'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
(प्रो.
आनंद कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री और समाजवादी चिन्तक हैं.यह लेख मूलतः उनके वक्तव्य का
लिपिबद्ध रूप है, जो उन्होंने ‘सोशलिस्ट कांग्रेस पार्टी’ के 87वें स्थापना दिवस
पर 17 मई, 2020 को दिया गया था)
प्रो. आनंद कुमार (फोटो उन्हीं के फेसबुक पेज से साभार) |
लेकिन ये जरुर सच है कि परिवर्तन का
प्रवाह कम नहीं हुआ है, परिवर्तन की जरूरत कम नहीं हुई है। यह इसलिए भी हुआ है कि
हम जब अपने प्रथम प्रस्थान के लिए इकठ्ठा हुए थे। आज से 86 साल पहले इकठ्ठा हुए थे पटना के
अंजुमन इस्लामिया हॉल में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना करते समय उस समय
स्वतंत्रता ही अपने आप में एक सपना थी। विदेशी राज से मुक्ति का कोई रास्ता दिखाई
नहीं पड़ रहा था। और, दूसरी तरफ गुलामी से बेचैनी थी।
शोषण से मुक्ति की जरुरत थी। उनमें संगठन की क्षमता नहीं थी। व्यापक अशिक्षा और
निरक्षरता थी। भयंकर जाति भेद, गहराई तक साम्प्रदायिकता और उस सबसे ऊपर देशियों के द्वारा
ही विदेशियों के इशारे पर देशियों का भयंकर शोषण मौजूद था। जमींदारी प्रथा क्या थी? उस समय के व्यापारी और
उद्योगपति क्या कर रहे थे? जब निर्मम हो करके बहिष्कार का आह्वान हुआ। जब असहयोग का
आन्दोलन की असफलता के बावजूद असहयोगियों की बराबर एक धारावाहिकता बनी रही तब पहले
व्यक्तिगत सत्याग्रह,नमक सत्याग्रह और आखिर में होते
होते देश इतना गरम हो गया कि हम सबने मिलकर के देखा कि हमारे पुरखों ने मिल करके
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ , करो या मरो, जैसा आह्वान महात्मा गाँधी जैसे नेता ने कर दिया l उसके बाद कांग्रेस के नेता तो
जेल में चले गये। 8 अगस्त 1942 को। 9 अगस्त,1942 से लेकर 1946 तक यहाँ वहां, हर कहीं, यत्र – तत्र – सर्वत्र नयी पीढ़ी
ने भारत छोड़ो आन्दोलन की लगाम पकड़ी। लोहिया और जयप्रकाश ने, अच्युत पटवर्धन, युसूफ मेहर अली ने , अरुणा आसफ अली और पूर्णिमा
बैनर्जी ने- इन लोगों ने तो अपनी जान की बाज़ी ही लगा दी थी। आज हम सिर्फ 1942 को ही याद नहीं कर रहे। 1967 –
68 को भी याद कर रहे। जब लगता था कांग्रेस सिद्धांतों का कब्रिस्तान बन गयी है। कांग्रेस
सत्ता का दलदल बन गयी है। जिसने कभी आज़ादी की लड़ाई में देश को दिशा दी थी वह आज़ादी
को ही खा रही है, निगल रही है। तब गैर
कांग्रेसवाद की लहर चली| शुरू में उसमें समाजवादियों का साथ कम्युनिस्टों ने भी दिया।
बाद में 1967 में सत्ता की छोटी सी एक
गुंजाईश की खिड़की खुलने के बाद कम्युनिस्टों का एक बड़ा हिस्सा, 1969 के बाद समाजवादियों का एक छोटा
सा हिस्सा कांग्रेस की तरफ मुड़ गया। कांग्रेस खुद अन्तर्विरोध ग्रस्त होकर टूट गयी|
