त्रियाँ अपना समुज्ज्वल रत्न
खो बैठती हैं। दरिद्रता के दारुण उत्पीड़न से एवं पुरुषों की कमाई के पर्याप्त न
होने से अछूत जाति तथा शूद्रों की देवियों को भी घर की मर्यादा से बाहर निकल कर
परिश्रम-साध्य कर्मों को करना पड़ता है। उन्हें भी गृहस्थी के निर्वाह के लिए बाहर,
विश्व के कपटपूर्ण एवं पापपूर्ण कोलाहल में काम करना पड़ता है;
और उस समय उनकी निस्सहाय निर्धन अवस्था से अनुचित लाभ उठा कर उन्हें
पतन के गंभीर अंधकारपूर्ण गह्वर में धकेलने के लिए पाप और शैतान; दोनों नाना प्रकार के कपट-कौशलों का अनुष्ठान करते हैं।”[i] यह भाषा और शिल्प अब से लगभग नब्बे वर्ष पहले का है। कहते हैं कि
स्त्रियों के लिए ज़माना कभी नहीं बदलता है। आज भी कमोबेश हालात जस के तस ही हैं।
स्त्रियों ने अपनी बीती हुई ज़िंदगी के स्याह पक्ष को लेखन में उकेरने की ठान ली,
तब जाकर एक छिपा हुआ सच सामने आने लगा है।
दलित साहित्य के युवा हस्ताक्षर मुकेश मानस ने सुशीला टाकभौरे की
आत्मकथा शिकंजे का दर्द की समीक्षा के
दौरान अपने आलेख में बहुत विश्लेषणपरक अंदाज़ में इस बात को पुष्ट किया है कि
स्त्री विमर्श को जगह मिलना और अब तक वंचित पक्षों का उजागर होना बेहद ज़रूरी था।
गोया “मुझे यह आत्मकथा एक स्त्री
के जीवन के सच का आख्यान लगती है। इसमें लेखिका ने अपने जीवन के पूरे यथार्थ को
बिना लागलपेट के लिख डाला है। इसलिए किसी को इस आत्मकथा में बहुत से अंतर्विरोध
समय, समाज और देश के सच के अंतर्विरोध ज्यादा है, लेखिका के कम। अपने वैवाहिक जीवन के प्रसंगों को लिखने की शुरुआत करते
वक्त लेखिका के मन में एक हिचक भी पैदा होती है कि ये सब घरेलू बातें हैं। इन्हें
लिखने से क्या फायदा। लेकिन लेखिका को लगता है कि उस सच को लिखने में कोई बुराई
नहीं हैं। अगर लेखिका अपने वैवाहिक जीवन के इन कटु प्रसंगों को न लिखती तो फिर हम
घर के भीतर किए गए लेखिका के संघर्षों की गाथा से महरूम रह जाते। साथ ही उसके
सशक्तीकरण की प्रक्रिया भी हमें एकांगी लगती। इस मायने में यह आत्मकथा हमें बेहद
सहज और स्वाभाविक लगती है। इसमें कुछ भी बनावटी और गढ़ा गया नहीं लगता और इसमें कोई
अतिरेक या विचलन भी नहीं है। जैसा कि दलित पुरुष साहित्यकारों की आत्मकथाओं में
हमें देखने को मिलता है।”[ii] इस तरह यह कथन बहुत बड़ी
जिम्मेदारी के साथ लिखा गया है जहाँ मुकेश मानस खुद दलित विमर्श में जुड़कर अरसे से
काम कर रहे हैं। सुशीला जी का दुःख कई दलित स्त्रियों का अपना दुःख है। इस मायने
में यह आत्मकथा भी सामूहिक स्वर की अभिव्यक्ति है।
शिकंजे का दर्द में उन्होंने लिखा है कि “कभी लगता, मैंने अपने जीवन को पूर्ण रूप में नहीं जीया है। ज़िंदगी की गहराई में गहरी
पैठ तो लगाई है मगर मुझमें ऊँची छलांग लगाने का मनोबल नहीं जागा, न ही मैंने ऐसा हौसला किया। इसका कारण है, बहुत ठोस
और सबल कारण है। मध्यप्रदेश में वर्णभेद-जातिभेद की मानसिकता और सामाजिक व्यवहार
के बीच जन्मी,पली-बढ़ी एक अछूत जाति की लड़की में कितना मनोबल
हो सकता था?”[iii] अनपढ़ या अर्द्ध शिक्षित परिवारों में
रंगभेद बहुत आम समस्या है। खासकर बालिकाओं के सन्दर्भ में इसे विवाह के लिए योग्य
वर से जोड़कर देखा जाता है। बालमन पर इस तरह के भेदभाव का असर हम नहीं समझ पाएँगे
जब तक कि हम इसके शिकार न हुए हों। “माँ को दसवीं संतान एक
लड़का पैदा हुआ था परन्तु उसकी एक वर्ष आयु होते-होते मृत्यु हो गयी थी। उसके बाद
ग्यारहवीं संतान लड़की हुई। माँ बहुत उदास हो गयी। अब घर में छह लड़कियां और एक लड़का
था। माँ कहती थीं कि जाओ इसे कूड़े में फेंक आओ। ऐसा वह ऊपरी मन से कहती थीं। फिर
भी उस वक़्त माँ-बाबा को लड़कियां ही हैं और लड़का सिर्फ एक ही है, इसका दुःख होता था। छ: बहनों के बाद लड़का हुआ था, तब
उन्होंने शक्कर बाँटी थी पूरे मोहल्ले में। पांच वर्ष तक हर वर्ष गणपति उत्सव
मनाने का निश्चय किया। हमें माँ-बाबा प्यार ज़रूर करते थे, हमें
पढ़ाने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी लड़के का महत्त्व उनके
लिए ज्यादा था।”[iv] यहाँ उपर्युक्त कथन हमारे भारतीय जनमानस
के पुत्रप्रेम से सम्बद्ध मूल चरित्र और अधूरी सोच की तरफ ईशारा करता है। प्रसिद्ध
