'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
किन्नर विमर्श :
मिथकों से अधिकारों तक- हर्षिता द्विवेदी
चित्रांकन: कुसुम पाण्डे, नैनीताल |
भारत, हिंदुस्तान, आर्यावर्त, इंडिया या जम्बूदीव...देखने में एक देश का नाम लगते हैं, जो समय-समय पर शासकों/प्रशासकों द्वारा परिवर्तित किए जाते
रहे।परन्तु अगर हम इन नामों पर विचार करें तो हम पाते हैं किये महज नाम भर नहीं
हैं अपितु मानसिकताएं/ विचारधाराएँ हैं, जिनकी विविधता इन
नामों से छनकर हमारे इतिहास में अभिव्यक्त होती रही है|इन नामों के अंतर से भी भारत में प्राचीन काल से वर्तमानकाल तक व्याप्त
विविधता/ भिन्नता का पता चल जाता है।भाषा, रंग, खानपान और मौसम से लेकर जाति, धर्म, सम्प्रदाय, विचारधारा, मानसिकता और परिवारवाद
के स्तर पर हमारा देश कदम-दर-कदम बँटा हुआ दिखाई देता है।ख़ालिस हिंदुस्तान कि बात
करें तो हम पाते हैं कि समाज व्यवस्था के संदर्भ में हमारा देश कई परतों में
विभाजित है और यह विभाजन सदियों का है।पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्थाएँ हमेशा से एक
स्पष्ट शक्ति संतुलन करने और सत्ता पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए समाज के कमजोर व
हाशिए के वर्ग को लगातार ‘डॉमिनेट’ करती रहीं हैं।इसी क्रम में उन्होंने जाति व्यवस्था को ‘पेशे’ से जोड़कर उसे रूढ़
बना दिया, ताकि व्यवस्था में विद्रोह की भावना शून्य बनी
रहे।इसके अलावा आगे लोग जाति आधारित पेशे को ही ‘भाग्य/नियति’ समझते रहें और कभी उसका
प्रतिकार न कर सकें।
मिथकीय कथाएं
दुनिया के हर कोने में पाई जाती हैं।जिन वस्तुओं, व्यक्तियों या जगहों के विषय में तर्कपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध ना हों या उनकी कोई
ख़ास उपयोगिता वर्तमान समाज व्यवस्था के लिए न रह गई हो, उन्हें अक्सर ‘मिथकीय खाते’ में डाल दिया जाता है।किन्नर समुदाय के विषय में भारत समेत
एशिया व अन्य देशों में मिथकीय कथाएँ मौजूद हैं|ग्रीक या रोमन माइथोलॉजी और इतिहास में मौजूद तथ्य इस तरफ इशारा करते हैं कि
कई शासकों के निजी कार्यों में सहायक के रूप में ‘किन्नर या हिजड़ा’ समुदाय कि नियुक्ति होती
थी।रोमन साम्राज्य के विभिन्न कालों में किन्नरों को उच्च पदों पर भी नियुक्त किए
जाने के प्रमाण मिलते हैं।प्राचीन चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के अलावे मध्य-एशिया
में किन्नर समुदाय बहुतायत में मौजूद थे और उन्हें शासन के कई महत्वपूर्ण कार्यों
में भागीदारी भी प्राप्त होती थी, इन्हें समाज के
एक अंग के रूप में ही देखा जाता था।इजिप्ट की रानी क्लियोपैट्रा ने भी अपने दैनिक
कार्यों में सहयोग के लिए किन्नरों की एक बड़ी संख्या नियुक्त कर रखी थी।इसके आलावा
यूरोप के अन्य देशों, अफ्रीका महाद्वीप के लगभग
सभी देशों और लैटिन अमेरिकी देशों में भी किन्नर समुदाय की उपस्थिति के पर्याप्त
साक्ष्य मौजूद हैं। मैक्सिको में किन्नर समुदाय को ‘मुसे’ कहा जाता है।
भारत में सत्पथ
ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्म ग्रन्थों से लेकर लोक कथाओं
में भी किन्नर समुदाय का जिक्र लगातार किया गया है।जैन साहित्य में ‘मनोवैज्ञानिक सेक्स’ की अवधारणा का उल्लेख मिलता है।वात्स्यायन कृत ‘कामसूत्र’ में किन्नर समुदाय को ‘तृतीय-प्रकृति’ नाम दिया गया
है।हिन्दू मान्यताओं के अनुसार न तो ये ‘पूर्ण पुरुष’ थे और न ही ‘पूर्ण स्त्री’ बल्कि उन दोनों के बीच की एक धुँधली पहचान यानि ‘किन्नर’।ज़िया जाफ़री की
क़िताब ‘A Tale Of Eunuch In India’ में वर्णित
रामकथा के अनुसार ‘राम के वनगमन के अवसर पर
किन्नर भी उन्हें विदा करने आये थे।जब राम वन से वापस आए तो किन्नर समुदाय के लोग
सीमा पर उनका इंतज़ार कर रहे थे।उनकी भक्ति से खुश होकर राम ने उन्हें कलियुग में
राज्य करने का आशीर्वाद दिया था।ये तो हुई रामायण की कथा, परन्तु इसके अलावा कई मिथकीय कथाएँ महाभारत में भी मिलती हैं|पहली कथा ‘शिखंडी’ से जुड़ी हुई है, कहा जाता है कि
शिखंडी ही पूर्वजन्म में ‘राजकुमारी अम्बा’ था जिसे भीष्म ने विचित्रवीर्य से विवाह के लिए अपहृत किया