1969 से लेकर 1973 तक के लिए ऐसा लगा कि केंद्र की सत्ता समाजवाद की तरफ मुड़
रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के पीवीपर्स का खात्मा,गरीबों को रोजगार के लिए छोटी
–बड़ी मदद। अनाज और उद्योग के बीच में सरकार की ज्यादा भूमिका। मजदूर आन्दोलन का
प्रबल होना। विद्यार्थियों की मांगों का सुना जाना। किसानों की बेहतर दाम मिलना। हरित
क्रांति के बेहतर परिणाम का आना – जैसी कई चीजें हुईं। लेकिन फिर वहीं बैतलवा डाल
पर ! सन् 1974 से 77 की काली रातें किसकों नहीं याद
होंगी! उन्हीं को नहीं याद होंगी ,जो 1979 तक होशोहवास में नहीं थे। यानी जो लोग आज की उम्र में
एकतरह से कुल मिलाकर के 40 वर्ष से कम उम्र की हैं, उनके लिए 1974 उतनी ही दूर है, उनसे पहले की पीढ़ी के लिए जितना
1942 था। फिर 1991-92 का जमाना आया। आपातकाल तो चला
गया। लेकिन सामाजिक न्याय की तलाश में जो लोग थे, अस्मिता की राजनीति को जो लोग
ज़रूरी मानते थे, औपनिवेशिकता से आगे जाने के लिए
धर्म, भाषा, जाति से जुड़े बंधनों को जो ढीला
करना चाहते थे, वंचना को खत्म करना चाहते थे, उस वंचित भारत की तरफ से ललकार
हुई और तब एक नया त्रिकोण बना।
आपको मैं इसलिए बताना चाहता हूँ कि आज हम जहाँ पहुंचे हैं उसके
इतिहास को देखने पर आपको लगेगा कि समाजवादियों के लिए आज पराजय और असफलता से संकट नहीं है, हमारा संकट तो सफलता का संकट है।
हम 1942 में सफल हुए। संविधान सभा बनते
समय हम उसमें नहीं थे। हम 1964-67 में सफल हुए। लेकिन गैर कांग्रेसवाद की जो राजनीतिक
परिणिति थी वह इंदिरा गाँधी की वर्चस्वता और आपातकाल में बदल गयी। कहाँ 1967 और कहाँ 1977! हमको फिर से सब कुछ शुरू करना
पड़ा। उसी तरह से 1991-92 में मंडलीकरण ,सामाजिक न्याय की लड़ाई , मंदिर बनाओ , हिन्दू अस्मिता की लड़ाई और
भूमंडलीकरण। भारतीय पूंजीपतियों का खुल करके मध्यमवर्ग से मिल करके भारतीय
राष्ट्रीयता पर प्रहार करते हुए वैश्विक पूँजी के साथ नए तरह की रिश्तेदारी की
कोशिश। आज मंदिर की ताकतें, मंडल की ताकतें और बाजारीकरण यानि भूमंडलीकरण की ताकतें –
तीनों का एक नया गठजोड़ बन गया। अगर आप दिल्ली को देखें, अगर आप पटना को देखें, अगर आप पांडिचेरी को देखें तो
आपको समझ नहीं आएगा कि जो लोग आज साथ में सत्ता सञ्चालन कर रहे हैं ये 1991-92 में आमने – सामने क्यों खड़े थे? लेकिन खड़े थे। और इसमें
समाजवादियों की पहल पर सामाजिक न्याय की बड़ी छलांग हिंदुस्तान ने लगायी। एक गृह
युद्ध का माहौल जरुर बन गया। ऊंच्च जातियों या सवर्ण जातियों के नौजवानों को
वैचारिक धुंध के कारण ऐसा लगा कि मंडल की नीति, आरक्षण की नीति उनके ऊपर हमला
है। उन्होंने ये नहीं देखा कि ये जनतंत्र को गहरा करने की कोशिश है। सत्ता
व्यवस्था में वंचित भारत की हिस्सेदारी के लिए एक अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश
है। खैर ! आज हम जहाँ खड़े हैं उसकी भी चर्चा करना जरुरी है|
समाजवादियों की चुनौतियाँ
आज के भारत के जो सबसे सम्पन्न इलाके हैं, वहां का पानी न पीने लायक और ना
ही हवा जीने लायक बची है। और वहां का प्रबंधन, कुल मिला करके अमीरों की
दुनियां है। सर्वोच्च न्यायालय किसका ? हमारा प्रशासन तंत्र किसका? हमारी पुलिस व्यवस्था किसकी ? हमारे विधायक, सांसद, मंत्री जी किसके लिए ?आम लोगों के लिए? अगर यह आम लोगों के लिए होते तो
आज एक महामारी से बचने के लिए हिन्दुस्तान में जो भगदड़ मची है , उसमें कोई अम्बानी और अडानी सड़क
पर नहीं है। मामूली लोग हैं। जिनके कन्धों पर अम्बानी – अडानी और मंत्री जी और
राज्यपाल जी बाकी सबकी अट्टालिकाएं खड़ी हैं। उनका घर रोशन है। गरीबों के घर
अन्धेरा आ गया उनको कोई पूछ भी नहीं रहा। समाजवादी कहलाने भी पार्टी के नाते तो
होंगे ही लेकिन जनता के साथ खड़े नहीं है। यही आज के समाजवादियों का संकट है। नयी
पीढी के लोगों के लिए गाँधी 1948 में मारे गए। लोहिया का 1967 में निधन हो गया। जय प्रकाश 1979 में गुजर गए। तो जब हम कहते
हैं गांधी लोहिया जय प्रकाश और डॉ.अम्बेडकर को भी जोड़ लीजिये तो वह तो 1956 में ही दिवंगत हो गए। अगर आप मार्क्स
को जोड़ लीजिये तो वह 1883 में ही गुजर गए थे। हमारी जो
शब्दावली है, हमारे जो मुहावरे हैं, हमारी जो चिंताएं हैं, उसका विराट भारत के युवाओं से
संपर्क बहुत कम है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वह समाजवाद से दूर चले गए हैं।
समाजवाद और महिला आन्दोलन
महिलाएं भारत का आधा हिस्सा हैं। क्या आज कोई औरत अपना और हिंसा
के साथ हिन्दू धर्म के नाते, अपनी जात के नाते, इस्लाम के नाते, ईसाइयत के नाते, सिख धर्म के नाते चुप रहने को तैयार है? आज अगर औरत बोल रही है तो
समाजवाद बोल रहा है। क्योंकि समाजवादी आन्दोलन ही वह पहला आन्दोलन था जिसने कहा था
कि वर्ग संघर्ष की क्रांति के साथ – साथ नर – नारी समता भी मौलिक क्रांति है और
वर्ग संघर्ष से जुड़ी क्रांति से बड़ी क्रांति है। दुनिया के महिला आन्दोलन से भारत
में इसका साक्षात्कार समाजवादियों ने कराया। नर – नारी समता के सिद्धांत और
कार्यक्रम लेकर आया था।
दलित और समाजवादी आन्दोलन
चित्रांकन: कुसुम पाण्डे, नैनीताल |
एक, सत्ता मिलेगी तभी समाजवाद आएगा इस चिंतन को अब हम पीछे छोड़
दें। सत्ता हमको मिली। 67 में मिली 77 में मिली। 91 , 92 , 93 , 96 में मिली कई राज्यों में अभी भी हमारे साथ संघर्ष कर चुके
साथियों का सत्ता के साथ सीधा सम्बन्ध है। कुछ तो केंद्र में मंत्री हैं कुछ तो
राज्यों में मंत्री हैं, कई राज्यों में मुख्यमंत्री हैं, तो आप ये दावा मत कीजिये कि
सत्ता नहीं मिली। सत्ता की सीमायें आपने देख ली। मुख्यमंत्री भी सोचते हैं जबतक
