साक्षात्कार : ''मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव मेरे खुद का है।''- गोविंद मिश्र

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
            साक्षात्कार : ''मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव मेरे खुद का है।''- गोविंद मिश्र     
        
(यह साक्षात्कार मैंने, अपने शोध के दरम्यान गोविन्द मिश्र जी से लिया था. गोविन्द मिश्र के साहित्य-संसार के एक भाग उपन्यासों पर केन्द्रित यह साक्षात्कार है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बहुत सारे सवालों का जवाब इसमें दिया गया गया है, जहाँ जवाब थोड़े से हैं वहाँ पर व्यंजना की गहराई आप खुद लगा सकते हैं, कुछ सवाल ऐसे थे जिसे वे इशारों में कहकर आगे बढ़ गये हैं. पाठकगण उसको अपने विवेक के अनुसार ग्रहण करें। गोविन्द मिश्र एक नरम दिल इंसान हैं इसलिए इतनी बेबाकी से मैं पूछने की हिम्मत जुटा सका था, मेरे उल्टे-सीधे सवालों को बहुत ही सहज ढंग से उन्होंने झेला है आशा करता हूँ कि पढ़ने वाले इससे लाभान्वित होंगे।)


गोविन्द मिश्र जी आप अपने उपन्यासों के नामों की सार्थकता पर क्या कहना चाहेंगे?

हाँ! जो नाम दिए जाते हैं, वे बहुत ही सार्थक होते हैं, एक तरह की कुंजी होते हैं जो पूरे उपन्यास के अर्थ को खोलते हैं। अब जैसे 'वह/अपना चेहरा' जो मेरा पहला उपन्यास है। वह के बाद एक ओब्लिक (/) लगाया है, माने वह केशवदास का चेहरा जो खुर्राट ब्यूरोक्रेट है और 'मैं' का चेहरा; जो नया लड़का नौकरी ज्वाइन करता है। यह दूसरा कैसे धीरे-धीरे केशवदास के साँचे में ढलता चला जाता है। माने पूरा तंत्र ऐसा है कि किसी को भी अपने में जज्ब करके अपने जैसा बना लेता है। 'लाल पीली जमीन' तो 'लाल पीला होना मुहावरा' भी है, गुस्सा होना। इस उपन्यास में वो था वह चरखारी का था। वहाँ पर मिट्टी या मुरम जो निकलती है, उपन्यास में उसका जिक्र भी है। वह लाल होती थी, कहीं पीली भी होती थी। तो जमीन का रंग और लाल पीला होना माने गुस्सैल होना। माने हिंसा से भरा परिवेश ध्वनित करता है। 'हुजूर दरबार' हुजूर माने राजशाही-सामंतवादी समाज और दरबार माने भी वही, उससे ध्वनित होता है कि स्वतंत्रता से पहले जो राजा थे, वही करीब-करीब स्वतंत्रता के बाद आ गए। थोड़ा सिस्टम बदल गया, अब प्रजातंत्र आ गया पहले राजतंत्र था। लेकिन शासकों का स्वभाव वही रहा तो 'हुजुर दरबार'। इसी तरह 'पाँच आँगनों वाला घर' पाँच आँगन माने सम्मिलित परिवार, 'धूल पौधों पर' लो तो प्रेमी जो कि एकदम साफ़-सुथरे, स्वाभाविक निश्छल होते हैं। उन पर कैसे धूल आ कर बिछ गयी, फिर धूल को अलग करके वे कैसे अच्छे व्यक्ति निकल आते हैं। उस उपन्यास में जो प्रेम प्रकाश है या जो लड़की है ऐसे पात्र हैं जिनसे साधारणतः घृणा होगी, प्रोफ़ेसर अपने  से बहुत छोटी लड़की को प्यार करने लगा और लड़की विवाहिता जो पति और लड़का होते हुए भी प्रेमप्रकाश की तरफ झुक गई। ये धूल है जो बिछ गयी लेकिन धीरे-धीरे दोनों कैसे उत्तरोत्तर अपने को साफ़ करते चले जाते हैं। प्रेम प्रकाश सात्विक हो जाता है, कहता है- 'मैं तुम्हारा मायका हूँ, जो-जो तुमने जीवन में खोया है, वो-वो मैं हूँ शुरुआत हुई थी उसकी मांसलता से। 'शाम की झिलमिल' शाम बुढ़ापे का प्रतीक है, अब बुढ़ापे में वह उत्साहित होना चाहता है, फिर बुझ जाता है, यह है। 'फूल.. इमारतें और बन्दर' में फूल प्रतीक है जो अफसरों को मिलते हैं तरक्की, तैनाती आदि के मौकों पर, इमारतें लालफीता शाही के गढ़ जैसे दिल्ली में ही हैं नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक। जैसे यहाँ हैं विन्ध्याचल और सतपुड़ा भवन माने सचिवालय जहाँ आफीसर बैठता है वो इमारतें। और बन्दर माने अफसर लोग जो इधर से उधर उछल-कूद करते रहते हैं। 'अरण्य तंत्र' प्रांतीय ब्यूरोक्रेसी पर है, जंगल का तंत्र। जहाँ मैं खेलता हूँ उस क्लब के पात्र ज्यादातर प्रांतीय ब्यूरोक्रेसी के हैं। जब ये दफ्तर में बैठते हैं, तो एक खोल ओढ़े रहते हैं उस खोल में सब छुपा रहता है, जैसे बोलेंगे हाँ! हम देखेंगे, आपकी मदद करेंगे। पर दरअसल वे करना कुछ नहीं चाहते। यह खोल है लेकिन क्लब में खेल हैं, खेल में उनका असली स्वभाव प्रकट हो जाता है। अगर चापलूस है तो वह दिख जाएगा। ब्यूरोक्रेसी पर मेरे तीन उपन्यास इस तरह से हैं, एक 'वह/अपना चेहरा', 'फूल.. इमारते है बन्दर', जो रिटायरमेंट के समय का है। 

एक साहब ने मुझसे सवाल किया कि ये बताइए प्रशासन में राजनैतिक पार्टियां बदलती रहती हैं प्रान्तों में, केंद्र में भी लेकिन भ्रष्टाचार बना रहता है तो ये कैसे होता है? फिर खुद ही उन्होंने जबाव दिया कि इसकी वजह आई.ए.एस. अफसर हैं। वही उनको सिखाते हैं कैसे भ्रष्टाचार करें, हर पार्टीवाले को सिखा देते हैं। अफसर हैं अगर अड़ जाएँ कि यह नहीं हो सकता, तो खाका बदल जाय। 'फूल...इमारतें और बन्दर' में एक सल्यूशन दिया गया है कि रिटायरमेंट के वक्त जब व्यक्ति अपने करियर में टॉप पर पहुँच गया हो तो यहाँ अफसरों को अपना लालच बंद कर देना चाहिए। वो सिर्फ ये तय कर लें कि रिटायरमेंट के बाद कोई काम किसी से नहीं मांगेंगे जो कुत्ते के सामने हड्डी की तरह फेंक देते हैं ये नेता लोग, ये जॉब ले लो, वो जॉब ले लो और उसके बल पर उनसे रिटायरमेंट के पहले उलटे-सीधे काम करवाते हैं। अगर सब ये तय कर लें कि रिटायरमेंट के बाद हमें कुछ नहीं चाहिए तो काफ़ी कुछ भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाए। अभी क्या होता है- अगर एक अफ़सर नेताओं के उल्टे-सीधे काम करने को मना करता है, तो उन्हें दूसरा मिल जाता है।

हर कवि या लेखक का अपना एक यूटोपियाई समाज होता है, आपके लेखन में किस तरह का यूटोपिया निर्मित होता है?     

