'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
'मुर्दहिया' में छात्र जीवन अनुभव और
प्रासंगिकता- पूजा मदान
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
“मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी। मानव जाति का
वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था।”1 जाति का वर्चस्व
भारत में सदियों पुराना रहा है। सदियों से एक खास जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों
को कमजोर समझ उन पर ज़ोर जुल्म करते आये हैं।एक समय मनुष्य जाति का ऐसा भी रूप रहा
है जब उसे पैरों में घुंघरू बाँध,
गले में हांडी और
कमर में पीछे झाड़ूनुमा छड़ियाँ लटका अपना संपूर्ण जीवन दरिद्रों एवं गुलामों की
भांति गुजारना पड़ता था।यह वही शूद्र एवं अंत्यज समाज था जिसे वर्तमान में दलित के
रूप में जाना जाता है। गाँव से कोसों दूर दक्षिणी छोर इन लोगों के रहने का स्थान
हुआ करता था क्योंकि हिन्दू धर्म में दक्षिण दिशा को अपवित्र बताया गया है। जहाँ
पर देवताओं का नहीं बल्कि भूत-पिशाचो का वास होता है। गाँव की गंदगी बहाने के लिए
भी यही दिशा तय थी। ऐसे विपरीत वातावरण में (जहाँ न तो स्वच्छ हवा हो और न ही
प्रकाश की कोई किरण) इन लोगों का रहना मनुष्यत्व पर कई सवाल खड़े करता है। साथ ही यह
सोचने पर भी बाध्य करता है कि क्या वास्तव में ये लोग इतने दूषित एवं घृणित थे
जिसके कारण इन्हें गाँव के भीतर कोई स्थान नहीं मिला। आख़िर क्यों गरीबी, असमानता, अछूतपन, अशिक्षा की दर्दनाक लकीरे इन्हीं के माथे पर
मढ़ी गयी ? क्यों इनकी अस्मिता को लगातार रोंदा गया? कभी ‘अंत्यज’, कभी ‘शूद्र’, कभी ‘पंचम’, कभी ‘हरिजन’ तो कभी ‘दलित’ अनेक नामों से इन्हें अभिहित किया जाता रहा? ये सभी सवाल तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ के केंद्र बिन्दू रहे हैं। प्रो. तुलसीराम की
आत्मकथा दलित जीवन का वह आख्यान प्रस्तुत करती है जिसे कभी मुख्यधारा में शामिल
नहीं किया।
प्रस्तुत आत्मकथा
में तुलसीराम ने समाज की मनुवादी व्यवस्था पर कुठाराघात किया है दूसरे शब्दों में
यदि कहा जाए तो मुर्दहिया समाज की उस त्रासद स्थिति को उजागर करने में पूरी तरह
सफल रही हैं, जिसके लिए जिम्मेदार वर्ण व्यवस्था, सामंती समाज और समाज के वे तथाकथित ठेकेदार
रहें हैं जो मनुष्यत्व का ढोंग करते आए हैं। ‘मुर्दहिया’ साहित्यिक होने के साथ सामाजिक और राजनीतिक
दृष्टि से भी बेजोड़ है। दलित समाज का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है? दलित साहित्य किस प्रकार समाज के विभिन्न
पहलुओं को उजागर करता है?
तथा प्रो.
