'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
आदिवासी साहित्य विमर्श : अवधारणा और
स्वरूप- रविन्द्र कुमार मीना
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
आदिवासी साहित्य से अभिप्राय उस से साहित्य है जिसमें आदिवासी जीवन
और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त होता है। आदिवासी साहित्य के लिए विश्व
में अलग-अलग नामों का प्रयोग हुआ है। यूरोप और अमेरिका में इसे ‘नेटिव अमेरिकन लिटरेचर’, ‘कलर्ड लिटरेचर’,
‘स्लेव लिटरेचर’ तथा ‘अफ्रीकन-अमेरिकन लिटरेचर’, अफ्रीकन
देशों में ‘ब्लैक लिटरेचर’ और ऑस्ट्रेलिया में ‘एबोरिजिनल लिटरेचर’ तो
अंग्रेजी में ‘इंडीजिनस लिटरेचर’,
‘फर्स्ट पीपुल लिटरेचर’ एवं ‘ट्राइबल लिटरेचर’ कहा जाता है। भारतीय भाषाओं में इसके लिए
सामान्यत याः ‘आदिवासी साहित्य’ का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी साहित्य की
अवधारणा के संदर्भ में तीन प्रकार के मत दिखाई पड़ते हैं, जो इस प्रकार है -
1. आदिवासी विषय पर गैर आदिवासी लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य
2. आदिवासी रचनाकारों द्वारा लिखा गया साहित्य
3. ‘आदिवासियत’ (आदिवासी दर्शन) के तत्वों को समाहित किये हुए लिखा
गया साहित्य
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में हमारे देश में नए सामाजिक
आंदोलनों का उदय हुआ। स्त्रियों, दलितों एवं आदिवासियों की नवीन एकजुटता ने ऐसी
माँगें और मुद्दे उठाए जो स्थापित सैद्धांतिकी तथा राजनैतिक दृष्टिकोण के माध्यम
से समझे और सुलझाए नहीं जा सकते थे। इन अस्मिताओं ने अपने साथ होने वाले शोषण के
लिए अपनी विशेष पहचान को आधार बताते हुए शोषण एवं भेदभाव से संघर्ष के लिए संबंधित
अस्मिता को धारण करने वाले समुदायों को अपने साथ लेकर अपनी मुक्ति या अधिकारों की
रक्षा के लिए सामूहिक अभियान चलाया। वंचितों के शोषण के खिलाफ उठ खड़ी हुई मुहिम
में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के अतिरिक्त साहित्यिक आंदोलनों ने भी अपनी
उपस्थिति दर्ज करवायी है। स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य उसी चेतना के
प्रतिफल हैं। आदिवासी साहित्य जीवनवादी साहित्य है जो आदिवासियों के मूलभूत
अधिकारों से बेदखल करने वाली सभ्यता के प्रति विद्रोह और अस्तिव एवं अस्मिता को
बचाने के उपक्रम के रूप में सामने आया है।
आदिवासी लोक में
साहित्य सहित विविध कला-माध्यमों का विकास तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था, लेकिन वहाँ साहित्य सृजन की परंपरा लिखित रूप में न होकर मौखिक रूप
में रही। ठेठ जनभाषा में होने और सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से भी यह
साहित्य आदिवासी समाज की तरह उपेक्षा का शिकार हुआ। आदिवासी जीवन परंपरा और समाज
में ‘साहित्य’ जैसी कोई रूढ़ श्रेणीगत परंपरा नहीं है। नैसर्गिक
रूप से वाचिक रहा आदिवासी समाज एक ऐसी सत्ता रहित सभ्यता और संस्कृति का वाहक है
जिसमें ‘वायदें’, ‘करार’, ‘दस्तावेज़’ आदि के लिए लिखित साहित्य की आवश्यकता नहीं थी। इस संदर्भ में वाहरू
सोनवणे कहते हैं कि - “लिखित ही केवल साहित्य होता है यह कहना ही आदिवासियों की दृष्टि से
असंगत है। साहित्य और कला, साहित्य और जीवन के बीच जो दीवारें खड़ी हैं, उन दीवारों का आदिवासी समाज में कुछ भी स्थान नहीं है। इन व्याख्याओं