यूटोपिया कहते हैं काल्पनिक आइडियलिस्टिक चीजों को। जिसके ख़्वाब देखे जाते हैं। यह अच्छा सवाल है। बेशक हम एक उपन्यास में ठीक-ठीक प्रस्तुत न कर पाए हों लेकिन लेखक के मन में एक यूटोपिया तो होताहै; मेरा वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में ये है कि हमारा समाज कुछ स्थायी मानवीय मूल्यों पर आधारित हो, फिर भी वह पारंपरिक रूढ़िवादी न हो। जैसे अब आपको अपनी जाति में ही शादी करते हैं या एक लड़की को जहाँ माँ-बाप कहें वहीं ही करना है, तो मैं इसके विरोधी हूँ। लड़की को स्वतंत्रता हो, जाति के ऊपर जाकर लड़का और लड़की का मन मिले तो वहाँ वे शादी करें। लेकिन साथ ये भी मैं चाहता हूँ कि लड़का-लड़की ऐसे न हो जाएँ कि जैसे पश्चिम में है कि माँ-बाप से कोई मतलब नहीं। माँ-बाप की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, खास तौर से, तो उनसे बराबर जुड़े रहना। अब ये यूटोपिया हो गया। इसी तरह मैं कल्पना करता हूँ। जो गाँधी जी का यूटोपिया था कि हमारे समाज में सबकी तरक्की अगर हो सकती है तो इसी तरह कि गाँवों को समृद्ध बनाया जाय, गाँवों के लड़के-बच्चे शहर की तरफ क्यों भागें? यह आज की बात नहीं है। गाँधी जी ने अपनी किताब 'हिन्द स्वराज' में विस्तार से लिखा था, लेकिन हमलोग जो ढांचा अपनाए हुए हैं तो उससे बहुत दूर आ गए हैं। यूटोपिया मेरे मन में दो तरह का है कि हमारे जो पारम्परिक मूल्य हैं, उस पर आधारित समाज हो विकास ग्राम को आधार बना कर किया जाय। नई कुछ जो अच्छी चीजें आती हैं उन्हें, अपनाया जाय लेकिन टेक्नोलॉजी की बहुत सारी ऐसी चीजें आयी हैं जिनसे बचना चाहिए। अब मोबाईल का क्रेज इतना हो गया है कि लोग किताबें पढ़ना भूल गए। स्टूडेंटस भी वही करते हैं। कहते हैं कि हम तो इंटरनेट से ये निकाल लेंगे वो निकाल लेंगे, अब इंटरनेट किताब की जगह नहीं ले सकता। जैसे टेलीवीजन से लोग थक गए हैं ऐसे ही मोबाईल से एक दिन थक जायेंगे किताब रहेगी।

डॉ. अनिल कुमार- आपने अपने लेखन में भारतीय नौकरशाही पर तीक्ष्ण प्रहार किया है, आप इस व्यवस्था की  कार्य प्रणाली पर क्या कहना चाहेंगे?

गोविन्द मिश्र- प्रहार तो नहीं किया है मैंने दिखाया है जो यथा स्थिति है। आप प्रहार कह लीजिये जो मैंने अभी-अभी बताया कि हमारे जो शीर्ष पदों पर बैठे अफसर हैं, चाहिए कि उनकी इनिंग्स पूरी हुयी अब नयों को मौका दो। अगर हम यह सोचते हैं कि ऐसा कानून बन जाए कि रिटायर होने पर किसी को कुछ दिया ही न जाय; तो यह तो नेता कभी नहीं होने देंगे, शीर्ष अफसरों के इसी लालच का फ़ायदा उठाकर ही तो वे उनसे अपने गलत-सही काम कराते हैं। ब्यूरोक्रेसी को न्यूट्रल होना चाहिए, न्यूट्रल माने वह किसी के पक्ष में, इधर या उधर नहीं। न भारतीय जनता पार्टी के न कांग्रेस के। सिर्फ ये देखे कि इस काम को करने से जनता का भला होता है कि नहीं। जनता माने सारी जनता का। जब स्वतंत्रता नयी-नयी आयी थी तो ये ख्याल था, लेकिन आज हालात ये हो गए हैं कि हर पार्टी जो आती है अफसरों को अपनी तरफ मोड़ लेती है और ये लालच में उधर मुड़ जाते हैं। अगर दो-चार अफसर निर्भीक हुए तो उनको हटा कर साइड लाइन में डाल दिया कितने चमचे उधर मुँह बाये खड़े हैं अभी भी काफी हद तक हमारी शीर्ष ज्यूडिशरी निष्पक्ष है। हालाँकि बीच-बीच में आलोचना उसकी भी होती है। उन्हें भी रिटायर्मेंट के बाद ये नेता लोग देते हैं। मानवाधिकार कमीशन का चेयर मैंन बना दिया बगैरा। कुलमिलाकर सेना और ज्यूडिशरी में कम है, लेकिन  ब्युरोक्रेसी तो जो भी पार्टी पावर में आयी है उसके लिए मुर्गा बनने को तैयार रहती है।

ज्यूडिशरी की बात करें तो अभी पिछले दिनों न्यूज पेपर में आया था कि बहुत सारे सुप्रीमकोर्ट के जज जो हैं बाहर निकलकर कर आये और उन्होंने यह आरोप लगाया कि उनको ठीक से काम नहीं करने दिया जा रहा है। न्यायिक प्रणाली की अगर हम बात करें वर्तमान समय की सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही है?

वो तो उनका काफी हद तक आतंरिक मामला था। इनमें अहम समस्या होती है। सुप्रीम कोर्ट के जज करीब-करीब बराबर होते हैं, उसमें एक मुख्य न्यायाधीश हैं जिनको यह पावर है कि कौन से केस के लिए कौन सी बेंच बनाएँ? उसमें अब अगर आपको अहम आ जाता है तो वे अपने ढंग से करने लगते हैं जो  थोड़ा स्वाभाविक है, यह भी कि उससे दूसरों को थोड़ा तकलीफ होगी। इस पर हम लोगों को ज्यादा तरजीह नहीं देना चाहिए। हम ये मान कर चले सकते हैं कि अभी तक हमारी ऊपर की ज्यूडिशरी यहाँ तक कि हाईकोर्ट ने कुलमिलाकर निराश नहीं किया है।

कुर्सी का खेल 'हुजूर दरबार' में जिस तरह से व्यक्त हुआ है, समकालीन राजनीति एवं उस समय राजनीति में क्या फर्क या समानता दिखाई पड़ती है?