था।अपनी मौत के समय अम्बा ने पुनर्जन्म लेकर भीष्म को मारने की शपथ ली थी और आगे
शिखंडी ही भीष्म की मौत का कारण बना।दूसरी कथा अर्जुन के ‘बृहन्नला’ बनने की है, अज्ञातवास के दौरान एक वर्ष तक अर्जुन ‘किन्नर वेश’ में राजा विराट
के महल में नर्तकी बनकर रहे और राजकुमारी उत्तरा को नृत्यकला की शिक्षा भी
दी।तीसरी कथा भी महाभारत से ही है, अर्जुन और उलुपी
के पुत्र ‘अरावन’, जिसने कौरव-पांडव युद्ध में कौरवों की जीत के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया।केवल
एक दिन के लिए विवाहित जीवन जीने वाले अरावन की बलि के बाद किन्नर समुदाय ने
उन्हें देवता ‘अरावन’ के रूप में पूजना शुरू कर दिया।आज भी तमिलनाडु का ‘कुवागम त्यौहार’ अरावन देवता की
बलि के सन्दर्भ में ही आयोजित किया जाता है|ये तो कुछ ऐसी मिथकीय कथाएँ थीं, जो महाभारत और रामायण
से सम्बन्धित थीं।इतिहास में भी किन्नर समुदाय की उपस्थिति के उदाहरण मिलते
हैं।अलाउद्दीन खिलज़ी का सेनापति मलिक काफ़ूर किन्नर समुदाय से आता था, उसने दक्षिण भारत विजय अभियान के दौरान कई युद्धों में विजय
प्राप्त की और कोषाध्यक्ष के पद पर भी कार्य किया।इतिहास में मौजूद कई अन्य
उदाहरणों से पता चलता है कि किन्नरों को अय्यारी और जासूसी के कार्यों के साथ-साथ
हरम में रानियों की सुरक्षा और सैनिक अभियानों में भी काम करने के लिए नियुक्त
किया जाता था।यह महज चंद उदाहरण हैं इतिहास और मिथकों में, पर वास्तविकता यह है कि यही उदाहरण किन्नर समाज की मौजूदगी का प्रमाण हैं।
दुनिया की तमाम
समाज व्यवस्थाएँ ‘पितृसत्तात्मक’ नियमों से परिचालित होती हैं, नियंत्रित की जाती हैं।भारतीय समाज में ‘लिंगपूजा’ की आड़ में हड़प्पा से लेकर
वैदिक युग तक और आज भी कहीं न कहीं पितृसत्ता को ही पोषित किया जाता रहा है।इस ‘लैंगिक-पूजक’ परम्परा की तुलना
जब हम मिथकीय कथाओं से करते हैं तो पाते हैं कि ‘यह एक तरह का षड्यंत्र था उन लोगों के ख़िलाफ़, जो ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ के लिए निर्धारित साँचे में ‘फिट’ नहीं होते थे।भारतीय समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया बेहद जटिल
और हास्यास्पद है, यहाँ ‘जेंडर’ और ‘सेक्स’ दोनों अलग-अलग
चीजें हैं।‘सेक्स’ जहाँ जैविक पहचान निर्धारित करता है वहीं ‘जेंडर’ ही समाजीकरण की प्रक्रिया है, जहाँ ‘स्त्री को स्त्री
होना’
और ‘पुरुष को पुरुष’ होना सिखाया जाता है।स्त्री और पुरुष की भूमिका तय करने के
क्रम में समाज हमेशा से किन्नर समुदाय को हाशिए पर रखता आया है, उन्हें समाज में किसी भूमिका के लायक समझा ही नहीं
गया।मिथकीय कथाओं पर तनिक भी भरोसा करें तो ‘किन्नर समुदाय को समाज की भूमिका में वैकल्पिक रूप से केवल इस्तेमाल किया गया, उन्हें ऐसा कोई कार्य नहीं दिया गया जिससे इतिहास उन्हें
तथ्य के रूप में याद करता न कि मिथक के रूप में’।किन्नर बच्चे के पैदा होते ही उसे निष्कासित करने, संपत्ति से बेदखल करने, किन्नर समुदाय को
सौंप देने या पैदा होते ही मार डालने या फेंक देने परम्परा इसी पितृक अवधारणा की
देन है।‘अनुत्पादक’ और ‘उत्पादक’ की साजिश में ‘स्त्री बाँझ के रूप में’ और ‘किन्नर नपुंसक के
रूप में’ समाज में हमेशा ही अपमान के भागी रहे।
मिथकीय कथाओं से
लेकर समाज-व्यवस्था, धर्म, आर्थिक कारक, राजनीतिक
परिदृश्य और सामान्य व्यक्ति की मानसिकता के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो किन्नर समुदाय हमेशा से ही हाशिए पर रखा गया और उसके साथ
अमानुषिक व्यवहार किया गया।समाज में सदियों से इनकी मौजूदगी के प्रमाण होने के
बावजूद भी कहीं पर किन्नर समुदाय के नाम पर कोई बस्ती या कब्रिस्तान नहीं मिलते, कोई मूर्ति या मंदिर नहीं मिलता।शासन, प्रशासन और शासक बदलते रहे, अगर कुछ नहीं बदला तो वह था किन्नर समुदाय और उसकी समस्याएँ।प्राचीनकाल, मुगलकाल और आज भी कहीं न कहीं किन्नरों का ‘इस्तेमाल’ लगातार जारी है, लेकिन उनके हित की बात न तब की गई और न अब।किन्नरों के
सम्बन्ध में व्यवस्थाएँ और विचारधाराएँ लगातार रूढ़ होती गई हैं।किन्नर बच्चे के
पैदा होने की खबरें ‘मर्दानगी के नाम पर’ न केवल छिपाई जाती रहीं, बल्कि मरने के लिए नदी-नाले में फेंक देना या जमीन में दफ़न कर देना आम बात