तुलसीराम अपने समय में दलित जीवन का कैसा स्वरूप देखते हैं?यह सब उनकी मुर्दहिया में सिरे से अभिव्यक्त
हुआ है।इस संबंध में सत्यकेतु सांकृत लिखते हैं- “मुर्दहिया के माध्यम से तुलसीराम ने साहित्यिक
जगत में जिस प्रकार अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी उससे समीक्ष्य कृति का
बेसब्री से इंतजार किया जाना लाजमी था। इस कृति ने अपने रचयिता को लोकप्रियता की
उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था जहाँ पहुँचने की ललक किसी भी रचनाकार की हो सकती
है।मणिकर्णिका की भूमिका से मिली जानकारी के अनुसार आज की हिन्दी आलोचना के शीर्ष
पुरूष नामवर सिंह का भी कथन है कि ग्रामीण जीवन का जो जीवंत वर्णन मुर्दहिया में
है, वैसा प्रेमचन्द की रचनाओं में भी नहीं मिलता।”2
‘मुर्दहिया’ प्रो. तुलसीराम के बचपन के संघर्ष की कथा है।
एक ऐसा बचपन जहाँ उच्च वर्ग की भांति सुख सुविधाएँ नहीं है, छप्पन भोग नहीं है, शरीर की ठिठुरन के लिए गर्म कंबल नहीं है यदि
कुछ है तो वह हर समय होने वाला जातिगत भेदभाव तथा अपमान। साथ ही ‘चमरा’ और ‘चमरकिट’ जैसी जातिसूचक
टिप्पणियां। जिसे उसने नहीं बल्कि उस वर्ग विशेष ने चुना है जो सदियों से स्वयं को
मनु का रक्षक घोषित कर राजपाठ में सलंग्न होता आया है।नाम की इस राजनीति को देखते
हुए प्रो. चौथीराम यादव लिखते हैं- “दलित अगर गरीब-से भी गरीब होगा, उसे दो वक्त की रोटी न भी मिले तो भी वह जिन्दा
रह सकता है। बर्दास्त कर सकता है लेकिन आये दिन वह जो कदम-कदम चमरा, चुहड़ा, धोबियां आदि रूप
में अपमानित होता है यह जो सामाजिक दंस झेलता है। वह सबसे मारक है। इससे दलितों को
मुक्ति मिलनी चाहिए।”3
मुर्दहिया में
छात्र जीवन संघर्ष
‘संघर्ष’ एक ऐसा शब्द है
जो हमेशा व्यक्ति परिस्थितियों को दर्शाता है।व्यक्ति अपने जीवन काल में तमाम तरह
की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों से होकर अपना
लक्ष्य प्राप्त करता है। लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में उसे जिन कठिनाइयों तथा
मुसीबतों का सामना करना पड़ता है वे कहीं न कहीं उसके अथक संघर्ष की ही द्योतक होती
है। ऐसे में यदि व्यक्ति निम्न तबके का हो तो उसके लिए यह संघर्ष दोगुना-चौगुना बढ़
जाता है। ‘मुर्दहिया’ के तुलसीराम का जो संघर्ष है वह कुछ इसी प्रकार
का है। गरीबी, भूख तथा जाति के साथ शिक्षा प्रणाली के भेद को
सहता तुलसीराम अपनी जमीन खुद की मेहनत और लगन से निर्मित करता है।शिक्षा जिसे समाज
में गरीबी, जाति, छुआछूत तथा
धार्मिक अंधविश्वास मिटाने का प्रमुख साधन माना गया है आज वहीं शिक्षा कुछ खास
वर्गों तक सिमित होकर रह गयी है। वर्तमान में स्कूलों से लेकर देश के तमाम
प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय इस वर्गवादी शिक्षा के पक्षधर बने हुए हैं।जिसका
दुष्प्रभाव समाज के एक ऐसे तबके पर पड़ रहा है जिसे अभी भी शिक्षा जैसे मूलभूत