को बदलना जरूरी है क्योंकि आज आदिवासी समाज में कई प्रथाएँ, लोकगीत और नाटक तथा अनेक अन्य कलाएँ विद्यमान हैं जिसे शब्दबद्ध नहीं
किया गया है। हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराएँ कभी थमी नहीं। वे परंपराएँ आज
भी मौलिक रूप में आदिवासी जीवन का अभिन्न अंग रही हैं।”1 आदिवासी साहित्य का भूगोल, समाज, भाषा, संदर्भ शेष साहित्य से उसी तरह भिन्न है, जिस प्रकार स्वयं आदिवासी समुदाय। यही अलगाव या भिन्नता इनकी प्रमुख
विशेषता है। दो दशक पूर्व हमारी केन्द्रीय सरकार द्वारा आरंभ की गई आर्थिक
उदारीकरण की नीतियों ने बाजारवाद का रास्ता खोला। तभी से मुक्त व्यापार एवं बाजार
के नाम पर मुनाफे और लूट का षड्यंत्र आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से भी आगे जाकर उनके जीवन को दांव पर लगा रहा
है। बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने आदिवासियों के समक्ष अस्तित्व एवं अस्मिता का संकट
खड़ा कर दिया। जब सवाल अस्तित्व और अस्मिता का हो तो उसका प्रतिरोध होना भी
स्वाभाविक है। सामाजिक एवं राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा कला एवं साहित्य के माध्यम
से भी प्रतिरोध किया गया। उसी के परिणामस्वरूप आदिवासी साहित्य विमर्श केंद्र में
आया। रमणिका गुप्ता कहती हैं कि - “आदिवासियों को गैर आदिवासियों ने जंगली, काहिल, जाहिल, मूरख, सीधा-साधा, भोला (अपमानजनक अर्थों में) या बुद्धू कह कर, एक हीन भावना भर दी कि वे पिछड़े हैं और किसी काबिल भी नहीं हैं।
धीरे-धीरे उनमें यह हीन ग्रन्थि विकसित होती गई। आदिवासी साहित्य उन्हें इस
ग्रन्थि से मुक्त कराने का हथियार है।”2
देश की आजादी के
बाद आदिवासी स्वायत्तता के लिए जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में भारतीय राजनीति से
लेकर साहित्य तक में आदिवासी चेतना के स्वर सुनाई देते हैं। उसके बाद के आदिवासी
लेखन को साहित्य के विकास क्रम के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें समय-समय पर गैर-आदिवासी साहित्यकारों ने आदिवासी जीवन और समाज
को अभिव्यक्त किया है। आदिवासियों पर जो साहित्य लिखा गया है उसमें या तो
आदिवासियों के प्रति सहानुभूति का भाव है या उनके बाह्य क्रियाकलापों को दर्शाया
गया है। इस संदर्भ में रमेशचंद मीणा कहते हैं कि - “आदिवासी समाज को बहुत कम लोग जानते हैं क्योंकि
लोग उतना ही जानेंगे जितना उन पर लिखा गया है। हिन्दी साहित्य में बहुत से
विमर्शों की तुलना में आदिवासी-विमर्श की गूँज कम दिखलाई पड़ती है।”3 हिन्दी भाषा में अधिकांश साहित्य गैर-आदिवासी रचनाकारों के द्वारा
लिखा जा रहा है। वैसे आदिवासी रचनाओं एवं लेखकों की उपस्थिति बीसवीं शताब्दी के
दूसरे या तीसरे दशक से मिलने लगती है, किन्तु
वे रचनाएँ एवं लेखक मुख्यधारा के साहित्य में समाहित नहीं किए गये हैं | अब
आदिवासियों ने स्वयं अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने का लेखन कार्य किया है। आज उनमें
अपनी अस्मिता की छटपटाहट और बैचेनी साफ देखी जा सकती है। जिसका परिणाम यह हुआ कि
आदिवासी रचनाकार अपनी मूल भाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं।
