आलेखमाला: नवगीत में गाँधी जी की वैचारिकी/ अशोक कुमार मौर्य

         'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020

            आलेखमाला: नवगीत में गाँधी जी की वैचारिकी/ अशोक कुमार मौर्य
                (डॉ. शम्भुनाथ सिंह के नवगीतों के विशेष सन्दर्भ में)

चित्रांकन:
कुसुम पाण्डेय
नैनीताल
हिन्दी गीत का उत्तरोत्तर विकास नवगीतहै, जिसे साहित्यिक विधा भी कहा गया। नवगीत को सशक्त विधा के रूप प्रमाणित करने का कार्य डॉ. शम्भुनाथ सिंह द्वारा होताहैं। अपने युवावस्था में डॉ. शम्भुनाथ सिंह महात्मा गाँधीसे काफ़ी प्रभावित हुए।गाँधी जी के आदर्शों और नीतियों को उन्होंने अपने मूल्य बनाए, जो इनके नवगीतों में देखे जा सकते हैं। मूलतः गाँधी जी के जीवन कर्म, आचरण, सर्वोदय, मानवता, स्त्री शिक्षा, अस्पृश्यता निवारण आदि की वैचारिक उपस्थिति डॉ. शम्भुनाथ सिंह के नवगीतों में कदाचित् ज्यादा हैं।


जहाँ गाँधी जी राष्ट्र निर्माण और आर्थिक समानता के लिए विकेंद्रीकरण को आवश्यक मानते थेऔर कहते हैं कि मेरा सुझाव है कि यदि भारत को अहिंसा के आधार पर अपना नव-निर्माण करना है तो विभिन्न क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण का मार्ग अपनाना होगा जैसी कि मेरी धारणा है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है और शोषण हिंसा का ही प्रतिरूप है।वहीं नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करते हैं। उनका मानना है कि जिन खेतिहर मजदूरों और निम्नवर्गीय किसानों के परिश्रम से उत्पन्न खाद्यान्न द्वारा मानव समाज का पोषण होता है। वे स्वयं भूखे या आधे पेट खाकर रह जाते हैं, किन्तु शोषकों का ध्यान इस तथ्य की ओर नहीं जाता और वे खटमल की तरह कमजोर वर्ग के शरीर का रक्त चूसते हैं, इस स्थिति का वर्णन वे निम्नलिखित नवगीत में करते हैं-


उनका भी है मानव तन!
निर्मित करते जो भाव-नगर
भू पर भवनों के लिख अक्षर
झोपड़ियों में वे जाते मर!
चित्रित करते जो भू-आँगन
हल की तूली से कर अंकन
भूखों को वे देते जीवन
जो जीते रहते जीवन भर
दुनिया को देने को भोजन
उनका भी है मानव का तन।


डॉ. शम्भुनाथ सिंह की दृष्टि में किसानों की दुर्दशा से ग्रामों की उन्नति कदाचित् नहीं हो सकती। इसलिए गाँवों की उन्नति के लिए तमाम आधुनिक तकनीकी संसाधनों को प्रयोग करने के लिए जरूरी समझते हैं। उनका मानना था कि गाँवों को स्वयं प्रगति के लिए प्रोत्साहित करना होगा।महात्मा गाँधी जी नेभी भी कहा था कि राष्ट्र की उन्नति एवं प्रगति के लिए ग्रामों की प्रगति का होना आवश्यक है।


गाँधी जी के अनुसार ब्रह्मचर्य के बिना सत्य और अहिंसा की सिद्धि संभव नहीं। उनका मानना है कि ब्रह्मचर्य में सभी इन्द्रियों का संयम आवश्यक है। अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग मेंलिखते हैं कि मन, वचन और कर्म से इन्द्रियों का दमन ही ब्रह्मचर्य है।इसी तरह नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह पथ को करो प्यारनवगीत में ब्रह्मचर्य द्वारा कर्ममय जीवन का अभिनन्दन करते हैं। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए महात्मा गाँधी के निधन पर वे यह भी कहते हैं- बुझी न दीप की शिखा अनन्त में समा गयी।उसी प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनता की आकांछाएँ पूरी न होते देख वह जनक्रांति के लिए आह्वान भी करते हैं-


