'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
दरअसल इन आंदोलनों का भी एक दौर था। आप देखिए कि अब आंदोलन
नहीं हो रहे हैं। इस शताब्दी के पिछले बीस वर्षों को देख लें, गत शताब्दी का अंतिम दशक देख लें तो कविता या गद्य दोनों में आंदोलन
नहीं हुए। नाम संज्ञाएँ भी नहीं दी जा रहीं। अब हुआ ये है कि वैयक्तिक प्रतिभाएँ
बहुत मुखर स्थिति में हैं। वो अपना ढंग ईजाद कर रही हैं और उसका सम्मान भी हो रहा
है, स्वीकृति भी मिल रही है। पहले कभी-कभी एक सामूहिक
चेतना होती थी परिवर्तन की, कहानी में, कविता
में। लेकिन अब वो दौर ही खत्म हो गया है। यहाँतक कि पिछले पचास साल में साहित्य
में कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ है। नहीं तो उससे पहले कहानी में अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समानान्तर
कहानी, सक्रिय कहानी जैसे आंदोलन हुए तो कविता में अकविता, अस्वीकृत कविता, बीट जैनरेशन, युयुत्सावादी
कविता और वाम कविता जैसे अनेक आंदोलन हुए।
बिलकुल .. हमसफ़रनामा में राजस्थान के कई साहित्यकार है, नन्द बाबू हैं, कमर मेवाड़ी हैं, आलमशाह
खान हैं। उनके अच्छे मित्रों में दुर्गाप्रसाद अग्रवाल भी थे। मैं तो आयु में उनसे
बहुत छोटा था। अच्छा. एक मजेदार बात आपको बताऊँ कि वो गाते बहुत अच्छा थे। पुराने
कई सारे गाने उनको याद थे। और वो चिट्ठियां बहुत अच्छी लिखते थे। यहाँ तक कि
मोबाइल फ़ोन आ जाने के बाद भी उनको लम्बे पत्र लिखने का शौक था। अब जैसे मैं कोई
किताब भी उन्हें भेजता था तो वह उस पर लम्बी प्रतिक्रिया देते थे। और वो इस बात से
बहुत दुखी होते थे कि पत्र लेखन धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है। ये बात वो बार-
बार महसूस करते थे। मेरी दूसरी किताब आई तो मैंने उनको भेजी। उन्होंने लिखा कि
तुमने शुरुआत तो बहुत अच्छी की है लेकिन बाद में थोड़े गड़बड़ होने लगते हो। वे बात
कहने से नहीं चूकते थे। रिश्ते निभाते थे। सुख-दुःख में हमेशा साथ रहते थे। जब भी
उनसे बात करो तो अच्छा लगता था। बड़े संवेदनशील किस्म के आदमी थे।
साक्षात्कार: संघर्ष से बने व्यक्तित्व थे स्वयं प्रकाश: प्रो. माधव हाड़ा
(प्रसिद्ध लेखक स्वयं प्रकाश के बारे में आलोचक माधव हाड़ा से बातचीत की है। हमारे साथी अभिषेक गुप्ता ने जो अभी गोवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधार्थी हैं-संपादक)
स्वयं प्रकाश जी कहते थे कि- अकहानी, सहज कहानी, एंटी कहानी, एब्सर्ड
कहानी और इस तरह के अन्य आंदोलनों ने न सिर्फ कहानी के पाठकों को उससे दूर किया
बल्कि उसे साहित्य के केंद्र से भी बहुत दूर धकेल दिया। आप उनकी इस बात से कितना
सहमत हैं?
प्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश जी (फोटो उन्हीं के फेसबुक पेज से साभार) |
सृजन के पीछे मुख्यता तीन प्रेरक तत्व माने गए
हैं- आत्मसंतुष्टि, विचारधारा और दायित्वबोध। स्वयं प्रकाश जी ने इन
तीनों तत्वों को बड़ी कुशलता से साधा है। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी
था कि–मन की संतुष्टि, समाज के
प्रति दायित्व और विचारधारा को अलग-अलग समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। समाज के
प्रति दायित्व के निर्वाह का साधन विचारधारा है और यदि ठीक से इसका निर्वाह हो जाए
तो संतुष्टि है। आप उनके साहित्य को कैसे देखते हैं?
