लोकरंग: मणिपुर के पर्व–त्योहार/ वीरेन्द्र परमार
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
लाई-हराओबा (Lai
Haraoba) लाई-हराओबा मणिपुर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रंगीन त्योहार हैI लाई-हराओबा
को उमंग लाई हराओबा भी कहते हैंI यह एक पारंपरिक मैतेई त्योहार हैI यह त्योहार सृष्टिकर्ता ईश्वर द्वारा पृथ्वी की
रचना और उस पर जीवों के निवास से संबंधित हैI किंवदंतियों के अनुसार शुरुआत में गुरु
सिदबा सबसे बड़े देवता थे जो घोर अंधकार में रहते थे। वे जिस कमरे में रहते थे वह
कमरा एक बार इंद्रधनुष के विभिन्न रंगों से जगमगा उठाI इस घटना से वे सृष्टि के निर्माण के लिए प्रेरित
हुए। इस कार्य को पूरा करने के लिए उन्हें अतिया गुरु सिदबा का साथ मिलाI अतिया
गुरु को मानव का एक ढांचा दिया गया। सिदबा ने अपनी नाभि के मैल और नाभि की दाईं ओर
से नौ पुरुषों एवं बाईं ओर से सात महिलाओं का सृजन कर सभी को अतिया गुरु की सेवा
में समर्पित कर दिया। अतिया गुरु ने इन पुरुषों और महिलाओं की मदद से सृष्टि का
निर्माण शुरू कियाI अतिया गुरु के पहले दो प्रयासों को हरबा
ने बेकार कर दिया। गुरू सिदबा ने बिजली की देवी को अतिया गुरु के बचाव में भेजा।
तब अतिया गुरु ने मानव के ढाँचे को मजबूत कर दिया और इसे ढाँचे को मानव जीवन के
उपयुक्त बनाया। सृष्टि की पूरी प्रक्रिया का जश्न मनाने के लिए हर साल लाई-हराओबा
त्योहार मनाया जाता है। इसलिए इस त्योहार को सृष्टि की प्रक्रिया का उत्सव कहते
हैं। लाई-हराओबा ही नृत्य और लोकगीतों (खुनुंग इसाई) का मूल स्रोत हैI लाई-हराओबा
को सभी मणिपुरी नृत्यों और कुछ स्वदेशी खेलों का उत्स माना जाता हैI इस
त्योहार का आरम्भ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुआI उस समय
पुष्प, खाद्य पदार्थ आदि अर्पित करना ही मुख्य
अनुष्ठान होता था, बाद में इस त्योहार के साथ और अन्य
अनुष्ठान और परम्पराएं जुड़ गईंI इस त्योहार में उमंग लाई के नाम से जाने
जानेवाले सिलवन देवताओं की उपासना की जाती हैI यह
त्योहार पारंपरिक देवताओं और पूर्वजों की पूजा का प्रतिनिधित्व करता है। प्राचीन
दिव्यताओं से पहले पुरुषों और महिलाओं द्वारा कई नृत्य किए जाते हैं। मोइरांग के
शासक देव थंगजिंग के लाई हराओबा सबसे प्रसिद्ध हैं। यह त्योहार मई महीने में आयोजित
किया जाता है। यह त्योहार स्थानीय पारंपरिक देवताओं और पूर्वजों के प्रति सम्मान
और श्रद्धा व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है। इसे देवताओं की उत्सवधर्मिता के रूप
में भी जाना जाता है। इस त्योहार में लोग सनमही, पखंगबा, नोंगपोक
निमगथो, लेईमरेल और लगभग 364 उमंग
लाई या जंगल के देवी - देवताओं की पूजा करते हैं। यह त्योहार ब्रह्मांड के सृजन
में भगवान के योगदान की स्मृति के रूप में आयोजित किया जाता है, साथ ही
यह पेड़ - पौधों, जानवरों और मनुष्य के विकास की स्मृति में
भी मनाया जाता है। इस त्योहार में लोग मूर्तियों के सामने नृत्य करते हैं जो उनके
रिवाज का एक अंग हैI वे देवी-देवताओं और अपने पूर्वजों से
आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं। समाज के वृद्ध और जवान सभी अपना
पारंपरिक नृत्य करते हैं और गीत गाते हैं। इस अवसर पर नाटक भी प्रस्तुत किया जाता
है जिसमें खंबा और थोइबी के जीवन को दर्शाया जाता है जो एक लोककथा के नायक -
नायिका हैं। शाम में देवता को पालकी में घुमाया जाता हैI पूरी
श्रद्धा से लोग उनकी पूजा करते हैंI लाई-हराओबा के तीन प्रकार हैं -
I. कंगलेई लाई-हराओबा -
यह इंफाल घाटी में मनाया जाता है जहां के मुख्य देवता पखंगबा हैंI
II.मोइरांग लाइ लाई-हराओबा - यह मोइरांग में मनाया जाता हैI इस क्षेत्र में खंबा और थोईबी दिव्य प्रेमियों की कथा प्रचलित हैI उन्हें भगवान थंगजिंग का अनन्य भक्त माना जाता है।
III.चाकपा लाई-हराओबा - इसकी शुरुआत मूल मैतेई समुदाय द्वारा की गई थीI लाई-हराओबा के कुछ चरण हैं जो तीनों प्रकार के लाई-हराओबा में सामान्य हैं:
(i) लाई-इकौबा - लाई (ईश्वर) में आस्था।
(ii) लाईफोऊ - उत्पत्ति का उत्सवI
(iii) लाईरोई - वर्ष की विदाई का संस्कार।
(iv) शरोई -(खंगबा) यह दुष्ट शक्तियों को भगाने के लिए एक अनिवार्य अनुष्ठान है ताकि उत्सव निर्विघ्न चलता रहे।
याओशंग या डोल जात्रा (Yaoshang
or Dol Jatra) - फाल्गुन माह की पूर्णिमा (फरवरी/मार्च) से शुरू होने वाले पांच दिवसीय
याओशंग मणिपुर का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार में थबल चोंगबा नृत्य प्रस्तुत
किया जाता हैI थबल चोंगबा एक मणिपुरी लोक नृत्य है
जिसमें लड़के और लड़कियां हाथ पकड़कर नृत्य करते हैं और सभी लोग उस नृत्य का आनंद
लेते हैं। नृत्य के दौरान पुरुष महिलाओं को पैसे भी देते हैं। इसे मणिपुर की होली
भी कहा जाता हैI यह स्वदेशी संगीत और नृत्य के साथ मनाया