जनता का आन्दोलन नहीं होगा तब तक मैं कोई नयी पहल नहीं कर सकता। चाहे शिक्षा का
सवाल हो ,चाहे जमीन का सवाल हो – हमने
उत्तर प्रदेश में देखा, बिहार में देखा, उड़ीसा में देखा , असम में देखा अभी हाल में कर्नाटक में देखा। तो पहली बात हमारी
सोच का सवाल है कि समाजवाद की रचना का प्रारंभ बिंदु क्या होगा ? विधान सभा और लोक सभा में
प्रवेश ? या अपने जीवन में पुनः प्रवेश। जीवन
से शुरू करने से एक टिकाऊपन होगा – ये हमको गाँधी ने सिखाया है। गाँधी को तो उनके
अनुयायियों ने सरदार पटेल और पंडित नेहरु समेत राजेन्द्र बाबू, राजा जी समते उनके जीवन काल में
ही छोड़ दिया था। लेकिन आज भी गाँधी की धारा है। और वह धारा भारत में ही नहीं
दुनिया के हर अन्याय ग्रस्त, हिंसा ग्रस्त इलाके में प्रवाहित हो रही है| क्यों ? क्योंकि गांधी का रास्ता निजी
जीवन से गुजरता है। अपनी निजी जिंदगी को बदले बिना आप गांधी मार्गी अपने को कह
नहीं सकते। क्या समाजवादियों के बारे में यह सच है? शायद नहीं ! हम जातिवादी हैं। हम
पुरुषवादी हैं |हम पूंजीवादी हैं। हम संपत्ति
संचय करते हैं। हम काले धन के धंधों में लगे हुए हैं। और फिर भी जब कहना – सुनना
हो तो हम कहेंगे हम समाजवादी हैं। क्योंकि हमारा सम्बन्ध गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश के या बाद के दिनों
में मधु लिमए, एस.एन जोशी, राजनारायण, चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप कर्पूरी ठाकुर आदि
से रहा है। ये निजी रिश्तों से समाजवाद थोड़ी आता है। निजी रिश्तों से दोस्ती बनती
है। मित्रता बनती है लेकिन समाजवाद के लिए समाजवादी से शुरू करना पड़ेगा। मैं खुद
अपने जीवन में शून्य हूँ, तो मैं किसी और को कोई शक्ति नहीं दे सकता। तो एक तो विचार
की दिशा की बात।
दूसरा - कार्यक्रम। “सन सौपाने बाँधी गांठ / पिछड़ा पावे सौ
में साठ”। अब तो पिछड़ा और अति – पिछड़ा ही आपस में मिलकर चलें ये नयी गांठ की जरुरत
है। पुरानी वाली गांठ तो खुल चुकी है। आरक्षण की नीति के साथ हम तीस साल से जी रहे
हैं, पिछड़ों के लिए और दलितों और
आदिवासियों के लिए तो सत्तर साल से जी रहे हैं। अब उनके अंदर आरक्षण के भीतर आरक्षण
की नयी व्यवस्था की जरुरत है। हमारी सामाजिक न्याय की नीति में नया प्रस्थान चाहिए।
इसमें डिप्रेवेशन पॉइंट यानी वंचना के आधार पर- अंग्रेजी भाषा के नाम पर वंचना, गाँव में पैदा होने के आधार पर
वंचना, स्त्री होने के नीते वंचना, भूमिहीन होने के नाते वंचना, पुरानी परम्पराओं के आधार पर
वंचना, बहिष्कृत और दलित होने के नाते
वंचना, अल्पसंख्यक होने के नाते वंचना
– इन सबको जोड़ कर के आगे बढ़ना पड़ेगा। आरक्षण का जो मन्त्र था वह शक्तिहीन हो चुका
है। लेकिन आरक्षण की जरुरत है। नए तरीके का आरक्षण। जिसमें सामाजिक न्याय समाहित
हो।