मैंने उनकी कहानियों के संकलन ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ में इस बात को कहा है। हमारे यहाँ सोद्देश्य कहानी को अच्छा नहीं
माना जाता है और मनोरंजन प्रधान कहानियों को भी अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन
स्वयंप्रकाश जी की कहानियाँ एक साथ सोद्देश्य भी हैं और रोचक भी। यह बात वे स्वयं
भी कहते थे कि कहानी को मनोरंजक तो होना ही चाहिए नहीं तो पाठक क्यों पढ़ेगा? उनकी कहानियाँ मनोरंजक हैं, यह उनकी
कहानियों का एक जरूरी आयाम है। स्वयंप्रकाश जी मानते थे कि कहानी में रोचकता की
अवधारणा हमारी संस्कृति में बहुत पुरानी है। हमारी पौराणिक कथाएँ और बाद में लिखी
गई नीति कथाएँ सभी रोचक हुआ करती थीं। कहानी को बहुत अधिक यथार्थवादी भी नहीं होना
चाहिए। स्वयंप्रकाश जी कहते थे कि आप अपनी कल्पना को कितने जीवंत रूप में प्रस्तुत
कर सकते हैं, यह कहानी की सफलता का मानदंड है। भारतीय कथा
परंपरा जातक कथाओं, हितोपदेश, पंचतंत्र
आदि कथाओं की रही है। मुझे लगता है कि उन्होंने उस परंपरा से खुद को जोड़ने का
प्रयास किया। हिंदी में इस परंपरा के बहुत कम कहानीकार ही हैं। कहानी सोद्देश्य तो
होती ही है। बिना उद्देश्य के कहानी लिखी ही नहीं जाती। हमारी परंपरा में आप देखें
तो हितोपदेश और पंचतंत्र आदि की कहानियां सोद्देश्य ही हैं। अगर इस मानक पर देखें
तो स्वयंप्रकाश जी की कहानियों के विषय में तीन बातें हैं- वे सोद्देश्य हैं, रोचक हैं और अपनी परंपरा से जुड़ी हुई भी हैं। विजयदान देथा जैसे लेखक
तो सीधे परंपरा से जुड़ी हुई कहानियां लिखते रहे हैं लेकिन स्वयंप्रकाश जी का
नजरिया आधुनिक था। वे प्रयोगशीलता और नवाचार से सीधे जुड़े हुए थे। हिंदी में ऐसे
कम लेखक हैं। जिसे किस्सागोई कहते हैं वह उनके पास थी। छोटे-छोटे वाक्य, मुहावरेदार भाषा ये उनकी कहानियों की खूबी है। इसीलिए उनकी कहानियां
पाठकों से सीधे संवाद करती हैं।
स्वयंप्रकाश जी के साहित्य में समस्याओं पर बड़ी सधी हुई
प्रतिक्रिया मिलती है। किसी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करके निराशा और
विकल्पहीनता का प्रचार उन्होंने कभी नहीं किया। उनकी इस निरपेक्षता और निस्पृहता
के क्या कारण थे?
उनका साहित्य उम्मीद का साहित्य है। बहुत से अन्य
साहित्यकारों की तरह उन्होंने सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध नहीं किया। हर
परिवर्तन या नई पहल के कुछ बुरे तो कुछ अच्छे प्रभाव भी होते हैं। साहित्यकारों को
अपना वैचारिक पूर्वाग्रह छोड़ कर उन पर लिखना चाहिए। अब जैसे तकनीक, बाज़ार और संचार क्रांति के बहुत से दुष्प्रभाव हैं लेकिन मानवजीवन पर
इनके सकारात्मक प्रभाव भी हैं।बाज़ार की सामाजिक
रूपांतरण में बड़ी भूमिका रही है। तकनीक ने लोगों का जीवन सुगम किया है। तकनीक का
चरित्र लोकतांत्रिक होता है कोई भी उसका लाभ उठा सकता है। मोबाइल की वजह से संचार
क्षेत्र में क्रान्ति आई है। हर परिवर्तन के प्रतिरोध में खड़े होने की हिंदी समाज
की आदत हो गई है। अच्छा ये है कि आप परिवर्तन को एक चुनौती की तरह लें उसके अच्छे
पक्षों को अपनाने को तैयार रहें। बीते समय को अच्छा बताकर वर्तमान समय का रोना
रोना अच्छी बात नहीं। स्वयंप्रकाश जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समय और समाज का
कटु यथार्थ चित्रित किया लेकिन उसमें विषाद कहीं नज़र नहीं आता।
सर, जैसा आपने कहा कि उनके लेखन में जो सादगी थी- सरल