दलित साहित्यकार कौशल्या बैसंत्री का यह आत्मकथांश अंदर तक हिला देता है। लैंगिक
भेदभाव के हज़ारों उदाहरण हमारे आसपास मिल जाएंगे। असल में यह खाई बहुत गहरी हो
चुकी है। लेखिका की वेदना देश की करोड़ों अनाम लड़कियों की वेदना मानी जाए। ऐसे
किस्से हमारे अपने मोहल्ले के ही अनुभव होते हैं।
जब भी स्त्री चेतना की चर्चा चलेगी, सुशीला जी के जीवन संघर्ष का जिक्र होना आवश्यक है
क्योंकि जो अनुभूतियाँ और पीड़ा उन्होंने भोगी और उसी यथार्थ को शिकंजे का
दर्द में लिखा है। यही समय की मांग थी।
दलित परिवारों के ऐसे वर्णन स्त्री के संघर्ष से हमारा परिचित कराते हैं। “जिस प्रकार एक दलित बच्चे को जीवन पर्यंत दलित होने के भाव से ग्रसित रहना
पड़ता है उसी प्रकार एक स्त्री को स्त्री होने की पीड़ा सताती रहती। ऊपर से अगर
स्त्री, दलित स्त्री हो तो उसका दु:ख, पीड़ा
दोहरे स्तर की हो जाती है उसे यह अहसास करा दिया जाता है कि वह एक स्त्री है। आँख
खोलते ही एक लड़की यह पाती है कि समाज में उसकी स्थिति अन्यान्य कारणों से दोयम
स्तर की है जबकि इसके लिए वह खुद जिम्मेदार नहीं होती है। इसी वजह से वह पाती है
कि उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके ऊपर कई तरह के बंधन लाद दिए जाते हैं। उसका
व्यक्तित्व और उसका विकास उसके अपने हाथ में न होकर समाज के बने-बनाए उसूलों से
संचालित होता है। जैसे-जैसे वह जागरूक होती जाती है इन उसूलों के खिलाफ़ उसका
संघर्ष बढ़ता चला जाता है। उसे कई स्तरों और कई आधारों पर लड़ना पड़ता है और यह
संघर्ष उसके खुद के लिए कई बार मुश्किलें पैदा कर देता है जिनसे टकराने में वह खुद
को अकेला महसूस करती है। यह आत्मकथा इस मायने में बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इस
आत्मकथा में एक दलित स्त्री के स्त्री होने के दु:खों और पीड़ाओं का एक कम्प्लीट
टेक्स्ट है।”[v] परिवार का आधार स्त्री है मगर हमारे समाज
में उसे न्यूनतम अधिकार दिए गए हैं। जो औरतें अपने हक के लिए आवाज़ उठाना शुरू करती
है उन्हें अच्छी स्त्रियाँ नहीं माना जाता। यह विडंबना नहीं तो क्या है?
गिरस्ती का गणित एकदम जुदा किस्म का बर्ताव करता है। दलित बस्तियों के
आर्थिक हालात का हवाला देते हुए प्रसिद्ध दलित आलोचक मोहनदास नैमिशराय अपनी
आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ के पहले भाग में लिखते हैं कि “चीजे मांगने का काम
लोग कम करते थे, लुगाई अधिक। भाभी-बेटियाँ तो कभी नहीं जाती
थीं। लोग रोज कुआँ खोदते, रोज पानी पीते। किसी के यहाँ चप्पल
बनती तो किसी के घर पर जूते, कोई रिक्शा खींचता था तो कोई
ठेला चलाता था। बस्ती में पल्लेदारी बहुत लोग करते थे। थके-हारे घर लौटते तो उनकी
बीवियाँ उनके आते ही उनकी गाँठ खाली करा लेती। जब तक मर्द लोग शाम ढले घर नहीं
लौटते थे, अधिकांश घरों में चूल्हे ठंडे ही रहते थे।”[vi]
कार्य का विभाजन था। सभी की जिम्मेदारी तय थी। सभी को परिश्रम करना
ही होता था। आमदानी सामान्य थी बस गुज़ारा चल जाता था। स्त्रियों का परिवार में बड़ा
योगदान रहता था। समस्याएँ और मजबूरियाँ आसपास ही रहती थीं।
संघर्ष में दलित स्त्री का और भी ज्यादा महत्त्व है क्योंकि समाज में
रची-बसी विषमतामूलक समाज संरचना को तोड़ने में दलित स्त्री की भूमिका अहम् रही है, जबकि पितृसत्तात्मक
मानसिकता ने उन्हें घर की देहरी में कैद करने, उनकी स्वतन्त्रता
को खंडित करने, उनकी अस्मिता पर चोट करने का कोई भी अवसर
नहीं छोड़ा है। एक तरफ जहाँ दलित साहित्य के सन्दर्भ में धर्म की भूमिका पर भी लंबा
विचार विमर्श हुआ है वहीं दूजी तरफ धर्म
और राजनीति के आपसी गठजोड़ ने भी कई नए समीकरण तैयार किए हैं। लोकतंत्र में धर्म और
धार्मिक संस्थाओं का बड़ा अहम् योगदान साबित हो रहा है। सत्ता अपने उद्धेश्यों को
पूरने के लिए किस कदर धर्म का उपयोग करती रही है, यह किसी से
छिपा नहीं है। दलित लेखन में जाति एक बड़ा ज्वलंत विषय है। जाति से मुक्ति के सवाल
हो या फिर जाति और वर्ग को लेकर वामपंथी
और दलितों के बीच की बहस। सवाल बड़े हैं जो अब तक अनुत्तरित ही हैं। जाति और धर्म