कब तक तुम मौन रहोगे ओ जन देवता
रात गई पर न खुली अर्गला /
मुक्ति मिली पर न कटी श्रृंखला;
वन्दिनी अभी विमुक्त कुन्तला;
अपने ही घर में पर यह नवीन दासता/
कब तक चुप चाप सहोगे ओ जन देवता।


गाँधी  जी ने जीवन भर साम्प्रदायिकता ख़त्म करने का प्रयास किया। हिन्दू-मुस्लिम दंगों के मध्य अपनी जान हथेली पर रखकर निर्भरता से पहुँचते थे और पारस्परिक सौहार्द्र व भाईचारा कायम कर अपना कर्त्तव्य पूरा करते थे। वो कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि अहिंसात्मक संघर्ष शुरू करके मैं पागलों सा साहस कर रहा हूँ, वैसा ही जोखिम उठा रहा हूँ; लेकिन जोखिम उठाए बिना और अकसर भारी-से-भारी जोखिम उठाए बिना सत्य की कभी जीत नहीं हुई है।...राष्ट्र के लोगों का हृदय परिवर्तन करने के लिए चाहे जितना जोखिम क्यों न उठाना पड़े, कम ही है।गाँधी जी के इस चिन्तन का प्रभाव डॉ. शम्भुनाथ सिंह के नवगीतों में देख सकते हैं। डॉ. शम्भुनाथ सिंह साम्प्रदायिकता की विभिन्न स्थितियों को समझते हैं और इससे उपजे हालातों को इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-


बारूदी झाडियां उधर हैं
जहरीली खाड़ियां इधर हैं,
टूटी हैं रेल की पटरियां
उलटी सब गाड़ियां उधर हैं।
तुम जिनकी ओर जा रहे हो
वे जलते गांव हैं, शहर हैं।
हैं उस तरफ सूखी झीलें
मुर्दों के हैं कितने टीलें,
गहरें नील आसमां में
मंडराती हैं भूखी चीलें।


नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने केवल सौन्दर्यजनित शारीरिक या मानसिक प्रेम को ही प्रेम नहीं कहा है। आपने प्रेम की उस व्यापक चेतना की ओर निर्देश किया है जिसके कारण ही यह सृष्टि अनवरत चल रही है और जीवन का चक्र बराबर घूमता आ रहा है।यह दो व्यक्तियों के बीच का आकर्षण भी हो सकता है, समस्त मानवता के प्रति प्रेम भी हो सकता है और अदृश्य अलौकिक जगत के प्रति आकर्षण भी हो सकता है।गाँधी जीके अनुसार, “ईश्वर शायद प्रेम हो सकते हैं, लेकिन सबसे ऊपर वे सत्य हैं।....और अंत में जाना कि केवल प्रेम के माध्यम से ही सत्य के अधिक से अधिक पास पहुँचा जा सकता है।इसी सनातन प्रेम की अनुभूति नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह अपने नवगीत में इस तरह करते हैं-


दूसरी कोई न मानव की कहानी
हार जीवन से कभी उसने न मानी
वह निरन्तर जल रहा पर चल रहा है
काल-मरू में राह है उसको बनानी।


गाँधी जी मन को नियंत्रित करने पर बल देते हैं। उनका मानना था कि जीवन तब तक सबल नहीं हो सकता। जब तक मन को दृढ़तापूर्वक नियंत्रित न किया जाए।इसी तरह नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह मानते हैं कि मन बहुत ही बावला और चंचल होता है। इसके तत्क्षणबदलने से जीवन में अस्थिरता बनी रहती है। इसलिए इस दुनिया में आपके पाँव मजबूत होने चाहिए। नहीं होंगे तो चित्त होने की संभावना अधिक होगी-