जाता है। इस त्योहार में हिंदू मान्यताओं और मैतेई प्रथाओं का मणिकांचन संयोग
देखने को मिलता है। थबल चोंगबा लोक नृत्य इस उत्सव का एक महत्वपूर्ण आकर्षण है
जिसका प्रदर्शन रात्रि में किया जाता है। मणिपुरी पुरुष और महिलाएं स्थानीय लोक
गीत गाते हैं और ढोलक की थाप पर नाचते हैं। वे पारंपरिक मणिपुरी वेशभूषा पहनकर
नृत्य करते हैंI मणिपुरी अवधारणा के अनुसार नृत्य भी ईश्वर
की उपासना का एक रूप हैI इस अवसर पर पुरुषों के लिए फिजोम (धोती)
और महिलाओं के लिए फनक (स्कर्ट) परिधान निर्धारित है। पुरुष और महिला एक - दूसरे
के हाथ पकडकर नृत्य करते हैंI इस त्योहार में युवा और बूढ़े सभी लोग
घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा करते हैं और इकट्ठा किए गए से भोज और पार्टी करते हैं।
कुत (Kut) - कुत
मणिपुर के कुकी-चिन-मिज़ो समूह के आदिवासी समुदायों का प्रमुख त्योहार हैI यह
त्योहार शरद ऋतु में मनाया जाता है। यह त्योहार मणिपुर के सभी जिलों में पूर्ण
उत्साह और धूमधाम के साथ मनाया जाता हैI त्योहार को विभिन्न जनजातियों के बीच
विभिन्न स्थानों पर चवांग-कुत या खोदो आदि के रूप में वर्णित किया जाता है। यह
ग्रामीणों के लिए एक खुशी का अवसर होता है जिनके भोजन का भंडार एक साल के कठिन
परिश्रम के बाद भर जाता है। यह त्योहार धन्यवाद देने का एक अवसर है जिसमें गीतों
के साथ दावत दी जाती हैI यह हर साल एक नवंबर को मनाया जाता है। इस
त्योहार के अवसर पर उत्साह और उमंग के साथ नृत्य – गीत
प्रस्तुत किए जाते हैं और भरपूर फसल देनेवाले परम पिता को धन्यवाद दिया जाता हैI इस
त्योहार का उद्देश्य सभी समुदायों में सांप्रदायिक सद्भाव, प्रेम और
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना है। यह त्योहार वास्तव में कठिन श्रम के
बाद भरपूर फसल की प्राप्ति का आनंदोत्सव हैI
कंघी त्योहार (Kanghi
Festival)– मणिपुर की मरम नागा जनजाति द्वारा यह त्योहार मनाया जाता हैI मरम नागा
का सात दिवसीय कंघी त्योहार दिसंबर महीने में आयोजित किया जाता है। यह युवाओं का
एक भव्य उत्सव है। सात दिनों को क्रमशः लिंगसमासुइ, वांग्निमताम, नेगेदी, मतोह, सबंगहा, हंगिरा
और थंगिरा कहा जाता है। त्योहार की शुरुआत भैंस और गायों को मारने से होती है।
दूसरे दिन छोटे बच्चे मुर्गों के साथ खेलते हैं जिन मुर्गों को शाम को मार दिया
जाता है। गांव के युवाओं के लिए कुश्ती प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। लड़के और
लड़कियाँ अपने युवागृहों (डोरमेटरी) में इकट्ठा होते हैंI वे
त्योहार के तीसरे दिन अपने युवागृहों में भोजन और मांस तैयार करते हैं। खाद्य
पदार्थों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है और गाँव के लोग भव्य दावत में भाग
लेते हैं। लड़कों द्वारा एक कुत्ते को मारा जाता है और कुत्ते का सिर लड़कियों के
युवागृह में दे दिया जाता है ताकि लड़कियां भोजन की तैयारी कर सकें। विवाहित
महिलाएं अपने माता-पिता को मदिरा परोसती हैं। इस अवसर पर लंबी कूद प्रतियोगिता, कुश्ती
प्रतियोगिता आदि आयोजित की जाती है। प्रतियोगिता शुरू करने से पहले सभी पुरुष
प्रतिभागी अनिवार्य रूप से स्नान करने के लिए पास के झरने में जाते हैं जिसे 'एडुई
कुंग' कहा जाता है। खुल्लकापा से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद उसकी
उपस्थिति में प्रतियोगिता शुरू होती है।
गंग-नगाई (Gang- Ngai) – मणिपुर
में 29 विभिन्न जनजातियाँ निवास करती हैं। यहाँ नागाओं के विभिन्न समूह अपनी
संस्कृति और रीति-रिवाजों को विभिन्न त्योहारों के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
गंग-नगाई कबुई नागाओं का प्रमुख त्योहार हैI दिसंबर - जनवरी महीने में पांच दिनों तक
मनाया जानेवाला गंग-नगाई त्योहार राज्य के विविध संप्रदायों के रीति-रिवाजों और धर्मों से परिचित होने का अवसर प्रदान करता
है। मणिपुर के कबुई नागा समुदाय अपनी जीवन शैली, संस्कृति
और अपने धर्म को व्यक्त करने के इस अवसर का पूरे साल इंतजार करते रहते हैं। वे इस
पांच दिवसीय त्योहार में संगीत, नृत्य, दावत का
भरपूर आनंद लेते हैं। गंग - नगाई त्योहार शगुन समारोह से शुरू होता है। त्योहार के
प्रथम दिन कबुई नागा पवित्र अनुष्ठानों के माध्यम से अपने पूर्वजों के प्रति
सम्मान व्यक्त करते हैं। इसके बाद चार दिनों तक लगातार उत्सव मनाया जाता है। सामुदायिक दावतें, संगीत और
नृत्य प्रदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जो दर्शकों के स्मृति
पटल पर लंबे समय तक रहते हैं। मणिपुर में गंग-नगाई त्योहार के माध्यम से कबुई
नागाओं को अपने धर्म के संरक्षण और सुरक्षा के लिए प्रोत्साहन मिलता है। रंगीन
पारंपरिक वेशभूषा में वाद्ययंत्रों की धुनों पर नाचते हुए पुरुषों और महिलाओं से
भरी सड़कें मणिपुर में एक सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं। इस त्योहार के अवसर पर