'हुजूर दरबार' बहुत पहले लिखा गया था, मेरा संभवतः चौथा उपन्यास होगा। उसके बाद बहुत पानी गंगा में बह गया, हालात और बिगड़ते चले गए हैं। मैंने 'हुजूर दरबार' उपन्यास में कुछ ऐसी चीजें रख दी थीं जो आज के समय ध्यान में रखी जा सकती हैं जैसे 'पाँच आँगनों वाला घर' लिखने के पीछे भी यही था कि सम्मिलित परिवार आप जैसे लड़के देखे ही नहीं हैं या जानते ही नहीं होंगे। चूँकि हमने थोड़ा देखा है इसलिए उसे लिख देते हैं। इसी तरह 'हुजूर दरबार' है। तो राजतंत्र में भी कुछ चीजें बहुत अच्छी थीं। चरखारी स्टेट जहाँ मेरा बचपन बीता वहाँ पथरीली जमीन है, लेकिन राजाओं ने पहाड़ियों के चारों तरफ तालाबों का ऐसा जाल बिछा रखा था कि आज तक वहाँ पानी की समस्या नहीं हुयी। इस भोपाल में जहाँ ये बड़ा तालाब है यह कभी भोपाल से लगाकर भोजपुर तक फैला हुआ था। ये आजकल के लीडरान और अफसरान की मिली भगत से लगातार सिकुड़ता चला गया है, इससे पानी की समस्या होने लगी है। तो ये पानी का ध्यान, परिवारों, पर्यावरण का ध्यान राजा लोग रखते थे, दूसरे नौकरी का जो आज भारत की बड़ी समस्या है। राजाओं के वक्त कोई प्रस्ताव लेकर आता था तो यह कह कर पता लगा लेते थे कि उस परिवार में कोई कमाने वाला है की नहीं। अगर नहीं है तो उसे वरीयता दी जाती थी। लियाकत, काम ये आ जायेंगे। इसी तरह न्याय 'हुजूर दरबार' में, राजा जाता है शिकार खेलने वहाँ एक औरत जिसके साथ दुर्व्यवहार हुआ है, वह शिकायत लेकर आती है। राजा वहीं पर लोगों से दरियाफ्त करके आदेश देते हैं कि अभियुक्त को वहीं सबके सामने सजा दी जाय, औरत उसे तब तक मारे जब तक थक न जाय। आलोचकों ने आरोप लगाए थे कि गोविन्द मिश्र तो प्रजातंत्र को हटाकर राजतन्त्र लाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है। प्रजातंत्र की कितनी बढ़िया चीजें हैं, जो हमें उससे मिली है, जैसे स्वतंत्रता। हालाँकि दुनिया में अब प्रजातंत्र प्रणाली पर दवाब आ रहा है। रूस, चाइना, मिडिल ईस्ट इन सब में तानाशाही है, हमारे यहाँ अभी नहीं आ पायी इतना है कि पार्टी के ऊपर के लोग भले ही डेमोक्रेसी में विश्वास रखते हों लेकिन उससे शह लेते  हुए नीचे के लोग तानाशाही हरकतें करने लगे हैं। जैसे चुनाव हैं फिर भी आप विपक्ष के आदमी को बोलने ही न दें। मेरा यूटोपिया वाली जो बात आप कर रहे थे पहले, तो राजतंत्र हो या प्रजातंत्र हो, कोई तंत्र हो उसमें 'फ्रीडम आफ स्पीच, बोलने की स्वतंत्रता, विचारों की स्वतंत्रता ये तो बुनियादी चीजें हैं, रहना चाहिए।

आपकी रचनाओं में बुंदेलखंड की सामाजिक स्थिति का उल्लेख बहुत ही बारीकी से किया गया है, यहाँ भूख, गरीबी अशिक्षा से जीवन त्रस्त है, बुंदेलखंड के विकास के रास्ते क्या हो सकते हैं?

बुंदेलखंड में मेरा बचपन बीता है। एक तरह से कह सकते हैं कि जो फार्मेटिव पीरियड था जिसमें व्यक्तित्त्व बनता है वो बुंदेलखंड में दिखता है। भवानी प्रसाद मिश्र ने 'लाल पीली जमीन' के बारे में लिखा भी था कि बुंदेलखंड खंड का जन्म से मरण तक कोई पहलू ऐसा नहीं है जो इसमें आया न हो। लेकिन सिर्फ बुंदेलखंड का होकर मैं न रह सका क्योंकि, कुल मिलाकर सचेतन अवस्था के तीन-चार ही बरस तो उधर बीते बाकी मैंने भारत के दूसरे हिस्से देखे, विदेश के भी देखे तो इस तरह से फैलाव हुआ। लेकिन जो वहाँ की समस्याओं की बात है, आधिकारिक रूप से तो मैं नहीं बता सकता कि उनका क्या हल है, लेकिन मुख्य समस्या गरीबी और पानी हैं, खेती की समस्या, वहाँ का स्वभाव है अक्खड़ता, लठैती, हिंसा की तरफ झुकने वाला। ऐसा नहीं है कि इनका इलाज नहीं किया जा सकता। अगर अहमदाबाद में नर्मदा का पानी पहुँच सकता है तो बुंदेलखंड से कितनी नदियाँ गुजरती हैं। एक सज्जन ने प्रयाग संगम में मुझसे कहा कि देखो गंगा में पानी कितना कम है, और जमुना कितनी गहरी तो मैंने उन्हें बताया जमुना में पानी जो है, वह जमुना का नहीं है। वो पानी है, केन, धसान, बेतवा, चम्बल आदि नदियों का जो बुंदेलखंड से आ रही हैं। अब जिस प्रदेश में इतनी नदियाँ हों उनका इस्तेमाल कुछ ऐसा कर दिया जाय, कि पानी की समस्या, सूखे की, खेती की ये हल हो सकती हैं। असल बात यह है कि हमारे उत्तर प्रदेश को आज तक अच्छा प्रशासन नहीं मिला। चूँकि ऊत्तर प्रदेश  पूरे देश की राजनीति तय करता है, प्रधानमंत्री वहीं के होते हैं, इसलिए और भी मारामारी मची रहती है कोई वहाँ स्थानीय समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दे पाता।  नहीं तो वहाँ सब कुछ है। अच्छा! बुंदेलखंडियों जो स्वभाव है, अक्खड़ता, लठैती वगैरा अगर लड़कों को काम मिले, किसान को अपनी जमीन के लिए पानी मिलता रहे सूखा न पड़े तो उनके स्वभाव में भी बदलाव आ सकता है।
       
गोविन्द मिश्र जी आप किस विचारधरा से प्रभावित है?
किसी विचारधारा से नहीं। गोविन्द मिश्र सिर्फ गोविन्द मिश्र की विचारधारा से प्रभावित हैं। मैंने एक जगह साक्षात्कार में कहा भी है कि मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव मेरे खुद का है। साहित्य में विचारधारा का महत्त्व है, इसलिए कि साहित्यकार अन्याय के खिलाफ होगा, वो मनुष्य से सहानुभूति, प्रेम रखेगा ही रखेगा नहीं तो लिख ही नहीं सकता। अगर आप मार्क्सवाद को कहते हो कि वो समानता की बात करता है, कैपलिस्ट या अमीरों के खिलाफ हैं, तो इसके लिए मुझे भाव-विचार जरूरत क्यों हो? प्रेमचंद को लोग घसीट लाये कि वे मार्क्सवादी हैं, वे थे नहीं यह जैनेन्द्र कुमार ने कई जगह कहा है। प्रेमचंद की कहानी 'बड़े घर की बेटी' पढ़िए वह रईस घर की है जहाँ से अच्छे संस्कार लेके ससुराल में आयी है। अब विचारधारा में ये होता है कि आप घोड़ा जो तांगे में जुता होता है जिसकी आँख में पट्टी लगी होती है कि वह सिर्फ सामने देख सकता है, इधर-उधर नहीं तो हर रचना विचारधारा की तरफ मोड़ देते हैं जो नहीं होना चाहिए। मैं खुलेपन का हिमायती हूँ। विचारधारा कहना चाहते हैं तो मैं खुला रहना चाहता हूँ। हो सकता है कि कल तक एक रचना में मैं जिसको कहते हैं राइटिस्ट या लेफ्टिस्ट कुछ रहा हूँ, आज मैं बदल सकता हूँ। साहित्यकारों में बदले हैं नरेश मेहता, निर्मल वर्मा। निर्मल जी पहले कम्युनिस्ट थे, छोड़ दिया जब चेकोस्लोवाकिया में उनको तानाशाही दिखी। अब मुझको, शैलेश मटियानी व निर्मल वर्मा को इस तरह से लोग देखते रहे हैं कि ये चूँकि लेफ्टिस्ट नहीं हैं तो जरूर उधर के होंगे जबकि हम तीनों में सिर्फ ये है कि भारतीय परंपरा में जो अच्छी चीजें हैं, उनके लिए हम डिफेंसिव क्यों हों, जो अच्छी हैं उनको हम क्यों न आगे बढ़ाएं। इसको अगर आप कहते हो राइटिस्ट हैं तो कहिये। अगर कांग्रेस की सरकार हो तो मुझे समझा जाता है कि मैं बीजेपी का आदमी हूँ, और बीजेपी की सरकार रहती है तो लोग समझते हैं कि दूसरी तरफ का हूँ। मैं खुश हूँ कि मुझे चाहिए भी कुछ नहीं।

शिक्षा व्यवस्था पर आपके उपन्यासों में काफी कुछ लिखा गया है, वर्तमान समय में शिक्षा एवं मूल्यों को किस दृष्टि से देखते हैं?