कोई भी साहित्यिक आंदोलन किसी तिथि विशेष से एकाएक आरंभ नहीं हो जाता।
उसके उद्भव और विकास में तमाम तरह की परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारत सरकार की नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासी शोषण-उत्पीड़न की प्रक्रिया तेज कर दी, जिसके फलस्वरूप उनके प्रतिरोध का स्वर मुखरित हुआ। समकालीन आदिवासी
लेखन और विमर्श का प्रारंभ नब्बे के दशक के बाद से मानते हुए गंगा सहाय मीणा लिखते
हैं कि - “1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से तेज हुई आदिवासी शोषण की
प्रक्रिया के प्रतिरोधस्वरूप आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए
राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुई रचनात्मक उर्जा आदिवासी साहित्य है।”4 इस संदर्भ में सरिता देवी का मानना है कि “हिन्दी में आदिवासी
साहित्य का व्यवस्थित रूप विकास सन 1990 के पश्चात् हुआ इससे पूर्व तक साहित्य के
क्षेत्र में भी आदिवासी समाज पर बहुत ही कम लिखा गया था। स्वतंत्रता से पहले जो
आदिवासी साहित्य लिखा गया है उसमें आदिवासी जीवन की जाँच-पड़ताल बहुत सतही एवं
रोमानी दृष्टि से की गई। इस कारण आदिवासी समाज का प्रत्येक संदर्भ रेखांकित नहीं
हो पाया। लेकिन बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक तक आदिवासी साहित्य में जो बदलाव
आया तथा उस बदलावों को चित्रित करने वाले साहित्यकारों में कुछ साहित्यकारों ने
अथक प्रयास किया है एवं आदिवासी साहित्य को समाज में एक नया मोड़ दिया है।”5 आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, दिकुओं
के शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता के संकट और
उसके विरुद्ध हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है। आज आदिवासियों में जो चेतना जाग्रत
हुई है उसके परिणामस्वरूप नई-नई विचारधाराओं एवं क्रांतियों से उसका परिचय हुआ है।
जिनके परिप्रेक्ष्य में वह अपनी नई-पुरानी स्थितियों का आंकलन करने लगा है। उसमें
अपने होने या न होने, अपने अधिकारों की वर्तमान स्थिति, अपने साथ हुए भेदभाव एवं अन्याय के प्रति बोध जागा है। यही बोध उसके
साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है।
आदिवासी साहित्य में सहानुभूति और स्वानुभूति के सवाल को लेकर निरंतर
बहस जारी है। सहानुभूति के तौर पर लिखने वाले रचनाकार भी स्वानुभूति को अधिक महत्व
देते हैं, इसलिए वे भोगे हुए यथार्थ पर लिखने वाले लेखकों को
अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। सहानुभूति और स्वानुभूति विवाद को लेकर दो धारणाएँ
विकसित होती हैं - पहली है, भोक्ता की पीड़ा और अनुभूति की प्रमाणिकता तथा
दूसरी है, स्थिति के प्रति करुणा और सहानुभूतिपरक दृष्टि।
अनुभूति की प्रमाणिकता को स्पष्ट करते हुए भीष्म साहनी लिखते हैं कि - “मेरी नजर में उसी रचना
में खरापन होगा, जिसके सृजन में लेखक का समूचा सर्जनात्मक
व्यक्तित्व यानी उसका संवेदन, उसकी कल्पना, उसका
चिंतन और उसकी दृष्टि सक्रिय होते हैं। पर जहाँ तक लेखक के सृजन का सवाल है, किसी सीमा तक ही इन अपेक्षाओं की उपयोगिता रहती है। क्योंकि मूलतः
लेखक का संवेदन ही उसे रास्ता सुझाता है। लेखक का सर्जनात्मक व्यक्तित्व इन
