‘वोल्गा से गंगा’ की प्रारंभिक कहानियों का पुनर्पाठ -सुनील कुमार यादव
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
रमाशंकर
यादव ‘विद्रोही’ अपनी
कविता ‘तुम्हारा भगवान’ में
कहते हैं कि “तुम्हारे मान लेने से/ पत्थर भगवान हो
जाता है, लेकिन तुम्हारे मान लेने से/पत्थर पैसा
नहीं हो जाता। तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है, जिससे
तुम खेल तो सकते हो, लेकिन दूध नहीं पा सकते।” धार्मिक
सत्ता का रूप प्रारम्भिक समय से ही ‘पूंजीवादी’ रहा
है जिसको आज भी लोग बनाए रखना चाहते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘वोल्गा
से गंगा’ में धर्म के इसी पाखंड और बर्बरता को
रेखांकित किया है। महाराष्ट्र के एक विद्वान् उपर्युक्त पुस्तक के संदर्भ में कहते
हैं, “किसी भारतीय भाषा में इस हिंदी पुस्तक के समान
कोई ग्रंथ नहीं है।” मेरा भी परिचय पुस्तक से ‘मणिकर्णिका’ पढ़ने
के दौरान हुआ। वोल्गा से गंगा की कहानियों पर बात करने से पूर्व उनकी ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि को जानना अत्यंत आवश्यक है ताकि कहानियों की विषय-वस्तु की गंभीरता को
समझने में व्यवधान उत्पन्न न हो।
पुरातात्विक स्रोतों के अनुसार घोड़े का प्रथम
साक्ष्य ‘यूराल’ क्षेत्र
के दक्षिण में 6000 ईसा पूर्व के आस-पास का मिलता है। यह क्षेत्र पश्चिम में ‘नीपर’ और
पूर्व में ‘वोल्गा’ नदी
के बीच पड़ता है। आर्यों द्वारा घोड़े का सर्वाधिक प्रयोग करने के कारण यह अनुमान
लगाया जाता है कि मध्य एशिया से जो आर्य भारत की धरती पर आए उसका प्रथम साक्ष्य
यूराल की पहाड़ियों में मिला है। इसके विपरीत हिंदी के आलोचक रामविलास शर्मा कहते
हैं कि ‘आर्य भारत से पूरी दुनिया में फैलें।’ लेकिन
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार आर्य मध्य एशिया से भारत आएं; यानी
आर्य बाहरी थे, यह प्रमाणित हो चुका है। राहुल
सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में इस्लामी आक्रमण के पूर्व की कहानियां आर्यों के
वोल्गा से मध्य एशिया और फिर भारतीय तट तक पहुँचने की कहानियां हैं। बाद में
सम्पूर्ण भारत में आर्यों का विस्तार और फिर देश में अनेक राजाओं की शासन सत्ता का
विस्तार से विवेचन है। इस पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन ने इतिहास को कहानियों के
रूप में पिरोया है जो इनकी कल्पना शक्ति का बेजोड़ उदाहरण है। रिचर्ड होगार्ड
साहित्यिक कल्पना और समाजशास्त्रीय कल्पना संबंधी लेख में लिखते हैं कि “किसी
लेखक के पास उतने ही उपयोगी तथ्य हो सकते हैं जितने किसी समाज वैज्ञानिक के पास और
वह महत्त्वपूर्ण पर्यवेक्षण के लिए सचेतन तथा नियंत्रित समुच्चय से ही नहीं बल्कि
कल्पना शक्ति से उन्हें सुव्यवस्थित करता है।” इस
पुस्तक की कहानियों की शुरुआत वोल्गा के तट से होती है जिसकी जलवायु शीतोष्ण है।
तात्कालिक समय में लोग जंगली जीवन व्यतीत करते थे और जंगली जानवरों का मांस खाकर
जीवन निर्वाह करते थे। इस तट पर शासन-सत्ता माताओं के हाथ में थी, जिनका
शासन अन्याय एवं असमानता से मुक्त था। माताओं का अधिकार सिर्फ अपने परिवार के जन
पर रहता था। स्त्री स्वतंत्र विचरण करती थी वह किसी पुरुष के अधिकार में नहीं थी।
पति का चुनाव वह अपनी इच्छा से करती थी। इसके विपरीत मध्य वोल्गा तट तक आते-आते
अनेक परिवारों को मिलाकर ‘जन’ बनाया
जाने लगा जिसमें ‘नायिका’ की
प्रतिष्ठा थी और इस जन का संचालन एक ‘समिति’ द्वारा
होता था। ‘जन’ एक
जीवित माता का नहीं बल्कि अनेक जीवित माताओं के परिवारों से मिलकर बनता था जहां
संपत्ति पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार न होकर ‘जन’ का
होता था। ऊपरी वोल्गा तट पर रहने वाला ‘निशा’ परिवार
मध्य वोल्गा तट पर ‘निशा’ जन
हो गया जिसके उत्तर में एक दूसरा ‘उषा’ नाम
का जन रहता था। परिवार में बढती संख्या के कारण उत्पन्न संसाधनों के संकट के
परिणामस्वरूप दोनों जनों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें ‘उषा’ जन
हार गया। युद्ध के इस भयंकर परिणाम को देखते हुए वहां पर रहने वाला तीसरा जन ‘कुरु’ ने
वोल्गा तट को छोड़ने का निश्चय किया और 3000 ईसा. पूर्व. के आस-पास मध्य-एशिया की
ओर पलायन कर गया। युद्ध के दौरान ‘निशा’ जन
की नायिका ‘दिवा’ थी
जिसके शासन काल में भगवान के रूप में ‘अग्निदेव’ और ‘प्रेत’ जैसी
काल्पनिक सत्ता का प्रारंभ हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘अग्नि’ को
भगवान के रूप में और ‘तुलसीराम’ की ‘मुर्दहिया’ में
मौजूद प्रेत को मनुष्य ने पहली बार यहीं उत्पन्न किया। इन दोनों के आतंक से आज