देखिये शिक्षा तो अब इतनी भर रह गयी है कि लोग थोड़ी सी भाषा सीख लेते हैं, वो भी ठीक से नहीं आती है। अभी एक लड़का आया था, दिल्ली विश्वविद्यालय का पढ़ने में होशियार था, अच्छे अंकों से एम.ए. किया था। वह मुझ पर किताब लिख रहा था कि 'गोविन्द मिश्र के उपन्यासों के मार्फत भारतीय परिवार में स्वतंत्रता के बाद जो परिवर्तन आये' उन्हें ट्रेस किया जा सकता है। मैं खुश हुआ कि यार बड़ा अच्छा आइडिया है जरूर लिखो। जब उसने मुझे देखने के पांडुलिपि दी तो मैंने देखा कि उसे हिंदी लिखना नहीं आती, आइडिया इतना जबर्दस्त और अच्छे से डिस्कस कर सकता है लेकिन हिंदी लिखना नहीं आता। तो शिक्षा की हालात तो यह है कि अब न अंग्रेजी आती है, न हिंदी आती है और ज्ञान तो कुछ नहीं। हमारे नेताओं के लिए भी वे चाहे इस पार्टी के हों चाहे उस पार्टी के शिक्षा उनके ध्यान में सबसे नीचे स्तर पर है, उसे बढ़ाने की उनको कोई दिलचस्पी नहीं। मैं जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता था तो हमारे प्रोफेसर को अधिकार होता था कि लेक्चरर की खाली जगह आप भर सकते हो, किसी मैरिट वाले लड़के को देख के और जो पढ़ाने में भी होशियार निकले। बाद में उसकी रेगुलर पोस्टिंग के लिए इंटरव्यू प्रक्रिया वगैरा हो जाएगी। उस वक्त इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हर विभाग में विख्यात प्रोफेसर होते थे।  हमारे प्रो. देब थे, चैथम लाइन्स में उनका बंगला था, आगे बड़ा सा कमरा था जिसमें चारों तरफ किताबें ही किताबें होती थीं। मुझे बड़ा शौक था पढ़ाने का, पूना यूनिवर्सिटी मैं बार-बार जाता रहा, अभी भी जाता रहता हूँ, जो यूनिवर्सिटी-कालेज बुलाते हैं। हिंदी मैंने इंटर तक पढ़ी, लेकिन मैं देखता हूँ कि मुझे हिंदी साहित्य के बारे में ज्यादा ज्ञान है बनिस्बत वहाँ के प्रोफेसरों के। पूना यूनिवर्सिटी में एक जमाना था आज से 20 साल पहले तक कि वहाँ मेंरे भाषण के बाद गर्मागर्म बहस होती थी। स्टूडेंट्स, प्रोफेसर सब होते थे। अभी बीस दिन पहले होकर आया, हेड ने शुरू करा दिया, फिर मैं व्यस्त हूँ कहकर चला जाता है, कोई दिलचस्पी नहीं। उस समय आनंद प्रकाश दीक्षित हेड थे पूरी फैकल्टी बैठी रहती थी, पूरा डिपार्टमेंट कि एक लेखक आया है सुनें तो। नेता लोग तो शिक्षा को तरजीह देंगें ही नहीं क्योंकि उन्हें यही सूट करता है कि अशिक्षित वोटर हों जिनको बहलाया जा सकता है, फुसलाया जा सकता है। पढ़ा-लिखा होगा तो दस तरह से सोचेगा तो वे कुछ करेंगे नहीं फिर तो कैसे होगा सत्यानाश ही होता चला जायेगा। मेरा अपना मानना है कि दो क्षेत्रों में आरक्षण कोटा-फोटा ये नहीं होना चाहिए, कहना चाहिए तीन क्षेत्रों में-एक शिक्षा, दूसरा-मेडिसिन/डाक्टरी तीसरा न्याय। इसमें सिर्फ मेरिट होना चाहिये। न्याय बचा हुआ है क्योंकि वहाँ उनकी अपनी संस्थाएँ हैं, कानून पढ़ाने के लिए जैसे यहाँ 'अकेडमी आफ ला' अलग है। लेकिन बाकी शिक्षा का सत्यानाश हो चुका है। आगे साहित्यकार ही कहाँ से आयेंगे अच्छी शिक्षा की बुनियाद तो चाहिए। पाठक में भी चाहिए वही जब ख़त्म हो जायेगी तब क्या, लेकिन ये ऐसे अंधे लोग हैं आजकल के। पुराने वक्त की फिर वही राजाओं की बात। चरखारी में उस वक्त की अच्छी बिल्डिंग जो थी उनमें एक राजकीय कन्या विद्यालय को दी थी। मैं जिस स्कूल में आठवें दर्जे तक पढ़ा गंगासिंह हाईस्कूल इसकी इमारत महल जैसी लगती थी और टीचर्स की क्या कद्र थी।  मिसिज क्लार्क कन्या विद्यालय में हैड मिस्ट्रेस थीं उन्होंने मेरी माँ जो अतर्रा के एक स्कूल में पढ़ाती थीं, उनको अतर्रा में एक नुमाइश में देखा, वो इतनी प्रभावित हुईं, उन्हें अपने साथ चरखारी ले आयीं। एक वह समय और आज रोज मैं पढ़ता हूँ अखबारों में कि फलाँ जगह बिल्डिंग ही नहीं है, टीचर्स तो कहीं है ही नहीं और उन्हें मजदूर बना दिया गया है, कि आओ पचहत्तर रूपया मजूरी तुम्हें मिलेगी एक दिन की,   पढ़ाओ और चले जाओ। बेचारे अध्यापक डेली वेजर हैं। होना चहिये कि स्कूल की अच्छी इमारत हों अध्यापकों की स्थायी फैकल्टी हो, जहाँ शिक्षा को समर्पित लोग हों पढ़ाई में आयें। जब टीचर्स ही अच्छे नहीं होंगे तो शिक्षा कहाँ से आयेगी।

'पाँच आँगनों वाला घर' उपन्यास में एक पात्र है सन्नी जिसने उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति को जो आरक्षण बेस पर आधारित थी उनको उन्होंने जातिवादी कहकर आलोचना की है। यदि आज उस तरह के पात्रों की सृष्टि की जाती तो आपकी राय क्या होती जबकि 10 प्रतिशत आरक्षण बीजेपी सरकार लागू कर चुकी है।