रही।‘मर्द’ और ‘मर्दानगी’ को पूजने वाले और
उसके नाम पर खून बहा देने वाली खाप पंचायतें और समाज के ‘चार लोग’..किसी के यहाँ अगर किन्नर बच्चा पैदा हो जाए तो
उस माता-पिता को ‘हिजड़ा संतान’ पैदा करने के लिए दोषी करार दे देते हैं, बिना किसी वैज्ञानिक तर्क या तथ्य के।
भाषा, साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में भी देखें तो पाते हैं कि
वही चंद उदाहरण, जो मिथकीय कथाओं में
मौजूद हैं, दोहराए जाते रहते हैं।किन्नर विमर्श की बात की
जाए तो हिंदी साहित्य में कुल जमा डेढ़ दर्जन उपन्यास, दो दर्जन कहानियाँ, कुछ कविताएँ और दो-तीन
नाटक मिलते हैं बस, वो भी मुक़म्मल रूप में 21वीं सदी के पहले दशक से।उसके पहले सिर्फ़ 2-3 कहानियाँ ही उपलब्ध होती हैं, मुख्यधारा के साहित्य में अभी भी ‘किन्नर विमर्श’ को विमर्श के रूप में नहीं बल्कि ‘बहस’ के रूप में देखा जा रहा है|विभिन्न भाषाओं में सैकड़ों नामों यथा हिजड़ा, छक्का, ख़ुसरा, जनखा, पवैय्या, मौसी, कोती, ख्वाजासरा, थिरुनानगाई, अरावनी या किन्नर की पहचान रखने वाले इस समुदाय की वास्तविक
समस्याएँ सामूहिक रूप से एक ही हैं|समाज के लिए ये ‘अनुत्पादक’ या ‘नपुंसक’ हैं, जो विवाह नहीं कर सकता या बच्चे पैदा नहीं कर सकता|हमारे देश में मानसिक स्थिति को लेकर या भावनात्मक संबल के
लिए भी समाज कोई ‘स्पेस’ नहीं देता, ‘डिप्रेशन’ में आकर कई बार ऐसे लोग आत्महत्या भी कर लेते हैं|धर्म, अर्थ, परिवार, समाज, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, यात्रा, कला, भाषा, संस्कृति और संविधान तक में इन्हें बहिष्कृत और हाशिए पर ही
रखा गया।ताज्जुब की बात है कि इनमें इतनी ज्यादा जीवटता है स्वयं को लेकर कि इतने
भयानक षड्यंत्रों के बाद भी इन्होने अपने अस्तित्व को मरने नहीं दिया और आज सवाल
बनकर हमारे ‘सभ्य’ समाज को नंगा कर
रहे हैं।
मिथक और इतिहास
से हटकर देखें तो एक अलग तरह का ‘अंधयुग’ इस समाज की उपस्थिति-अनुपस्थिति के बीच दिखता है, यह अंध-युग भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान एक साजिश के
तहत रचा गया।किन्नर समुदाय के संदर्भ में अंग्रेजी शासन ने पहला फैसला 1860 ई0 में अनुच्छेद ‘377’ बनाकर किया।यह एक औपनिवेशिक कानून था, जो ‘377’ के रूप में ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ की विविधता पर
एकरूपता थोपने के अलावा ‘समलैंगिकता’ के नाम पर स्त्रियों, बच्चों, युवक-युवतियों को सरेआम दण्डित करके, उनका मानवाधिकारों को चुनौती देने को अपराध, उनका इलाज़ कर ठीक करने सम्बन्धी ढोंग और प्रताड़ना का प्रतीक
माना गया।धारा ‘377’ विक्टोरियन समाज
के क्रूर नियमों से निकला हुआ एक उत्पाद था।‘एलियन लीगेसी’ (एक स्वयंसेवी संस्था) की
रिपोर्ट के मुताबिक 3 दर्जन से अधिक औपनिवेशिक
देशों में यह कानून थोपा गया, क्योंकि अंग्रेजी
सरकार ‘पूर्वी देशों की इस समलैंगिक सम्बन्धों की
बुराई’
से अपने सैनिकों को दूर रखना चाहती थी।आज 21वीं सदी में भी कई देशों में यही कानून ‘समलैंगिकता’ को ग़ैर-क़ानूनी और
आपराधिक बनाता है।भारत के आजाद होने के 70 साल बाद तक यह
धारा ‘377’
ज्यों का त्यों बनी रही, किसी सरकार ने इस समुदाय के लोगों की तरफ ध्यान देने की
जरूरत ही नहीं समझी।6 सितम्बर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की एक संवैधानिक
न्यायपीठ ने ‘भारतीय दंड संहिता [IPC] की धारा ‘377’ को रद्द कर
दिया।यह एक ऐतिहासिक फैसला था उस समुदाय के संदर्भ में जिसने बिना किसी गुनाह के
लगभग 160 सालों तक अपने अधिकारों को कैद पाया था|सहमत वयस्कों के बीच ‘समलैंगिक सम्बन्ध’ भारत में अब वैध हो गए, यह फैसला थर्डजेंडर समुदाय के लिए भी लागू होता है।
‘सभ्य अंग्रेजों’ का दूसरा ‘बर्बर फैसला’ 1871 ई० में ‘क्रिमिनल
ट्राइब्स एक्ट’ के रूप में तमाम घुमंतू
जनजातियों, जातियों और ‘हिजड़ा समुदाय’ को इस दायरे में लपेटते
हुए थोप दिया गया।भारतीय समाज एक ‘बंद अर्थव्यवस्था’ के रूप में स्थापित था, मुद्रा से ज्यादा वस्तु और सेवा का विनिमय समाज में प्रचलित था।जाति व्यवस्था
इसलिए भी रूढ़ हुई कि सेवा के बदले सेवा, वस्तु के बदले