दोस्तों और परिवारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान भी किया जाता है। यह त्योहार
आम तौर पर दिसंबर - जनवरी महीने में मनाया जाता है।
चुमफा (Chumpha) – तंगखुल
नागा जनजाति के लोगों का निवास मणिपुर के उखरुल जिले में हैI चुम्फु
या चुम्फा इस समुदाय का एक विशिष्ट त्योहार है जो हर साल दिसंबर में फसल की कटाई
के बाद सात दिनों तक मनाया जाता है। तंगखुल नागा इस त्योहार को बहुत धूमधाम के साथ
मनाते हैं। अन्य त्योहारों से अलग इस त्योहार में महिलाओं द्वारा महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई जाती है। इस त्योहार की पूर्व संध्या पर गांव के तालाबों को साफ किया
जाता है और तालाबों को अच्छी तरह से सुखा दिया जाता है। अगले दिन सुबह किसी भद्र
महिला को तालाब से पानी लेने की अनुमति दी जाती है। तंगखुल समुदाय की एक अनूठी
परंपरा यह है कि वे पेय जल की शुद्धता पर विशेष ध्यान देते हैंI वे पीने
के पानी की विशेष देखभाल करते हैं और शुद्ध व उबला हुआ पानी पीते हैं। वे सभी जल
स्रोतों की समय-समय पर साफ - सफाई करते रहते हैंI वे अपने
तालाबों को बाड़ से घेरकर रखते हैं तथा किसी को अपने जानवरों को नहलाने और इसमें
कपड़े धोने की अनुमति नहीं देते हैं। इस समुदाय में एक परंपरा है कि जब तक चुम्फु
त्योहार नहीं मनाया जाता है और आवश्यक अनुष्ठान आयोजित नहीं किए जाते हैं तब तक
नया चावल खाना वर्जित हैI इस त्योहार में महिलाओं द्वारा धन की देवी
की पूजा कीजारी है। इस दिन पुरुष सदस्य लगातार दो रातों तक घर से बाहर रहते हैं।
अगर उनके पति गलती से अनुष्ठान को देख लेते हैं तो यह माना जाता है कि आगामी वर्ष
में व्यक्ति को शिकार, मछली पकड़ने या युद्ध में कोई सफलता नहीं
मिलेगी। अनुष्ठान के बाद महिला अपनी सास के साथ खलिहान में पूरे परिवार के साथ
चूल्हे के आसपास बैठती है और उसकी सास उसके लिए कुर्सी खाली करती हैI उस खाली
कुर्सी पर बहू बैठती है। कुर्सी को खाली करने का तात्पर्य यह है कि युवा दुल्हन को
घर के प्रत्येक काम का प्रभार दे दिया गया और अब वह उस घर की मालकिन बन गई।
त्योहार के अंतिम तीन दिन सामाजिक समारोहों और मनोरंजन कार्यक्रमों के लिए समर्पित
होते हैंI सामाजिक समारोहों में सगे – सम्बन्धियों
और दोस्तों को आमंत्रित किया जाता हैI इस त्योहार का समापन गांव के भीतर एक
जुलूस के साथ होता है।
चेईराओबा (Cheiraoba) - चेईराओबा
एक महत्वपूर्ण मैतेई त्योहार हैI चेईराओबा उत्सव की शुरुआत पहली शताब्दी
में पखंगबा द्वारा की गई थी। इस त्योहार को पहले ‘कुम्गी
लकयेन तैबा’ अथवा ‘सजिबु
लकयेन तैबा’ के नाम से जानते थेI ‘सजिबु’ (मार्च – अप्रैल)
महीने के पहले दिन में इसका आयोजन किया जाता हैI यह
मणिपुर के नए वर्ष का त्योहार है जिसे सभी मैतेई परम्परागत तरीके से मनाते हैंI पहले इस
त्योहार की घोषणा चार ‘पना’ के प्रमुख करते थेI पंद्रहवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा क्यम्बा के शासनकाल में अनुष्ठानों के तरीकों में
बदलाव किया गया और चार पना के स्थान पर शाही अधिकारी त्योहार की घोषणा करने लगे
जिन्हें ‘चेईताबा’ कहा जाता
थाI ‘चेईताबा’ मैतेई ब्राह्मण होता था, कोई गैर – हिंदू ‘चेईताबा’ नहीं बन
सकता थाI राजा की उपस्थिति में अनुष्ठान आयोजित
होता थाI चेईराओबा ‘चेई’ और ‘राओबा’ के योग
से बना हैI ‘चेई’ का अर्थ वर्ष और ‘राओबा’ का अर्थ ‘चिल्लाना’ होता हैI अतः
चेईराओबा का अर्थ नए वर्ष की घोषणा हैI ‘पना’ अथवा ‘चेईताबा’ द्वारा
त्योहार की घोषणा से ‘चेईराओबा’ शब्द का
संबंध हैI मैतेई के अतिरिक्त पंगल समुदाय (मणिपुरी
मुस्लिम) भी यह त्योहार मनाता है। बाँस में लगा झंडा और घंटी बीते हुए वर्ष और
आनेवाले वर्ष के संकेतक हैंI इस त्योहार के दौरान लोग अपने घरों की साफ
- सफाई कर उसे सजाते हैंI इस उत्सव के अवसर पर विशेष प्रकार के
व्यंजन तैयार किए जाते हैं और सर्वप्रथम विभिन्न देवताओं को व्यंजन अर्पित किए
जाते हैं। इस दिन गाँव के लोग निकट में स्थित पर्वत चोटी पर चढ़ते हैंI पहाड़ी
की चोटी पर चढ़ने का अनुष्ठान त्योहार का अभिन्न अंग हैI ग्रामीणों
का विश्वास है कि ऐसा करने से वे सांसारिक जीवन में अधिक से अधिक ऊंचाइयों तक
पहुंचने में सक्षम होंगे। मणिपुर के प्रत्येक घर में कुलदेवता सनामही की पूजा की जाती हैI इस दिन
लोग नए कपड़े पहनते हैं और नए बर्तन भी खरीदते हैंI पूरे
मणिपुर में यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर परिवारों और दोस्तों
के बीच उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह लोकप्रिय
त्योहार परिवार के सदस्यों के बीच अटूट प्रेम बंधन का प्रतीक है। चेईराओबा का
समारोह राज्य स्तर पर आयोजित किया जाता हैI वैयक्तिक स्तर पर भी इस त्योहार का आयोजन
किया जाता है।