जो अभी-अभी कहा उसमें यह बात आ जाती है कि आरक्षण होना चाहिए, इसलिए होना चाहिए की जो जातियाँ जो सदियों से पिछड़ी हैं आगे बढ़ें। हमारे संविधान बनाने वालों ने यह अच्छा काम किया था कि 50 वर्ष तक आरक्षण सिड्यूल कास्ट और सिड्यूल ट्राइब को मिले। धीरे-धीरे यह वोट बैंक में बनता चला गया। यह विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय से शुरू हुआ, उन्होंने अपनी कुर्सी बचाने के लिए ये काम किया वरना जो हमारे संविधान में पहले तय था उतना ही होना चाहिए था। अभी क्या है कि हर जाति-उपजाति आरक्षण माँगती है, आपने ओबीसी का दरवाजा खोल दिया, अब हर कोई ओबीसी अपने को डिफाइन करता है। इस तरह एक जातिवाद बढ़ेगा और एक जाति दूसरे से लड़ती रहेगी। आज गुर्जर समाज, पाटिल समाज ये आरक्षण माँगते हैं। ये सब रईस हैं। आरक्षण शौर्टकट है तो लगा दिया और उससे अपनी जाति का लीडर भी बन गए। दोनों तरफ से फायदे हैं। सुप्रीमकोर्ट कहता है ओ.के. भाई पचास प्रतिशत सीमा रखो आरक्षण की। तो इस बहाने या उस बहाने उसे नहीं मानते। आरक्षण को एक अपनी पार्टी के लालच, वोट बैंक का लालच इन सब से ऊपर उठकर देश के संदर्भ में देखना चाहिए। एक यह कि पुरानी जो हमारी संविधान में सिड्यूल कास्ट, सिड्यूल ट्राइब की बात 50 वर्ष के लिए थी अब उसकी जगह शिक्षा के अवसर बढ़ाइए। एक परिवार मं, अगर उसका फायदा उठाया है, तो फिर उस परिवार को जिसे क्रीमिलियर कहते हैं आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। और जैसा मैंने ऊपर कहा कि हमारे देश के विकास से सम्बंधित जो बहुत ही बुनियादी क्षेत्र हैं, वहाँ आरक्षण नहीं होना चाहिए, जैसे शिक्षा।  अगर तुम्हारा समाज ही अशिक्षित हो जाएगा तो क्या होगा। नेताओं को भी अपना काम कराने के लिए योग्य अफसर मिलेंगे क्या? तीसरी बात यह कि सुप्रीमकोर्ट ने जो कैप रख दी 50 प्रतिशत। अगर आप इससे ज्यादा बढ़ाओगे अपने फायदे के लिए तो देश के मेरिट वाले प्रतिभाशाली लड़के कहाँ मिलेंगे वे विदेश को भागेंगे। चौथी और अंतिम बात कि एक समय सीमा तय कर ली जाय कि उसके बाद देश में कोई आरक्षण नहीं होगा।   
      
आपके उपन्यासों में स्त्री पात्र बहुत सशक्त रूप में उभर कर आये हैं, किन्तु वो कहीं भी पुरुष सत्ता को चुनौती देती नजर नहीं आती हैं, सिवाय एक पात्र अजब...जो 'कोहरे में कैद रंग' में है।

सत्ता से आपका मतलब प्रशासन, या परिवार में पैतृक या पति की सत्ता से होगा। मेरे स्त्री पात्र सशक्त हैं, वो अपने संघर्ष में बड़े ही जेनुइन, ईमानदार और हिम्मत वाले हैं। उनकी परिस्थिति विकट है जहाँ से वह शुरू करती हैं, कोई भी स्त्री देख लीजिये मेंरे उपन्यासों में, वहाँ वो जीवित हैं यही बड़ी बात है, फिर संघर्ष कर रही हैं यह और भी बड़ी बात है। संघर्ष माने किसी के खिलाफ ही नहीं होता है, संघर्ष माने किसी तरह अपने को बचाए रखना जीवित रखना यह भी है, जिओगे नहीं तो मरोगे। पहले संघर्ष होता है अपने को बचाने का, जिओगे तभी तो कुछ कर सकोगे। मेरे अधिकाँश स्त्री पात्र जीते रहने का संघर्ष करती हैं। जिसका उदाहरण आपने दिया अजब वह कोई चुनौती नहीं दे रही है, बिगड़ैल महिला है, व्यभिचारिणी। स्त्री का बुनियादी स्वभाव है पालना, जो हमारे यहाँ भगवान विष्णु का है। पालना माने विध्वंसकारी होना नहीं होता। मेरे स्त्रीपात्र हमारे समाज में स्त्री को आप देखिये संतान को बचाने के लिए वह हमेशा खड़ी होती है, चाहे पति शराबी हो कोई भी क्यों न हो? यही उसका संघर्ष है। जहाँ परिवार टूटते हैं तो देखिएगा कि आदमी तो अपने पैदा किये हुए बच्चों को छोड़कर चला जाता है, स्त्री अपने बच्चों के साथ जिसके लिए वह जिम्मेदार नहीं थी अनचाहे पैदा हो गए, अगर वो न होते तो उसकी नई जिन्दगी शुरू हो सकती थी लेकिन वह उन बच्चों को भी पालने के लिए खड़ी रहती है हर हाल में। 'धूल पौधों पर' की लड़की अपने लड़के को लेकर कितनी बेचैन है। नौकरी छोड़कर घर फिर ट्राई करने आ जाती है। यह स्त्री का असली रूप है, माने बचाए रखना। अपने को भी और अपने ऊपर आश्रित बेटे को भी जो उस पति से है जिससे वह घृणा करती है। अब आप कहते हैं कि चुनौती देती नजर नहीं आतीं। क्या झंडा लेकर नारेबाजी करें। उसकी चुनौती यही है कि अपने को रखती है, फिर परिवार और बच्चों को बचाए रखती।

आप अपने उपन्यासों में विवाह के साथ प्रेम का विकल्प भी देते हुए चलते हैं, क्या भारतीय समाज इससे प्रभावित या प्रेरित हो सकता है?

देखिये भारतीय समाज हो या कोई समाज अगर आप सोचते हैं कि वह लेखक से प्रेरित होता है तो ये नहीं है। हाँ लेखन व्यक्ति को जरूर प्रभावित करता है। क्योंकि किताबों से हमारा साक्षात्कार अपने एकांत से होता है हम एकांत में किताब पढ़ते हैं। मेरी किताबों का असर यह हुआ है। मेरे पास एक पत्र आया था, 'कोहरे में कैद रंग' की नानी का चरित्र देख एक औरत ने आत्महत्या का ख्याल छोड़ दिया यह असर है। एक रजिया खान थी वो बड़ी थी परिवार में, परिवार उसका इस्तेमाल करता था कि तुम कमाओ और भाई-बहनों की परिवरिश करो। तो उससे  छोटे भाई-बहनों की शादी होती चलती है उसकी अपनी जिन्दगी अटकी पड़ी है वह रहती है। उज्जैन में दो-एक लेखक सम्मेलन में मुझसे यहाँ मिलने आयीं अपने पति से बोली, देखिए मैं इनकी वजह से जिन्दा हूँ, मेरे साहित्य से उससे अपना जीवन संवारने की प्रेरणा मिली। जो आप चुनौती-फुनौती कह रहे वह सीधे-सीधे हैं, 'खुद के खिलाफ' कहानी में है- वहाँ औरत अपने प्रेमी और पति दोनों को कहती है कि तुम साले दो कौड़ी के लोग हो सीधे-सीधे। लेकिन इस विरोध से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है वैसा विरोध जो 'ज्वालामुखी' कहानी में आया है। सनी देखने आयी सावित्री सनी की राख ले चिल्लाकर कहती है-तू जानती है जीवन का जलना, रोज-रोज जलते हुए जीना क्या होता है! मैं लेकिन यह बात आपके इससे पहले वाले प्रश्न को लेकर थी। अब आपके प्रश्न पर आता हूँ। विवाह जिस तरीके का हमारे समाज में है उसके विरोध का स्वर उठाता रहा हूँ और यह भी सही है कि उसका आधार मैंने यही रखा है कि प्रेम अगर नहीं है तो वो विवाह नहीं होना चाहिए। इसलिए मैंने अपने जीवन में अपने बच्चों को यह स्वतंत्रता दी कि वे प्रेम विवाह कर सकते हैं। मेरी बेटी इस तरह की नहीं थी कि अपना प्रेमी ढूँढ़ ले तो मैंने एक प्रस्ताव उनके सामने रख दिया और कहा की छः महीने तुम लोग घूमों-फिरो, एक-दूसरे को समझ लो जब तुम दोनों एक-दूसरे को इतना पसंद करने लगो कि प्रेम महसूस होने लगे तो हमें बताना, तब हम लड़के के माँ-बाप से बात करेंगे। 