अधिकार से नदारद रखा जा रहा है। मेहनत के बल पर यदि कोई निम्न जाति का व्यक्ति
उच्च संस्थाओं तक पहुँच भी जाता है तो उसके ऊपर जातिवाद से लेकर राष्ट्रद्रोही
होने तक के न जाने कितने आरोप मढ़ दिए जाते हैं।आरक्षण को मुद्दा बनाकर मानसिक रूप
से उत्पीड़न इस बात की गवाही देता है कि अभी भी जातिवाद की आंधी थमी नहीं है।‘रोहित वेमुला’ और ‘पायल तड़वी’ की संस्थागत हत्या इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।
इस दृष्टि से यदि यह कहा जाए कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय हत्याओं को निरंतर
बढ़ावा दे रही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक ऐसा वर्ग जिसे सालों-साल तक
भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रखा गया,
जिसके अधिकारों
को निर्ममता से कुचला गया,
जिसे हमेशा जूठन
खाने-खिलाने पर मजबूर किया गया ऐसे में शिक्षा प्राप्त कर पाना उनके लिए कितना
कठिन है।अपने घर में शिक्षा की इसी कमी को लेकर तुलसीरामबताते हैं-“हमारा परिवार संयुक्त स्वरूप से बृहद होने के
साथ-साथ वास्तव में एक अजायबघर ही था,जिसमें भूत-प्रेत,देवी-देवता,संपन्नता-विपन्नता,शकुन-अपशकुन,मान-अपमान,न्याय-अन्याय,सत्य-असत्य,ईर्ष्या-द्वेष,सुख-दुख आदि-आदि सबकुछ था किन्तु शिक्षा कभी
नहीं थी।”4
तुलसीराम के
संघर्ष की यदि बात करें तो,
उनके पास पैसा कम
और अभाव ज्यादा थे। बचपन से ही आर्थिक आपदाओं ने उनके घर में डेरा जमा लिया था।
खाने से लेकर ओढ़ने-पहनने के लिए तरसते बचपन में गरीबी के सिवाय कुछ शेष नहीं
था।अपनी गरीबी का वर्णन वे कुछ इस प्रकार से करते हैं-“हमारे घर में सोने के लिए जाड़े के दिनों में घर
की फर्श परधान का पोरा अर्थात् पुआल बिछाया जाता था। उस पर कोई रेवा या गुदड़ी
बिछाकर हम धोती ओढ़कर सो जाते। इसके बाद मेरे पिताजी पुनः ढेर सारा पुआल हमलोगों के
ऊपर फैला देते।...वे दिन आज भी याद आते हैं, तो मुझे लगता है
कि मुर्दों सा लेटे हुए हमारे नीचे पुआल, ऊपर भी पुआल और
बीच में कफ़न ओढें हम सो नहीं बल्कि रात भर अपनी अपनी चिताओं के जलने का इंतजार कर
रहें हो।”5 एक तो गरीबी की
मार और ऊपर से निम्न जाति का होना छोटे तुलसी के लिए किसी विपदा से कम न था।तुलसी
के इस कठिन संघर्ष को देखते हुए राजेन्द्र यादव जी लिखते हैं कि- “दलितों के ढ़ेर सारे लेखन के बीच मुर्दहिया
इसलिए भी विशिष्ट है कि इसमें न कहीं बड़बोलापन है, न आक्रोश। सवर्णों को मुंह भर-भरकर गलियां और
रातोंरात दुनिया को बदल डालने का उतावलापन भी नहीं है। न कहीं उत्तेजना है, न गुस्सा। बेहद धीरज और लगभग निर्विरोध भाव से
उभरता हुआ तुलसी का असंतोष और संकल्प है। इस जड़ताभरी जिन्दगी से कभी तुलसी बुद्ध
बनने घर से भागता है तो कभी शिक्षा और परीक्षाओं के माध्यम से एक अधिक गतिशील
दुनिया के संपर्क में आता है।”6
तुलसीराम अपने
स्कूल से महाविद्यालयी जीवन तक का चित्रण बड़े ही मार्मिक और वेदनामयी शब्दों में