पूरा भारतीय समाज मुठभेड़ कर रहा है किंतु इस समय तक पितृसत्तात्मक नामक विषैला
समाज अपना फन नहीं फैला पाया था। ‘वोल्गा’ के
इन्हीं दोनों तटों पर हिंदी, ईरानी और यूरोपीय नामक कबीलाई जातियों
से मानवीय सभ्यता का आरम्भ हुआ। इन जातियों को वोल्गा के मध्य तट पर ‘हिंदी-स्लाव’ नाम
से जाना गया।
3000 ईसा पूर्व के आस-पास ‘फर्गाना’ प्रांत आए ‘कुरु’ जनों को ‘हिंदी-ईरानी’ जाति से पहचान मिली। इस उपत्यका (घाटी) में ‘कुरुओं’ के अतिरिक्त ‘पक्य’ और ‘पुरु’ जनों के साथ और भी अनेक जन रहते थे। ‘फर्गाना’ मध्य एशिया में मौजूद ‘उजबेकिस्तान’ देश का एक प्रांत है जहां पर स्त्रियों ने पुरुषों की जंगम संपत्ति होना स्वीकार नहीं किया था किंतु उनकी शासन सत्ता को पुरुषों ने छीन लिया और ‘जन’ नायिका की जगह ‘मुखिया’ या ‘शासक’ (महापितर) की स्थापना की। स्त्री स्वतंत्रता पर पुरुषों द्वारा पहला हमला शायद यहीं हुआ और पहली बार ‘स्त्री’ को घर की चार-दीवारी में कैद किया गया। ‘फर्गाना’ प्रांत में एक दिन ‘कुरु’ जनों और उसके पास में रहने वाले ‘पुरुओं’ में युद्ध हुआ जिसमें ‘पुरुओं’ की हार हुई। इस युद्ध से बचे हुए ‘पुरु’ परिवारों ने स्त्रियों को लेकर एक दुरूह पथ पकड़ ‘फर्गाना’ उपत्यका छोड़ दी और पहाड़ी को पार करते हुए दक्षिण की ओर बढ़ गई। इस तरह पूरी घाटी ‘कुरुओं’ की हुई। यह कहानी ऐसे कबीलाई आर्यों की है जो भारत और ईरान की श्वेत जातियों का एक कबीला (जन) था। इन्हीं दोनों जातियों के सम्मिलित नाम को ‘आर्य’ कहा गया। ‘ग्राम’ बनाकर रहना और पशुपालन इनकी जीविका का मुख्य साधन था। कितने आश्चर्य की बात है जिस ‘कुरु’ जन ने युद्ध के भय से वोल्गा तट को छोड़कर ‘फर्गाना’ उपत्यका की शरण ली थी उसी ने ‘पुरु’ जनों से युद्ध करके उनको उपत्यका छोड़ने के लिए मजबूर किया।‘फर्गाना’ उपत्यका छोड़ने वाले ‘पुरु’ जन 2500 ईसा पूर्व के आस-पास ‘वक्षु’ में आकर रहने लगे। ‘वक्षु’ नदी ‘अफगानिस्तान’ और ‘ताजिकिस्तान’ की सीमा पर कुछ दूर बहने के बाद उत्तर की ओर मुड़कर ‘कजाकिस्तान’ और ‘उज्बेकिस्तान’ के बीच स्थित अरल सागर में गिरती है जिसे फारसी में ‘आमू दरिया’ और अरबी में ‘जिहोन’ कहते हैं। यह दरिया ‘पामीर’ पर्वतमाला में स्थित ‘जोरकुल’ सरोवर से निकलता है।
‘वक्षु’ नदी
के दाएं तट पर ऊपर वाली घाटी में उत्तर ‘मद्र’ और
नीचे ‘पर्शुओं’ का
जन रहता था जबकि ‘वक्षु’ नदी
के बाएं तट पर ऊपर की घाटी में ‘पुरू’ और
नीचे में दक्षिण ‘मद्र’ जन
रहता था। यहां पर हो रहे व्यापारिक अन्याय को देखते हुए ऊपर के दोनों जनों ने ‘पुरु’ जन
के व्यक्ति ‘पुरुहूत’ को
नीचे वाले जनों पर आक्रमण करने के उद्देश्य से युद्ध संचालन की जिम्मेदारी दे दी
और उसको अपना सेनापति चुन लिया। 2500 ईसा पूर्व में पहली बार किसी व्यक्ति को ‘इंद्र’ की
उपाधि दी गई और वह प्रथम ‘इंद्र’ कहलाया।
घाटी में दोनों तरफ ऊपर की ओर रहने वाले जनों ने संगठित होकर युद्ध किया और दोनों
तरफ नीचे की ओर रहने वाले जनों को हरा दिया। हारने के बाद इन्होंने वक्षु’ घाटी
छोड़ दी और पश्चिम की ओर चले गए। आज उन्हीं की संताने ‘ईरान’ की ‘पर्शु’ (पर्शियन)
और ‘मद्र’ (मीडियन)
के नाम से जानी जाती हैं। कुछ वर्षों पश्चात् ‘वक्षु’ घाटी
में दोनों तरफ ऊपर की ओर रहने वाली जातियों की संताने जब ज्यादा हो गईं तो वे
दक्षिण की ओर बढ़ने के लिए बाध्य हुईं लेकिन इनके बीच युद्ध नहीं हुआ। इन्हीं जनों
में से कुछ की संताने बाद में भारत आईं। भारत और ईरान की जातियों में पहली बार
विभाजन ‘वक्षु’ घाटी
में हुआ जबकि ‘अग्नि’ की
भांति एक लड़ाकू योद्धा को ‘इंद्र’ की
उपाधि देकर भगवान के रूप में पूजने का प्रचलन यहीं से चला। आर्यों में ‘दास’ वृत्ति
का विकार असुरों से आया लेकिन स्त्रियों को शासन-सत्ता से विमुख करके भेदभाव को
शुरू करना आर्यों की घृणित मानसिकता की देन है।
सीमित संसाधनों के परिणामस्वरूप ‘वक्षु’ घाटी से ‘मद्र’ और ‘पुरु’ जनों ने ‘स्वात’ नदी घाटी की ओर पलायन किया। ‘स्वात’ नदी हिन्दू-कुश पर्वत से निकलकर पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रांत खैबर-पख्तुनख्वा से बहती हुई ‘पेशावर’ वादी में ‘चारसद्दा’ के पास ‘काबुल’ नदी से मिल जाती है। दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में ‘सुवास्तु’ उपत्यका में (आधुनिक नाम स्वात) रहने वाले इन आर्यों को सबसे अधिक अभिमान खुद से निर्मित पत्थर की दीवारों तथा देवदारु के पल्लों से छाई घरों पर था। जिसके कारण इस प्रदेश को वे सुन्दर घरों वाला प्रदेश कहते थे। ‘वक्षु’ तट के जिन आर्यों ने ‘पामीर’ और ‘हिन्दुकुश’ पहाड़ी के दुर्गम डाडों और ‘कुनार’, ‘पंजकोरा’ जैसी नदियों को मुश्किल से