अब हमारे यहाँ जो पुराना विवाह का तरीका था उसमें ये होता था कि प्रेम-वेम कुछ नहीं आपकी शादी हो जाना है और फिर जीवन भर उसके साथ निभाना है। इसलिए निभ जाती थी कि तब लड़की पढ़ी-लिखी कमाऊ नहीं होती थी, उसके पास ऐसे मौके नहीं होते थे। उस वक्त विवाह चल जाते थे क्योंकि हमारे कुछ मूल्य तब तक थे। अब हमारी शायद आखिरी पीढ़ी है जिसके पास जो ये मूल्य हैं कि एक बार जिस महिला का तुमने हाथ पकड़ा, गलत या सही, तो प्रेम हो न हो उस धर्म को निबाहना है। माने अपने लिए-प्रेम और विवाह। प्रेम नहीं भी हो तो भी विवाह के धर्म को निबाहना है। मेरी एक कहानी 'युद्ध' है उसमें बेटा-बाप लड़ते हैं। बाप कहता है, मैं तुझे कुछ नहीं दूँगा, घृणा करता है बेटे से पुश्तैनी चला आ रहा है यह बाप-बेटे का झगड़ा हुआ लेकिन आखिर में बाप कहता है कि ठीक है, मेरी इससे लड़ाई है लेकिन मैं पिता के धर्म से च्युत नहीं होऊँगा। पिता का धर्म है कि जो मैंने उसके लिए  मकान बनवाया है वो इसको देके जाऊँ। इसी तरह पत्नी के लिए धर्म है। बूढ़ा-बुढ़िया के बीच धर्म है कि जो लाचार हुआ उसकी देखभाल दूसरा करे। मेरी एक ताजा कहानी 'घायल' ज्ञानोदय के जनवरी अंक में आयी है। उस कहानी में उस व्यक्ति में आजीवन पत्नी से झगड़ने वाले व्यक्ति में करुणा जागृत होती है की भाई एक बूढ़ी है, दूसरे स्त्री, तीसरे अर्ध विक्षित इन तीनों के लिए तो करुणा ही उठेगी। फिर जिस व्यक्ति में जैसे उसकी पत्नी में ये तीनों चीजें मिली हों, कैसे उसे करुणा नहीं देंगे। हमारी पीढ़ी आख़िरी है जैसे मूल्य थे। अब अगर विवाह अरेंज होते रहेंगे तो कोई पति बुढ़ापे में यह नहीं सोचेगा कि मुझे इसका ख्याल करना है, पश्चिम का प्रभाव होगा इस तरह कि तुम अपना देखो मैं अपना।  इसलिए अब प्रेम विवाह ही होना। 
        
आप अपनी रचनात्मक विकास यात्रा के बारे में थोड़ा बताएँगे?

तुम्हारा शोध मेरे उपन्यासों पर केन्द्रित है तो 'वह/अपना चेहरा' से शुरू करके 'खिलाफत' तक मेरा यह चौदहवाँ उपन्यास है, विकास यात्रा देख लो। एक चीज जो सब लोगों ने कही है कि मैं हर उपन्यास में अलग-अलग विषय, नए-नए परिवेश उठाता हूँ। अब उसमें कलात्मकता कितनी आयी है? आप लोग देखोगे।

बुंदेलखंड की एक साहित्यिक परंपरा रही है, पद्य से लेकर गद्य तक, आपके लेखन पर उसका प्रभाव किस रूप में है?
बुंदेलखंड के साहित्य की परंपरा का प्रभाव नहीं है, लेकिन भाषा पर बुन्देलखंडी का प्रभाव जरूर है। मेरा भाषाई आधार बुंदेली है क्योंकि बचपन में जो बोली अगल-बगल सुनी थी, माँ-बाप और रिश्तेदारों के मार्फत जो बोली मुझ तक आयी वह काफी सशक्त थी। अज्ञेय जी ने जब 'लाल पीली जमीन' की गोष्ठी अपने घर पर की थी तब उन्होंने कहा था कि इस उपन्यास ने कितने ऐसे शब्द दिए हैं जिसे साधु हिंदी ग्रहण कर सकती है। लोकभाषा बुन्देली के कितने शब्द, मुहावरे उपन्यासों में मुख्यतः 'लाल पीली जमीन' में आये हैं। और प्रभाव थोड़ा सा संस्कृति का कह सकते हैं, वह लेकिन पढ़े-लिखे साहित्य का तो नहीं है। एक यह भी वजह है कि ब्रज में जैसे छपा हुआ पुराना साहित्य मिल जाता है बुंदेली में उतना नहीं मिलता। बड़े कवियों को छोड़ दीजिये थोड़ा-बहुत केशव, पद्माकर आदि का मिलता है। तुलसीदास तो अवधी के हो जाते हैं। बुन्देली साहित्य का वह प्रभाव मुझ पर नहीं है, भाषा और संस्कृति का है। बुन्देलखण्ड त्यौहार आदि उपन्यासों में उतरे हैं।

दुनिया के कहानीकार एवं उपन्यासकार उनका प्रभाव ?

पढ़ा मैंने काफी है। उत्सुकता वश पढ़ा है, ये नहीं कि उनकी नकल है। दोस्तोव्ह्स्की मुझे बहुत पसंद है, उनका उपन्यास 'ब्रदर्स कोरोमोजोव' चार-चार, पाँच-पाँच बार पढ़ा है लेकिन प्रभाव किसी का पड़ा हो ऐसा ख्याल नहीं। हाँ चकित जरूर हुआ संवेदना से का भावनाओं के दुर्लभ कोने तक वे जाती हैं। इधर आधुनिक कथाकारों में मारक्वेज मुझे बहुत अच्छे लगे 'वन हंड्रेड इयर्स आफ़ सौलीच्यूड', 'लव इन टाइम्स कौलरा' अच्छे उपन्यास हैं। तोलस्तोय तो क्लासिकल के माहिर हैं ही, ख़ास तौर से उनका 'वार एंड पीस' कितना लंबा परिवेश लिया है उन्नीसवीं सदी के रूसी उपन्यास बहुत ही अच्छे हैं। शुरू में मैंने 'वार एंड पीस' का संक्षित्प संस्करण पढ़ा था लेकिन उसमें वो मजा नहीं है, जो पूरा लम्बे उपन्यास में है। लेकिन प्रभाव, मैं नहीं समझता कि वैसा कुछ हुआ अब कोई लोग ढूँढ़ लें तो ढूँढ़ लें वह दूसरी बात है। सोल्जेनित्सिन का प्रसिद्ध उपन्यास 'गुलाग आर्की पिलोगो' है। साइबेरिया में कम्युनिस्ट शासन से सताए हुए जो लोग थे, उपन्यास में उनके इंटरव्यू हैं उनसे बड़ा उपन्यास बनाया। उन्होंने इसी तरह प्रमाणिक बनने की कोशिश की कि सबूत दे सकें कि कम्युनिस्ट तानाशाही ये थी। लेकिन कलात्मक दृष्टि से उनका ज्यादा अच्छा उपन्यास 'कैंसर वार्ड' है। उन्होंने जिस हद तक इस चीज का बीड़ा उठाया कि अपने देश की सरकारों को कठघरे में लेखक नहीं खड़ा करेगा तो कौन करेगा? मैं उससे  सहमत नहीं हूँ। सरकारें बदलती रहती हैं। दोस्तोव्ह्स्की के वक्त जार की तानाशाही थी और वहाँ भी दण्डित करने साइबेरिया भेजे जाते थे। कम्युनिस्ट के समय उन लोगों की तानाशाही के कारण भेजे जाने लगे। आगे तानाशाही किसी और की होगी लेकिन इन समयों में मनुष्य के स्तर पर जो आदमी कठिन समय बिताता है, दुःख झेलता है उसके  आपसी संबंधों पर जो असर होता है। व्यवस्था का, काल का और उस वक्त जो प्रशासन है उसका, उसकी राजनीति का, ये एक चिरंतन धारा है, मुझे लगता है कि लेखक का क्षेत्र यह है। मैं दूसरे लेखकों को सलाह नहीं दे सकता, उनका अपना रास्ता है। मेरा जो रास्ता है जो निर्मल वर्मा जी ने मेरी कहानियों के संदर्भ में कहा था कि मैं उतना दिखाता कि किस व्यवस्था या सरकार का असर है, जितना यह कि आदमी किस तकलीफ से गुजर रहा है उसका दुःख। इसलिए सोल्जेनित्सिन का प्रशंसक नहीं हूँ, जितना दोस्तोव्ह्स्की का। दोस्तोव्ह्स्की में कालजयीता नजर आती है- 'ब्रदर्स कोरोमोजोव' हो या  क्या 'क्राइम एंड पनिस्मेंट' हो। इसी तरह तोलस्तोय है। एक तरह से कह सकते हैं कि सोल्जेनित्सिन सामायिक साहित्यकार हैं, जबकि दोस्तोव्ह्स्की कालजयी।