करते हैं।उनके जीवन की एक-एक घटना और प्रसंग सामाजिक व्यवस्था पर बार-बार
प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।ऐसी सामाजिक व्यवस्था में दलित होना और चेचक की मार से
काना बनना एक अदने से बालक के लिए किसी दोहरे अभिशाप से कम न था।प्रारंभ से ही ‘अपशकुन’ और ‘कनवा’ की दर्दनाक
लकीरें उनके माथे मढ़ दी गयी थी I‘कनवा बड़ा तेज हौ’, ‘एक फाटक बंद है’ सरीखे बोल तुलसी के बाल मन पर जहाँ तीव्र
प्रहार करते नजर आते हैं वहीं जातिगत टिप्पणियां मर्मांतक वेदना देती है।स्कूल में
बर्तन छूकर पानी पीने की आजादी नहीं और सर्वण छात्र द्वारा पानी देने की विधा में
आनंद ले-लेकर कपड़े भिगोते जाना किसी भद्दे मजाक से कम नहीं था।जिसका जिक्र करते
हुए वे बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- “हम अंजुरी मुँह
में लगाए झुके रहते,
और वे बहुत ऊपर
से चबूतरे पर खड़े-खड़े पानी गिराते। वे पानी बहुत कम पिलातें थे किन्तु सिर पर
गिराते ज्यादा थे जिससे हम बुरी तरह भीग जातेहैं।..पानी पीना वास्तव में एक विकट
समस्या थी।”7यह घटना उस दौर
की है जहाँ संविधान में सभी के लिए समान अधिकार दिए गये थे। वर्ग और वर्ण के आधार
पर यदि कोई किसी के साथ गैर बराबरी या ऊँच-नीच का बर्ताव करेगा तो वह कानूनन दोषी
ठहराया जायेगा। ऐसे में इस तरह का दृश्य अत्यंत घृणित जान पड़ता है- “कक्षा चार में ही एक बार मिसिर बाबा पानी
पिलाने कुँए पर गए। घिर्री पर डोर चढ़ाकर बाल्टी को कुँए में डाला। मैंने कुतुहलवश
कुएं के चबूतरे को एक उंगली से क्षण भर के लिए छू दिया। किन्तु मिसिर बाबा की
बाल्टी कुएं की तलहटी में जा पहुंची। मिसिर शोर मचाते हुए मुंशी जी के पास दौड़े और
चिल्लाते रहे कि चमरा ने कुआं छू लिया। मैं बहुत डर गया था। उस दिन मुंशी जी दिन
भर रूक-रूककर गालियां देते रहे। इसके बाद मैं कभी पानी पिलाने के लिए कहने की
हिम्मत नहीं जुटा पाया।”8
शैक्षिक जगत में
व्याप्त भ्रष्टाचार
आज हर जगह
भ्रष्टाचार का बोलबाला है।लोकतंत्र की डोर ऐसे व्यक्तियों के हाथों में पड़ गयी है
जिसे वे जब चाहे अपनी सुविधानुसार काट सकते हैं। मंदी के इस दौर में हजारों
नौकरियों का जाना सीधे-सीधे भ्रष्ट शासन व्यवस्था की ओर संकेत कर रहा है। युवाओं
का बेरोजगार होना उनकी शिक्षा एवं कार्यकुशलता पर कई सवाल खड़े कर रहा है।व्यक्ति
को रोजगार यदि दिया भी जा रहा है तो वह उसकी ईमानदारी एवं योग्यता के आधार पर नहीं
अपितु भ्रष्ट नियम प्रणाली को केंद्र में रखकर। जबकि सरकार का काम है कि वह हर उस
व्यक्ति को रोजगार उपलब्ध कराए जिसका वह पूर्णत: हकदार हो न कि उसकी ‘जाति’ या ‘सरनेम’ जानकर
योग्य-अयोग्य होने की श्रेणी में शामिल किया जाए।मुर्दहिया के बहाने तुलसीराम जी
आज की इस भ्रष्ट शासन व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते नजर आते हैं। इसके साथ ही समाज
में चौतरफा फैली इस बुराई पर बड़े ही अनूठे ढंग से व्यंग्य भी कसते हैं-
“जइसन भइला पचवीं पास,वइसन नोकरी के नाहिं आस,