तीसरा – आर्थिक दिशा। जो हमारी आर्थिक दिशा है उससे लगता है
बंद गली के आखिरी मकान में फँस गए हैं। करोना की महामारी ने दिखा दिया। प्रकृति
निरपेक्ष और निर्धन निरपेक्ष नीतियाँ विकास दर तो बढ़ाएंगी दुनिया में आपकी चमक को
बढ़ाएंगी। लेकिन आपके पाँव बहुत कमजोर रहेंगे। जब कभी मौका मिलेगा आप घुटनों पर
रेंगते नज़र आयेंगे। आज हिन्दुस्तान घुटनों पर रेंग रहा है। हम अपने बगल में जो हो
रहा है उसमें हस्तक्षेप नहीं कर पा रहे हैं। सरकारें लाचार हैं। वह खाली लाठी चलाने की
कोशिश कर रही हैं। ये लाठी ज्यादा दिन नहीं चलने वाली। बड़ी लाठी , इससे बहुत बड़ी लाठी अंग्रेज के
पास थी , उसका तो सात समुन्दर पर राज था।
आपका तो हिन्द महासागर पर भी राज नहीं है। इसलिए लाठी के भरोसे मत रहिये। हम
समाजवादियों के लिए भी जरुरी है कि हम अर्थशास्त्रियों से जरा संवाद बनायें। आजकल
समाजवादियों के बीच में न इतिहास की चेतना है न अर्थशास्त्र की जानकारी है और न
समाजशास्त्र के प्रति आकर्षण। अर्थशास्त्रियों का बहुत बड़ा समुदाय कह रहा है कि
हमको आगे बढ़ने के लिए प्रकृति सापेक्ष आर्थिकी की जरुरत है (ईको सेंट्रिक
इकोनॉमिक्स)। अब ये शब्द ही आज के बहुत सारे समाजवादियों को समझ में नहीं आयेगा। क्योंकि
अभी भी वे दाम बाँधो नीति के आगे – पीछे घूम रहे हैं। रोजगार के अधिकार के नारे के
कार्यान्वयन के लिए परेशान हैं। आप रोजगार पैदा करके भी दिल्ली जैसे जहरीले महानगर
में क्या करेंगे ? यहाँ तो प्रधानमंत्री को भी
शुद्ध हवा नहीं मिलती। हम – आप किस खेत की मूली हैं।
तीसरा, सामाजिक – आर्थिक नीति के साथ – साथ राजनीतिक संस्कृति का
सवाल है। समाजवाद समाज के संगठित तरीके से नव निर्माण का एक रास्ता है। इसमें राज
सत्ता की बड़ी भूमिका है |लेकिन
चुनाव वाद और समाजवाद में बड़ा फासला है। हम समाजवादी होते होते चुनाववादी हो गए
हैं। बहुत सारे लोगों को लगता है कि हम तो कभी विधायक हुए ही नहीं। टिकट ही नहीं
दिया पार्टी ने। जो विधायक हुए वे कहते हैं मंत्री बनने का मौका ही नहीं दिए। कोटे
में अमुक जी को रख लिया। जो विधायक और मंत्री हो गए वह कहते हैं हमारी कौन सुनेगा।
अब तो परिवार का चलता है। कोखवाद आ गया। कहाँ कंगाली और करोड़ पंथ की लड़ाई थी कहाँ
कोख वाद और समाजवाद की लड़ाई हो रही है। हमको इसमें से निकलना पड़ेगा। हमारे जो सबसे
बड़े नेता थे उनमें नरेन्द्र देव चुनाव में पराजित हुए। आज़ादी के बाद तो वे कभी
चुनाव जीते ही नहीं। युसूफ मेहर अली का सबसे बड़ा पद बम्बई के मेयर का था, वह भी अंग्रेजी राज में, डॉ. राममनोहर लोहिया दो बार
चुनाव जीते। कुल दो सत्र में मुश्किल से साढ़े तीन साल लोकसभा में के सदस्य रहे। सत्तावन
बरस की जिन्दगी में में कुल साढ़े तीन साल उनका संसद में बीता बाकी साढ़े तिरपन साल