समकालीन दौर में कौन-कौन सी ऐसी चुनौतियाँ हैं, जिनसे कथाकार को जूझना पड़ रहा है?

एक तो सर्वव्यापी है; पूरे विश्व के सामने क्या पृथ्वी पर मनुष्य की जाति बची रहेगी? दुनिया में मूर्ख किसिम के नेता आ गए हैं और उनके पास बहुत ताकत है। चाहे वह ट्रंप हो, चाहे पुतिन हो, चाइना के हों, ये सब मानवता की, मनुष्य जाति की, मनुष्य की नस्ल ही के पृथ्वी पर बने रहने की कोई चिंता नहीं करते। भारतीय परिवेश में कहूँ तो सबसे बड़ी चुनौती जो नजर आती है वह यह कि हमारे यहाँ पहले जो ज्ञान या जो शिक्षा थी क्या उसकी परंपरा आगे चल पायेगी कि नहीं। अगर शिक्षा नहीं है तो हम अपने जीवन की पहचान, अपने समय की पहचान कुछ भी नहीं कर सकते। भारत के संदर्भ में सबसे बड़ा कष्ट ये नजर आ रहा है कि थोड़े दिनों में सिर्फ नकल की चीजें रह जायेंगी, जैसे मोबाईल आ गया। मीटू आन्दोलन आ गया हम नकलची लोग हमारा अपना कुछ नहीं रह जायेगा। जबकि भारत के पास कितना है सभी ने बताया है विवेकानंद वगैरह ने, गाँधी जी तक ने कि भारत के पास वे चीजें हैं जिनसे हम संसार को दिशा दे सकते हैं। यहाँ हम नकलची बने हुए हैं क्योंकि युवाओं को दिशा ही नहीं मिल रही है, उन्हें शिक्षित नहीं किया जा रहा है, उन्हें जानबूझ करके अपढ़ बनाया जा रहा है।

आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि युवा पीढ़ी में अब वह नैतिकता नहीं बची है, थोड़ा इसको स्पष्ट करने का कष्ट करें?  
   
वो यही कि वो मूल्य नहीं हैं। उन्होंने यह मूल्य बड़ी जल्दी पकड़ लिया कि कैसे, कितनी जल्दी ऊपर जाया जा सकता है। ऊपर माने भौतिक तरक्की। रुपया घर के एश-ओ-आराम के सामान, एक घर में पाँच-पाँच कारें। आप देखिये कि हम लोगों ने नौकरी जब शुरू की थी तो पन्द्रह-सोलह लोग हमारे बैच, 'इनकम टैक्स' में थे और उनके कैरियर में एक के भी खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं हुई जबकि उसमें आरक्षित कोटे से भी लोग थे, क्योंकि उस वक्त भी मूल्य थे। आज जहाँ जाता हूँ तो नए-नए लड़कों (अपवाद छोड़ दीजिये) यही चिंता है कि कैसे जल्दी से जल्दी पैसा बनाया जाय। साहित्यकारों को लीजिये। साहित्यकारों में ये चिंता नहीं है कि कैसे हम और अच्छा! और अच्छा!! और अच्छा!!! लिखें। यह चिंता ज्यादा है कि कैसे जल्दी स्थापित हो जाऊँ, मंच पर बुलाया जाने लगूं। पुरस्कार वो पुरस्कार मिल जाये। अरे वो तो मिलेंगे ही लिखो तो और जीवन भर लिखो। मुझे सारे पुस्र्कार रिटायरमेंट के बाद मिले, मुझे फुर्सत ही नहीं रहती थी आज भी नहीं है लिखने में लगा रहता हूँ। नैतिकता को व्यापक संदर्भ में लीजिए, केवल भ्रष्टाचार के संदर्भ में नहीं। जो काम आपके सामने है उसे पूरी तरह समर्पित होकर करना है नौकरी है। तो उसका काम..क्या हम यह करते हैं।

आपके दौर का प्रशासन तन्त्र तथा नौकरशाही का मिजाज दूसरे ढंग का था, आज का प्रशासन और जो नौकरशाही है वो आर्थिकी और प्रबंधनतंत्र की जरूरतों के अनुरूप आ रहा है। इस तरह का जो बदलाव आया है उसको ध्यान में रखकर ऐसे कौन से रचनाकार हैं जो ब्यूरोक्रेसी की आंतरिक विसंगतियों को लिख पा रहे हैं?

ब्यूरोक्रेसी पर लिखने वाले बहुत कम हैं, इसलिए कि उन्हें उतना देखने को नहीं मिलता। मेरे अग्रज लेखक शैलेश मटियानी थे, बीच-बीच में मेरी तबीयत होती थी कि रिटायरमेंट ले लूँ, मन नहीं लगता था नौकरी में तो उन्होंने फ़ोर्स किया था कि आप आखिरी पद तक अगर मौका मिले तो जाइये, क्योंकि सब को यह मौंका नहीं मिलता, क्या पता इससे एक अच्छा उपन्यास पैदा हो और जिसमें 'फूल..इमारतें और बन्दर' हुआ भी। ब्यूरोक्रेट लेखक कई हैं। अशोक बाजपेयी, सीताकांत महापात्र कई हुए हैं लेकिन उन्होंने ब्यूरोक्रेसी पर बहुत नहीं लिखा। थोड़ा बहुत रवीन्द्र नाथ त्यागी ने व्यंग्य के स्तर पर लिखा। श्रीलाल शुक्ल ने लिखा। ये सब पुरानी पीढ़ी के लोग हैं, नयी पीढ़ी में मुझे कोई ऐसा नाम नहीं याद आ रहा है जो प्रशासन तंत्र पर लिख रहा हो और अच्छा लिख रहा हो।

आपके कथा लेखन में 'मैं' शैली, डायरी या 'पत्रात्मक' शैली का प्रयोग काफी किया गया है। कथा लेखन में क्या यही शैली प्रयोग में आनी चाहिए?