पागल मन, मत मनुहार करो
भ्रम हो सकता वरदान नहीं
सच होते स्वप्न-विधान नहीं
बुलबुले भँवर में जीवन के
बन सकते हैं जलयान नहीं
गयी कल्पना सो
गयी चेतना सो
सुधा की सुरभि हो
गीत बेसुधी हो,
कहीं दूर मुझको लहर आज छवि की
किरन की तरी लिए जा रही है।

गाँधी  जी अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी थे। यह एक अपमानजनक प्रथा थी, जिसका उन्होंने सभी धर्मों, जातियों में ख़त्म कर देने की बात कहीं। उन्होंने 1905 ई. में घोषित रूप से कहा कि मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से, ब्राह्मण (पुजारी) और भंगी (सफाई कामगार) के बीच कोई भेद नहीं है।गाँधी जी के लिए सभी बराबर थे, क्योंकि वे मानते थे कि सभी ईश्वर की संतान है। अस्पृश्यता को पाप कहा और बताया कि यह हिन्दू धर्म के लिए एक कलंक है। वे कहते हैं कि अगर अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का हिस्सा है, तो निश्चय ही यह इसका सड़ा हुआ हिस्सा या अपवृद्धि है।  स्वाभाविक रूप से गाँधी जी का यह चिन्तन सही था। ऐसी स्थिति किसी भी समाज के लिए दयनीय होती है, जहाँ जाति, धर्म, मूल, वंश आदि प्रकारों से विभेद किए जाए।ऐसे समाज का यथार्थ चित्रण नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह अपने नवगीतों में करते हैं और आशा करते हैं कि समाज अपने उदात्त रूप से नई ज्योति के साथ उपस्थित हो-

पर बदलता है नियम संसार का
है काल का चरखा निरन्तर चल रहा
जिससे निकलता सूत जीवन का
अटूट, न अन्त जिसका,
पर विषम जो था, वही सम आज होता जा रहा है;
नयी मानवता उसी से बुन रहा मानव निरन्तर
बनेगा जिससे कि कल के
विश्व-मानव का धवल परिधान सुन्दर।
पहनकर जिसको बनेंगे
रामपति, पलटू भगत, सीतासरन,
बरियार सिंह, गुलजार एक समान।
वे होंगे न नीच चमार, कोइरी
उच्च ब्राह्मण और ठाकुर
नहीं मालिक और नौकर,
सभी होंगे आदमी, श्रमशील मानव।
.........................................
वहाँ होगा सबेरा!
नये युग का सूर्य निकलेगा
अमित ले ज्योति-घेरा!

गाँधी जी स्त्रियों की शिक्षा के प्रति काफी सजग थे। वे मानते थे कि एक शिक्षित स्त्री का प्रभाव व्यापक रूप से समाज पर पड़ता है। जो चिरन्तर और स्थायी होता है।गाँधी स्वयं मानते थे कि उन्होंने कस्तूरबा से जीवन की सच्ची परिभाषा सीखीं। जिससे मेरे जीवन को नया आयाम मिला। दक्षा जानी लिखती हैं कि गाँधी जी के जीवन में कस्तूरबा का आगमन उनकी वैचारिक क्षमता में विवेचन और वृद्धि के लिए अभूतपूर्व था।गाँधी जी ने कस्तूरबा के माध्यम से शिक्षा, विवाह, ब्रह्मचर्य, विषय वासना, आसक्ति, प्रेम आदि शब्दों को विस्तार से समझा और अपने अनुभवों के आधार पर इन्हें जगत के सामने रखा।जहाँ गाँधी जी यह भी मानते थे कि स्त्रियाँ केवल विषय भोग की सामग्री नहीं और न ही केवल रसोई बनाने के लिए है।वहीं डॉ. शम्भुनाथ सिंह के अनुसार  स्त्रियाँ हमारी जीवन सहचरी, अर्धांगिनी और सुख-दुःख की साझेदार है।इन्हींजीवनदायिनी स्त्रियों पर जब अत्याचार होता हैं तो नवगीतकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह का हृदय चीत्कार उठता है-