अपेक्षाओं से नहीं बनता, वह उसके अपने संस्कारों, अनुभवों, चिंतन, पठन-पाठन
और उसकी सूझ से बनता है। हाँ, जिस माहौल में वह जीता और साँस लेता है, उस माहौल के प्रति वह निश्चय ही उत्तरोत्तर सचेत होता जाता है।”6
आदिवासियों के हितों के लिए लिखा गया साहित्य ही सही अर्थों में
आदिवासी साहित्य होता है, चाहे वह स्वानुभूति का हो या सहानुभूति का। लेकिन
आदिवासी लेखक और चिंतक इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं होते हैं। वे गैर-आदिवासी
लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य को ‘आदिवासी चेतना’ या आदिवासी सहानुभूति का साहित्य कहकर नकार देते
हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि आदिवासी की पीड़ा, दुःख-दर्द
को वह स्वयं ही जान सकता है और वही पूरी ईमानदारी से इसको अभिव्यक्त कर सकता है।
गैर-आदिवासियों के रचना-संसार में दृष्टा की सहानुभूति और करुणा हो सकती है, भोक्ता की पीड़ा और अनुभूति की सच्चाई नहीं हो सकती है। इसके लिए
आदिवासी जीवन की समझ और दृष्टि का विकसित होना अत्यंत आवश्यक है। इस संदर्भ में
रमणिका गुप्ता कहती हैं कि - “गैर-आदिवासी भी संवेदना और सहानुभूति से उनके लिए साहित्य लिखे, तो कौन मना करता है उन्हें ? पर यह उनका अनुभवजन्य साहित्य प्रामाणिक आदिवासी
साहित्य नहीं माना जा सकता है। इसे उनके महसूस करने की, उनके अहसासों की अभिव्यक्ति माना जा सकता है, सहानुभूति का साहित्य कहा जा सकता है।”7 दरअसल साहित्य रचनात्मक
विधा है, जिसके सृजन का सभी को समानाधिकार है। लेकिन बाहरी
सहानुभूति की चेतना मात्र से उसमें सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता है। गैर-आदिवासी
रचनाकारों के लेखन में आदिवासियों के प्रति सच्ची सहानुभूति, संवेदना और उनकी मुक्ति की चिंता एवं चेतना है तो उसे ‘आदिवासी साहित्य’ मानने में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
आदिवासी साहित्य विमर्श के ऐतिहासिक एवं भौतिक कारण हैं। देश की
स्वतंत्रता से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएँ वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन
की ज्यादतियाँ आदि हैं, जबकि आजादी के बाद सरकार द्वारा अपनाए गए विकास
मॉडल ने आदिवासियों से उनके जीविकोपार्जन के साधन छीनकर बेदखल कर दिया। विस्थापन
उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर
आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो रही है, वहीं
दूसरी तरफ उनके अस्तित्व की रक्षा का सवाल खड़ा हो गया है। यदि वे अपना अस्तित्व
बचाते हैं तो उनकी सांस्कृतिक पहचान खत्म हो रही है और यदि वे सांस्कृतिक पहचान
बचाते हैं तो उनके अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाता है। सामाजिक व्यवस्था की संरचना
के अंतर्गत व्यक्तित्व, संस्कृति तथा समाज का संयुक्त स्वरूप दिखाई देता
है। आदिवासी समाज अपनी पृथक पहचान की सीमाओं को तोड़कर भौतिक विकास को अपनाते हुए
शेष समाज के साथ अंतर्क्रिया करते हुए राष्ट्रीय समाज का अंग बनता है। कार्ल
मार्क्स कहते हैं कि - “किसी भी समाज में परिवर्तन के लक्षण भीतर से हो, उसके पहले ही उस पर बाहर से परिवर्तन लाद दिया जाये तो वह समाज एक
किस्म के सांस्कृतिक अवसाद में (Cultural