वस्तु के कारण लोग अपने काम में विशेषज्ञ होते गए थे और काम से उनकी पहचान बनती
गई।अंग्रेजों ने कर वसूलने के लिए इस बंद व्यवस्था को छेड़ दिया, मनमानी खेती और व्यापार भारतीयों पर थोप दिया।जिसका असर
आर्थिक रूप में समाज के निचले तबकों को ज्यादा हुआ, क्योंकि ऊपरी वर्ग तो हमेशा सत्ता-केन्द्रित रहा था, चाहे राजतन्त्र हो या प्रजातंत्र|यही कारण था कि 1857 के आन्दोलन या विद्रोह में सामान्य वर्ग के लोगों ने
बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अंग्रेजों का जमकर विरोध किया।यही कारण था कि अंग्रेजों ने
लगभग 600 घुमंतू जनजातियों, जातियों और ‘हिजड़ा समाज’ को ‘जरायमपेशा और
अपराधी’ घोषित करते हुए सम्पूर्ण भारत में प्रतिबंधित कर
दिया।उसी समय ‘भूरा’ नामक एक ‘किन्नर’ को पुलिस ने पीट-पीटकर मार डाला था, जिसके विरोध में किन्नर समुदाय ने व्यापक रूप से अभियान चलाकर अंग्रेजी सरकार
को छका दिया था|1871 के एक्ट के बाद स्थिति
यह थी कि जिन समूहों को प्रतिबंधित किया गया था, उन्हें सैकड़ों बस्तियों में पुलिस के पहरे में कैद कर दिया गया।वे अपनी मर्जी
से कोई कम न कर सकते थे, इनमें किन्नर समुदाय भी
शामिल था।इसी समय उन्हें समाज, सत्ता और
संस्कृति के साथ-साथ रोजगार, आर्थिक
क्रियाकलापों और विभिन्न अधिकारों और तमाम सामाजिक जिम्मेदारियों से काट दिया गया, समाज में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार छीन लिया गया।15 अगस्त, 1947 में भारत की
आज़ादी के समय भी यह एक्ट खत्म नहीं हुआ।नेहरु सरकार ने मानवाधिकारों के
परिप्रेक्ष्य में भारत की छवि सुधारने की कोशिश में 31 अगस्त, 1952 को अंग्रेजों का थोपा
हुआ निरंकुश कानून ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट-1871’ को समाप्त कर दिया|इसके साथ ही लगभग 190 घुमंतू जनजातियों, घूमकर काम करने वाली लगभग 400 जातियों और किन्नर समाज को इस घटिया कानून से मुक्ति मिल गई।किन्नर समुदाय को
छोड़ दें तो मुक्त जातियों और जनजातियों के लिए फिर भी ज्यादा रहत नहीं मिली, क्योंकि 1952 में अंग्रेजों
का थोपा हुआ कानून तो खत्म कर दिया गया लेकिन उसके पहले ही ‘Habitual
Offenders Act- 1950’ (आदतन अपराधी अधिनियम)
बनाकर उन्हें एक तरह से घृणा योग्य बनाये रखा।आज भी न तो कोई उनकी जमानत देता है
और न ही बैंक उन्हें कर्ज देते हैं, क्योंकि वे आज भी
अपराधी हैं।संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार आयोग आज भी भारत सरकार पर इस अधिनियम को
पूर्णतया समाप्त करने का दबाव बनाए हुए है।सैकड़ों ‘घुमंतू जातियाँ और जनजातियाँ’ ‘आदतन अपराधी
अधिनियम’ के तहत ‘चोर’ समझी जाती हैं और सम्मानजनक स्थिति से बहुत दूर
हैं।
बहरहाल किन्नर
समुदाय की स्थिति में सुधार प्रारंभ होने का पहला कदम अधिनियम ‘1871’ का समाप्त होना था।1994 ई० में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी0 एन0 शेषन ने ‘हिजड़ा समुदाय’ को ‘मतदान का अधिकार’ दे दिया, इस तरह उनके अधिकारों की लड़ाई का पहला कदम रखा जा चुका
था।मतदान का अधिकार तो मिल गया लेकिन यह अधिकार वे ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ के रूप में ही इस्तेमाल कर सकते थे, ‘किन्नर’ के रूप में मतदान करने के योग्य वे न थे।यही
कारण था कि स्वयं किन्नर समाज के लोग भी बाहर आने और मुख्य धारा में समाहित होने
की कोशिश से कतराते रहे।स्पष्ट रूप से ‘तीसरा जेंडर’ न होने की वजह और ‘स्त्री-पुरुष’ के बीच पहचान के लिए
संघर्ष करता यह समुदाय लगातार हाशिए पर ही रहा, किसी भी सरकारी या ग़ैर-सरकारी संस्था ने और न ही सरकार ने इस तरफ उचित रूप से
ध्यान दिया।दैनिक जीवन की तमाम जरूरतें पूरी करने के लिए इन्हें नाचने-गाने, ताली बजाने, भीख माँगने या
फिर देह व्यापार के दलदल में फँसने के लिए मजबूर होना पड़ा।कई बार ‘एड्स जैसी घातक बीमारी’ का शिकार होकर दर्दनाक मौत मरने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि सरकारी अस्पताल
में इलाज सम्भव न था और प्राइवेट अस्पताल की महँगी फीस ये भर नहीं सकते थे।यह
समस्या अभी भी बदस्तूर जारी है, कम हुई है लेकिन
खत्म नहीं हुई है।1994 में मतदान का अधिकार मिल