बड़ ससतिया सहबा
राम-बड़ ससतिया सहबा राम।”9
वर्तमान शिक्षा
पद्धति और सरकारी व्यवस्था की घालमेल को देखते दलित युवा वर्ग की स्थिति निराशा और
असंतोषजनक हो गयी है। जिसका जिक्र तुलसीराम अपने समय में भी करते नजर आते हैं।अपने
कठिन परिश्रम और लगन से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की जो उस समय में दलितों के
लिए एक बड़ी चुनौती थी।घर में पैसों की तंगी और स्कूल में अध्यापकों की घूसखोर
प्रवृत्ति के चलते इम्तहान की फीस तक जुटा पाने की स्थिति नहीं होती थी।ढ़ेर सारी
यातनाओं से गुजरते हुए उन्होंने कभी हार नहीं मानी। अपने प्राथमिक दिनों के संघर्ष
को बड़े ही संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए वे बताते हैं-“हकीकत यह थी कि उन दिनों मेरे जैसी परिस्थिती
वाले बच्चों के लिए दो रूपया जुटाना एक बड़ा संघर्ष था। मेरे घर वाले बड़ी नफरत के
साथ कहते थे कि यदि पैसा ही देकर पास होना है तो इसे पढ़ाने से क्या फायदा। वे
समझते थे कि मैं पढ़ने में कमजोर हूँ,इसलिए इम्तिहान में फेल हो जाता हूँगा,जिसके कारण पसकराई देना पड़ता हैं। वे यह मानने
के लिए तैयार नहीं थे कि यह पसकराई एक प्रकार की घूस था,जो हर किसी को देना पड़ता था। जिसका अच्छी-खराब
पढ़ाई से कुछ भी लेना देना नहीं था।”10इस तरह घर-परिवार
के अज्ञानता भरे माहौल को पार करते हुए तुलसी के लिए विद्यालयी जीवन भी उतना
दुखांतक स्थिति उत्पन्न करता है।
प्रो. तुलसीराम
ने मुर्दहिया के बहाने दलितों की स्थिति को बहुत ही निकट दृष्टि से दिखाया है। अब
तक दलितों की शिक्षा को लेकर तथा उनके जीवन की विभिन्न समस्याओं को आधार बनाकर
अनेक स्तरों पर सामाजिक और आर्थिक सुधार हुए हैं और हो रहे हैं।जिसका पूरा श्रेय
माननीय ज्योतिबा फुले,
बाबा साहेब
आंबेडकर, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, बाबू जगजीवन दास
और कांसीराम जी के सप्रयासों को जाता है। जिन्होंने खुद कठिन परिस्थितियों में
रहते हुए दलित एवं बहुजन समाज को एक नई वैचारिकी प्रदान की।बाबासाहेब आंबेडकर के
नारे (शिक्षित बनो,
संगठित रहो और
संघर्ष करो) ने लोगों के भीतर दबी हुई चेतना को जागृत करने का कार्य किया। व्यापक
स्तर पर हुए दलित आन्दोलन ने न सिर्फ शिक्षा, जाति, असमानता और अस्तित्व बोध की आवाज उठाई अपितु
साहित्य जगत को भी गहराई तक प्रभावित किया।
मुर्दहिया में एक
जगह ऐसा प्रसंग भी आता है जिसमें गाँव के ब्राह्मणों द्वारा तुलसीराम की पढ़ाई
छुड़वाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती है।स्कूल में दलितों के बैठने की अलग कतार
बनाई जाती है और जब तुलसी पहली बार पजामा पहन स्कूल जाते हैं तब ब्राह्मणों द्वारा
की गयी यह टिप्पणी “बाप के पाद न आवे, पुत शंख बजावे”11 उच्च जातियों की
ईर्ष्या-द्वेष को स्पष्ट रूप से दर्शाती है।शिक्षा को लेकर समाज के उच्च तबके के
लोग जिस तरह से विरोध करते हैं,