एक पांव रेल में तो एक पांव जेल में। जयप्रकाश नारायण कभी ग्राम पंचायत के
उम्मीदवार नहीं बने। और आप कहते हैं आप गाँधी, लोहिया, जय प्रकाश की धारा के हैं, हमको टिकट दे दो ! टिकट दे दो
तो हम येनकेन प्रकारेण जीत जायं। जीत जाएँ तो मंत्री बनाओ। मंत्री बनाओ तो
समाजवादियों से दूर चले जाएँ और पूंजीपतियों की तलाश करें। जो अगले चुनाव जीतने के
लिए पैसे का इंतजाम करे। और उसके आगे हमारी सात पीढ़ियों को दसो ऊँगलियाँ घी में और
सिर कढाई में डाल दें। भयंकर भ्रष्टाचार के सबसे बड़े प्रतिमान कांग्रेसियों ने
नहीं बनाये ! सांप्रदायिक ताकतों ने नहीं बनाये। सबसे शर्मनाक अध्याय हम
समाजवादियों का लिखा हुआ है। एक तरफ हम त्याग के शिखर पुरुषों के अनुयायी हैं और
दूसरी तरफ हम भोग और भ्रष्टाचार के सबसे गंदे उदाहरणों से जुड़े हुए हैं और इन
दोनों के साथ हमको जीना सीखना पड़ेगा |
आइये हम छोटी – छोटी शुरुआत करें। जैसे यही देखिये – ये
मशीन है इसके जरिये आज हम देश भर से लोगों को जोड़ रहे हैं। तो नयी टेक्नोलॉजी से
कौन जोड़ेगा ? गाँधी जी ने सब कुछ छोड़ा लेकिन
आखिरी दिन तक एक पत्रिका जरुर निकालते रहे। क्योंकि संवाद से ही विचार फैलेगा। संवाद
और विवाद से ही समन्वय बनेगा। कितनी बड़ी पत्रिकाएं निकल रही हैं ? हमारी सबसे पुरानी अंग्रेजी की
पत्रिका का नाम ‘जनता’ हैं। कितने लाख लोग जनता को पढ़ते हैं ? कुछ हज़ार की छपाई है। शायद तीन
हज़ार या पांच हज़ार। एक अरब तीसकरोड़ के देश में हमारी सबसे पुरानी पत्रिका है उसके
नियमित पाठकों की संख्या दस हज़ार भी नहीं है। शर्म नहीं आती। और हिंदी में , मराठी में , तमिल में , बांग्ला में कन्नड़ में –
अंग्रेज गए अंग्रेजी जाए – देशी भाषा राज चलाये – नारा तो बहुत सुंदर था |
हमने अपनी देशी भाषाओं में संवाद बढ़ाने के लिए क्या किया है? विचार पकड़िए, उसको मांजिए। डॉ . राममनोहर
लोहिया साहब ने लिखा था, आखिरी लाइन सन् 1967 में लिखी, वह जानते थे कहने से काम नहीं चलने वाला, इसलिए लिखा था, आज 2020 में बदल रही दुनिया के बीच में
डॉक्टर साहब के साथ पार करना चाहते हैं इस वैतरणी को जैसे मार्क्स के लिखी लाइनों के
इर्दगिर्द सिमट गया पूरा मार्क्सवाद ऐसा लोहिया के साथ मत कीजिये। गाँधी के साथ तो
करने का सवाल ही नहीं क्योंकि गाँधी ने बराबर कहा मैं तो विद्यार्थी हूँ पुरानी
पुरानी बातों को मत याद रखिये। मैंने नयी बात कह दी। जाति पर नया कह दिया। नर –
नारी समता पर नया कह दिया, लोकतंत्र पर नया कह दिया। विकेंद्रीकरण पर नया कह दिया। प्रकृति
पर नया कह दिया। इसलिए हमारे 110 खण्डों में लिखी हुई – बीती हुई बातों को भूलो। अपने आचरण
की कसौटी पर आगे बढ़ो। यही शायद बुद्ध ने भी कहा था। 'अप्प दीपो भव:' दूसरी बात मुझे यह
कहनी है कि हम संस्कार से आलोचक हैं। कोशिश कीजिये कि संस्कार में प्रशंसा भी आ