पार किया था उसकी स्मृतियां बहुत दिनों तक उनमें बनी रही। इन डाडों से सकुशल लौटने के कारण ये लोग साल में एक दिन ‘स्वात’ घाटी के ‘मंगलपुर’ (मंगलोर) में ‘इंद्र’ की पूजा करने लगे जहां पर महापितर ‘जनपति’ के रूप में परिवर्तित हो गया। इस जनपति को बलिदान की वह सारी विधियां, सारे मंत्र याद थे जिसकी स्तुति ‘वक्षु’ उपत्यका में होती थी और बलि दी जाती थी। यहां पर आने से पहले स्त्रियां उन्मुक्त विचरण के लिए स्वतंत्र थी। अपनी इच्छा से निर्णय लेने का अधिकार था फिर भी ‘फर्गाना’ से ही उनकों घर की चार-दीवारी में बंद करना प्रारंभ कर दिया था जहां पर वह शिकार और युद्ध जैसे कार्यों में शामिल होने से वंचित कर दी गई। ऐसा लगता है, स्त्रियों को उनकी स्वतंत्रता और भागीदारी से वंचित करने में पुरुषों ने नितांत कपट का सहारा लिया होगा; अन्यथा स्वतंत्र स्त्रियां अवश्य ही विद्रोह कर देती। आज स्त्रियां अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, बहुत कुछ हासिल भी कर चुकी हैं लेकिन यदि पुरुषों ने छल न किया होता तो उनको अपने अधिकारों के लिए लड़ना न पड़ता। स्त्रियों ने अपनी शासन-सत्ता के समय पुरुषों को समकक्ष रखा, वोल्गा तट की कहानियां इसका प्रमाण हैं; लेकिन इस न्यायवादी व्यवस्था को पुरुष अपने शासन में कायम नहींरख सका। उसने पहले उनकी सत्ता को छीना फिर उनकी स्वतंत्रता को धीरे-धीरे कम करके अंततः समाप्त कर दिया। आर्यों के क्षेत्र ‘मंगलपुर’ से पचास कोस दूर ‘स्वात’ और कुभा (काबुल) नदियों के संगम पर बसे एक असुर नगर (जहां के लोग नाटे, रंग तांबे-जैसा और बड़े कुरूप दिखाई देते थे; यहां आदमियों को खरीदा और बेचा जाता था जिनको आर्य ‘दास’ कहते थे।
गरीब, परतंत्र
‘दास’ अपना
जीवन स्वामी की इच्छा से व्यतीत करते थे) को आर्य ‘पुष्कलावती’ (चारसद्दा)
कहते थे। सर्दियों के दिनों में स्वात, पंजकोरा
तथा दूसरी उपत्यकाओं में रहने वाली अनेक पहाड़ी जातियां (‘पुरु’, ‘कुरु’, ‘मद्र’, ‘गांधार’, ‘मल्ल’, ‘शिवि’ और ‘उशीनर’) यहां
व्यापार करने के उद्देश्य से आती थी, एक
बार व्यापार करने आए आर्यों के साथ उनकी स्त्रियां भी आयीं जिनको अनार्यों ने
लूटने की योजना बनाई। योजना के विफल होने पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ और इस तरह
आर्यों ने ‘स्वात’ और ‘काबुल’ नदियों
के संगम पर बने प्रथम असुर-दुर्ग का पतन कर दिया। यह युद्ध दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा
पूर्व में आर्यों-असुरों का प्रथम युद्ध था। अनार्यों की सत्ता को आगे चलकर आर्यों
ने ध्वस्त कर दिया जिसका ऐतिहासिक साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता के रूप में मौजूद है।
असुरों के प्रथम नगर-दुर्ग को ध्वस्त करने के दो सौ वर्षों के अंदर पश्चिमोत्तर भारत में मौजूद संपूर्ण असुर दुर्गों को आर्यों ने तबाह कर दिया। असुरों के रथो में वृषभ का प्रयोग होता था और ‘राजा’ को देवता समझा जाता था। इनमें शिश्न (लिंग) और उपस्थ की पूजा होती थी और राजा शिश्नदेव का भारी भक्त होता था। अनार्यों के शासन में ‘जन’ परिषद का कोई महत्त्व नहीं था राजा ही सर्वोपरि था। इन सब विकृतियों के बावजूद असुरों की नगर योजना बहुत ही उत्कृष्ट थी और इनकी अपनी एक ‘लिपि’ थी जिसको आर्यों ने सीखने का प्रयास किया लेकिन सीख नहीं पाए। इनके समाज में मौजूद शिल्पियों जैसे-‘लोहार’, ‘कुम्भकार’, ‘दस्तकार’, ‘रथकार’, ‘कर्मकार’ और ‘तन्तुकार’ की कारीगरी अद्भुत थी; लेकिन अनार्यों की हार का प्रमुख कारण, इनकी संख्या का कम होना था जबकि दूसरा कारण, राजा को सारे जन से ऊपर ‘देवता’ रूप में स्वीकार करना था। असुरों के यहां योद्धाओं, शिल्पियों, व्यापारियों और ‘दासों’ की अलग श्रेणी थी जबकि आर्यों के यहां ‘योद्धा’, ‘पुरोहित’, ‘व्यापारी’, ‘कृषक’ और ‘शिल्पी’ में कोई भेद नहीं था जिसका लाभ आर्यों ने उठाया। आर्यों ने अनार्यों से जीते हुए क्षेत्रों को आपस में बांट लिया; इस प्रकार वितस्ता (झेलम) और सिंधु के बीच की भूमि गंधार जनों तथा वितस्ता और इरावती (रावी) के बीच की भूमि ‘मद्र’ जनों की हुई आगे चलकर यह क्षेत्र पूर्वी ‘गंधार’ और ‘मद्र’ जनपद के नाम से जाना गया। देव (आर्य) और असुर (अनार्य) संग्राम में ‘मद्र’ और ‘गंधार’ जातियों ने जिस अमानुषिक क्रूरता का परिचय दिया उसका परिणाम यह हुआ कि गंधार में एक भी नहीं जबकि मद्र में बहुत कम असुर बचे। आर्य पूरे पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में फ़ैल गए और अपनी शासन सत्ता स्थापित कर ली; लेकिन अनार्यों की शासन सत्ता में मौजूद खामियों के साथ-साथ इन्होंने अपनी खामियों को भी हथियार की तरह इस्तेमाल किया।