Melancholy) जीने को बाध्य हो जाता है।”8 आदिवासी साहित्य विमर्श मुख्यतः अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है।
जिसके माध्यम से आदिवासी समाज की सभ्यता, संस्कृति
के साथ-साथ उन पर हो रहे अन्याय, अत्याचार, अपमान, शोषण आदि विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त किया जा रहा है। विभिन्न
रास्तों से गुजरते हुए आदिवासी लेखन एक विस्तृत सांस्कृतिक विमर्श का अंग बन रहा
है।
आदिवासी साहित्य
की पृष्ठभूमि के रूप में आदिवासी समाज की हजारों साल पुरानी साहित्य की मौखिक या
वाचिक परंपरा को रखा जा सकता है, जिसे
पुरखा साहित्य कहा जाता है। वाचिक परंपरा में उपलब्ध आदिवासी साहित्य जहाँ प्रकृति
और प्रेम के विविध रूपों के साथ रचाव और बचाव का साहित्य है, वहीं समकालीन आदिवासी लेखन शोषण के विविध रूपों के उद्घाटन तथा
आदिवासी अस्तित्व और अस्मिता के संकटों एवं उनके खिलाफ हो रहे संघर्ष का साहित्य
है। डॉ. गोपीराम शर्मा लिखते हैं कि - “आदिवासी साहित्य जीवनवादी साहित्य है। इसमें
आदिवासियों के मूलभूत हकों से बेदखल करने वाली सभ्यता के प्रति विरोध की आवाज है।
यह साहित्य आदिवासियों के अस्तित्व को बचाने के उपक्रम के रूप में सामने आया है।”9 हिन्दी कथा साहित्य में आदिवासी समाज के शोषण, उत्पीड़न, तनाव एवं बेचैनियों को स्थान मिला है। आदिवासी
साहित्य में विकास की प्रक्रिया से टकराते आदिवासी समुदाय के जीवन संघर्ष का सजीव
चित्रण मिलता है। आदिवासी साहित्य की विषय-वस्तु क्रांतिकारी भावना का स्रोत बनकर
परिवर्तनकामी सोच को साकार रूप देने में प्रयोग की जा रही है। इस संदर्भ में गंगा
सहाय मीणा लिखते हैं कि - “यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल
निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है
तथा उनके जल, जंगल, जमीन और
जीवन को बचाने के हक में उनके ‘आत्म निर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है।”10 आदिवासी साहित्य रचाव-बचाव का साहित्य होने के साथ-साथ आदिवासी
जीवन-दर्शन और कई मायनों में शेष साहित्य से अलगाव रखने वाला साहित्य है। आदिवासी
साहित्य विविध परंपरा एवं कला रूपों का एक समुच्चय है, जिसमें सभी कला विधाओं के साथ-साथ प्रकृति की भी एक प्रमुख और
सुनिश्चित भूमिका होती है अर्थात् वहाँ कलाओं का आपस में अन्योन्याश्रित संबंध
होता है। इस संदर्भ में वंदना टेटे का कहना है कि - “आदिवासी साहित्य मूलतः सृजनात्मकता का साहित्य है।
यह इंसान के उस दर्शन को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य है जो मानता है कि प्रकृति
सृष्टि में जो कुछ भी है, जड़-चेतन, सभी कुछ
सुंदर है। ...वह दुनिया को बचाने के लिए सृजन कर रहा है। उसकी चिंताओं में पूरी
सृष्टि, समष्टि और प्रकृति है। जिसका एक प्रमुख अंग इन्सान
भी है।”11 आदिवासी साहित्य एक आयामी नहीं है, वह बहुआयामी है। जिसमें हमें विविध कलात्मक अभिरूचियों एवं
प्रदर्शनों का सामूहिक सहजीवन का प्रस्तुतीकरण दिखाई देता है। आदिवासी साहित्य एक
जीवंत परंपरा है, क्योंकि इसका आधार वाचिकता है जो शब्दों के नये
प्रयोग और अनुभव से सदैव नवीनतम बना रहता है।
आदिवासी लेखन विविधताओं को अपने अंदर समेटे हुए है। समृद्ध मौखिक
