'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
भीष्म साहनी हिंदी साहित्य के प्रगतिशील लेखकों
की परंपरा के समृद्ध लेखक हैं उन्होंने अपने साहित्यिक लेखन जीवन का आरंभ कहानी
विधा से ही किया था। प्रेमचंद का गहरा प्रभाव होने के कारण इनकी वैचारिकी प्रारंभ
से ही समाज केंद्रित तथा यथार्थ परक रही है ।अपनी कहानियों के माध्यम से यह मानव
जीवन की भीषण त्रासदियों और कुरूपताओं को बहुत सहज ढंग से हमारे सामने प्रस्तुत
करते हैं तथा मानवीय संवेदना व दृष्टि को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से उभारते हैं।
मध्यवर्गीय जीवन जीवन की दास्तान ‘चीफ की दावत’- दिव्या
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
नामवर सिंह के शब्दों में:-'कहानी जीवन के टुकड़े में निहित 'अंतर्विरोध', ‘द्वंद्व', 'संक्रांति' अथवा 'क्राइसिस' को पकड़ने की कोशिश करती है।' भीष्मसाहनी समाज से रूबरू होकर उन चुनौतियों से
टकराते है जो व्यक्ति, समाज, संस्कृति और इतिहास के मूलभूत संबंधों, अंतर्विरोधों और विसंगतियों का निर्धारण करती है।
उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से नगरीय, महानगरीय जीवन से जुड़ी परिस्थितियों में निम्न
मध्य वर्ग की विवशता, त्रास और उसमें
जूझते पीड़ित व्यक्ति की अभिव्यक्ति की है। 'चीफ की दावत', 'बीवर', 'माता-विमाता', 'त्रास', 'पिकनिक', 'मुर्गी की कीमत' तथा 'बाप-बेटा' आदि ऐसी अनेक कहानियों की कथावस्तु में उन्होंने
यथार्थ एवं मानवीय संवेदनाओ को सहजता से उकेरा है।
'चीफ की दावत' कहानी द्वारा वह मध्यवर्गीय व्यक्ति की
अवसरवादिता, उसकी महत्वाकांक्षा, स्वार्थपरता, हृदयहीनता, कटु-व्यवहार तथा पारिवारिक विघटन को उजागर करते
हैं। उनकी यह कहानी नए मध्यवर्ग के आर्थिक व सांस्कृतिक अन्तर्द्वंद को चित्रित
करने वाली कहानी है। यह कहानी उसी नए मध्यवर्ग के जीवनवृत्त से निकली है जो अपनी
आकांक्षाओं यानी उच्च वर्ग के प्रति आकर्षण भाव तथा निम्न एवं शोषित वर्ग के प्रति
तिरस्कार भाव रखता है तथा आर्थिक उन्नति के बदले अपनी संस्कृति, परिवार और मानवीय संवेदना से शून्य होता जा रहा
है। इस कहानी में मां के प्रति पुत्र के बदलते हुए व्यवहार का संवेदनात्मक चित्र
खींचा गया है। कहानी का पात्र 'शामनाथ' दफ्तर की नौकरी पाकर उच्च पद पाने की चेष्टा रखता
है और उसकी पूर्ति के लिए अपने दफ्तर के विदेशी चीफ़ की खुशामदी करने में लग जाता
है साथ ही उनकी दावत का प्रबंध अपने घर में करता है। उच्च पद पाने की उसकी लालसा
इतनी बढ़ जाती है कि बूढ़ी मां तक की उपेक्षा करता है अर्थात् महत्वाकांक्षा की
पूर्ति के लिए मां के साथ उसका संबंध भी गौण हो जाता है। आज के उपभोक्तवादी युग
में अधिकाधिक धन, यश, आराम ही जीवन का लक्ष्य माना जाता है ऐसे में
पारिवारिक मूल्यों का विघटन तेजी से हो रहा है और बूढ़े मां-बाप संतानों द्वारा
उपेक्षित किए जा रहे हैं।
भीष्म साहनी की कहानियां जिस यथार्थ को व्यक्त
करती है उसे वे प्राय रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से चित्रित करते
हैं। यह हिंदी के उन कहानीकारों में से है जिन्होंने मनुष्य को उसके सपनों, उसके तमाम सुख-दुख, हार जीत को उसके संघर्षों और उनकी उपलब्धियों के
साथ प्रस्तुत किया है। उनकी कहानियां सीधी जिंदगी से जुड़ी कहानियां है जिसमें