के जाल में उलझकर गलतफहमियों में जी रहे दलित परिवारों के सामने कई तरह के संकट
हैं।
कौशल्या बैसंत्री जी लिखती हैं कि “आजी ने थोड़े ही दिनों के अंदर भतीजे से लिए हुए पैसे
पूरे चुका दिए। आजी बहुत स्वाभिमानी थीं। अपने मायके वालों को भी कहला भेजा कि वह
अपनी लड़ाई खुद ही लड़ेंगी और वे उनके लिए परेशान न हों। आजोबा(मोडकुजी) ने सोचा कि
आजी अपने भाइयों के घर गयीं होगीं। थोड़े दिनों के बाद अपने-आप वापस आ जाएँगी। अपनी
गलती छिपाने के लिए कहते फिरते थे कि ऐसी कितनी औरतों को मैं अपने घर रख सकता हूँ।
परन्तु आजी वापस नहीं आयीं। अपने पाँव पर खड़ी रहकर अपने बच्चों को पाल रही थीं।
आजी ने कभी अपने हाथ किसी के आगे नहीं फैलाए।”[vii] यही
स्त्री चेतना का अंकुरण हैं। कौशल्या जी के जैसी स्वाभिमानी और संघर्षरत स्त्रियाँ
दलित समाज में में बहुत कम ही देखने को मिलती हैं। इसीलिए पुरुष अपने मन के
नियम-क़ानून बनाते-बिगाड़ते रहें मगर चेतना के विस्तार के साथ ही स्त्री समाज में
जागरूकता ने वक़्त की करवट बदली है।
लेखिका बैसंत्री आगे और लिखती हैं कि “माँ भी आजी के साथ काम करने जाती थी। बाल-विवाह की वजह
से आजी को माँ के विवाह की चिंता होने लगी थी। बच्ची पर मेरा भी हक है, यह जताने के लिए आजोबा ने भी माँ के लिए रिश्ता तय कर दिया था। नागपुर आते
थे, वे भतीजे के घर ठहरते थे। आजी के पास आने की हिम्मत नहीं
होती थी। आजी को भतीजे द्वारा इस रिश्ते के बारे में पता चला। शादी-विवाह बहुत बड़े
कार्य समझे जाते थे और ज्यादातर यह कार्य पुरुष वर्ग ही सँभालते थे और औरतों से
बहुत कम सलाह ली जाती थी।”[viii] परिवारों में अक्सर
स्त्रियों से सलाह नहीं लेने की परम्परा है क्योंकि उन्हें पूर्वाग्रह के तहत कम
आँक लिया गया है। जिन परिवारों में स्त्री का पक्ष सशक्त हो जाता था वहाँ पुरुष
अपनी ज़मीन हिलती हुई अनुभव करने लगते थे।
दलित साहित्य के लोकप्रिय लेखक-कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में
लिखा गया है कि “अध्यापकों का जातिवादी व्यवहार और रवैया कभी नहीं जमा। उनकी बोली और करनी
में अंतर था। उनकी बड़ी-बड़ी बातों को लेखक ने दिखावा कहा है। उनका अपना कार्य
महत्वपूर्ण था। यह एक प्रकार का बेगार था, जिसे छात्रों से
कराने में अध्यापकों को कोई संकोच नहीं था। लिखित परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त
होने के बाद भी प्रायोगिक परीक्षाओं में कम अंक दिए जाते थे। यह दलित छात्र को आगे बढ़ने से रोकना था। लेखक केवल
अपने गाँव में ही नहीं, आसपास के गांवों में भी हाई स्कूल की
परीक्षा देने वाला अपनी जाति का पहला विद्यार्थी था। गणित के पर्चे से एक दिन पहले
फौजसिंह त्यागी जबरजस्ती ईख बोने के लिए खेत पर ले गए थे। रोटियाँ हाथ के स्पर्श
के भय से बहुत ऊपर से हाथ में छोड़ी जाती थी। लेखक ने सदैव ऐसे अपमानजनक तरीकों का
विरोध किया। पूरे परिवार में विरोध के ऐसे कई उदाहरण थे।”[ix] बचपन की ऐसी घटनाएं बालमन पर जिस तरह का प्रभाव डालती रहीं उनसे लेखक
वाल्मीकि के संघर्ष की पड़ताल करने में सहजता रही। शिक्षा में जातिगत भेदभाव के
अलावा भी कई तरह की प्रताड़ना के उदाहरण मौजूद हैं।
यहाँ गाली-गलौज का पूरा अलग ही समाजशास्त्र उपस्थित है। प्रसिद्ध दलित
लेखक सूरजपाल चौहान अपनी आत्मकथा संतप्त में एक “संवाद”[x] में तथाकथित उच्च जाति
का एक व्यक्ति दलित स्त्री को जातिगत नाम से संबोधित करके भला बुरा कहता है। यहाँ
दो पंक्ति के उस संवाद में कितना कुछ छिपा हुआ है। यह सब विश्लेषण का विषय है और
साथ ही देर तक चिंतन में गहरे उतरने के लिए पर्याप्त है।
दलित आलोचना के क्षेत्र में भी दखल देते हुए वाल्मीकि ने अपनी
महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक में लिखा है कि “दलित लेखकों द्वारा आत्मकथाएँ लिखने की जो छटपटाहट है
वह भी इन स्थितियों की ही परिणति है। सामाजिक अंतर्विरोधों से उपजी विसंगतियों ने
दलितों में गहन नैराश्य पैदा किया है। सामाजिक संरचना के परिणाम बेहद अमानवीय एवं
नारकीय सिद्ध हुए हैं। सामाजिक जीवन की दग्ध अनुभूतियाँ अपने अंतस में छिपाए
दलितों के दीन-हीन चेहरे सहमे हुए हैं। इन भयावह स्थितियों के निर्माता कौन हैं?