साहित्य परंपरा का लाभ भी आदिवासी साहित्यकारों को मिला है। उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, यात्रा वृत्तांत आदि प्रमुख विधाओं में आदिवासी एवं गैर-आदिवासी
रचनाकारों ने आदिवासी जीवन और समाज का चित्रण प्रस्तुत किया है। आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक सामूहिकता में विश्वास करता है, अतः उसकी परंपरा, संस्कृति, इतिहास
से लेकर शोषण और प्रतिरोध आदि में सामूहिक जीवन की अभिव्यक्ति होती है।
स्त्री-विमर्श एवं दलित-विमर्श की भाँति आदिवासी साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन की
कोई केन्द्रीय विधा नहीं है। इस संदर्भ में गंगा सहाय मीणा का मानना है कि - “आदिवासी लेखन में
आत्मकथात्मक लेखन केन्द्रीय स्थान नहीं बना सका क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह में विश्वास करता है।”12
हिन्दी में आदिवासी साहित्य की अवधारणा का विकास हो रहा है। जिसके
अंतर्गत परंपरा और आधुनिकता का, विकास और विनाश का, मुख्यधारा
की संस्कृति और आदिवासी मूल्यबोध, अस्तित्व, अस्मिता
का जो द्वंद्व है, उन सबके बीच ‘आदिवासी संस्कृति, राजनीति, साहित्य’ की एक नई अवधारणा का निर्माण हो रहा है। जीवन की
जटिलता और प्रकृति से लगाव ही उसके साहित्य का मूलाधार है। क्योंकि कोई भी
अभिव्यक्ति ‘स्व’ के बिना निर्मित नहीं हो सकती है। आदिवासी साहित्य
जीवन का साहित्य है। वह प्रकृति का सहयोगी, सह
अस्तित्व का समर्थक, ऊँच-नीच, भेदभाव
एवं छल-कपट से दूर है। वह संपत्ति संकलन या जमाखोरी की भावना से मुक्त है। आदिवासी
सामाजिक न्याय का पक्षधर होने के साथ-साथ अन्याय का विरोधी है। उसके साहित्य में
इन्हीं सब बातों का समावेश होता है। आदिवासी आदिवासी समाज और जीवन-दर्शन को समझने
की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ ‘राँची घोषणा-पत्र’13 है। जिसके अनुसार
आदिवासी साहित्य का स्वरूप आदिवासी दर्शन के अनुरूप होना चाहिए। इसके मूल तत्व हैं
-
“1. प्रकृति की लय-ताल और
संगीत का जो अनुसरण करता हो।
2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो।
3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो।
4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना नहीं करें।
5. जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो।
6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो।
8. जो धरती को संसाधन की बजाय माँ मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए
खुद को उसका संरक्षक मानता हो।
9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो।
10. जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो।
11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष
में हो।
12. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप
और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों
और व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो।
13. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते
हुए रचावबचाव में यकीन करता हो।
14. सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल
स्वर-संगीत हो।
15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्वदृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः
अभिव्यक्त हुआ हो। ”14