हेईग्रु हिडोंगबा (Heigru –
Hidongba) - यह मणिपुर के मैतेई समुदाय का एक प्राचीन त्योहार हैI यह
त्योहार सितंबर महीने में मनाया जाता हैI यह त्योहार आनंद का उत्सव है जिसका
धार्मिक महत्व भी हैI नाव दौड़ इस लोकप्रिय त्योहार का एक
अभिन्न अंग है। दौड़ शुरू होने से पहले श्री विष्णु की मूर्ति स्थापित की जाती है।
मणिपुर में यह त्योहार राजर्षि भाग्यचंद्र से बहुत पहले से मनाया जा रहा था। यह ‘सनमही
पखंगबा’ की पूजा से संबंधित उत्सव था। उत्सव का
कोई निश्चित दिन नहीं था। जिस दिन से राजर्षि भाग्यचंद्र ने अपने चाचा नोंगपोक
लेईरीखोम्बा (अनंतसई) के साथ श्री बिजय गोविंद की उपासना शुरू की उस अवसर को यादगार
बनाने के लिए हेईग्रु हिडोंगबा का भव्य उत्सव आरंभ किया। यह निर्णय लिया गया कि
अगले वर्ष से यह उत्सव मनाया जाएगा। तब से यह त्योहार परंपरागत तरीके से मनाया
जाता है। मेइडिंग-यू इरेंगा के समय से इस त्योहार के आयोजन में कई बदलाव हुए हैं।
राजर्षि भाग्यचंद्र ने प्राचीन मैतेई पारंपरिक तत्वों के साथ वैष्णववाद के तत्वों
जैसे - पूजा, फल-फूल अर्पण, संकीर्तन, शंख
ध्वनि आदि का मिश्रण किया और नाव पर चढ़ने के बाद श्री बिजय गोविंद की आरती की।
हेईग्रु हिडोंगबा के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक नौका दौड़ का शानदार
दृश्यांकन है। दौड़ शुरू होने से पहले खबक लकपा नाव (एक साथ बंधी दो नावें) में
सवार होकर श्री बिजय गोविंदा जुलूस में जाते हैं जिसे ‘लाई
लमयेंगबा’ के नाम से जाना जाता है। श्री बिजय गोविंद
को फल, फूल अर्पित किया जाता है और उनकी आरती की
जाती है। जुलूस के बाद श्री बिजय गोविंद को ले जानेवाली नाव पूर्व की ओर जाती है।
यहाँ प्रत्येक टीम का नेता नाव पर आकर देवता को प्रसाद अर्पित करता है। संक्षिप्त
विश्राम के बाद नौकाओं को दौड़ क्षेत्र में लाया जाता है और दौड़ शुरू होती है।
नाव की दौड़ से एक दिन पहले सुबह के समय प्रत्येक टीम का नेतृत्व करनेवाले दो
व्यक्ति एक कंटेनर में चांदी और सोने से बने सामान डालते हैं और इसे श्री बिजय
गोविंदा को भेंट करते हैं। इससे यह प्रदर्शित किया जाता है कि सभी लोग ब्रह्मांड
के सर्वोच्च स्वामी के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ये मैतेई परंपरा में पूजा के
प्राचीन तरीके हैं। दौड़ के दिन एक सौ आठ हेईक्रू से बनी एक माला और एक सौ आठ चावल
के दानों से बनी दूसरी माला श्री बिजय गोविंदा को अर्पित की जाती है और फिर उन्हें
दो नावों पर रखा जाता है। कौन सी माला किस नाव पर रखी जाएगी यह पंडितों द्वारा
दौड़ के दिन तय किया जाता है। जब दौड़ का विजेता घोषित किया जाता है तो यह घोषणा
की जाती है कि या तो हेईक्रू परेंग टीम या चेंग परेंग टीम की जीत हुई है। चेंग
परेंग का महत्व यह दर्शाना है कि जिस ईश्वर ने हमें अन्न दिया है वह अन्न बदले में
उसे वापस दिया जा रहा है। चेंग परेंग व्यक्ति की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है।
निंगोल चकौबा (Ningol
Chakouba) – निंगोल चकौबा मणिपुर का सबसे बड़ा और रंगीन त्योहार हैI यह मैतेई
लोगों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। ‘निंगोल चकौबा’ का अर्थ
है महिलाओं को पैतृक घर में भव्य भोज के लिए आमंत्रित करनाI ‘निंगोल’ का अर्थ
है ‘महिला’ और ‘चकौबा’ का अर्थ है ‘भोजन के
लिए बुलाना’I इसलिए यह दिन विवाहिता बेटियों और बहनों
के लिए विशेष महत्वपूर्ण हैI इसमें सभी उम्र की बहन और बेटियों को
आमंत्रित किया जाता हैI प्रत्येक वर्ष अक्टूबर- नवंबर माह में इस
त्योहार का आयोजन किया जाता हैI इस त्योहार में अमीर – गरीब सभी
शामिल होते हैंI परंपरा के अनुसार त्योहार के कुछ दिन पहले
सभी बहन - बेटियों को औपचारिक रूप से आमंत्रण भेजा जाता हैI इस
त्योहार के अवसर पर सभी बहन – बेटियाँ अपने माता – पिता के
घर में कुछ समय बिताती हैंI इस त्योहार में महिलाएं पारंपरिक परिधान
और अलंकार धारण कर अपने बच्चों के साथ अपने पैतृक घर में आती हैं, अपने
माता – पिता और भाइयों से मिलती हैं और उनके साथ
भोजन करती हैंI दूर देश – प्रदेश
में रहनेवाली महिलाएं भी इस मौके को छोड़ना नहीं चाहती हैं क्योंकि ऐसा माना जाता
है कि इस त्योहार में शामिल होनेवाली महिलाएं भाग्यशाली होती हैंI अपने
माता-पिता के घर पर महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन, उपहार और
पूर्ण आराम दिया जाता है। माता – पिता और भाइयों द्वारा अपनी बेटियों और
बहनों के लिए सुस्वादु भोजन तैयार किए जाते हैं। माता – पिता, दादा-
दादी, भाई आदि घर के सभी सदस्य अपनी निंगोल (बेटियों और बहनों) का गर्मजोशी
से स्वागत करते हैं। पारिवारिक आत्मीयता को पुनर्जीवित करने के लिए इससे बेहतर कोई
अवसर नहीं हो सकता है। परंपरा के अनुसार शादी के बाद महिला अपने पैतृक घर को भौतिक
रूप से तो छोड़ देती है, लेकिन जिस घर में वह पैदा हुई और पली- बढ़ी