जाये। हमने इतनी आलोचना की अंग्रेजों की फिर कांग्रेसियों की फिर भाजपा वालों की, फिर कम्युनिस्टों की – हम अपने
लोगों की भी प्रशंसा करना भूल गए। आइये हमारे इर्दगिर्द जो 75 साल से ज्यादा उम्र के समाजवादी
हैं उनका सम्मान करें। और ऐसा कोई जिला नहीं है ऐसा कोई शहर नहीं है जिसमें ये
बुजुर्ग – ये पुरानी मशालें अभी भी प्रकाश नहीं फैला रही हैं।
तीसरी बात, हम खुद अपने अपने पाँव जमीन पर टिकाएं। किसी न किसी आन्दोलन
से जुड़ें। वो बुरा विचार फैला रहे हैं इसकी निंदा करना चाय की प्याली पर बंद
कीजिये। खुद देखिये कि आपने तन मन और धन में से आपने कितना हिस्सा समाजवाद के साथ
है और कितना खाली वितंडावाद के साथ है। हम अगर इतना छोटा सा भी बदलाव अगर करेंगे
तो मैं व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहता हूँ कि देश के हर जिले में, हर विश्वविद्यालय में हर
आन्दोलन में हर अच्छी जमात में आपको प्रतिध्वनी मिलेगी। सिर्फ आपको नयी पुकार की
जरुरत है, नयी ललकार की जरुरत है। और आज
जो काम हुआ इसके लिए हम बधाई देंगे। हम समाजवादी संस्थाएं जैसे मंच को, जनता जैसी पत्रिका से भी
प्रेरणा लें। इनको भी अपना योगदान दें और कसौटी पर यही बनायें कि हमारे चिंतन में
ताज़गी कितनी है। बासी दूध तो बिल्ली भी नहीं पीती! नया भारत क्यों आपको स्वीकार
करेगा? और दूसरा अपनी कथनी और करनी को
एकजुट करें। तन मन धन में से थोडा सा हिस्सा तो दीजिये। थोड़ा अपना समय दीजिये। थोड़ा
अपना मन दीजिये और थोड़ा अपना धन दीजिये। अंतिम बात। आइये देखे इस समय देश की
बेचैनी में हम समाजवादियों के लिए कुछ सार्थक करने के लिए क्या प्रस्थान बिंदु
बनता है। कई बड़े आन्दोलनों के नायक हमारे समाजवादी हैं। आज के संवाद में से उनमें
से बहुत से लोग आये हुए हैं। ये क्या सार्थक जीवन जी नहीं रहे ? अगर इनका रास्ता सही है, तो
इनके कदम में दो कदम हम क्यों न चलें ! अगर हम आज की तारीख में सच्ची प्रेरणा
लेंगे अपने समकालीन प्रश्नों से मुँह नहीं चुरायेंगे और आचरण में, कर्म में, आचरण – कर्म की कसौटी पर
समाजवादी बनने की फिर से कोशिश करेंगे, तो आने वाला सवेरा हमारा स्वागत करने को
तैयार है। इस अँधेरी रात का उतरना और एक नए सिरे से सूरज का उगना उतना ही सच है,
जितना भारत की आजादी और भारत की आज़ादी की लड़ाई की शानदार सफलता। उस सच को साकार
करने में हम क्या कर रहे हैं? ये आज का प्रश्न है, आइये आज के इस प्रश्न को मिलकर
उत्तर तलाशें!
लिप्यंतरण
बृजेश कुमार यादव
(शोधार्थी),भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू,
नयी दिल्ली110067
पता- कमरा संख्या-326, झेलम छात्रावास, जेएनयू, नयी दिल्ली.
सम्पर्क bkyjnu@gmail.com, 9968396448
बेहतरीन लेख है...
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