दोहरे सांस्कृतिक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोते रहने को अभिशप्त
जनमानस की विवशता साहित्य के लिए ज़रूरी क्यों नहीं है? क्यों
साहित्य एकांगी होकर रह गया है? ये सारे प्रश्न दलित साहित्य
की अंत:चेतना में समायोजित हैं।”[xi] दलित विमर्श के मंच पर
इस तरह की जिम्मेदार टिप्पणी के कई कोण हैं जिन्हें विस्तार से समझने पर लेखक
वाल्मीकि जोर देते हैं। “अरे मेरी सौत चूहड़ी, तू ही पूरे गाम में एक हूर की परी है जो मेरौ आदमी तेरे संग...”[xii]
इस तरह के एक-एक वाक्य दलित परिवारों की त्रासदपूर्ण स्थितियों की
तरफ हमारा ध्यान खींचते हैं।
रूपनारायण सोनकर की दलित आत्मकथा नागफनी की यहाँ चर्चा करनी ज़रूरी है
क्योंकि यह आत्मकथा भी अपने तमाम सवालों के साथ स्त्री मुक्ति के सवाल भी उठाती
अनुभव हुई है। “स्त्री
समाज के शोषण व अपमान का उल्लेख भी होली के सन्दर्भ में किया गया है। दलित
स्त्रियों को मनोरंजन का सामान समझ अपमानित किया जाता है, साथ
ही लेखक यह भी रेखांकित करता है कि हरिशंकर अवस्थी, उरेरी
मिश्र जैसे व्यक्ति अपने घर की स्त्रियों को भी निर्दयतापूर्वक पीटते हैं। जिस
प्रकार वे दलितों को जूते-लात से पीटते हैं, उसी प्रकार बहन
और पत्नी को भी पीटते हैं तथा प्रताड़ित करते हैं। होली पर दलित स्त्रियों को
अपमानित कर अपशब्द कहे जाते हैं। सवर्णों का उत्सव दलितों, कमजोरों,
असहायों का मातम बन जाता है। यह उत्सव अच्छाइयों की जगह बुराइयों को
बढ़ावा देते हैं। जैसे-जैसे होली जलती, प्रत्येक दलित स्त्री
की जाति का नाम ले भद्दी गाली दी जाती तथा मखौल उड़ाया जाता। लेखक के लिए यह सब बर्दाश्त
करना कठिन हो जाता।”[xiii] लगभग सभी चयनित दलित आत्मकथाओं
में आए वर्णन से समझ सकते हैं कि परिवारों में स्त्री का पक्ष कमज़ोर ही है।
घर-गिरस्ती में हिंसा बहुत आम बात है। इन सभी दृश्यों पर हमारी चुप्पी इन्हें
बढ़ावा देती है। जब तक स्त्री किरदार अपने हक की लड़ाई खुद नहीं लड़ते हैं तब तक यह
यह आज़ादी अधूरी ही है।
“कौशल्या बैसंत्री ने अपनी इस आत्मकथा में अपनी तीन
पीढ़ियों की दलित स्त्रियों की जिजीविषा को रेखांकित किया है। आत्मकथा में यह समाज
में व्याप्त रुढ़िवाद, जातिवाद से उत्पन्न छुआछूत, भेदभाव पूर्वाग्रह और स्त्रियों के प्रति हीन नजरिया, गरीबी, भुखमरी, दलित महिला
हिंसा को सभ्य समाज के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। लेखिका ने अपनी अभिव्यक्ति के
साथ-साथ उनके आस पास हो रही हिंसा को बड़ी गंभीरता से महसूस किया और उन पर भी
टिप्पणी की है।”[xiv] वर्णन कम नहीं हैं। एक से एक चित्रित
दृश्य हमें नई जानकारी देते हैं। सभी मुसीबतें एक दूसरे से आपस में सम्बद्ध हैं।
“पूनम भी अब जयप्रकाश की ऐसी बेहूदा हरकतों को कब तक
सहन करती। पढ़ी-लिखी लड़की थी वह। घर के माहौल को तुरंत ताड़ गई। उसका मन उचट गया था।
एक दिन साहस बटोरते और आँखों से आँसू गिराते हुए वह मुझसे बोली- “पापा, यहाँ मुझे अच्छा नहीं लगता और यह घर भी मुझे
अपना-सा नहीं लगता।”[xv] यह प्रसिद्ध आत्मकथा तिरस्कृत का एक संवाद है जो स्त्री विमर्श पर चर्चा आगे
बढ़ाने के लिए उपयुक्त है। लगातार सहन करने के बाद एक दिन औरत कहीं न कहीं से
हिम्मत जुटा ही लेती है।
“कौशल्या बैसंत्री के दोहरा अभिशाप को मस्तराम कपूर ने ‘आत्मकथात्मक
उपन्यास’ कहा है। मराठी भाषी लेखिका ने हिंदी में दलित
महिलाओं द्वारा लिखी आत्मकथा के अभाव को देख इस क्षेत्र में पदार्पण किया। वे
स्वीकार करती हैं कि वे लेखिका या साहित्यकार नहीं हैं, किन्तु
दलित होने के नाते भोगी गई यातनाएँ तथा स्त्री होने की नाते पितृसत्तात्मक समाज की
यंत्रणा ने उन्हें लेखनी उठाने को विवश किया। वे मानती हैं कि परिवार और समाज के
भय से कई महिलाएं अपने अनुभव उजागर न कर जीवनभर घुटती हैं। लेखिका साहसपूर्ण,
स्वतंत्र रूप से अपनी बात सामने लाती हैं ताकि समाज की आँख खुले और
स्त्री को न्याय व स्वतंत्रता हासिल हो सके। इस आत्मकथा को हिंदी में किसी दलित
स्त्री द्वारा रचित पहली आत्मकथा कहा जा सकता है।”[xvi] इस
तरह से जब हिम्मत रखकर अपने बीते हुए अतीत को लेखिका ने लिखा तो हम जान पाए कि