मानवीय संवेदनाओं की रागात्मकता मौजूद है।
मध्य वर्गीय चरित्र की विसंगतियों को उद्घाटित
करते हुए डॉ. गोपाल राय लिखते हैं कि:-“इस कहानी में मुख्य रूप से उस सांस्कृतिक ह्रास
का अंकन किया गया है, जो मध्य वर्ग में
औपनिवेशिक प्रभाव की देन था। पदोन्नति के लिए बड़े अधिकारी की बेहद निम्न स्तर की
चाटुकारिता, यूरोपीय संस्कृति की
भौड़ी नकल की चेष्टा, झूठी शान का दयनीय
प्रदर्शन, उच्च पदाधिकारी के
सामने भीगी बिल्ली और मातहतों के सामने शेर जैसा व्यवहार करने की मानसिकता, पुरानी पीढ़ी के प्रति अमानवीय व्यवहार आदि
मध्यवर्गीय अंतर्वेधी अंकन इस कहानी में हुआ है, वह दूसरी कहानी में देखने को नहीं मिलता।”
आधुनिक दिखने की चाह में मध्यवर्गीय व्यक्ति किस
प्रकार प्रदर्शनप्रिय होता जा रहा है यह भी कहानी में बखूबी दिखाया गया है। वह
बूढ़ी मां चीफ़ की दावत के समय प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं बल्कि कूड़े की तरह कहीं
छुपाने की वस्तु हो गई है अर्थात् उसे अपनी मां घर में पड़े किसी कोने में कूड़े
करकट की भांति दिखाई देती है। उदाहरण के लिए-
“कुर्सियां, मेंज, तिपाइया, नैपकिन, फूल बरामदे में पहुंच गए। ड्रिंक का इंतजाम कर
दिया गया। घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने
लगा। अचानक शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, मां का क्या होगा?” यह कहानी
प्रश्नचिन्ह लगाती है कि यह कैसी विडंबना है कि एक स्त्री मां की सामान और वह भी 'अनावश्यक सामान' तक की श्रेणी में डाल दी जाती है वह भी केवल
आर्थिक उन्नति के लिए। आधुनिक पीढ़ी विशेषकर, मध्यवर्गीय कितना स्वार्थी हो गया है कि वह
मनुष्य एवं रिश्तों को वस्तुओं की तरह
प्रयोग कर रहा है। इस स्वार्थी वृत्ति को भीष्म साहनी ने बड़ी ही तीक्ष्णता के साथ
व्यक्त किया है।
नामवर सिंह के शब्दों में:- “'चीफ़ की दावत’ में अपनी निरक्षर और बूढ़ी मां ही एक समस्या बन
गयी जैसे घर का 'फालतू सामान' बल्कि सामान से भी बड़ी समस्या। सामान को छिपाना
तो आसान है लेकिन इस जीवित सामान का क्या करें? और इस तरह शामनाथ एक कूड़े की तरह अपनी मां को इस
घर से उस घर में छिपाता फिरता है।”
फालतू वस्तुओं में गिना गया मां का चरित्र जब
चीफ़ के सामने अनायास ही आता है तब उनको वह पसंद आता है और मां द्वारा बनाई गई
फुलकारी को वह बेहद पसंद करता है तब शामनाथ उसे कूड़े में पड़े हीरे की भांति
पोंछ-पोंछ कर चीफ़ को दिखाता है। जिस मां को वह अपनी तरक्की में बाधक महसूस कर रहा
था उसी मां की वजह से उसकी पदोन्नति होती है।मध्यवर्ग का प्रतीक 'शामनाथ' अपने दोहरेपन को दिखाते हुए मां की खुशामद करने
में लग जाता है क्योंकि यदि मां खुश नहीं हुई तो फुलकारी नहीं बन पाएगी और चीफ़
खुश नहीं हुए तो उसकी तरक्की नहीं हो पाएगी। वह अपनी तरक्की मिलने की आड़ में मां
को काम करने के लिए मजबूर कर देता है परंतु मां तो वही मां है पुरानी-परंपरागत, वह न तो पढ़ी-लिखी है,न मध्यवर्गीय और न ही आधुनिक। वह तो केवल मां है
जिसे अपनी संतान की खुशी पर से मतलब है।
इस संदर्भ में मधु सिंह कहती है कि:-“शामनाथ मां को इस घर से उस घर तक छिपाता फिरता
है। नवीनता यह है कि मां इस पर नाराज नहीं, क्योंकि वह भी अपने बच्चे के भविष्य के लिए
चिंतित है पर अपनी परिस्थिति पर संकुचित अवश्य है”