जाने के बावजूद ‘1998’ में शबनम मौसी का
चुनावी नामांकन इसलिए रद्द कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने महिलाओं के लिए आरक्षित ‘सोहागपुर’ सीट से चुनाव लड़ा, पर समस्या यह थी कि आयोग ने इन्हें स्त्री मानने से इंकार
कर दिया।लेकिन आगे चलकर कुछ अन्य लोगों जैसे शोभा नेहरु, कमला जान, आशा देवी जैसे लोगों ने
पार्षद और मेयर जैसे पदों को संभाला, लेकिन अभी भी
समस्याएँ खत्म नहीं हुईं थीं।किन्नर समुदाय को सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जीत 2009 में तब मिली, जब चुनाव आयोग ने
किन्नर समुदाय को पूर्ण रूप से स्वतंत्र ‘श्रेणी’ मानते हुए मतदान का अधिकार दिया और उन्हें ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ से इतर ‘OTHER’ की श्रेणी में रखा।अब वे मतदान भी कर सकते थे और स्वतंत्र
रूप से चुनाव भी लड़ सकते थे।
भारत की जनगणना 2011 के अनुसार भारत में लगभग 4.5 लाख की संख्या में ‘किन्नर’ आबादी मौजूद है, परन्तु वास्तविक
संख्या इससे ज्यादा हो सकती है।किन्नर समुदाय के लोगों का दावा है कि साढ़े चार लाख
की रजिस्टर्ड संख्या के अलावा इसका तीन गुना ज्यादा संख्या है किन्नरों की भारत
में।आजादी के लगभग 67 साल बाद भारत दुनिया के
उन देशों की फेहरिस्त में शामिल हो गया, जहाँ ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के अलावा ‘तृतीय ’लिंगी’ समुदाय को नागरिक के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और वे लोग
अपने सभी मानवीय अधिकार इस्तेमाल करने के लिए सामान्य नागरिकों की तरह स्वतंत्र हो
सके हैं।नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, जर्मनी, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के बाद भारत 7वां देश बना किन्नरों को स्वतंत्र नागरिक मानने के मामले
में।स्वतंत्र श्रेणी में आने के बाद भारतीय किन्नर समुदाय ने अपना पहला मतदान 2014 में किया क्योंकि 2011 कि जनगणना में उन्हें रजिस्टर्ड किया जा सका और वे व्यवस्थित रूप से मतदाता
सूची में किन्नर के रूप में शामिल किये गए।रजिस्टर्ड होने से पहले उन्हें शिक्षा, रोजगार, बैंकिंग, पासपोर्ट, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, नागरिकता पहचान पत्र, पैनकार्ड के लिए लगातार
दिक्कतें झेलनी पड़ीं।शिक्षा का अवसर, अच्छी चिकित्सा
की सुविधा, रोजगार/व्यापार का अवसर, उच्च शिक्षा का अवसर या अन्य बहुत सी सरकारी सुविधाओं और
योजनाओं से इन्हें वंचित रहना पड़ता था।
वैदिक और पौराणिक
काल से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ‘किन्नर समुदाय’ के लिए देश के संविधान और कानून में कोई अलग से
व्यवस्था/सुविधा /अधिकार प्राप्त नहीं थे।‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ यानि ‘NALSA’ बनाम भारत संघ और अन्य (2014) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल, 2014 को निर्णय दिया कि ‘तृतीय-लिंग’ की पहचान रखने वाले ‘किन्नर समुदाय’ को सभी ‘विधिक’ और संवैधानिक
अधिकार, जो संविधान के ‘भाग-3’ में वर्णित ‘मौलिक अधिकारों’ के तहत वर्णित हैं,सभी नागरिकों के लिए समान होंगे।संविधान के अनुच्छेद 15, 16, (1) (क) और 21 के अंतर्गत देश
के सभी व्यक्तियों/नागरिकों को प्रदत्त ‘मूल अधिकार’ किन्नर समुदाय के लिए भी समान रूप से मान्य होंगे।उच्चतम
न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया कि ‘जब किन्नरों के
अधिकारों के लिए देश में कोई विधि, अर्थात विधायन
नहीं है और इसके कारण थर्ड जेंडर या ट्रांसजेंडर समुदाय को अनेक विभेदकारी परिस्थितियों
का सामना करना पड़ रहा है, तब यह न्यायालय उनके
प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से सम्बंधित अधिकारों की सुरक्षा पर मूकदर्शक नहीं बना
रहेगा और अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करते हुए निर्देशों/आदेशों के माध्यम
से उसे प्रवर्तनीय बनाएगा।इसके आलावा अगर संसद चाहे तो संविधान के अनुच्छेद 51/ 253 के अंतर्गत अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों और कन्वेशन के तहत