दलित परिवारों में घुटन का भयानक माहौल कायम रहा है। ऐसा कितनी कम लेखिकाएँ कर
पाती हैं? यह सभी जानते हैं। अमूमन रूप से समाज ऐसी सच्चाई
को एकाएक बर्दाश्त नहीं कर पाता है। सनद रहे कि नज़रंदाज़ करने से सच कभी झूठ नहीं
हो जाता है।
तिरस्कृत में एक संवाद है कि “अब लोगों का प्राय: मेरे घर आना-जाना शुरू हो गया था।
घंटों-घंटों बाबा साहेब अंबेडकर के दिये गये मंत्र ‘पढ़ो,
संगठित रहो और संघर्ष करो’ पर विचार-विमर्श
होता रहता। दलित समाज के उत्थान हेतु विषयों पर लम्बी-लम्बी बहसें होती। पत्नी और
दोनों बच्चों का समय अधिकतर चाय बनाने और बहस कर रहे लोगों के कप-प्लेट साफ करने
में बीतता।”[xvii] यह विवरण सामान्य भारतीय परिवार में
स्त्री की स्थिति पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। लेखक साफ़गोई से स्वीकारता है कि
या तो स्त्रियाँ चर्चा में खुद ही हिस्सा नहीं लेती हैं या हमने उनके लिए कुछ
कार्य नियत कर दिए हैं। ऐसे विषय पर विमर्श को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि स्त्रियों का पक्ष भी सामने आ सके।
“लोक-संस्कृति के साथ ही उनके लेखन में स्त्रीपक्ष के
प्रति भी गहरी संवेदनशीलता, आत्मीयता प्रकट होती है। फिर
चाहे वह नटिनिया हो, दादी या उत्पलवर्णा। माँ के प्रति पिता
का हाथ उठना उन्हें सख्त नागवार गुजरता है। कई दलित आत्मकथाओं के स्त्री या पुरुष
विरोधी स्वर के बीच इस दृष्टि से भी उनका स्वर संतुलित बना रहा। उनके मन में जब
कभी दुर्भावना या क्रोध जन्मा भी, तो वह करुणा के ताप में
पिघलता रहा। समरसता का ऐसा पाठ यहाँ है कि हर प्रकार का विरोध यहाँ विगलित होता
चला गया। जहां स्त्रियों द्वारा रचित आत्मकथाओं में पितृसत्ता के पुरुष विरोध का
स्वर हावी रहा, तो स्त्री चरित्र को केंद्र में रखकर लिया
गया आत्मकथन उसके प्रति आक्रामक रुख अपनाता रहा। वहीं डॉ. तुलसीराम में मूलत:
वितृष्णा का भाव नदारद है। सकारात्मकता, समरसता के प्रति
निष्ठावान स्वीकृति उनका मूल स्वर बना रहा।”[xviii] प्रो.
तुलसीराम के घर-परिवार के इस चित्रण के बूते हम समझ सकते हैं कि घर है तो अंतर्कलह
संभव है। सामान्यतया कलह के कारण पूरे परिवार के सदस्यों में आपसी तनाव रहता है
जिसका असर उनके मानस पर पड़ता रहता है।
“आरम्भ से ही भारतीय साहित्य में लेखन की नई धारा सशक्त
रही है। सातवें दशक के नारीवादी आन्दोलन ने भारतीय साहित्यिक परिदृश्य को भी
प्रभावित किया। दलित लेखन के अंग रूप में भी कुछ स्त्री दलित लेखिकाएँ सामने आई
हैं। मराठी भाषा में ही दलित स्त्री लेखन भी अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में अधिक
सशक्त है, हालाँकि अब प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में भी दलित
स्त्री लेखिकाएँ आत्मकथा या अन्य विधाओं में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही हैं।”[xix]
यह सबकुछ सकारात्मक संकेत हैं। हालाँकि स्त्री विमर्श में पुरुष
लेखक भी उतनी ही भूमिका निभा सकते हैं जितनी कि महिला रचनाकार, हमारी यह दृष्टि साफ़ होनी चाहिए। इसका एक आधार यह भी है कि दलित स्त्रीवाद
एक विचार के रूप में बीते दशक में ही उभरा है। थोड़ी चर्चा उन ऊर्जा स्रोतों के
बारे में जहाँ से दलित विमर्श को प्रेरणा मिलती रही हैं। “भारतीय
सामाजिक संरचना में दलित और स्त्री की स्थिति शुरू से ही दयनीय रही। ज्योतिबा फुले,
अम्बेडकर के आन्दोलन ने दलित उत्थान का आह्वान किया, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि समाज में दलित जाति का पुरुष घर में
स्त्री के प्रति सामंतवादी, ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति ही रखता
था। उसका दलित संघर्ष घर के भीतर आते ही शोषणकारी, वर्चस्ववादी
प्रवृत्ति से ग्रस्त हो जाता है। वर्तमान में हिंदी दलित लेखन में दलित स्त्रियों
का कम संख्या में होना यह दर्शाता है कि दलित स्त्रियाँ आज़ भी अशिक्षित व शोषित
हैं। मनुस्मृति का विरोध जाति, वर्ण के आधार पर दलित लेखन
में पर्याप्त हुआ, किन्तु स्त्री पक्ष का स्वर मुखर नहीं हुआ,