1800 ईसा पूर्व के आस-पास पूर्वी गंधार (तक्षशिला)
के आर्य ऋषि ‘अंगिरा’ अनार्यों
की कमियों को अस्वीकार करने (शिश्न’ पूजा, ‘जाति’ विभाग
और असुरों के साथ रक्त मिश्रण से बचने) और खूबियों (नगर के निर्माण की विधि, नियोजन
की प्रक्रिया, लिपि) को ग्रहण करने की शिक्षा देते थे
लेकिन उन्होंने आर्यों की बुराइयों पर पर्दा डालते हुए पुरानी शिक्षा पद्धति को निरंतर बनाए रखने पर
जोर दिया; जिसके लिए उन्होंने ‘तक्षशिला’ की
स्थापना की जो बाद में चलकर आर्यत्व शिक्षा का केंद्र बना। इस समय लिखने की
परम्परा का प्रारंभ नहीं हुआ था जिसके कारण सारा अध्यापन कार्य मौखिक ही होता था।
पुराने गीतों और कविताओं को विद्यार्थी बार-बार दोहराकर कंठस्थ करते थे। ऋषि और
उनके विद्यार्थी ‘वक्षु’ और ‘सुवास्तु’ के
तटों पर बने गीतों को बड़े राग से गाते थे। ये वही गीत और कविताएं हैं जिसने
दास-वृत्ति को मजबूत किया और ईश्वर की सत्ता को स्थापित किया। आज यदि ‘वोल्गा
से गंगा’ की उपर्युक्त कहानियों को पढ़ा जाए और
हडप्पाई सभ्यता और संस्कृति में मौजूद नगरीकरण, लेखन-कला, दुर्गनगर, वणिक
और शिल्पी तथा लिंग-पूजा जैसे रूपों पर ध्यान दिया जाए तो यह निश्चित तौर पर कहा
जा सकता है कि आर्यों ने पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में जिन असुर-दुर्गों को तोड़ा, तहस-नहस
किया, वह नगर कोई और नहीं बल्कि हड़प्पाई नगर थे। इन
नगरों के पतन के पश्चात् छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक किसी नगर-दुर्ग का प्रमाण
इतिहास में नहीं मिलता किंतु आर्यों और अनार्यों के मिलने से जिस संस्कृति का
निर्माण हुआ, वह संस्कृति वर्तमान समय में भारतीय
समाज को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित करती दिखाई देती है। आर्यों ने अनार्यों की
जिस राज्य-सत्ता को स्वीकार किया उसने समाज को विषैला ही बनाया। धीरे-धीरे समय
बीतता गया और समाज में मौजूद बुराइयां जड़ होती गईं। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद
भी समाज में जातीय व्यवस्था, वर्गीय विभाजन, स्त्री
शोषण मौजूद है जिसका अंकुरण इन्हीं आर्यों की शासन-सत्ता में पुष्पित-पल्लवित हुआ
और आर्य पुरोहितों ने इसे खाद-पानी दिया।
‘वोल्गा
से गंगा’ में ‘सुदास्’ का
समय 1500 ईसा पूर्व ठहरता है जिसका उल्लेख इतिहास में भी मिलता है। सुदास् के पिता
दिवोदास के समय तक समाज में वर्गीय विभाजन ‘सेनापति’, ‘पुरोहित’ और ‘जन’ के
रूप में हो चुका था जिसमें सेनापति के बाद ‘पुरोहित’ सबसे
बड़ा सामंत था। ऋग्वैदिक काल में ‘पंचालपुर’ (रूहेलखंड)
के राजा ‘दिवोदास’ ने
जब अपने पुत्र ‘सुदास्’ को
राजा बनाने की इच्छा व्यक्त की, तो ‘सुदास्’ ने
मांग की, कि ‘‘पुरोहितों’ को
राज्य से बहिष्कृत कर दिया जाए क्योंकि ‘वशिष्ठ’, ‘विश्वामित्र’, ‘भारद्वाज’ जैसे
पुरोहितों ने रिश्वत देकर राजा से पदवी प्राप्त की और जनता की आँखों में धूल झोंक
कर ‘इंद्र’, ‘अग्नि’, ‘सोम’, ‘वरुण’ आदि
लोगों को देवता बनाकर जनता का शोषण किया। राजा की प्रशंसा में उन्होंने जिन
मंत्रों को रचा उससे ‘ऋग्वेद’ नामक
प्राचीन ग्रंथ बना लेकिन इन मंत्रों को लिख देने मात्र से इनकी अनीति और चापलूसी
लोगों से छिपी न रह सकी|’ सुदास् इन पुरोहितों का प्रबल विरोधी
था। रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी
नवजागरण’ में लिखते हैं कि “भारत
में सामंती व्यवस्था बहुत पुरानी है, शायद
दुनिया में सबसे ज्यादा पुरानी है, उतना
ही भारतीय जनता के मन में उसकी जड़े गहरी हैं, उतना
ही वह भीतर से जर्जर भी है और उसका विरोध उतना ही पुराना है जितना यह व्यवस्था
पुरानी है।” जब ‘सुदास्’ ‘पंचालपुर’ का
राजा बना तो उसने इन्हीं कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। इतिहास में वर्णित
यह वही सुदास् है जिसका उल्लेख ऋग्वैदिक काल में मिलता है। इसका संबंध ‘भरत’ वंश
से था जिसके पुरोहित ‘वशिष्ठ’ थे।
इसी सुदास् से आर्यों और अनार्यों के राजाओं ने मिलकर ‘दशराज्ञ’ युद्ध
किया। ये उसकी न्यायप्रियता का परिणाम था; क्योंकि
पुरोहिताई जैसी विकृत सत्ता पर वह जिस प्रकार प्रहार कर रहा था उससे चिंतित होकर
पुरोहितों ने अवश्य ही इन राजाओं को भड़काया होगा और एकत्रित होकर युद्ध करने के
लिए प्रेरित किया होगा।‘दशराज्ञ’ युद्ध
परुष्णी (रावी) नदी पर लड़ा गया था जिसमें सुदास विजयी हुआ।