नहीं अलग-अलग किसिम आना चाहिए हैं, मैंने जान बूझकर के कोई ख़ास शैली नहीं शैली अपनायी। जो विषय है उसके हिसाब से भाषा आ जाती है उसे  हिसाब से शैली आती है। अब 'खिलाफत' उपन्यास में 'मैं' कहीं नहीं है। 'शाम की झिलमिल' में 'मैं' को बूढ़ा बनाया गया है। 'धूल पौधों पर' उपन्यास में जो फोंट हैं वे  अलग-अलग हैं, फोंटों के माध्यम से प्रेमप्रकाश खुद को कभी 'तुम' कहता है अपने को कटघरे में खड़ा करता है। वही कभी 'मैं' होकर अपने भीतर गहरे जाता है। 'अरण्य तंत्र' में 'मैं' खुद को गधा बनाए हुये है। वो विषय या जिस रूप में आयी कहानी मेरे पास वह मुख्य चीज रहती है कि मैं कहना क्या चाहता हूँ, कथ्य क्या है। 'खिलाफत' उपन्यास में आब्जेक्टिव रहना था मैं तटस्थ होकर लिखा। क्लासिकल स्टाइल जिसमें वर्णात्मक चीजें जैसे चलती है वह हुआ है, 'हुजूर दरबार', 'लाल पीली जमीन' में आज के समय का मैं है तो अतीत में वह केशव है तो दोनों हैं। अलग-अलग उपन्यासों अलग-अलग भाषा और शैली है। एक ही शैली, एक ही भाषा नहीं। 'खिलाफत' में उर्दू वाली भाषा है क्योंकि यहाँ मुस्लिम परिवेश था।

भारतीय कथा लेखन की एक सशक्त परम्परा रही है, जैसे हितोपदेश, पंचतंत्र, कथा सरितसागर इसमें जानवरों, पक्षियों और वनस्पति जगत के मार्फत मनुष्य को सीख दी गयी है आपने ऐसे ही 'अरण्य तंत्र' में जंगली जानवरों का अफसरों पर किया है?

जानवरों में तो अच्छी प्रवृत्तियां भी बहुत होती हैं, जैसे शेर बहुत साफ़ और निर्भीक होता है, लेकिन 'अरण्य तंत्र' में जो प्रशासन तंत्र की खराबियाँ हैं, तानाशाही- चाटुकारिता आदि तो मुझे लगा कि अगर उनका व्यवहार पशुओं जैसा दिखा दिया जाय व्यवहार भी उनका पूरा उस पशु जैसा नहीं है, लेकिन नाम दे दिया गया है, बाकी पाठक उसमें जोड़ लें, तो यह सुविधा थी। शायद व्यंग्य की विधा से ली हुयी सुविधा। जैसे सियार को बनाया सियार पांडे, अब सियार पांडे नाम दे दिया तो वह चापलूस हो गया, हाथी में चिंघाड़ू हाथी जो बहुत चिल्लाता है, और शाँत हाथी जो शाँत रहता है। या एक ऊँट एक हमारे अफसर थे जो मैंने देखा कि वो क्लब आकर डगाल तोड़ते थे, लंबे कद के थे उससे ऊंट तो यह एक सुविधा थी। प्रशासन तंत्र करीब-करीब जंगल जैसा तंत्र है। ऊपर वाले निरंकुश नीचे डर कर अपने को सुरक्षित रखकर चलने वाले, सोचनेवाला कोई नहीं। अलग-अलग प्रवृत्ति वाले अफसर उनकी प्रवृत्तियाँ किस जानवर से मिलती-जुलती हैं यह दिखाने कोशिश की गयी है।

समकालीन दौर में जो अस्मिता-मूलक विमर्श उभर रहे हैं, उनको आप किस रूप में देखते हैं?

आजकल मनुष्य भारतीय समाज में ख़ास तौर पर सब दूसरे की तरह बनने की कोशिश कर रहे हैं। अपना स्वभाव लेकर जो पैदा हुआ है उस स्वभाव के अनुसार चले तो उसको एक अलग अपने लिए पहचान मिलती है। अभी क्या है, बिलकुल जैसे सब कर रहे हैं वैसे ही ऐसा ही बनने के लिए  प्रेरित किया जाता है कि फलाने ऐसा कर रहे हैं तुम क्यों नहीं कर रहे हो। नौकरी में सब आने लिए ये ये कर रहे हैं। भ्रष्टाचार जब सारी दुनिया कमा रही है तो तुम ऐसे क्यों बैठे हो। व्यक्ति को असल में अपनी पहचान से जो संतुष्टि मिलती है वह उसे करने नहीं दिया जाता। ये सिर्फ यहाँ की समस्या नहीं है, सब जगह की है। भारत की समस्या इसलिए ज्यादा है कि हमारे यहाँ गुलामी के संस्कार हैं, जो बाहर से आया वह पैंट-कमीज जो हम पहने हुए हैं, पोशाक पर असर आता है पचास-साठ साल बाद। उससे पहले मुगलों का शासन ख़त्म होते-होते पैजामा आया, वे लोग पहनते थे। नतीजा यह होता है कि थोड़े दिनों बाद आदमी अपने को खोया हुआ है कि हम हैं क्या? 'धूल पौधों पर' इससे शुरू होता है, तुम कौन हो क्या हो? शुरू के वर्ष ही असली होते हैं जब तुम्हारी पहचान बनती है। अस्मिता वहाँ आती है उसको तो आप छोड़ते चले जाते हैं, शुरू का जो 'धूल पौधों पर' का हिस्सा है प्रेम प्रकाश अपने बारे में अपने से ही सुन रहे हैं कि वे कुर्सी हो गए, इज्जत का लौंदा हो गए।

'फूल..इमारतें और बन्दर' उपन्यास में मीडिया, कारपोरेट एवं नौकरशाही का गठजोड़ दिखाई पड़ता है। समकालीन दौर में इन दोनों या तीनों को किस रूप में देखते हैं?

जिस रूप में दिखाया है, 'फूल..इमारते और बंदर' में सब के सब एक व्यक्ति एक अधिकारी उसके चुनाव में प्रभाव डालते हैं, आज तीनों का गठजोड़ प्रधानमंत्री के चुनाव तक चला गया है, आम चुनाव के वक्त सब दिखाई दे जाता है।  जो एक मशीनी प्रक्रिया होनी चाहिए।

दहेज़ प्रथा हमारे समाज में बहुत घृणित प्रथा है। आपकी कृति 'लाल पीली जमीन' में दहेज़ प्रथा के भुक्तभोगी पात्रों का हवाला आया है, इस संदर्भ में समाज को क्या सन्देश देना चाहेंगे?

न मैं इस लायक हूँ कि समाज को सन्देश दे सकूँ, न मेरे सन्देश देने से कुछ हो जाएगा। दहेज़ के खिलाफ प्रेमचंद के जमाने से लिखा जा रहा है, क्या बंद हुआ? वो अपने रास्ते पर चलेगा अपनी तरह से ख़त्म होगा, पूरी तरह वह भी नहीं मैंने अपने ध्यान में है यह रखा है कि साहित्य के माध्यम से कहते हो उसे अपने जीवन में करो। न तो लड़की के विवाह में दहेज़ दिया न लड़के के विवाह में लिया। मेरा वश अपने पर है, सन्देश क्या है! सभी जानते हैं कि यह खराब चीज है फिर भी करते हैं।

आपने अपने जीवन में बहुत सारे पात्रों को सृजित किया है, उपन्यासों में, कहानियों में क्या कभी प्रेम में पड़े थे आप?

प्रेम ही में पड़ते रहे हैं। वह सब उपन्यासों में है ही। अगर आपको मेरे प्रेम के बारे जानना है तो 'उतरती हुई धूप' मेरी पहली प्रेमिका पर आधारित है। उसके बाद 'तुम्हारी रोशनी में' दूसरी प्रेमिका है, रेवा 'कोहरे में कैद रंग' तीसरी, 'धूल पौधों पर' में चौथी। यों महिलाएं जीवन में बहुत आयीं लेकिन जिन्हें प्रेमिका कहा जा सकता है, प्रेमिका माने जिनमें आप डूब गए हों। ये चार ही थीं, वे तभी उपन्यासों के  हिस्से इतने प्रभावी बन सकें हैं।  

डॉ. अनिल कुमार,हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद, सम्पर्क: 8341399496, anilkumarjeee@gmail.com

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