उसके लिए जाति से भी बड़ा दुर्भाग्य स्त्री होना था। फलत: आज भी उसे
वह जगह नहीं मिली, जहां वह पूरी तरह अपनी बात रख सके।”[xx]
यह उद्धरण हमें अन्य दिशा में चिंतन के लिए ले जाता है। हालाँकि अब
दलित लेखन के क्षेत्र में महिला रचनाकार की संख्या न केवल बहुत तेज़ी से बढ़ रही हैं
बल्कि उनका सृजनात्मक लेखन भी अपना स्पेस बना रहा है।
सूरजपाल चौहान का लिखा हमारी समझ को आगे बढ़ाता है कि “पंडारा रोड़ की मार्किट के
ढाबों व रेस्टोरेन्ट के नौकर रात-भर की जूठन सुबह ‘टब’
(कूड़ा घर) पर फेंक जाते थे। मैं भोर होने से पहले उसमें से रोटी के
छोटे-छोटे टुकड़े चुनकर खाता, वहीं दूसरी और उसी फेंके गए
जूठे खाने को गली के कुत्ते भी खाते। कई बार कुत्ते मेरे ऊपर गुर्रा कर पड़ते
क्योंकि मैं उनके हिस्से को चुन-चुनकर जो खाता था। दिवाली की रात को पंडारा रोड़ की
यह मार्किट और इसके आसपास बने बंगले रोशनी से जगमग हो उठते थे। आधी रात से भी अधिक
देर उस मार्किट में चहल-पहल रहती थी।”[xxi] यह कितनी
वेदनापूर्ण स्थिति है। लेखक चौहान के लिए ऐसे अनुभव कितने पीड़ादायक रहे होंगे और
उन्हें फिर लिखना और भी दुखद। परिवार में मुफलिसी का यह आलम भला कौन सोच सकता है?
शिकंजे का दर्द में एक जगह लिखा है कि “ठंड के दिनों में माँ मेथी की दवा के लड्डू बनाकर ताले
में रखती। सुबह चाय के समय पिताजी को देती। “गरम दवाई है”,
कहकर हमें नहीं देती। मैं चुपके से निकालकर खाती थी। तब चोरी का भाव
नहीं रहता था, साहस का भाव रहता-“मैं
अपना हिस्सा खा रही हूँ। हाथ से नहीं दोगे तो हम लेकर खाएँगे।” पिता का और भाइयों का माँ अधिक ख़याल रखती थी, इस बात
पर मैं माँ से झगड़ा करती थी।”[xxii] यहाँ भी बालक-बालिका के
बीच का भेद हमें जेंडर से जुड़ी जटिल समस्या का संकेत करता है। हाँ, मगर लेखिका का अपने अधिकारों के प्रति सजग होना एक आस जगाता है।
“लेखिका ने जातिदंश और लैंगिक भेदभाव को मुखर आवाज़ दी
है। दलित होने व स्त्री होने की दोहरी पीड़ा को उन्होंने भलीभांति, संतुलित अभिव्यक्ति देते हुए हर प्रकार की सामाजिक समानता का पक्ष लिया
है। वास्तव में सीमोन द बोउवार की द सेकण्ड सेक्स
हो या सुशीला टाकभौरे की शिकंजे का दर्द
इसे पुरुष जाति को पढ़ने की आवश्यकता अधिक है। जाति और लैंगिक श्रेष्ठताबोध
दूसरे पक्ष के दमन से ही चलता रहा है। सवर्ण तथा पुरुष जाति की मानसिकता में
परिवर्तन की आवश्यकता के साथ ही स्त्री जाति के भी मुखर विद्रोह की आवश्यकता यह
रचना रेखांकित करती है। दलित और स्त्री दोनों को ही शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध
निरंतर खड़े रहना होगा। लेखिका का उच्च शिक्षित, उच्च पद व
ऊँचे वेतन पर होना पति के मन में हीन ग्रंथि का कारण बना गया था। पुरुष अहम् पत्नी
को अपने से कमतर रखने का आदी है। भारतीय समाज में स्त्री की तुलना में पुरुष को
दैहिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, प्रत्येक
दृष्टि से ऊँचा रखने की परम्परा रही है। दूसरी ओर स्त्री की संवेदनशीलता, मातृत्व, सरलता, सामंजस्य
बैठाने की क्षमता धीरे-धीरे उसको दुर्बल करते रहे हैं, यह
आत्मकथा इन समस्त मुद्दों की पड़ताल के द्वार खोलती है।”[xxiii] यहाँ आकर लगा कि समय बदल रहा है और इसके साथ ही घर में स्त्री की स्थिति
भी बदलाव के साथ सुकून दे रही है। तमाम समस्याओं के बावजूद कहीं न कहीं संघर्ष के
बाद जीत अनुभव हो रही है।
थोड़ी सी चर्चा अब जेंडर को लेकर करना आवश्यक है जहाँ महिलाएँ सेकण्ड
सेक्स के रूप में जी रहीं हैं। “एक स्त्री का जन्म भी उसी प्रकृति की देन है, जिसकी
देन एक पुरुष है। लेकिन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणवाद ने प्रकृति की एक
देन के स्वरुप को नकारकर उसमे अपनी ताक़त में इजाफा किया है। ताक़त के बल पर
स्त्री-पुरुष की शारीरिक संरचना को माध्यम बनाकर उनमे विभेद किया है और इस विभेद
को संरचनात्मक स्वरुप दे दिया। इस संरचना
में स्त्री को कमजोर, पुरुष को ताक़तवर की संज्ञा दी।
स्त्री-पुरुष विभेद के साथ-साथ जातीय प्रधानता या जाति की प्रभुता को स्थापित करने
का बड़ा लक्ष्य लक्षित हुआ। उन्हें सुचारू रूप देने के लिए या इस व्यवस्था को