आदिवासी साहित्य सिर्फ शब्दों में लिखित कल्पना, अनुभव, भाव, विचार
और यथार्थ की कलात्मक स्वानुभूति या सहानुभूति की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह मानवीयता सहित समस्त जीव-जगत, प्रकृति
और समष्टि का जीवंत दस्तावेज है जो आध्यात्मिक अनुष्ठानों, दैनिक क्रियाकलापों और विविध कलात्मक अभिरूचियों एवं अभिव्यक्ति के
विभिन्न रूपों के माध्यम से निरंतर प्रदर्शित होता रहता है। डॉ. नाजिश बेगम लिखती
है कि - “आदिवासी साहित्य में आत्मसजग अभिव्यक्तियों का एक ऐसा प्रखर स्वर
सम्मिलित है, जो दीर्घ समय से शोषित, उत्पीड़ित और वंचित आदिवासी समाज की चेतना को दिन ब दिन तीव्र और
प्रखर बना रहा है। लेखकों ने कविता-कहानी, उपन्यास
और नाटकों में आदिवासी जन-जीवन के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किए हैं।”15 समकालीन आदिवासी साहित्य ने उदारवादी वैश्विक परिदृश्य में
समस्याओं से जूझते आदिवासियों के जीवन-संघर्ष एवं चुनौतियों को भी सामने रखा है।
आदिवासी साहित्य प्रायः मौखिक रूप में ही परंपरानुसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित
होता रहा है, किन्तु आज समाज में उनकी अभिव्यक्तियाँ लिखित रूप
में यथार्थ निरूपण का पुष्ट आयाम बनकर उभरी है। वर्तमान में आदिवासी जीवन और चेतना
से संबंधित साहित्य एवं आलोचना साहित्यिक संसार में अपनी पैठ बनाने के दौर से गुजर
रही है।
संदर्भ सूची :
1. टेटे, वंदना (सं.), आदिवासी दर्शन और साहित्य, पृष्ठ सं. 19-20
2. सिंह, अविनाश कुमार, कथाक्रम, अक्टूबर-दिसम्बर 2011, पृष्ठ सं. 16
3. गुप्ता, रमणिका (सं.), युद्धरत आम आदमी, जुलाई-सितम्बर 2007, पृष्ठ सं. 49
4. मीणा, गंगा सहाय (सं.), आदिवासी साहित्य विमर्श, पृष्ठ सं. 9
5. मीणा, श्रवण कुमार (सं.), समकालीन विमर्श : बदलते परिदृश्य, पृष्ठ सं. 70-71
6. साहनी, भीष्म, कसौटी, अंक – 1, पृष्ठ सं. 13
7. गुप्ता, रमणिका, दलित हस्तक्षेप, पृष्ठ सं. 19
8. उद्धृत, मीणा, हरिराम, आदिवासी दुनिया, पृष्ठ सं. 143
9. मीणा, श्रवण कुमार (सं.), समकालीन विमर्श : बदलते परिदृश्य, पृष्ठ सं. 22
10. मीणा, गंगा सहाय (सं.), आदिवासी साहित्य विमर्श, संपादक की कलम से
11. टेटे, वंदना, आदिवासी साहित्य : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ सं. 87-88
12. मीणा, गंगा सहाय (सं.), आदिवासी साहित्य विमर्श, पृष्ठ सं. 10
13. झारखंडी
भाषा,
साहित्य, संस्कृति अखड़ा के तत्वावधान में 14-15
जून,
2014
को राँची (झारखंड) में ‘आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
संपन्न हुई । जिसमें आदिवासी समाज व
साहित्य के बारे में सही समझ विकसित करने एवं उसका मूल्यांकन करने की बुनियादी
शर्तों के रूप में पन्द्रह सूत्रीय तत्वों की पहचान करने की कोशिश की गई है । इसे
ही ‘राँची घोषणा-पत्र’ के नाम से जाना जाता है ।
14. टेटे, वंदना (सं.), आदिवासी दर्शन और साहित्य, पृष्ठ सं. 49-50
15. मीणा, श्रवण कुमार (सं.), समकालीन विमर्श : बदलते परिदृश्य, पृष्ठ सं. 55
रविन्द्र कुमार मीना
शोधार्थी,गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय,गांधीनगर, गुजरात 382030
सम्पर्क: 9414497899, ravindraghunawat@gmail.com
आदिवासी अस्मिता कि वैचारिक
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