भाषा, जटिलतारहित शिल्प। वही सादगी उनके व्यक्तित्व में
भी थी। आपने लम्बा समय उनके साथ बिताया है और उनको करीब से जाना परखा है। आप उनके
व्यक्तित्व के संबंध में कुछ बताएं।
दरअसल वे संघर्ष से बने हुए व्यक्तित्व थे। आडंबर वगैर से
कोसों दूर थे। आचरण में आदर्शवाद जिसे कहते हैं वह उनमें दिखता था। जो काम उनको
अनुचित लगता था उसके लिए फ़ौरन मना कर दिया करते थे। दूसरे की नज़रों में स्वयं को
स्थापित करने के लिए कभी गलत बात को स्वीकार नहीं करते थे। वे एक सीधे-सादे व्यक्ति थे लेकिन
जीवन को देखने का एक चौकन्नापन...सहज चौकन्नापन उनके व्यक्तित्व में था। वे अपने
आसपास की चीजों को, व्यक्तियों को, घटनाओं
को बड़ी बारीकी से महसूस किया करते थे। उन्हीं अनुभवों को वे कहानियों में पिरोकर
पाठकों के सामने रखते थे।
स्वयंप्रकाश जी की कहानियों के विषय में कहा जाता है कि वे
अपनी कहानियों के अधिकतर पात्र अपने आस-पास से ही चुनते थे।
हां, यह तो बात सही है। वही बात है न जैसा मैंने आपसे
कहा कि वे चीजों को बहुत बारीकी से देखते थे। उनके आस-पास के बहुत सारे लोग उनकी
कहानियों में हैं। पता ही नहीं चलता था कि कौन कब उनकी कहानी का हिस्सा बन जाता था।
कहानी के साथ-साथ वे विभिन्न पत्रिकाओं में लेख भी लिखा करते
थे उन लेखों से पता चलता है कि वे निरे कहानीकार ही नहीं थे बल्कि अपने समाज और
समकालीन परिस्थितियों पर स्पष्ट राय रखने वाले विचारक भी थे। इस पर आप क्या कहेंगे?
उनकी एक किताब है- ‘एक कहानीकार की नोटबुक’। मुझे कई बार उनकी कहानियों से वह किताब ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है।
हिंदी में क्या है कि ऐसे विषयों पर जो आपके दैनंदिन जीवन से सीधे जुड़े हुए हों
जैसे- संगीत, फिल्म, फैशन, रोजमर्रा की घटनाएं, इन पर हिंदी वाला नहीं लिखता। वह इन सब विषयों को
महत्वहीन मानता है और इन पर कलम चलाना अपनी हेठी समझता है। इस ग्रंथि से पीड़ित
होकर ज्यादातर लेखक बड़े-बड़े और बोझिल अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर तो लिखते हैं, विदेशी विचारकों को उद्धृत करते हैं और दैनिक जीवन से जुड़े विषयों को
छोड़ देते हैं। लेकिन स्वयंप्रकाश जी ने किशोर कुमार के गानों पर, सिनेमा पर, बच्चों के लिए भी लिखा। ‘एक कहानीकार की नोटबुक’ में ये सब है। उन्होंने बहुत सारे ऐसे विषयों पर निरंतर लिखा जिनपर हिंदी
साहित्यकार लिखने से बचता है, एक
अगंभीर विषय मानता है जबकि वो हमारे जीवन से सीधे जुड़े होते हैं।
स्वयंप्रकाश जी ने उपन्यास भी लिखे और अन्य विधाओं में भी
लिखा लेकिन मूलतः वो एक कहानीकार थे। ये बात उन्होंने कही भी थी कि कविता में मैं
अंटता नहीं हूँ और उपन्यास तक मेरा फैलाव नहीं हो पता है। इस पर आपकी क्या राय है?
हां तो वे एक कहानीकार के रूप में ही सफल हैं। दरअसल यह
आख्यान का समय ही नहीं है। बहुत विस्तृत सामग्री लोगों को नहीं चाहिए। अब जीवन ही
बहुत त्वरा और हड़बड़ी वाला हो गया है। आख्यान के लिए एक ठहराव चाहिए। अब ठहराव का
समय तो है, नहीं। स्वयंप्रकाश जी ने बहुत बारीक चीजें पकड़ीं
और उनको कम शब्दों में प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया। तो कहानीकार के रूप में
ही वो सफल हैं। अन्य विधाओं में वो उतने सफल नहीं हुए ये बात उनके संबंध में सही
है।
स्वयंप्रकाश ने छोटी-छोटी जगह रह कर साहित्य सृजन किया, लोग चाहते हैं कि केंद्र की तरफ जाएँ। दिल्ली उनको आकर्षित करती है।
क्या स्वयंप्रकाश जी की भी ऐसी कोई महत्वाकांक्षा थी?