कानून बना सकती है’।‘यह ‘नाल्सा जजमेंट’ के नाम से भी जाना जाता है, इसके प्रमुख बिंदु निम्न हैं-
• ‘हिजड़ा’ और ‘Eunuch’ को उनके ‘युगल-लिंगी’ [Binary Gender] होने के बावजूद संविधान के भाग-3 के अंतर्गत मूल
अधिकारों तथा संसद और राज्य विधायिका के द्वारा बनाए गए कानूनों की सुरक्षा प्रदान
करने के लिए ‘तृतीय-लिंग’[Third Gender] के रूप में मान्यता दी जाए।
• ‘ट्रांसजेंडर’ समुदाय को उनके ‘आत्म-पहचानीकृत’ लिंग का निर्धारण करने के अधिकार को भी कायम रखा गया है और
केंद्र तथा राज्य सरकारों को इसी के अनुरूप उनकी ‘लिंगीय पहचान’ जैसे ‘पुरुष’ या ‘स्त्री’ या ‘तृतीय-लिंग’ के रूप में ‘विधिक मान्यता’ प्रदान की जाए।
• केंद्र और राज्य सरकारें ‘ट्रांसजेंडर/थर्डजेंडर’ (विशेषरूप से किन्नर) वर्ग को देश के नागरिकों के रूप में सामाजिक और शैक्षणिक
दृष्टि से ‘पिछड़ा वर्ग’ घोषित करें तथा इन्हें शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश, सरकारी नियोजन एवं नौकरियों में आरक्षण प्रदान करें।
• केंद्र और राज्य सरकारें
किन्नर समुदाय (थर्ड जेंडर) की स्वास्थ्य समस्याएँ, विभेदकारी नीति एवं उत्पीड़न इत्यादि के निदान के लिए तत्काल कदम उठाएँ।उनकी
बेहतरी के लिए योजनाएँ बनाकर और जनजागरण के माध्यम से समाज में उन्हें सम्मान तथा
उचित स्थान दिलाने के लिए कदम उठाएँ।
न्यायालय ने यह
स्पष्ट तौर पर कहा कि ‘थर्ड जेंडर’ समुदाय को मान्यता नहीं देने से उन्हें कानून में प्रदत्त ‘समान संरक्षण’ नहीं
मिलता।सार्वजनिक स्थलों, जेल में पुलिस की
प्रताड़ना का शिकार होना किन्नरों के लिए नई बात नहीं है, पुलिस विभाग हमेशा से इस समुदाय को संदिग्ध नजर से देखता आया है।2014 के ‘नाल्सा जजमेंट’ ने किन्नर समुदाय को सार्वजनिक रूप से अपने अधिकारों के लिए
आवाज उठाने के पक्ष में अधिकार और संरक्षण प्रदान करता है|‘स्त्री’ और ‘पुरुष’की पहचान से इतर ‘Others’ की सूची में ‘लैंगिक पहचान’ के अधिकार के लिए
संघर्षरत वे सभी शामिल हैं, जो स्वयं को
स्त्री या पुरुष नहीं समझते या पाते।
ट्रांसजेंडर/
थर्डजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों कि गारंटी देने और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएँ
बनाने के मकसद से ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ पार्टी से तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद तिरुचि शिवा ने 2014 में राज्यसभा में एक ‘प्राइवेट मेम्बर बिल’ पेश किया।यह विधेयक ‘एकसमान समाज’ का निर्माण करने
में अहम भूमिका निभाता है।यह ट्रांसजेंडर/थर्डजेंडर व्यक्तियों को पहचान के साथ
सुरक्षा देते हुए उनकी निजता का भी पूरा सम्मान करता है|2015 में यह बिल राज्यसभा में पास हो गया।लोकसभा में पहुँचने पर केंद्र सरकार ने
इस बिल को ‘टेक-ओवर’ कर लिया और संसद की स्टैंडिंग समिति के पास इसे समझने और संशोधित होने के लिए
भेज दिया गया|इस बिल में 27 बदलाव किए गए।सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री थावरचंद
गहलोत ने 19 जुलाई, 2019 को संशोधित रूप में इस बिल को लोकसभा में पेश किया।लोकसभा में यह बिल 5 अगस्त, 2019 को पास हो गया
और इसे राज्यसभा में पुनः पेश होने और स्वीकृति के लिए भेज दिया गया।26 नवम्बर, 2019 को यह बिल
राज्यसभा में भी पास हो गया।किन्नर समाज के लिए आगे की कई राहें खुलती दिखाई देने
लगी।इस बिल के मुख्य प्रावधान निम्नवत हैं-
• इस बिल के अनुसार- ‘ट्रांसजेंडर’ व्यक्ति वह है, जिसका लिंग जन्म के समय नियत लिंग से मेल नहीं खाता।इसमें
किन्नर समुदाय, ट्रांसमैन, ट्रांसवूमन, इंटरसेक्स
भिन्नताओं वाले और जेंडर क्वीयर्स आते हैं।किन्नर समुदाय को बिल में
सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान के सन्दर्भ में भी अधिकार प्राप्त हैं|इंटरसेक्स भिन्नताओं वाले व्यक्तियों की परिभाषा में ऐसे
लोग शामिल हैं, जो जन्म के समय अपनी
मुख्य यौन विशेषताओं, बाहरी जननांगों, क्रोमोसोम्स या हार्मोन में पुरुष या स्त्री के शरीर के
आदर्श मानकों से भिन्नता प्रकट करते हैं।
• यह बिल
ट्रांसजेंडर/थर्डजेंडर समुदाय के व्यक्तियों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव पर
पूर्णतया प्रतिबंध लगाता है।
• ट्रांसजेंडर (किन्नर भी)
व्यक्ति को अपने परिवार में रहने और उसमें शामिल होने का पूरा अधिकार है।अगर
परिवार ऐसे व्यक्तियों/सदस्यों को पलने में सक्षम नहीं होता तो सरकार उनके लिए ‘पुनर्वास केंद्र’ में रहने की
व्यवस्था करेगी।
• कोई भी सरकारी या निजी
संस्था रोजगार के मामलों, जैसे भर्ती, पदोन्नति इत्यादि में किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ
भेदभाव नहीं कर सकेंगी।ऐसी समस्याओं के निराकरण के लिए प्रत्येक 100 कर्मचारियों पर एक अधिकारी नियुक्त किया जाएगा।
• शिक्षा के सन्दर्भ में भी
सरकार द्वारा वित्त-पोषित या मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भेदभाव किए बिना ‘ट्रांसजेंडर’ व्यक्तियों को
समावेशी शिक्षा, खेल एवं मनोरंजन की
सुविधाएँ प्रदान कराई जाएँगी।
• सरकार, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के
लिए उचित कदम उठाएगी।जिसमें अलग से HIV सर्विलेंस सेंटर
और सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी इत्यादि शामिल हैं|समग्र चिकित्सा बीमा योजना और चिकत्सा पाठ्यक्रम की नए सिरे से समीक्षा किए
जाने का प्रावधान भी किया गया हबिल के अनुसार एक
ट्रांसजेंडर व्यक्ति जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन कर सकता है कि ‘ट्रांसजेंडर’ के रूप में उसकी
पहचान से जुड़ा ‘सर्टिफिकेट’ जारी किया जाए।इसे जारी करने के लिए कई सदस्यों की समिति का
भी प्रावधान है।संशोधित प्रमाणपत्र तभी जारी किया जा सकता है, जब आवेदनकर्ता ने ‘पुरुष’ या ‘महिला’ के रूप में अपना ‘लिंग परिवर्तन
सर्जरी’ कराई हो।
• बिल के अनुसार सरकार, समाज में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पूर्ण समावेश और
भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगी।सरकार उनके रेस्क्यू (बचाव), पुनर्वास, व्यावसायिक
प्रशिक्ष्ण एवं स्वरोजगार के साथ ट्रांसजेंडर संवेदी योजनाओं का सृजन एवं
सांस्कृतिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करेगी।
• ट्रांसजेंडर व्यक्तियों
से भीख मँगवाना, बँधुआ या बलपूर्वक मजदूरी
कराना (सार्वजनिक उद्देश्य की सरकारी सेवा शामिल नहीं), सार्वजनिक स्थलों को प्रयोग से रोकना, परिवार और गाँव में निवास करने से रोकना अपराध होगा।शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न करना गंभीर अपराध माना
जाएगा।इन अपराधों के लिए 6 माह से लेकर 2 वर्ष तक की सजा का प्रावधान इस बिल में किया गया है।
• राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर
परिषद- [NCT] इसमें केन्द्रीय सामाजिक
न्यायमंत्री (अध्यक्ष), सामाजिक न्याय
राज्यमंत्री (सह-अध्यक्ष), सामाजिक न्याय मंत्रालय
के सचिव, स्वास्थ्य, गृह मामलों, आवास, मानव संसाधन विकास मंत्रालयों के प्रतिनिधि इसके सदस्य
होंगे।इसके अलावा राज्य सरकारों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे।किन्नर समुदाय के 5 सदस्य और ग़ैर-सरकारी संगठनों के पाँच सदस्य विशेषज्ञ के
रूप में शामिल होंगे।यह परिषद ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के सम्बन्ध में नीतियाँ, विधान, योजनाएँ बनाने और
उनके निरीक्षण के लिए केंद्र सरकार को सलाह देगी और शिकायतों का निवारण भी करेगी।
यह बिल दोनों
सदनों में पास तो हो गया, लेकिन पास होने के साथ ही
इसका विरोध भी प्रारंभ हो गया।ट्रांसजेंडर (ख़ास करके किन्नर समुदाय) ने इस बिल को ‘Gender Justice
Murder Day’ करार दिया है और इसका
विरोध कर रहे हैं।किन्नर समुदाय का कहना है कि ‘यह समुदाय की उम्मीदों/विश्वासों की हत्या करने वाला बिल है, समुदाय की ‘सुरक्षा बिल’ के नाम पर उन्हें धोखा दिया गया है।‘भेदभाव के खिलाफ निषेध’ में यह बिल ट्रांसजेंडर की सकारात्मक स्वीकार्यता के साथ ‘समान राजनीतिक साझेदारी’ के मुद्दे पर चुप है।परिवार के अक्षम होने की स्थिति में ‘पुनर्वास केंद्र’ भेजने के नाम पर
भी समुदाय के साथ न्याय होता नहीं दीखता, क्योंकि अगर वे
परिवार में नहीं रह सकते तो उन्हें स्वतंत्र रूप से घर बनाने और रहने का समान
नागरिक अधिकार मुहैया कराया जाना चाहिए, न कि पुनर्वास के
नाम पर पागलखाने जैसी जगह भेज दिया जाए।स्वास्थ्य क्षेत्रों में अलग से व्यवस्था
के नाम पर भी उन्हें मुख्यधारा से अलग रखने और खाई बनाने की कोशिश की गई
है।सामान्य सर्दी-जुकाम की स्थिति में भी उन्हें विशेष नियमावली के तहत सिर्फ़ उनके
लिए आवंटित चिकित्सक या अस्पतालों में दिखाना पड़ेगा, जो बहुत ज्यादा विभेदनकारी है।छोटी सी बीमारी में भी ‘सेक्स लाइफ’ से सम्बंधित सवालों का
सामना करने के लिए खुद को तैयार करना उन्हें मानसिक रूप से परेशान कर सकता है।ये
सभी प्रावधान मुख्यधारा के समाज और किन्नर समाज के बीच की खाई को सिर्फ़ बढ़ाने का
काम करेंगे।‘ट्रांसजेंडर’ के रूप में अगर कोई व्यक्ति अगर ‘सर्टिफिकेट’ बनवाना चाहे तो उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करने के लिए ‘लिंग परिवर्तन सर्जरी’ कराया होना अनिवार्य होगा।उसके आलावा ये सर्टिफिकेट बनवाने के लिए कई
अधिकारियों की ‘डेस्क’ से गुजरना होगा।ऐसे में एक तो सर्टिफिकेट के लिए कई डेस्कों
का चक्कर काटना, महँगी सर्जरी के लिए
लाखों रुपए जुटाना दिक्कत भरा होगा।समुदाय का कहना है कि ‘बिना किसी सर्जरी या ऐसे किसी तामझाम के’ उन्हें अपनी ‘लैंगिक पहचान’ तय करने का अधिकार स्वयं उस व्यक्ति को दिया जाए न कि
अधिकारियों की भीड़ उनकी पहचान तय करे।यानि ‘सेल्फ़-आइडेंटिफिकेशन’ को मान्यता दी जाए और
उन्हें फ़िज़ूल के मानसिक तानाव से मुक्ति मिले।ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ किसी भी
तरह के अपराध में सजा का अधिकतम प्रावधान केवल दो साल का है, भले ही वह रेप ही क्यों न हो।यह बेहद अमानवीय है, इससे उनके साथ अपराधों में बढ़ोत्तरी हो सकती है या उन्हें
प्रताड़ित होने से संरक्षण के अवसर कम हो जाएँगे|यह ‘नाल्सा जजमेंट 2014’ में ट्रांसजेंडर समुदाय को प्राप्त अधिकारों का भी हनन है।
सदियों से इस
समुदाय को या तो हाशिए पर रखा गया या उनका विभिन्न स्तरों पर इस्तेमाल किया गया।आज
21वीं सदी में कुछ संस्थाएँ साहित्यकार, समाजसेवी, शोधार्थी, सरकार और स्वयं किन्नर समुदाय भी कहीं न कहीं समुदाय के
अधिकारों के लिए सचेत हुए हैं।माना कि जो कार्य बहुत पहले हो जाने चाहिएँ, उन्हें अब किया जा रहा है।शिक्षा और रोजगार के क्षेत्रों
में जब इनकी उपस्थिति बढ़ने लगेगी तो कहीं न कहीं इनके आत्मविश्वास में भी वृद्धि
होगी।जो भी बिल, कानून या नियम इस समुदाय
के पक्ष में बनाए या लागू किए जाएँ, उन्हें आसानी से
इनके लिए ज्यादा से ज्यादा लाभकारी होना चाहिए।सार्वजनिक स्थलों पर किन्नर या
ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ सामान्य व्यक्तियों को अपनी विचारधारा और व्यवहार बदलने
की आवश्यकता है।स्कूल और परिवार के भीतर उनके लिए व्याप्त भ्रमपूर्ण बातों को
ख़ारिज किए जाने की आवश्यकता है।साहित्य में उनके प्रति दया और अश्लीलता की भाषा से
बचने,
भीड़तन्त्र और बाजारवाद से बचने और वास्तविक
तथ्य रखे जाने चाहिएँ।शिक्षकों को स्कूलों में उनके साथ संवेदनशील व्यवहार का
प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।सिर्फ़ मिथकों का गुणगान करने से बात नहीं बनने वाली, इसलिए वर्तमान के खुरदरेपन को महसूस किए और उनमें सुधार किए
बिना बदलाव संभव नहीं है।लाखों की संख्या वाली इस आबादी को ‘इंसान’ समझकर उसे अपनाए
जाने और उनके सामान्य मानवीय अधिकार दिलाए जाने की आवश्यकता है।
संदर्भ
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विजेंद्र प्रताप सिंह और रवि कुमार गोंड, आहंग प्रकाशन-नई
दिल्ली-2016
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पुत्राधिकार- अरविन्द जैन, राजकमल प्रकाशन-नई
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14.NALSA Judgement report- Rajya Sabha TV
15.India Today- Magazine
हर्षिता द्विवेदी,पीएचडी शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरु
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली- 110067
सम्पर्क : 9013583573, harshitadwivedi59@yahoo.in
अभ्यासपूर्ण लेख।किन्नर समाज से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई।
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