बरकरार रखने के लिए क्रमबद्ध परम्पराओं और धार्मिक उपदेश की आस्थाओं में बांधा
गया।”[xxiv] यहाँ समझना बेहद ज़रूरी है कि यह सब नियम किन
लोगों ने और क्यों बनाएं होंगें? शक्ति का केंद्र अब तक कौन
रहा है? और किस तरह से अब शक्ति के एक से दो ध्रुव बनते
अनुभव हो रहे हैं।
प्रो. चमन लाल के अनुसार “आरम्भ से ही भारतीय साहित्य में लेखन की नई धारा सशक्त
रही है। सातवें दशक के नारीवादी आन्दोलन ने भारतीय साहित्यिक परिदृश्य को भी
प्रभावित किया। दलित लेखन के अंग रूप में भी कुछ स्त्री दलित लेखिकाएँ सामने आई
हैं। मराठी भाषा में ही दलित स्त्री लेखन भी अन्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में अधिक
सशक्त है, हालाँकि अब प्रायः सभी भारतीय भाषाओँ में भी दलित
स्त्री लेखिकाएँ आत्मकथा या अन्य विधाओं में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही हैं।”[xxv]
अर्थात परिवेश में बदलाव तो हो रहा है और इसकी गति नित प्रतिदिन बढ़
ही रही है।
प्रसिद्ध दलित लेखिका सुशीला टाकभौरे के जीवन संघर्ष के बारे में
बारीक टिप्पणी करते हुए प्रो. पुनीता जैन ने लिखा है कि “लेखिका बेहिचक स्वीकार
करती हैं कि उन्हें क्रुद्ध होकर, आवेग में चिल्लाकर,
ऊँची आवाज़ में चीखकर, किसी बात पर अड़कर ही
अपने अधिकार को प्राप्त करना पड़ा है। पुरुष का स्त्री पर चप्पल उठाना समाज में
स्वीकार्य रहा है, स्त्री की ऊँची आवाज़ पर आपत्तियों के स्वर
एक साथ खड़े हो जाते हैं, लेखिका पर चप्पल उठाते हाथों की
क्रोधाग्नि ने ही कमज़ोर किया है। आजीवन पिटने के बाद अंतत: स्त्री भी सभ्यता के
तथाकथित आवरण उतार कर फेंक देती है। इसी तरह मनुवादी जातिव्यवस्था व पुरुष सत्ता
दोनों का सामना उन्होंने किया। जाति और पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए ही
उन्होंने अपने बच्चों के अंतर्जातीय विवाह बिना दान-दहेज़ के किये। कुप्रथाओं,
गलत परम्पराओं पर व्यावहारिक जीवन में ही प्रहार किया जाना ज़रूरी
है।”[xxvi]
दलित परिवारों में स्त्री पक्ष पर बात करते हुए कुछ प्रसिद्ध जानकारों
का मत यहाँ दृष्टव्य है। “सीमोन द बोउवार अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द सेकण्ड सेक्स , जिसे स्त्री अस्मिता या स्त्रीवाद की बाइबिल कहा जाता है, में कहती है कि स्त्री पैदा नहीं होती, वह स्त्री
बना दी जाती है। प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन लॉक का भी यही कहना था कि जन्म के समय
मनुष्य का मस्तिष्क कोरे कागज़ के समान होता है, उस पर अनुभव
अपनी छाप छोड़ते हैं। जन्म के समय बच्चा नहीं जानता वह लड़की या लड़का है। परिवार व
आसपास का वातावरण उसे सिखाता है, अनुभव कराता है कि वह क्या
है। बचपन से ही लड़की पर निषेध और वर्जनाएं लादकर उसे यह अहसास कराया जाता है कि वह
लड़की है और लड़की होने के कुछ तौर-तरीके हैं। उसे उन तौर-तरीकों के साथ जीना सिखाया
जाता है।”[xxvii] यह ओरियंटेशन हमारे समाज का वर्तमान सच है।
वंचित वर्ग के अलावा भी सामान्य भारतीय समाज के निचले तबके या मध्यम वर्ग में यही
सबकुछ देखा-सुना जा सकता है।
घरेलू हिंसा पर जितनी बात कर सकें, कम हैं। “परिवारों में
स्त्रियों की पिटाई पुरूषवादी मानसिकता का चरम है। इस आत्मकथा में एक प्रबुद्ध
व्यक्ति द्वारा अपनी प्रबुद्ध पत्नी के पीटने और उसे बेइज़्जत करने के इतने प्रसंग
है कि वे घरेलू का एक आख्यान बन सकते है। एक लंबे समय तक लेखिका ने यह सब झेला।
लेखिका लिखती है...”घर में झगड़ा होता है, मारने-पीटने की और मेरे रोने चिल्लाने की आवाज़ ऊँची सुनाई देती। पड़ोसियों
को ये बातें सुनाई न दे, इसके लिए वे रेडियो की आवाज़ ऊँचा कर
देते।”... लेखिका ने लिखा कि मार-पिटाई का यह व्यवहार उनके
पीएच. डी. कर लेने और कॉलेज में प्राध्यापक हो जाने के बाद भी लंबे समय तक चलता
रहा। लेखिका लिखती हैं कि ऐसा उन्हें दबाकर रखे जाने के लिए किया जाता था…”छोटी-छोटी बातों को गलतियाँ बताकर हड़कम्प मचाना, ज़ोर
से चिल्लाकर अपना आतंक बताना, गुस्से से डांटना, मारने के लिए हुमकर आना, प्रतिदिन की आम बात थी।