उस घर को मन से कभी नहीं छोड़ पाती है। निश्चित रूप से यह त्योहार परिवार के
सदस्यों को पुनर्मिलन का अवसर देता है। यह मूल रूप से परिवार के पुनर्मिलन का
उत्सव है। इस त्योहार में कई पीढ़ियों के लोग, पुरुष और महिला, युवा और
बुजुर्ग मिलते हैं और त्योहार का आनंद लेते हैंI यह
त्योहार भाइ- बहनों के बीच स्नेह – सूत्र को मजबूत बनाता है। भव्य दावत के
बाद माता-पिता बेटियों और बहनों को सामान्य उपहार के साथ आशीर्वाद भी देते हैं।
कहा जाता है कि बहन के साथ कभी भी दुर्व्यवहार नही करना चाहिए क्योंकि भाई की खुशी
उसकी बहन की खुशी में निहित है। यह त्योहार पारिवारिक आत्मीयता को पुनर्जीवित करने
और रिश्तेदारों के बीच स्नेह का संचार करने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आजकल यह त्योहार पंगल (मणिपुरी मुसलमानों) द्वारा भी मनाया जाता है।
रास लीला - रासलीला मणिपुरी शास्त्रीय
नृत्य का प्रतीक हैI इसमें राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम के
साथ - साथ गोपियों के उदात्त और पारलौकिक प्रेम और प्रभु की भक्ति को दर्शाया जाता
है। यह आम तौर पर मंदिर के सामने किया जाता है और दर्शक भक्ति की गहराई में डूबकर
इसे देखते हैं। रास का प्रदर्शन बसंत पूर्णिमा, शरद
पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा की रात में इम्फाल स्थित श्रीश्री गोविंदजी के मंदिर
में किया जाता है और बाद में इसका प्रदर्शन स्थानीय मंदिरों में किया जाता है।
रचना के अनुसार इसका प्रदर्शन एकल, युगल और समूह में किया जा सकता है। नृत्य की इस विशिष्ट शैली में
सूक्ष्मता, नवीनता और आकर्षण है। नर्तकों की वेशभूषा
का कलात्मक सौन्दर्य दर्शकों को अभिभूत कर देता है। मणिपुरी रास एक नृत्य नाटिका
उत्सव है जो श्रीकृष्ण की लीलाओं पर आधारित है। रासलीला राजर्षि भाग्यचंद्र (1777-1891)
की व्यापक दृष्टि की उत्पत्ति हैI रासलीला
में वृंदावन की गोपियों के साथ श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम की कहानी प्रदर्शित की गई
हैI रासलीला का यह त्योहार मुख्य रूप से श्री श्री गोविंदजी मंदिर, इंफाल
में मनाया जाता हैI यह राधा और बृंदावन की अन्य गोपियों के
साथ भगवान कृष्ण का नृत्य उत्सव है। यह श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम के बारे में
नृत्य नाटिका (लीला) है जो मणिपुरी वैष्णव की जीवन शैली से अविभाज्य रूप से जुड़ी
हुई है। भक्ति योग में इस त्योहार का बहुत महत्व है क्योंकि यह राधा और श्रीकृष्ण
के लिए अन्य गोपियों के उदात्त प्रेम को प्रकट करता है। इस त्योहार के अनेक नृत्य
मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य के रूप में संगीत प्रेमियों के बीच प्रसिद्ध है। मणिपुरी
रास पांच प्रकार के होते हैं- वसंत रास, कुंज रास, महारास, नित्य
रास और दिबा रासI बसंत रास, कुंज रास
और महारास की शुरुआत स्वयं राजश्री भाग्यचंद्र महाराज ने की थी और बसंत पूर्णिमा, शरद
पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में श्रीगोविंद जी की मूर्ति स्थापित कर
श्री श्री गोविन्दजी मण्डप में उनका प्रदर्शन किया जाता था। नित्य रास की शुरुआत
उनके पोते श्री चंद्रकीर्ति महाराजा और दिव्य रास की शुरुआत श्री चुड़ाचाँद महाराजा
द्वारा की गई थी।
वसंत रास – भगवान
श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अनुराग लौकिक नहीं बल्कि दिव्य था जैसा कि अपने
इष्ट देव के प्रति एक भक्त का होता हैI महाभारत के अनुसार यह एक धार्मिक इतिहास
है कि श्रीकृष्ण और गोपियों की लीलाएँ वृन्दावन में हुईंI वसंतरास
श्रीकृष्ण की प्रेम लीला पर आधारित हैI इसका आयोजन शाही महल में वसंत पूर्णिमा के
दिन किया जाता हैI वसंतरास की उत्पत्ति जयदेव कृत ‘गीत
गोविन्द’ के अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण और पद्मपुराण
से मानी जाती है। वसंत के उपलक्ष्य में गोपियों ने श्रीकृष्ण के साथ होली खेली थी।
जब श्रीकृष्ण प्रतिद्वंद्वी नायिका चन्द्रावली के साथ होली खेलने गए तो राधा इतनी
क्रोधित हो गई कि श्रीकृष्ण को उनसे क्षमा मांगनी पड़ीI इस विषय
को गीत, नृत्य और अभिनय के माध्यम से
विस्तारपूर्वक बताया जाता हैI चार घंटे के इस नृत्य – नाट्य को
वसंतरास कहते हैंI शाही मंदिर के बाहर आयोजित होनेवाले
वसंतरास का स्वरुप और गीतों का विषय थोड़ा भिन्न होता हैI लीला का
आरम्भ कृष्ण चैतन्य के मंगलाचरण से होता हैI लाल अबीर के साथ होली खेली जाती है और
कृष्ण चन्द्रावली की तलाश करने और उसके साथ होली खेलने लगते हैंI यह देखकर
राधा क्रोधित हो जाती हैI इसके बाद गीत गोविन्द की काव्य पंक्तियों
को प्रस्तुत करते हुए कृष्ण झुककर राधा से क्षमा मांगते हैंI राधा
उन्हें क्षमा कर देती हैI इसके उपरांत सूत्रधार, गोपियाँ