यह सब ‘मुर्दहिया’में दिखाया गया है।तुलसीराम बताते हैं कि उनके
परिवार में कोई इतना पढ़ा-लिखा नहीं था। उन लोगों की धारणा थी कि इतनी ही पढ़ाई की
जाये जिससे हिसाब-किताब करने और चिट्ठी पढ़ने में कोई दिक्कत न आए लेकिन तुलसीराम
तो कुछ अलग ही करना चाहते थे।वह अपने विद्यालय के पहले दिन के अनुभव के बारे में
बताते है-“पहले दिन कक्षा में मुंशी जी ने सिखाया कि जब
हाजिरी के लिए नाम पुकारा जाए तो उठकर खड़े हो जाना और बोलना कि ‘उपस्थित मुंशी जी’। इसके बाद दूसरा पाठ पढ़ाया गया कि पेशाब लगने
पर खड़ा होकर दाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली दिखाना। शुरू-शुरू में अधिकतर बच्चे ‘उपस्थित’ शब्द का उच्चारण
नहीं कर पाते थे जिस पर मुंशी जी अविलम्ब गालियों की बोछार कर देते थे। विशेषकर,दलित बच्चों को वे ‘चमरकिट’ कहकर अपना गुस्सा
प्रकट करते।”12एक शिक्षक का
कर्त्तव्य होता है कि कक्षा के सभी छात्रों को समान दृष्टि से देखे और सबके साथ
समतुल्य व्यवहार करे लेकिन यहाँ परस्थिति एकदम विपरित है।शिक्षक द्वारा दलित
छात्रों को चमरकिट कहकर बुलाना शिक्षा के स्तर को कितना घटाता है यहाँ पर स्पष्ट
रूप से देखा जा सकता है।प्राथमिक कक्षा में दलितों को हमेशा पीछे बैठने की अनुमति
दी जाती थी। तुलसीराम को भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ा था। लेखन की सामग्री
न जुटा पाने के कारण अन्य छात्रों की अपेक्षा तुलसी बहुत देर से पढ़ना-लिखना सीख
पाये थे।वर्चस्व की यह राजनीति प्राचीन समय से ही चली आ रही है। एक के अधिकारों को
दूसरे के द्वारा कुचलना,
हथियाना यही इसका
उद्देश्य रहा है।मनु द्वारा उद्धृत यह जातिवादी एवं वर्णवादी प्रणाली वर्तमान समय
में भी चरम सीमा पर है।युग,
काल और नाम बेशक
परिवर्तित हुए हैं लेकिन ‘यातना’ अभी भी वहीं है।
इस प्रकार
तुलसीराम बचपन की कठोर यातनाओं को लांघते हुए और खुद का आत्मपरीक्षण करते हुए उच्च
शिक्षा प्राप्त करने में सफल होते हैं।साथ ही बुद्ध के विचारों को अपने जीवन में
आत्मसात करते हुए बुद्धत्व की प्राप्ति भी करते हैं।उनकी यही खूबी उन्हें ‘कनवा तुलसी’ से ‘प्रो. तुलसीराम’ की उपाधि दिलवाती है।
संदर्भ
1. डॉ. तुलसीराम, ‘मुर्दहिया’, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं-2010, पृष्ठ-9
2. सं-महेन्द्र प्रजापति, ‘समसामयिक सृजन’, जनवरी-जून 2014,
दिल्ली, पृष्ठ-382
3. वही, पृष्ठ-160
4. डॉ. तुलसीराम, ‘मुर्दहिया’, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं-2010, पृष्ठ-21
5. वही, पृष्ठ-34
6. सं.- सहाय, संजय, ‘हंस पत्रिका’, अप्रैल-2015, दिल्ली, पृष्ठ-18
7. वही, पृष्ठ-54
8. वही, पृष्ठ-55
9. वही, पृष्ठ-86
10. वही, पृष्ठ-26
11. वही, पृष्ठ-34
12. वही, पृष्ठ-23
पूजा मदान
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,गुजरात केन्द्रीय
विश्वविद्यालय
सम्पर्क: poojamadan91@gmail.com
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