लगातार भय का वातावरण बनाकर रखा जाता। हमेशा भयभीत रखकर,डरा-धमकाकर
अपने शासन सत्ता को कायम रखना, यह पुरुष की कूटनीति है।”[xxviii]
इससे अधिक और क्या साफ़गोई चाहिए। लेखिका के संवाद और समीक्षक के
विचारों से पारिवारिक माहौल और उसमें व्याप्त विसंगतियाँ अब हमारे सामने हैं।
स्त्री चेतना पर केन्द्रित इस आलेख में सुशीला टाकभौरे का लिखा हुआ
अंश यहाँ उद्धृत करना उचित रहेगा जिसमें वे अपनी प्रतिबद्धता ज्ञापित करती हैं। “मेरे लेखन का आधार जातिगत
अपमान की कचोट और पीड़ा-उत्पीड़न की वेदना है। मेरा लेखन दलित विमर्श के साथ नारी
शोषण की स्थिति को बताने और उससे मुक्ति पाने का आह्वान है। जब तक अन्याय को
अन्याय नहीं समझा, तब तक मैंने उस जीवन का भाग मानकर सहज रूप
करते हुए जीया था। मगर अब मैं इस अन्याय को और अन्याय के कारणों को समझ रही हूँ।
अपने जीवन की उन बातों को बता रही हूँ, जिन्हें मैंने
जातिभेद के अपमान के साथ जीया है और नारी होने के कारण हिंसा-शोषण के रूप में सहा
है।”[xxix] यहाँ लेखिका की सजगता स्त्री विमर्श और खासकर
दलित स्त्रीवाद के मद्देनज़र बहुत महत्वपूर्ण है। रचनाकार का यह स्वर और समझ स्त्री
चेतना के दृष्टिकोण से सकारात्मक है।
निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा के कथेतर गद्य
साहित्य में दलित आत्मकथाओं की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि वहाँ मौजूद समाज में
पारिवारिक माहौल का जितना वर्णन आया है उसमें सबसे बड़ा चिंतनीय पक्ष स्त्री की
कमज़ोर स्थिति है। रिश्तों के बीच की रिसती हुई ऊष्मा भी एक विषय हो सकता है। लगा
कि स्त्री का दर्द लिखा जाना अभी शेष है। परिवार में पुरुष के भी अपने दुःख-दर्द
हैं जो सामने आने बाकी हैं। स्त्री चेतना के मुद्दे पर अभी समाज में जागरूकता के
लिहाज से काफी कार्य करने की आवश्यकता है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज की जड़ें अभी ढीली
नहीं हुई हैं। यह तस्वीर बदलने में अभी वक़्त लगेगा। ईमानदारी से लिखना और अपने गलत
बर्ताव को स्वीकारना, दोनों प्रक्रियाएँ जारी रखने की ज़रूरत है।
संदर्भ
[ii] मुकेश मानस : ‘स्त्री सशक्तीकरण की
यात्रा का दलित आख्यान ’, हिंदी दलित
आत्मकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन, (सं.
हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली,
2017, पृ. 134
[v] मुकेश मानस : ‘स्त्री सशक्तीकरण की
यात्रा का दलित आख्यान ’, हिंदी दलित
आत्मकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन, (सं
हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली,
2017, पृ. 121
[ix] रविभूषण : ‘पाठकीय चेतना का निर्माण करने वाली आत्मकथा’, भारतीय दलित साहित्य और ओमप्रकाश वाल्मीकि (सं. गौरीनाथ), अंतिका
प्रकाशन, गाज़ियाबाद,
2015, पृ. 165
[xi] ओम प्रकाश वाल्मीकि: दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2015, पृ.
10
2 रजनी तिलक : ‘हिंदी दलित साहित्य में स्त्री चित्रण व पितृसत्ता’, समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन आत्मकथा (सं.
रजनी तिलक), स्वराज प्रकाशन
दिल्ली, 2018, पृ. 45
[xix] चमन लाल: ‘भारतीय भाषाओं में दलित महिला लेखन’, समकालीन
भारतीय दलित महिला लेखन आत्मकथा (सं. रजनी तिलक), स्वराज प्रकाशन दिल्ली, 2018, पृ. 115
[xxiv] रजनी तिलक : ‘जेंडर और जाति का सवाल उठाती एक आत्मकथा’, समकालीन
भारतीय दलित महिला लेखन आत्मकथा (सं. रजनी तिलक), पृ. 267
[xxv] चमन लाल: ‘भारतीय भाषाओं में दलित महिला लेखन’, समकालीन
भारतीय दलित महिला लेखन आत्मकथा (सं. रजनी तिलक), पृ. 115
[xxviii] मुकेश मानस : ‘स्त्री सशक्तीकरण की
यात्रा का दलित आख्यान’, हिंदी दलित आत्मकथाओं
का समीक्षात्मक अध्ययन (सं. हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 124
माणक चंद सोनी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
सम्पर्क: manik@spicmacay.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
Aalekh hetu bahut badhai- manakchandji. -Rajendra jain Bhopal
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