और अन्य लोग प्रार्थना गाते हैंI दीप जलाकर आरती होती है और सभी दर्शक खड़े
होकर कृष्ण – राधा की सामूहिक प्रार्थना करते हैंI अंत में
गोपियाँ “गृह गमन” का गायन
करती हैं और वसंतरास समाप्त हो जाता हैI
महारास – महारास
भागवत पुराण की रसपंचाध्यायी पर आधारित हैI भगवान कृष्ण अपने वादे के अनुसार कार्तिक
पूर्णिमा की रात को गोपियों के साथ रासलीला करने के लिए नियत स्थल (कुंज) पर
पहुँचेI बांसुरी के संगीत से मंत्रमुग्ध होकर राधा
और गोपियाँ अपना काम छोड़कर श्रीकृष्ण से
मिलने के लिए निकल गईं। श्रीकृष्ण से मिलने पर राधा और गोपियों का वियोग दुःख दूर
हुआI उन्होंने कृष्ण के साथ नृत्य किया लेकिन शीघ्र ही उनका हर्ष विषाद में
बदल गयाI जब गोपियों को श्रीकृष्ण के साहचर्य का
अभिमान हो गया तब कृष्ण अचानक वहाँ से गायब हो गएI कृष्ण के
वियोग से गोपियाँ अत्यंत दुखी हो गईं और वे पशु – पक्षियों
से कृष्ण का पता पूछने लगींI जब वे अत्यंत दीन – हीन व
विनम्र होकर श्रीकृष्ण की तलाश करने लगीं और उनका अभिमान दूर हो गया तब श्रीकृष्ण
प्रकट हुए लेकिन अब वे अकेले नहीं थे बल्कि उनके साथ असंख्य कृष्ण थेI प्रत्येक
गोपी के साथ एक कृष्ण नृत्य करने लगेI महारास में सूत्रधारी (सामान्यतः दो) कथा
सुनाने के साथ – साथ श्लोकों – गीतों के
माध्यम से कथात्मक टिप्पणियाँ भी प्रस्तुत करते हैंI हर साल
महिलाएं और लड़कियां कार्तिक पूर्णिमा की रात का बेसब्री से इंतजार करती हैं ताकि
वे सुंदर मणिपुरी पोटलोई पहनकर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा कर सकें। उनकी निष्काम
भक्ति और ईश्वर के प्रति अनुराग दर्शकों और प्रतिभागियों को एक ऐसी दुनिया में ले
जाता है जहां केवल शुद्ध प्रेम का सागर लहराता रहता है।
कुंज रास – कुंज रास
लीला महारास लीला का संक्षिप्त रूप हैI कुंज रास का प्रदर्शन आश्विन माह
(अक्टूबर-नवंबर) की पूर्णिमा को किया जाता है। यह 'गोविंद
लीलामृत' पर आधारित हैI कुंज रास
को महारास लीला का अंग माना जाता हैI इसमें 'रस
पंचाध्यायी' के पूर्ण पाठ का अभिनय नहीं किया जाता। यह
पत्तियों, फूलों और पक्षियों से सुशोभित कुंज में
भगवान श्रीकृष्ण, राधा और गोपियों के दैनिक नाटक का चित्रण
है। कुंज रास लीला की संरचना में गोपी अभिसार, बृंदावन
वमन, भंगी परेंग, रूप वमन, प्रार्थना, पुष्पांजलि
और कुंज आरती शामिल है। कुंज रास की शुरुआत भगवान श्रीकृष्ण के कुंज में प्रवेश के
साथ होती है। वह लीला शुरू करने के लिए सभी गोपियों को बांसुरी बजाकर बुलाते हैं।
सूत्रधार की बाईं ओर दो बाल कलाकार भगवान कृष्ण का अभिनय करते हैं और बांसुरीवादक
उनके लिए पार्श्व से बांसुरी बजाते हैं। गोपियाँ बांसुरी की मधुर आवाज सुनकर बेचैन
हो जाती हैं। वे कुंज की ओर भागती हैं। इसमें गोपी अभिसार का प्रदर्शन किया जाता
है। गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण और राधा के चरणों में पुष्प अर्पित करती हैं। अंत में
पुजारी और सभी श्रोता खड़े होकर आरती करते हैं और 'हरि बोल
हरि बोल' बोलते हैं।
नित्य रास – राजा
चंद्रकीर्ति के सहयोग से भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का सार रूप प्रस्तुत करने के
लिए नित्य रासलीला (नर्तन रास) की रचना की गई थी। इस लीला के प्रदर्शन के लिए कोई
निश्चित ऋतु या विशिष्ट दिन निर्धारित नहीं हैं। इसका किसी भी दिन प्रदर्शन किया
जा सकता है। शरद ऋतु और बसंत ऋतु के महीनों को छोड़कर पूरे वर्ष में नित्य रास का
प्रदर्शन किया जाता है। इसका बड़ा अंश ‘गोविंद लीलामृत’ पर
आधारित है। नित्य रास में मधुर गीतों और नृत्यों के माध्यम से राधा और कृष्ण की
दिव्य लीलाओं को दर्शाया गया है। बसंत रास, कुंज रास और महारास की तरह नित्य रासलीला
भी नट संकीर्तन पाला से शुरू होती है। रसधारी द्वारा बारी - बारी से राग आलाप, बृंदावन
वमन, कृष्ण अभिसार, राधा अभिसार शुरू किया जाता है। इसमें
बृंदा और तुलसी के बीच के संवाद का अभिनय भी शामिल है। सूत्रधार द्वारा राधा के 'वेशसजन' प्रकरण
का भी वर्णन किया जाता है। गोपियों द्वारा शरीर के हाव-भाव और चाल-ढाल से गोपी
अभिसार का प्रदर्शन किया जाता है। गोपियाँ राधा के साथ नृत्य करती हैं। गोपियाँ
राधा और कृष्ण की प्रार्थना करती हैं और उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करती हैं। अंत
में पुजारी द्वारा आरती की जाती है और इसके साथ यह लीला संपन्न हो जाती है। ऐसा
माना जाता है कि महारास, कुंज रास और वसंत रास आरंभिक रचना है जबकि
नित्य रास और दिबा रास बाद में जोड़े गए हैंI
दिबा रास - दिबा रासलीला दिन के समय में
की जाती है। इसके लिए कोई ऋतु या महीना निश्चित नहीं हैI आमतौर पर
महल और भगवान गोविंदजी के मंदिर में नित्य और दिबा रास दोनों का प्रदर्शन नहीं
किया जाता है। राजा चूराचाँद के शासनकाल में अखम ओजा तोम्बा द्वारा दिबा रास लीला