आधुनिक समाज में अर्थ का वर्चस्व इतना बढ़ गया है
कि मनुष्य उसके लिए संबंधों और भावनाओं को भूलता जा रहा है। शामनाथ की आंखें केवल
पद और सुविधा के केंद्र पर टिकी है वह इसके अलावा और कुछ नहीं देख पाता। शामनाथ की
पत्नी से लेकर शामनाथ के घर पार्टी में आए उसके सभी दोस्त अपने-अपने तरीकों से
चीफ़ (जो यहां उच्चवर्ग का प्रतीक है) को आकर्षित करने में लगे हैं ताकि उनकी
तरक्की का रास्ता खुल सके।
साहनी जी पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का एक
अलग रूप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं इस अंधानुकरण के कारण भारतीय संस्कृति के
ह्रास को तो उन्होंने दिखाया ही है साथ ही बुजुर्गों की उपेक्षा आदि समस्याओं को
भी उजागर किया है। आधुनिकता की आड़ में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित शामनाथ के लिए
यह पारिवारिक संबंध, भावनाएं तथा त्याग
सब संपत्ति के आगे मूल्यहीन हो चुके हैं।
मध्यम वर्ग का व्यक्ति चाहे कितना भी आधुनिक होने
की कोशिश करें फिर भी परंपरागत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता। बिरादरी, समाज तथा पड़ोसी का डर उसके मन में हमेशा सताता
रहता है तभी तो शामनाथ चीफ़ के आगमन पर अपनी बूढ़ी मां को छिपाना तो चाहता है पर
पड़ोस की विधवा के घर भेजने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे लोग उसे बुरा भला कहेंगे
तथा समाज में उसकी नाक कट जाएगी। ठीक इसी प्रकार जब मां हरिद्वार जाने की बात कहती
है तो शामनाथ मना कर देता है उसे मां का घुट-घुट कर जीना मंजूर है पर बिरादरी की
बदनामी झेलने को वह तैयार नहीं है।
वस्तुतः शामनाथ नवोदित भारतीय मध्य वर्ग का
प्रतिनिधित्व कर रहा है जो अपनी बूढ़ी मां के प्रेम, स्नेह को एहसान मानता है और उसे चुका देना चाहता
है। आज का शिक्षित युवा वर्ग माता-पिता को बोझ समझते हैं तथा अपनी सुख-सुविधा के
लिए उन्हें छोड़ देते हैं। जो माता-पिता अपने बच्चों को काबिल बनाने के लिए अपना
सर्वस्व तक समर्पित कर देते हैं वह बच्चे उसे केवल एहसान समझते हैं। शामनाथ भी
यहां मां द्वारा किए गए समर्पण को चंद रुपयों में तोलता है। यह आधुनिक युग की बहुत
बड़ी त्रासदी है कि युवा वर्ग बुजुर्गों के आदर सम्मान को भूल अपनों के साथ ही
संवेदनहीन व्यवहार करने लगता है तथा पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढलता
जा रहा है।मां की सीधी-सादी बात पर कि उसके गहने बेटे की पढ़ाई में बिक गए यह
सुनकर ही शामनाथ आग बबूला हो जाता है वह तिनककर बोलता है कि-
“यह कौन सा नया राग
छेड़ दिया मां! सीधा कह दो नहीं है जेवर, बस। इससे पढ़ाई वढ़ाई का क्या ताल्लुक है? जो जेवर बिका, कुछ बनकर ही आया हूं, निरा लडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था,
उससे
दुगना ले लेना”
‘चीफ की दावत’ कहानी मध्यवर्गीय सोच की संकीर्णता, स्वार्थपरता, हृदयहीनता तथा अवसरवादिता की परतों को उघाड़ दिया
है, साथ-साथ अपनी संतान
द्वारा तिरस्कृत और मानसिक पीड़ा झेलने वाली बूढ़ी मां की दयनीय दशा को मार्मिकता
के साथ उभारकर मध्यवर्ग को बेनकाब कर दिया
दिया है।
दिव्या
परास्नातक(हिंदी)
श्यामाप्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय (दिल्ली)
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