नहीं
केवल बलात्कार काफी नहीं है
जरूरी है-
कि बलात्कार के समय
एक तेज धार वाली
छुरी भी पास हो।
औरत का जिस्म
रौदने के बाद
तुम्हें उसकी दोनों गोल छातियाँ
भी कट लेनी होंगी
ताकी तुम
उस लज़ीज़ गोश्त से बाद में अपना पेट भी भर सको।
....................................
यह सब
हम इसलिए करना चाहते हैं
कि कमबख्त औरत
हमें पैदा करती है।

वस्तुतः गाँधी जी का जीवन उस सत्य का परिलक्षण है। जिसे डॉ. शम्भुनाथ सिंह अपने नवगीतों में रचते हैं। जहाँ गाँधी  जी आचरण की शुद्धता पर बल देते हैं, वहीं डॉ. शम्भुनाथ सिंह उस शुद्धता को अपनी रचनात्मकता का आधार बनाते हैं।गाँधी जी के मानवतावादी दर्शन में वैश्विक समस्याओं के समाधान काअंकन डॉ. शम्भुनाथ सिंह अपने नवगीतों में करते हैं। जिस शान्ति और सहअस्तित्व की कल्पना डॉ. शम्भुनाथ के नवगीतों में दिखती है, वह गाँधी  जी की देश की मंगलकामनाओं की चिंता से प्रेरित है। जब डॉ. शम्भुनाथ सिंहनयी मानवता उसी से बुन रहा मानव निरन्तरनवगीतांश रचते हैं, तब उनके मन में कहीं न कहीं गाँधी जी की सर्वोदय और अस्पृश्यता निवारणकी विचारधारा मन रही होगी।

सन्दर्भ:-
[1]जैन, डॉ. एस. सी., लेख,आधुनिक अर्थतंत्र में गाँधी जी के विचारों की सार्थकता, कुरुक्षेत्र पत्रिका,
    जनवरी 2000, पृ. 15
[2]उदयाचल, डॉ. इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद,
    संस्करण, 2017, पृ. 189
[3]सोलोमन, मंजू मारिया, भारत की स्वतंत्रता के उपरांत आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण( 1947
से 1977), होराइजन बुक प्रकाशन, संस्करण 2017, पृ. 199
[4]दिवालोक, डॉ.इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद संस्करण,
2017,
[5]शर्मा, महेश. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2008, पृ.146
[6]वक्त की मीनार पर, डॉ.इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन,
    गाजियाबाद, संस्करण, 2017, पृ. 670
[7]रोलां, रोमां, महात्मा गांधी जीवन और दर्शन,लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2008, इलाहाबाद,  पृ.
     117
[8]दिवालोक, डॉ. इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद,
     संस्करण, 2017,49
[9]छायालोक, डॉ. इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद,
     संस्करण, 2017,
[10]गांधी, मोहन दास करमचंद, आत्मकथा, भाग 2, सस्ता साहित्य मंडल प्र. पृ. 10
[11]वहीं, पृ. 14
[12]डॉ. इंदीवर, सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद, संस्करण,
      2017, 246-47
[13]जानी, दक्षा, हिन्दी कविता में प्रतिबिंबित गांधी, गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, संस्करण 2005,
      पृ.8
[13]डॉ. इंदीवर,  सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद, संस्करण,
 2017,  पृ. 768  


अशोक मौर्य 
शोधार्थी-हिन्दी विभाग, केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात, गांधीनगर 
मो. 7043910854, ईमेल-Ypiashok@gmail.com

Post a Comment

और नया पुराने