का सृजन किया गया था। नाम के अनुरूप दिबा रास का प्रदर्शन दोपहर में किया जाता है।
यह श्रीकृष्ण के राधाकुंज में राधा के आगमन का वर्णन है। तीन महत्वपूर्ण रास
लीलाओं अर्थात, महारास लीला, कुंज रास
लीला और बसंत रास लीला का प्रदर्शन एक विशेष ऋतु और समय में किया जा सकता है, लेकिन
दिबा रास लीला का प्रदर्शन कभी भी किया जा सकता हैI दिबा
रासलीला के सृजन का उद्देश्य वैष्णव भक्तों को सभी ऋतुओं में उनकी सुविधा के
अनुसार भक्ति और प्रार्थना का अवसर देना है। यह गोविंद लीला नृत्य और रस
पंचाध्यायी पर आधारित है। दिबा रास लीला की शुरुआत नट संकीर्तन पाला के साथ होती
है। राग आलाप, गुरु वंदना, वैष्णव
वंदना आदि का प्रदर्शन किया जाता है और सूत्रधार द्वारा गौरा भावी का प्रदर्शन
किया जाता है। कृष्ण नृत्य अभिसार का अभिनय किया जाता है और भगवान राधा के लिए
आंसू बहाते हैं। कृष्ण अपनी बांसुरी बजाते हैं। गीत और नृत्य द्वारा राधा अभिसार, वेशसजन और गोपी अभिसार का प्रदर्शन किया जाता है।
गोपियां और राधा रास लीला शुरू करने के लिए अंबुज कुंज में जाती हैं। राधा, कृष्ण और
अनंग मंजुरी साथ- साथ नृत्य करते हैं। रास लीला के पांच प्रकारों में से पहले तीन
महत्वपूर्ण रास लीला अर्थात, महा रास लीला, कुंज रास
लीला और बसंत रास लीला पारंपरिक रूप से विशिष्ट मंदिरों में विशिष्ट दिनों में की
जाती हैं, लेकिन नित्य रास लीला और दिबा रास लीला को
गोविंदजी मंदिर में प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं है।
अंग्गी – फेव
त्योहार (Anggee – Pheo Festival) – थंगल मणिपुर की एक
नागा जनजाति है जिसके सभी गाँव सेनापति जिले में स्थित हैंI सरकारी
दस्तावेजों में इन्हें ‘कोईरव’ कहा गया
हैI इस समुदाय को ‘कोईरव’ नाम
संभवतः दूसरे लोगों ने दिया है क्योंकि इस समुदाय के लोग खुद को ‘कोईरव’ नहीं
कहते हैंI अंग्गी – फेव इस
जनजाति का एक प्रमुख त्योहार है जिसका आयोजन जनवरी माह में किया जाता हैI ‘अंग्गी – फेव’ का
शाब्दिक अर्थ ‘ढाल की सफाई’ हैI इस
त्योहार में सभी प्रकार के औजारों और उपकरणों जैसे, कुदाल, दाव, कुल्हाड़ी, फावड़ा
आदि की साफ़ जल से सफाई की जाती हैI इस त्योहार का उद्देश्य मनुष्य के सभी
पापों को पीछे छोड़ते हुए आगामी वर्ष की सुख – समृद्धि के लिए प्रयत्न करना हैI यह
त्योहार तीन दिनों तक मनाया जाता हैI इस त्योहार में पुरुष वर्ग मुख्य भूमिका
निभाता हैI इस त्योहार के प्रथम दिन पुरुषों द्वारा
औजारों और उपकरणों जैसे, कुदाल, दाव, कुल्हाड़ी, फावड़ा
आदि की सफाई की जाती हैI त्योहार के दूसरे दिन पुरुषों के लिए
महिलाएं चावल से बनी ताजा मदिरा लाती हैंI सबसे पहले ईश्वर के नाम पर थोड़ी मदिरा
अर्पित की जाती है और “ओ सरई नंग तारी – सकरिला” का
उच्चारण किया जाता है जिसका अर्थ है “हे ईश्वर ! सबसे पहले आप मदिरापान और भोजन
करेंI” इसके बाद महिला – पुरुष सभी भोज में शामिल होते हैं और
मदिरा का सेवन करते हैंI तीसरे दिन त्योहार मनाया जाता हैI
लिन्हू त्योहार (Linhu
Festival) – थंगल मणिपुर का एक आदिवासी समुदाय है जिसकी अधिकांश आबादी सेनापति
जिले में निवास करती हैI मणिपुर का थंगल समुदाय प्रत्येक वर्ष
फ़रवरी महीने में लिन्हू त्योहार मनाता हैI तीन दिनों तक धूमधाम से इसका आयोजन किया
जाता हैI इस दिन गाँव का चीफ उपवास रहकर ईश्वर की
पूजा करता हैI यह इस समुदाय का कृषि संबंधी त्योहार हैI इस
त्योहार के पहले किसी को अपने खेतों में बीज बोने की अनुमति नहीं हैI इस
त्योहार की कोई निश्चित तिथि नहीं हैI सामान्यतः गाँव के बुजुर्ग त्योहार की
तिथि निर्धारित कर उसकी सार्वजानिक घोषणा करते हैंI इस
त्योहार का मुख्य उद्देश्य गाँव के चीफ द्वारा अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करना हैI त्योहार
के एक दिन पहले गाँव के सभी द्वार बंद कर दिए जाते हैं तथा किसी को गाँव से बाहर
जाने की अनुमति नहीं दी जातीI कोई आकस्मिक स्थिति उत्पन्न होने पर गाँव
के चीफ द्वारा गाँव से बाहर जाने अथवा किसी को गाँव में प्रवेश करने की अनुमति दी
जाती हैI गाँव का
चीफ इस त्योहार के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाता हैI वह तीन
दिनों तक उपवास रहता है और अलग कमरे में सोता हैI उसकी
सहायता के लिए एक अविवाहित युवक उसके साथ रहता हैI वह तीन
दिनों तक केले के पत्ते में चार बार चावल से बनी स्थानीय मदिरा पीता हैI इस दौरान
गाँव के प्रत्येक परिवार का यह दायित्व है कि वह चीफ के लिए निरंतर मदिरा की
आपूर्ति करता रहेI ईश्वर को भी मदिरा अर्पित की जाती है और
उनसे अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती हैI त्योहार के दौरान चीफ द्वारा देखे गए सपने
अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैंI उन सपनों से फसलों और आनेवाले वर्ष का
संकेत मिलता हैI इन तीन दिनों तक चीफ के कदम जमीन पर नहीं