हां, बिलकुल भाई वो भीनमाल में थे जो कि राजस्थान का एक
छोटा सा क़स्बा है वहां रहते हुए ही उन्होंने अपने मित्र मोहन श्रोत्रिय के साथ लघु
पत्रिका ‘क्यों’ का संपादन किया। कुर्बान अली उनकी कहानी का पात्र है वो वहीं का रहने वाला है। बाद
में भीनमाल से थोड़ा दूर सिरोही के पास एक क़स्बा है- सुमेरपुर, वहां के टेलीफ़ोन एक्सचेंज में थे। फिर उदयपुर के पास एक देवारी है, वहां थे। इन छोटी जगहों पर रहते हुए ही उन्होंने महत्वपूर्ण कृतियों
की रचना की और साहित्यिक गतिविधियों में भी बराबर सक्रिय रहे। वे बहुत शांतिप्रिय
और कोलाहल से दूर रहने वाले व्यक्ति थे। दूसरों की देखा-देखी बड़े शहरों की ओर
उन्होंने कभी दौड़ नहीं लगाई। जीवन के उत्तरार्ध में भोपाल चले गए थे लेकिन वहां भी
उनका मन बहुत लगता नहीं था।
आजकल हम देखते है कि लोग कभी कोई बयान देकर या जैसे भी हो
येन-केन प्रकारेण चर्चा में रहना चाहते हैं लेकिन उन्होंने इस प्रकार के ओछे
हथकंडों को कभी नहीं अपनाया। इस संबंध में उनकी क्या सोच थी?
स्वयंप्रकाश जी इन सबसे दूर रहने वाले व्यक्ति थे। उनका
अधिकांश समय छोटे कस्बों में व्यतीत हुआ। वे जिंक में हिंदी अधिकारी रहे, देवारी में, फिर उड़ीसा में चले गए। चित्तौड़ में जब थे तो वहां की
साहित्यिक गतिविधियों में वे शामिल हुआ करते थे। उनके ऑफिस में बहुत सारे लोग
जानते ही नहीं थे कि वे साहित्यकार हैं। कभी उन्होंने ये दावा नहीं किया कि मैं
कोई बड़ा लेखक हूँ। वो तो जब पाठकों के बीच उनकी कहानियां चर्चित हुईं और नामवर
सिंह ने एक बार उनका जिक्र किया कि वो बड़े कहानीकार हैं तो वे पहचान में आए।
आत्ममुग्धता उनके स्वभाव में ही नहीं थी। जितना मिला उतना ठीक है। मैं उनको कभी
फ़ोन करता कि आपको यह सम्मान मिला है तो उस पर भी कभी वो अतिउत्साहित नहीं हुआ करते
थे, कहते थे कि अच्छा माधव ठीक है।
स्वयंप्रकाश जी की दोस्ती के किस्से भी काफी मशहूर हैं। कहा
जाता है कि वे बहुत बड़े यारबाश थे।
चित्रांकन: कुसुम पाण्डे, नैनीताल |
युवा रचनाकारों के विषय में वे कहते थे कि आज के लेखकों में
परिश्रम की नहीं बल्कि संवेदनशीलता की कमी है। क्या आपको भी ऐसा लगता है?
हां, संवेदनशीलता का तो बहुत मुखर आग्रह था उनमें।
साधारण घटनाक्रम को भी वे इस रूप में अभिव्यक्त करते थे कि पाठक सोचने पर मजबूर हो
जाता है। अपने संवेदनशील कथ्य और बोलचाल की भाषा के बलबूते ही उन्होंने हिंदी कथा
साहित्य को कई कालजयी कहानियां दी हैं।
(प्रो. माधव हाड़ा प्रख्यात लेखक हैं और वर्तमान में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में शोधरत हैं)
साक्षात्कारकर्ता: अभिषेक गुप्ता, शोधार्थी, हिंदी विभाग, गोवा
विश्वविद्यालय,
संपर्क: 6386892652, abhishekguptji@gmail.com
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