पुरोहितों की जिस परम्परा पर राजा सुदास् ने प्रहार किया उसी को 700 ईसा पूर्व के आस-पास पंचाल (युक्त-प्रान्त) प्रांत के राजा ‘प्रवाहण’ ने ‘उपनिषद्’ द्वारा और सूक्ष्म बना दिया क्योंकि राजाओं और पुरोहितों द्वारा अपने लाभ के लिए देवताओं की आड़ में जिस प्रकार जनता का शोषण किया जा रहा था उसे प्रजाजन संदेह की नजर से देखने लगी थी ऐसी स्थिति में उन्हें चलने के लिए बडवा-रथ, खाने के लिए उत्तम आहार, रहने के लिए सुन्दर निवास, भोगने के लिए स्त्री आदि न मिल सकती थी। राजा प्रवाहण ने इसी यथास्थिति को बनाये रखने के लिए ‘ब्रह्म’ और ‘पुनर्जन्म’ की सत्ता को स्थापित किया जिसमें ‘ब्रह्म’ का रूप सर्वत्र विद्यमान है क्योंकि उसका मानना था कि ‘राजभोग’ की सत्ता को हाथ में रखने के लिए यह जरुरी है कि संदेह पैदा करने वाले व्यक्ति की बुद्धि को कुंठित कर दिया जाए इसलिए आज के समय में सबसे भयंकर शत्रु हैं देवताओं और उनकी यज्ञ-पूजा के प्रति संदेह करने वाले। प्रवाहण ने पुरोहितों के स्थूल हथियार को बेकार समझकर इस सूक्ष्म हथियार को निकाला। आज ब्राह्मण भी इस रहस्य को अपने लिए जरुरी समझता है। प्रवाहण इस हथियार को अपने पेट के प्रबंध के लिए बुरा नहीं मानता; साथ ही स्वीकार करता है कि ‘हम अपने पेट के साथ-साथ हजारों वर्षों के लिए अपने बेटे-पोतो, भाई-बंधुओं के पेट का भी प्रबंध कर रहे हैं।’ प्रवाहण की मृत्यु के बाद ‘ब्रह्मवाद’ और ‘पुनर्जन्म’ या ‘पितृयानवाद’ की विजय-दुदुम्भी ‘सिन्धु’ से ‘सदानीरा’ (गंडक) तक बजने लगी। ‘ब्रह्मवाद’ का बाद में चलकर सबसे ज्यादा फायदा ‘कुरु’ के ब्राह्मण ‘याज्ञवलक्य’ ने उठाया। कई परिषदों में यह विजयी हुआ। एक बार ‘याज्ञवलक्य’ ने विदेह (तिरहुत) के जनक की परिषद् में कपट से’ गार्गी’ को हराया था। सुदास् पुरोहितों का विरोध उनकी अमानवीय सामाजिक बुराइयों के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों पर उनके बढ़ते हस्तक्षेप के कारण भी करता था और यह उचित भी था क्योंकि ये पुरोहित धार्मिक सत्ता की आड़ में आम जनता का आर्थिक शोषण करते थे लेकिन राजाओं और पुरोहितों के लिए प्रवाहण ने शोषणकारी व्यवस्था की पुनः स्थापना की।
रामविलास शर्मा लिखते हैं कि “पुरोहितों ने अपनी आज्ञा न मानने वालों के लिए नरक रचा था और अपने लिए तथा भू-स्वामियों के लिए इस संसार में जो सुख-साधन प्राप्त थे, उनका प्रबंध कुछ बढ़ा-चढ़ाकर स्वर्ग में कर लिया था। एक ओर इस जीवन में रानियों, रखेलों और वारांगनाओं से भोग-विलास, फिर स्वर्ग में अमरयौवना अप्सराओं की प्राप्ति, दूसरी ओर तपस्या और आत्मनिग्रह के उपदेश।” प्राचीन समय से चली आ रही इस पूरी व्यवस्था के आधार पर आज भी धार्मिक सत्ताओं द्वारा जनता का आर्थिक और सामाजिक शोषण किया जा रहा है; फिर भी निम्न और निम्न मध्यवर्गीय जन मंदिर निर्माण, कांवड़-यात्रा, चौदह कोसी परिक्रमा और अपने ऊपर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए जा रहे मोह को त्याग नहीं पा रहा है। शायद इसीलिए राजा ‘प्रवाहण’ कहा करता था कि ‘ब्रह्म के दर्शन के लिए जिस इन्द्रिय की जरुरत है उस इन्द्रिय को पैदा करने के लिए लोग छप्पन पीढ़ी तक भटकते रहेंगे और उसके प्रति विश्वास भी न खो सकेंगे।
’
प्रवाहण की मृत्यु के लगभग दो शताब्दियों के भीतर धर्म की सत्ता को चुनौती मिलनी शुरू हो चुकी थी। बौद्ध और जैन धर्म इसी वैदिक धार्मिक पाखंड के प्रतिरोध में शुरू हुआ। इस समय तक राज्य-सत्ता के रूप में महाजनपदों और फिर आगे चलकर मगध साम्राज्य की स्थापना हुई। मगध पर ‘हर्यक’ वंश का राजा ‘अजातशत्रु’ शासन कर रहा था। बंधुल मल्ल भी कुसीनारा में अपने गणों का संघ बनाना चाहता था लेकिन सफलता न मिलने के कारण वह श्रावस्ती चला गया। इस समय तक धर्म की सत्ता का भी विकेंद्रीकरण हो चुका था जिसमें अजित केस कम्बली जैसे ‘जड़वादी’ भौतिक आचार्यों का जन्म हुआ जो ‘आत्मा’, ‘ईश्वर-भक्ति’, ‘नित्य-तत्त्व’ या ‘स्वर्ग-नर्क’ और ‘पुनर्जन्म’ की सत्ता को न मानते हुए भी ‘गृह-त्याग’ और ‘ब्रह्मचार’ को स्वीकार करते थे। इंग्लैण्ड के विचारक एडवर्ड ह्वाईट ने भी पाश्चात्य ढंग से इसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। बुद्ध ने अपने ‘अनात्मवाद’ में ‘पुनर्जन्म’ को फेटकर प्रस्तुत किया लेकिन जड़वादियों की भांति ‘आत्मा’, ‘ईश्वर’ जैसे किसी भी नित्यवस्तु को विश्व-जगत में स्वीकार नहीं किया। बौद्ध धर्म में ‘वर्ण’ जैसी विभेदकारी व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं थी। वैदिक कर्मकांड के अनुसार यज्ञों का विरोध, वर्णव्यवस्था में कर्म की प्रमुखता जैसी बातों ने समाज में उसकी स्थापना को मजबूत किया जिसमें देशज भाषा का महत्वपूर्ण योगदान था।
के. दामोदरन अपनी पुस्तक ‘भारतीय चिंतन परम्परा’ में
‘श्वसनदेव’ उपनिषद्
की घोषणा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि “न
तो कहीं कोई अवतार है, न ईश्वर है, न
स्वर्ग है और न नरक है। सभी परम्परागत धार्मिक साहित्य अहंकारी मूर्खों की करतूत
है। प्रकृति, जो मूल उद्गम स्रोत है, और
समय, जो संहारक है,..यही
सर्वोपरि नियंता हैं।” निःसंदेह बौद्ध धर्म भी इन सभी
प्रवृत्तियों पर प्रहार करता था इसलिए श्रावस्ती की उच्चवर्गीय स्त्रियां ही नहीं
बल्कि हर वर्ग इससे प्रभावित हुआ, किंतु आगे चलकर ब्राह्मण धर्म की वे
सभी बुराइयां इसमें आ गईं जिसके विरुद्ध इसने आरम्भ में लड़ाई छेड़ी थी। संस्कृति
अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी क्योंकि इसका प्रारंभ आर्यों और अनार्यों के
मिश्रण से ही शुरू हो गया था जिसको बौद्ध और जैन धर्मों ने नवीनता प्रदान की। कुछ
वर्षों पश्चात् ‘विष्णुगुप्त’ चाणक्य
के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने ‘मगध’ में
‘मौर्य’ वंश
को स्थापित किया जिसके राज्य का विस्तार तक्षशिला से लेकर हिन्दुकुश पर्वतमाला
(अफगानिस्तान) से बहुत पश्चिम ‘हिरात’ और ‘आमू
दरिया’ तक फैला हुआ था। भारत में जनों का ‘संघ’ विष्णुगुप्त
के प्रयासों का परिणाम था लेकिन आपसी सहयोग से नहीं बल्कि हथियार के बल पर। पहली
बार ‘राष्ट्र’ की
संकल्पना का आकार यहीं दिखाई देता है किंतु उसका रूप आधुनिक जैसा बिलकुल नहीं था।
इस दौर में भारत की स्थिति बदलती हुई दिखाई देती है वह चाहे धार्मिक आधार पर हो या
राजनीतिक। मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक ‘भारतीय
समाज में प्रतिरोध की परम्परा’ के एक निबंध में लिखते हैं कि ‘वैदिक-पौराणिक
विचारधारा की आलोचना चार्वाक, आजीवक और दूसरे भौतिकवादी-अनात्मवादी
विचारक करते रहे हैं लेकिन सामाजिक व्यवस्था की सबसे अधिक मूलगामी,समग्र
और उग्र आलोचना बौद्ध दार्शनिकों ने की है।’ अश्वघोष
जैसा कवि इसी नवीन धार्मिक चेतना से निकला हुआ कवि है जिसने समाज में मौजूद
रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया और चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे शासकों ने
राजनीतिक-सामाजिक सद्भावना की स्थापना की।
‘वोल्गा से गंगा’ में ‘प्रभा’ नामक कहानी आती है जिसमें अश्वघोष और यूनानी कन्या प्रभा का प्रेम प्रसंग है परन्तु दोनों का प्रेम अंततः जातीय व्यवस्था की भेंट चढ़ जाता है। बौद्ध दार्शनिक, कवि, नाटककार अश्वघोष ने इसी जातीय व्यवस्था पर निर्मम प्रहार किया जिसके पीछे गौतम बुद्ध के समतावादी और वर्ण-विरोधी विचारों की प्रेरणा है। अश्वघोष ने ‘उर्वशी-वियोग’ नामक प्रथम भारतीय नाटक लिखा। ‘अश्वघोष’ ने ‘प्रभा’ से एक बार ब्राह्मणों के बारे में कहा था, ‘मुझे ब्राह्मणों के पाखंड से घृणा होती है जिससे सारा देह (गात्र) जल जाता है। मैंने बड़े परिश्रम और श्रद्धा से उनकी सारी विद्याएं पढ़ी; किन्तु वह क्या मानते हैं, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता। शायद वह केवल अपने स्वार्थ को मानते हैं।...बस, इन्हें मोटे बछड़ों का मांस और अपनी भूयसी दक्षिणा चाहिए; ये कोई भी ऐसा काम करने के लिए तैयार हैं जिसमें इनके आश्रयदाता राजा और सामंत प्रसन्न हों। गरीबों और जिनकों यह नीच जातियां कहते हैं, वह सभी गरीब हैं- उनके लिए इनके धर्म में कोई स्थान नहीं है। लेकिन ‘यवन’, ‘शक’, ‘आभीर’ दूसरे देशों से आई जातियों को इन्होंने क्षत्रिय, राजपुत्र मान लिया, क्योंकि उनके पास प्रभुता थी धन था, किन्तु अपने यहाँ के ‘शूद्रों’, ‘चंडालों’ और ‘दासों’ को इन्होंने हमेशा के लिए वही रखा।’ ‘बुद्धचरित’ और ‘सौंदरानंद’ जैसे काव्य तथा ‘उर्वशी-वियोग’ गीत और इसी नाम से लिखा गया नाटक ‘प्रभा’ की प्रेरणा का परिणाम है जबकि इनकी ‘वज्र-सूची’ नामक रचना में ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद पर उग्र आक्रमण किया गया है।
आधुनिक काल में इस पुस्तक की चर्चा हिंदी साहित्य में मात्र दो लेखकों ने की है जिनके मन में बौद्ध-दर्शन की सामाजिक दृष्टि के प्रति विरोध का भाव नहीं बल्कि गहरी सहानभूति है - राहुल सांकृत्यायन और हजारीप्रसाद द्विवेदी। आज लोग वैदिक साहित्य और उसकी परम्परा पर बात करते हैं, उसका बखान करते हैं लेकिन उसके समानांतर चली आ रही विचारधारा पर बात करने से कन्नी काटते दिखाई देते हैं या कम बात करते हैं। सरदार पूर्ण सिंह अपने निबंध ‘मजदूरी और प्रेम’ में लिखते हैं कि “सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादड़ियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर-चिंतन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है।” अश्वघोष ने ठीक ही कहा है कि ब्राह्मण सिर्फ अपने स्वार्थ, प्रभु-सत्ता और धन को महत्त्व देता है। अश्वघोष कालिदास के पूर्ववर्ती कवि थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के समतावादी विचार को आगे बढ़ाया। लगभग चार शताब्दी बाद कालिदास हुए। 420 ईसवी के आस-पास कालिदास ‘गुप्त’ साम्राज्य की राजधानी ‘उज्जयिनी’ में रहते थे।
वोल्गा से गंगा की कहानी के आधार पर ‘सुपर्ण
यौधेय’ कवि ‘कालिदास’ से
शिक्षा ग्रहण करने के लिए राजधानी में आया था। सुपर्ण को अपने गुरु कालिदास पर बहुत
अभिमान था क्योंकि वे विख्यात कवि थे लेकिन वह कालिदास की राजा संबंधी दास-मनोवृति
को पसंद नहीं करता था। कालिदास जब समय ‘कुमारसंभव’ लिख
रहे थे तब उन्होंने सुपर्ण को बताया कि ‘विक्रमादित्य’ के
पुत्र ‘कुमारगुप्त’ को
ही मैं शंकर पुत्र ‘कार्तिकेय’ के
नाम से अमर करना चाहता हूँ।’ इस पर सुपर्ण ने कहा, ‘आपकी
काव्य प्रतिभा का राज्य अनंत काल के लिए है जबकि राजा का राज्य उसके जीवन तक। फिर
आप इन राजाओं के सामने अपने आपको इतना अकिंचन क्यों बनाना चाहते हैं? ऐसा
धोखा और पाखंड आखिर क्यों करना चाहते हैं? ‘क्या, गंधशालि
का भात और मधुर मांस-सूप के लिए? राष्ट्र की सारी सुंदरियों को रनिवास
से रखने के लिए? कृषि और शिल्प के काम में मरने वाली
प्रजा की गाढ़ी कमाई को मौज करने में पानी की तरह बहाने के लिए? मैं
चाहता हूँ, आप भी ‘अश्वघोष’ की
तरह बनें।’ पूरी बात सुनकर कालिदास ने कहा, ‘‘विक्रमादित्य’ धर्म
के संस्थापक हैं, ‘विष्णु’ के
अंश है क्योंकि राजा भगवान् के समान होता है।’ सुपर्ण, ‘मैं
सिर्फ कवि हूँ जबकि ‘अश्वघोष’ महापुरुष
और कवि दोनों थे। उनके लिए संसार के भोग का कोई मूल्य न था किन्तु मुझे ‘विक्रमादित्य’ के
रनिवास की सुंदरियाँ चाहिए, जदम्बरवर्ण (लाल) द्राक्षी सुरा चाहिए, प्रासाद
और परिचारक चाहिए, इसलिए मैं ‘अश्वघोष’ नहीं
बन सकता।’ एक बार उसने कालिदास से दासों और
दासियों से संबंधित प्रश्न किया तो उन्होंने कहा, ‘‘दास-दासी’ पुरुविले
कर्म से होते हैं।’ उसी दिन से सुपर्ण का पुरुविले (पुनर्जन्म)
कर्म से विश्वास उठ गया। सुपर्ण पर बौद्ध धर्म की सामाजिक समरसता का प्रभाव था
जिसके कारण वह अश्वघोष की तरह कालिदास को देखने का आकांक्षी था जबकि कालिदास को
रनिवास के भोग-विलास की माया ज्यादा प्रिय थी। ‘वोल्गा
से गंगा’ की कहानी में कालिदास का यही रूप उभरकर
सामने आया है।
आज के कवियों और लेखकों को सत्ता की चाटुकारिता और आर्थिक भोग की लालसा ज्यादा प्रभावित करती है जिसके कारण वह ‘दुर्मुख’ बनने की प्रवृत्ति को त्याग देते हैं या बहुत कम लोग दुर्मुख बन पाते हैं। दुर्मुख (सत्य बोलने वाला) बनने की प्रवृति हमें हर्षवर्धन कालीन कवि बाणभट्ट में दिखाई देती है। ‘हर्षचरित’ रचयिता बाणभट्ट ने हर्ष की कीर्ति, राजसी ठाट-बाट का चित्रण भले ही किया हो किंतु बाणभट्ट का मानना था कि ‘हर्ष’ का सबसे बड़ा दोष था – ‘दिखावा करना’, ‘वह बुरा राजा या बुरा आदमी नहीं था लेकिन प्रशंसा की इच्छा रखते हुए भी अपने को निस्पृह दिखलाना, सुंदरियों की कामना रखते हुए भी अपने को कामना-रहित जतलाना, कीर्ति की वांछा रखते हुए कीर्ति से कोसों दूर बतलाने की चेष्टा करना आदि उसकी प्रवृत्ति थी। आज बाजारवाद के दौर में भी आत्म-प्रशंसा या आत्म-मुग्धतता की प्रवृत्ति बढ़ी है जबकि आत्मालोचन में कमी आई है। बाणभट्ट ने नाटकों की रचना के साथ-साथ नाटक मण्डली की स्थापना भी की जिसकी नायिकाएं वार-वनिताएँ (वेश्याएं) के साथ-साथ नाट्य-गगन की तारिकाएं भी होती थी इसी कारण हर्ष ने बाणभट्ट को एक बार भरी सभा में भुजंग (लम्पट) कहा था। चूंकि उसे लगने लगा था कि नाट्य मंडली की आड़ में बाण भी इन स्त्रियों के मोहपाश में बंध गया है जबकि बाण का उद्देश्य था कि वह सम्पत्ति मानी जाने वाली तारिकाओं को अपने नाटक की नायिका बनाकर रनिवास से मुक्त करा सके। प्रचलित प्रथा के अनुरूप किसी भी स्त्री को पति के पास जाने से पहले उन्हें पहली रात राजाओं के घर जाना पड़ता था जिसको बेबस लोग धर्म-मर्यादा समझते थे और अपनी बेटियों, बहुओं तथा बहनों को डोलियों पर बैठाकर अन्तःपुर में एक रात के लिए पहुंचाते थे। पसंद आने पर वह रनिवास में रख ली जाती थी। रानी के तौर पर नहीं, परिचारिका के तौर पर। उनकी स्थिति को देखकर बाणभट्ट कहता कि ‘आप बताइये, उनकी तरुनाई उनसे क्या मांगती होगी’; इसलिए उसकी नायिकाएं अधिकतर इन्हीं रनिवासों से आती थीं।
इसी के साथ उसने विधवा के सती होने का भी विरोध
किया तो पाखंडी ब्राह्मणों और राजाओं ने उसका खूब माखौल उड़ाया और उसे पाखंडी तक
कहा। वर्तमान समय में अधिकांश लोग संस्कृति और परम्परा की दुहाई देते हुए उसकी ओर
वापस लौटने की बात करते हैं; अब प्रश्न यह उठता है कि संस्कृति की
ओर वापस लौटना क्या इन्हीं रूढ़िबद्ध धारणाओं की ओर लौटना नहीं है? आगे
चलकर बाण ने जब बौद्ध-ग्रंथो में बुद्धकालीन रीति-रिवाजों को पढ़ा तो उसे ज्ञात हुआ
कि पहले मद्य पीना वैसा ही था जैसे पानी पीना, लेकिन
आज परिब्राजकों, भिक्षुओं के अखाड़े तो अप्राकृतिक
व्यभिचार के अड्डे बन गए हैं। यह स्थिति ‘महायानी
बोधिसत्व’ की थी। ‘कामरूप’ राज्य
में तो ‘चंडाल’ जन
नगर में डंडा पटकते हुए आते थे जिससे वहां के अन्य लोग सजग हो जाएं और अपवित्र न
हों। वह अपने हाथों में बर्तन लेकर चलते थे जिससे उनका अपवित्र थूक नगर की पवित्र
धरती पर न पड़े। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए बाण को ब्राह्मणों के धर्म से
नफरत हो गई थी। इस समय बौद्ध धर्म में भी कुछ हद तक इस तरह की बुराइयां घर कर गईं थी। आगे चलकर ‘कबीर’ में
हमें बौद्धों के समतावादी विचार की विशेषताएं दिखाई देती हैं। ‘वोल्गा
से गंगा’ की परवर्ती कहानियां हिंदुस्तान पर
मुस्लिम शासकों के आगमन, ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और उसके द्वारा
देश को गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने की कहानियां हैं जिसकी अंतिम कहानी उन्नीस सौ
बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय ‘सुमेर’ नामक
व्यक्ति पर आकर समाप्त होती हैं।
आज समय और प्रकृति ने धार्मिक सत्ता और उसके
ठेकेदारों पर जोरदार प्रहार किया है जिसकी आड़ में वर्षों से जनता का शोषण होता रहा
है। इन सत्ताओं पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं; ऐसा
नहीं है कि यह प्रश्न पहली बार खड़ा हुआ है लेकिन आभासी सत्ताओं के नाम पर आर्थिक
शोषण की प्रवृत्ति पहली बार स्पष्ट नजर आ रही है। मनुष्य की रक्षा का संकल्प लेने
वाले भगवान को आज सेनेटाइज किया जा रहा है। शताब्दियों से अपनी आजीविका का साधन
बनाकर धर्म के नाम पर समाज को जिस कर्मकांडीय प्रवृत्ति की ओर धकेला गया, वह
विचारणीय है; राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक में इस
व्यवस्था को प्रश्नांकित करते हैं। जिस तरह लड़ाकू योद्धा ‘पुरहुत’ को
इंद्र की उपाधि देकर भगवान बना दिया गया ठीक यही परम्परा आज भी हमारे समाज में
कहीं-न-कहीं मौजूद है। आजादी की लड़ाई में साम्राज्यवादी ताकतों और सामंती व्यवस्था
के खिलाफ लड़ते हुए जो लोग जनता के बीच नायक बनकर उभरे, आज
कुछ तथाकथित लोग उन्हीं नायकों को भगवान के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत
हैं। वर्तमान में भगवान बिरसा मुंडा, भगवान
अम्बेडकर जैसे शब्दों का प्रचलन निरंतर समाज में बढ़ता जा रहा है; जबकि
दुष्यंत कुमार के शब्दों में आज खुदा की जरुरत कम, आदमी
और उसके ख़्वाब को देखने और महसूस करने की ज्यादा जरुरत है। इस दौर में जब पूरे
विश्व को गांव के रूप में परिकल्पित किया जा रहा है, संचार
सुविधाएं मजबूत हुई हैं। वैज्ञानिक युग में लोगों के बीच बढ़ती यह प्रवृत्ति हमें
यह सोचने के लिए विवश कर देती है कि प्राचीन समय में भगवान की सत्ता को स्थापित
करना दुष्कर कार्य नहीं रहा होगा। आज कुछ लोग वैश्विक महामारी कोरोना को भी 'कोरोना
माई' के रूप में पूजने लगे हैं। समाज में घर करती जा
रही इन कुरीतियों से हमें बचना होगा और तार्किकता के साथ आगे बढ़ना होगा ताकि हमारी
आने वाली पीढ़ी भी समाज में जड़ होती इन मान्यताओं से उभर सके।
संदर्भ
1. राहुल सांकृत्यायन, वोल्गा
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2. रामशरण शर्मा, प्रारंभिक
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3. मैनेजर पाण्डेय, भारतीय
समाज में प्रतिरोध की परंपरा, प्रकाशन-वाणी:नई:दिल्ली:2013
4. भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय
संस्कृति की कहानी, प्रकाशन:राजपाल एंड सन्स: नई
दिल्ली:1956
5. रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’, नई
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संस्कृति मंच:इलाहबाद:2011
6. रामविलास शर्मा, महावीर
प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, प्रकाशन:राजकमल:नई
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7. प्रेमचंद, कर्मभूमि, प्रकाशन:सरस्वती-प्रेस:बनारस:1932
8. के. दामोदरन, भारतीय
चिंतन परम्परा, प्रकाशन:पीपुल्स पब्लिसिंग हाउस:नई
दिल्ली:1974
9. सरदार पूर्ण सिंह, मजदूरी
और प्रेम (निबंध), hindisamay.com
10.लेख - दि प्रिंट, तस्लीमा नसरीन, 18 मार्च, 2020
सुनील कुमार यादव
पीएच.डी. हिंदी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
सम्पर्क sunilkumaryadav2591@gmail.com, 9582347210
बहुत अच्छा
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