पड़ते हैं, या तो वह केले के पत्ते पर अथवा लकड़ी के
तख्ते पर अपने पैर रखता हैI इस दौरान कोई उनसे नहीं मिल सकताI चौथे दिन
चीफ का उपवास और त्योहार समाप्त होता हैI त्योहार के तीन दिनों तक गाँव में उत्सव
का माहौल रहता हैI गीत, नृत्य, भोज और
विभिन्न प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं जिनमें हर उम्र के लोग
शामिल होते हैंI
कांग चिंगबा (Kang Chingba) - कांग चिंगबा मणिपुर का एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह उत्सव प्रत्येक वर्ष जून - जुलाई महीने में मनाया जाता हैI यह पुरी की रथयात्रा के समान है लेकिन रथ निर्माण की शैली पर मैतेई स्थापत्य कला की छाप है। ‘कांग’ का अर्थ पहिया होता हैI भगवान जगन्नाथ को जिस रथ में ले जाया जाता है उसे भी ‘कांग’' कहा जाता है। कांग चिंगबा त्योहार दस दिनों तक पूरे मणिपुर में मनाया जाता हैI रथ में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की काठ की मूर्तियाँ रखकर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती हैI इस त्योहार को देखने और शोभा यात्रा में शामिल होने के लिए पूरे मणिपुर से हजारों भक्त इंफाल में आते हैं और विशाल रथ को खींचते हैं। रथ को गोबिंदजी मंदिर से सनथोंग (महल के द्वार) तक लाया जाता है और पुनः उसी मार्ग से मंदिर तक वापस लाया जाता हैI गोबिंदजी मंदिर के अतिरिक्त पूरे मणिपुर में कंग चिंगबा का आयोजन होता है लेकिन परिवार के स्तर पर कंग चिंगबा का आयोजन गोबिंदजी मंदिर के आयोजन के बाद ही किया जा सकता हैI कंग चिंगबा के आयोजन का इतिहास बहुत पुराना हैI सर्वप्रथम कांग चिंगबा का आयोजन वर्ष 1832 ई. में राजा गंभीर सिंह ने प्रारंभ किया थाI पहले सात रंगों का ध्वज ‘कंगलेईपक’ (मणिपुर के सात वंशों का प्रतिनिधित्व करनेवाला ध्वज) कांग की छत पर फहराया जाता था, लेकिन अब ध्वज के स्थान पर ‘कांगशी’ (घंटी) का उपयोग किया जाता हैI मैतेई समाज और उसकी प्रत्येक मान्यता, अनुष्ठान, त्योहार, संस्कृति और परंपराओं में पृथ्वी की रचना, जीवित प्राणियों की सृष्टि, मानव सभ्यता और प्रकृति आदि आधारभूत तत्व के रूप में मौजूद रहती है। मणिपुर में पहली बार कंग चिंगबा का आयोजन वर्ष 1832 ई. में मणिपुरी महीने ‘इना’ (मई – जून) की दूसरी तिथि को शनिवार के दिन हुआ थाI इसके बाद सात साल तक इस त्योहार का आयोजन नहीं हुआI पुनः वर्ष 1840 में राजा गंभीर सिंह के निधन के बाद उनके बेटे चंद्रकीर्ति ने इना के दसवें दिन इस त्योहार का आयोजन कियाI इससे स्पष्ट होता है कि शुरुआत में त्योहार का कोई दिन निश्चित नहीं था, हालांकि इना महीने में इसका आयोजन किया जाता था। चार साल के विराम के बाद वर्ष 1846 ई. में पुरी में इस उत्सव का आयोजन किया गया। इस प्रकार मणिपुर में जगन्नाथ पंथ का आगमन हुआ और कंग चिंगबा मैतेई हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार बन गया। मणिपुर में रथयात्रा के अवसर पर भक्तों द्वारा खींचे गए रथ में ब्राह्मण और शंख, मृदंग तथा झांझ लिए संगीतकारों की एक टीम शामिल होती है। अपने हाथों में चँवर लेकर दो युवा लड़कियां द्वारपाला की भूमिका में रहती हैं। जहां भी रथ रुकता है वहां भक्तगण फल, फूल, अगरबत्ती से भगवान की पूजा करते हैं। आरती के बाद फल वितरित किए जाते हैं। लोगों का मानना है कि रस्सियों को पकड़ने और मूर्तियों के साथ रथ को खींचने का अवसर मिलने से सभी दुख और पाप दूर हो जाते हैं। इस विश्वास के साथ सभी क्षेत्रों के लोग रथ को खींचने के लिए दूर - दूर से आते हैं। नौ दिनों तक प्रतिदिन मंडप में जयदेव (भगवान का स्तुति गीत) और ‘खुबाक – ईशै’ का प्रदर्शन होता हैI ‘खुबाक’ का अर्थ ताली और ‘ईशै’ का अर्थ संगीत होता हैI ‘जयदेव’ और ‘खुबाक – ईशै’ के बाद प्रसाद के रूप में खिचड़ी का वितरण किया जाता है। कमल के पत्ते पर प्रसाद परोसा जाता है जिसके कारण प्रसाद का स्वाद बढ़ जाता है। प्रसाद के रूप में खिचड़ी परोसने के पीछे एक स्थानीय मान्यता है। ऐसा माना जाता है कि एक बार सुभद्रा को उनके भाइयों ने खाना बनाने के लिए कहा। समुद्री लहरों की आवाज़ से भयभीत होकर सुभद्रा ने जल्दबाजी में चावल और दाल दोनों को एक ही बर्तन में मिला दिया जो खिचड़ी बन गई। इसलिए खिचड़ी कंग उत्सव का एक अभिन्न अंग बन गई। इंगी के बारहवें दिन को हरिशयन कहा जाता हैI एक पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विश्राम करते हैंI हरिशयन के दिन उत्सव का समापन होता है। विभिन्न प्रकार के मौसमी फल और फूल जैसे अनान्नास, नाशपाती, बेर, कमल के बीज, कमल के फूल, कमल के पत्ते और सूखे मटर और धान के दानों की माला आदि कंग त्योहार से जुड़े हुए हैं।
वीरेंद्र परमार
103, नवकार्तिक सोसायटी, प्लाट न. – 13, सेक्टर-65, फरीदाबाद-121004
सम्पर्क 9868200085, bkscgwb@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें