'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
आप आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से असहमत हो सकते हैं लेकिन नकार नहीं सकते -जितेंद्र यादव
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
एक युवा
कवि के फ़ेसबुक टिप्पणी ने हिन्दी साहित्य की दुनिया में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को
अचानक बहस के केंद्र में ला दिया है। युवा कवि विहाग वैभव ने आचार्य शुक्ल पर वैसे
कोई नया आरोप नहीं लगाया इस तरह के जातिवाद और सांप्रदायिकता के आरोप पहले भी लगते
रहे हैं। लेकिन इस टिप्पणी में नया कुछ है तो वह यह कि इन्होंने लगभग आदेशात्मक
भाषा में सुझाव देते हुए कहा है कि “इस इतिहास को इतिहास के संग्रहालय में डाल
देना चाहिए” अच्छा हुआ कवि महोदय ने आचार्य शुक्ल के इतिहास को कूड़ेदान में डालने
का आदेश नहीं दिया।
इस
इतिहास ग्रंथ को इसलिए संग्रहालय में डाल देना चाहिए कि यह जातिवादी और
सांप्रदायिक है! इस आरोप में कितनी सच्चाई है इस बात को बिना
गहराई से पड़ताल किए बगैर सिर्फ एक फ़ेसबुक टिप्पणी के आधार पर स्वीकार कर लेना, यह इतने बड़े आलोचक के योगदान को त्रासदी में बदलने जैसा है। फ़ेसबुक के
बहसों को देखकर लगने लगा है कि आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया के माध्यम से ही अपनी
मान्यताओं को स्वीकार और अस्वीकार कर रही है। आचार्य शुक्ल जैसे आलोचक ने ही हिन्दी
साहित्य के ऊबड़ –खाबड़ आलोचना को समतल मैदान में लेकर आए,
हिन्दी साहित्य को पहली बार मुक्कमल इतिहास दिया और आगे कि आने वाली पीढ़ियों को
बताया भी कि एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए तार्किक पद्धति से व्यवस्थित
इतिहास कैसे लिखा जा सकता है। सन 1929 में तात्कालिक जरूरतों को ध्यान में रखकर
लिखा गया इतिहास आज भी मील का पत्थर बना हुआ है। आज 90 साल
बाद भी छोटे –बड़े मिलाकर लगभग 40 से ज्यादा हिन्दी का साहित्य इतिहास लिखा जा चुका
है उन इतिहास ग्रन्थों में शायद कोई भी ग्रंथ ऐसा नहीं होगा जिसमें बिना आचार्य
शुक्ल को उद्धृत किए हुए अपनी बात को पूरा किया गया हो। हमें यह बात भी ध्यान में
रखनी चाहिए कि वह एक ऐसा समय था जब आज की अपेक्षा सामग्री के स्रोत बहुत कम थे। उस
कम संसाधन और विषम परिस्थियों में लिखा गया यह इतिहास ध्रुवतारा की तरह आज भी
क्यों चमक रहा है। इस पर गहराई से चिंतन करने की जरूरत है। हम जानते हैं कि महान
प्रतिभाएं विवादों और आलोचनाओं से परे नहीं होती हैं और यह तो एक इतिहास ग्रंथ है कोई
धार्मिक ग्रंथ नहीं और वे देवता नहीं बल्कि एक आलोचक हैं। लेकिन इस अहंकार शैली में
लिखा गया पोस्ट सिर्फ सनसनी फैला सकता है और सस्ती लोकप्रियता दिला सकता है बाकी
उससे न साहित्य का भला हो सकता है न खुद का। इसके अंतर्विरोधों और दोषों को
चिन्हित करके उदाहरण सहित सवाल खड़ा करना चाहिए था। अध्ययन के अभाव में सुनी –सुनाई
बातों पर विश्वास करने का यही नतीजा होता है। जाति को लेकर चर्चा छिड़ गई दोनों तरफ
से आरोप –प्रत्यारोप शुरू हो गए। आचार्य शुक्ल के रचना कर्म को लेकर एक सार्थक बहस
हो सकती थी किन्तु बात जाति से शुरू हुई और जाति पर ही खत्म हो गई। पहली बार देखा
कि कुछ दलित –पिछड़े भी इस प्रवृत्ति के शिकार हो रहे हैं कि किसी की लकीर को छोटा
करने के लिए अपनी बड़ी लकीर खींचने के बजाय उसकी लकीर को मिटाने के चक्कर में पड़ते
दिखाई दे रहे हैं। आचार्य शुक्ल से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उन्हें नकारा नहीं
जा सकता। यही आचार्य शुक्ल की ताकत है। जिस विद्वान ने अपने जीवन का इतना
महत्वपूर्ण समय खपाकर लगभग साढ़े पाँच सौ पृष्ठ में नौ साल के इतिहास को समेटा है।
लगभग एक हजार रचनाकारों को अपने इतिहास ग्रंथ में स्थान दिया है। सवाल है कि क्या उस
इतिहास ग्रंथ को फ़ेसबुक के महज तीन पंक्ति के टिप्पणी से खारिज किया जा सकता है।
मानो कोई इतिहास ग्रंथ न होकर ट्रिपल तलाक का मामला हो।
इस ग्रंथ
को लेकर जो सबसे पहला बड़ा सवाल उठाया जाता है वह यह कि आचार्य शुक्ल ने कबीर दास
को उतना महत्व नहीं दिया है जितना कि तुलसी दास को दिया है। इस आधार पर उन्हें
जातिवादी घोषित करने का प्रयास किया जाता है। तुलसी दास आचार्य शुक्ल के प्रिय कवि
थे इसमें कोई शक नहीं, तुलसी दास का रचनाकौशल और
प्रबंधपटुता का समाहार शुक्ल जी को पसंद था। शुक्ल जी ने लिखा है कि उनेक भक्ति
पद्धति की सर्वांगपूर्णता जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर नहीं चलती है सब
पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है, भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचकर
भी लोकपक्ष को उन्होंने नहीं छोड़ा है। तुलसी का यह पक्ष शुक्ल को पसंद था उन्होंने
प्रशंसा की और अपने आलोचना का आधार बनाया। दूसरी तरफ कबीर दास का विश्लेषण करते
हुए वे लिखते हैं निर्गुण मार्ग के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीर दास ही थे। यदि सचमुच
उनमें जाति को लेकर इतना पूर्वाग्रह होता तो कबीर दास के बजाय रामानन्द को
प्रवर्तक लिख देते। आचार्य शुक्ल इतना ही ब्राह्मणवादी होते तो ब्राह्मण धर्म का निर्वाहन
करते हुए ब्राह्मण केशवदास की इतनी धज्जियां नहीं उड़ाते,
बल्कि उनका भी बचाव कर जाते। लेकिन
उन्होंने केशवदास को यहाँ तक कह दिया कि ‘इन्हें कवि हृदय
नहीं मिला था उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में होना चाहिए। वे
संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचनाकौशल की धाक जमाना चाहते
थे। इनकी सारी सामग्री कई संस्कृत ग्रन्थों से ली हुई मिलती है इत्यादि’ वही महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विराट व्यक्तित्व के कृतित्व का
विश्लेषण करते हुए लिखते हैं “ द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने
से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है” (नोट – द्विवेदी जी भी ब्राह्मण ही थे) यह आचार्य
शुक्ल के आलोचना दृष्टि की ईमानदारी ही है जो अपने समकक्षों के बारे में न चाहते
हुए भी लिखने को मजबूर कर देती है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण इतिहास ग्रंथ में मिल
जाएंगे।
अपने समकालीनों के प्रति ऐसा तटस्थ मूल्यांकन बहुत कम ही आलोचकों में
मिलेगी। अपने समकालीन लेखकों का मूल्यांकन करते वक्त उनकी क्या भावदशा थी उसका
उल्लेख खुद ही इतिहास की भूमिका में किए हैं- “वर्तमान
लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर बला मोल लेना ही समझ पड़ता था।
पर जी न माना। वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े बहुत
विवेचन के साथ डरते डरते किया गया”। यह बात भी समझने की
जरूरत है कि कबीर दास के जन्म को लेकर विधवा ब्राह्मणी की कहानी को भी इन्होंने सिर्फ
“प्रचलित प्रवाद” शब्द कहकर ही उल्लेख किया है। कुछ आलोचकों ने कबीर के संबंध में
आचार्य शुक्ल को बिलकुल खलनायक के रूप में पेश किया है कि मानो वे कबीर को कोई
स्थान देना ही नहीं चाहते थे। कबीर को लेकर उनकी कुछ टिप्पणी को देखिये और सोचिए
कि बड़े –बड़े आलोचक उनपर कोई किताब भी लिख दें तब भी क्या वे इन पंक्तियों से इतर
कुछ नया बात कह पाएंगे। उदाहरण के लिए –“ इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक
मौके पर जनता के उस बड़े भाग हो संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और
भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य
हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता
में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊंचे से ऊंचे सोपान की ओर बढ्ने के
लिए बढ़ावा दिया।....उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकांड की
प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी- खरी सुनाई और राम
रहीम की एकता समझकर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और
उपासनाविधि के कारण मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है उसे दूर करने का
प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही। ...प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह
नहीं”। आचार्य शुक्ल की वह संतुलित दृष्टि ही थी कि कबीर दास के विवेचन में थोड़े
से जो कबीर के दोहों को उदाहरण के रूप में दिया है उसमें ब्राह्मणों को फटकारने
वाले दोहों को भी रखा है।“ पंडित मिथ्या करहु बिचारा। ना वह सृष्टि, न सिरजनहारा”।
वही दूसरी
तरफ जब रैदास का जिक्र करते हैं तो यह कहना नहीं भूलते हैं कि-“रैदास का नाम धन्ना और मीराबाई ने बड़े आदर के साथ लिया है”। इस एक वाक्य
से पाठक रैदास की लोकप्रियता का अंदाजा लगा लेता है।
शुक्ल जी
को लेकर दूसरा सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जाता है कि उन्होंने कवियों के परिचय में
उनकी जतियों का उल्लेख किया है। इस संबंध में समझना चाहिए कि वे एक इतिहास ग्रंथ
लिख रहे थे कोई कहानी नहीं। ऐतिहासिक दृष्टि से व्यक्ति के वंश और जाति का परिचय
दिया जाता रहा है। इतिहास के विद्यार्थी इसे बेहतर जानते हैं, चन्द्रगुप्त मौर्य को लेकर आजतक बहस जारी है कि वह शूद्र था या क्षत्रिय।
इसलिए कवि का पूरा परिचय देना उचित समझा होगा क्योंकि अधिकांश कवियों का विवरण
उन्होंने ‘मिश्रबंधु विनोद’ और ‘शिव सिंह सरोज’ के ग्रन्थों से लिया है, वहाँ भी कवि परिचय की वही परंपरा थी। फिर भी आचार्य शुक्ल की यह दूरगामी
दृष्टि ही थी कि आधुनिक काल तक आते –आते कवियों के परिचय में उनके जातियों का
उल्लेख करना छोड़ देते हैं। लेकिन उसके बावजूद भी प्रेमचंद के जीवन परिचय में
कायस्थ परिवार, जयशंकर प्रसाद के लिए वैश्य परिवार और अब
दलित साहियत्कारों के लिए दलित परिवार में पैदा हुए थे ऐसा अब के विद्वान भी लिखते
रहे हैं। इसमें सिर्फ आचार्य शुक्ल को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है।
आचार्य
शुक्ल पर तीसरा आरोप सांप्रदायिकता का लगाया जाता है कि इन्होंने भक्तिकाल के उदय
का कारण इस्लाम की प्रतिक्रिया को माना है। उनके वाक्य को यहाँ उद्धृत करना उचित
होगा- “ देश में मुसलमाओं का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय
में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके
सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी
जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा
में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।
आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले
स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत
दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से उदास जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा
की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”
आचार्य शुक्ल भक्तिकाल के उदय में उपर्युक्त स्थापना को तत्कालीन राजनीतिक पहलू के
संदर्भ में देखा है। इस प्रसंग में आलोचक रामस्वरुप चतुर्वेदी की उक्ति ज्यादा
सटीक जान पड़ती है- ऐसे आलोचक हिन्दू-
मुस्लिम का चर्चा आते ही परेशान होने लगते हैं। उनकी दृष्टि में यह चर्चा मात्र
सांप्रदायिकता से प्रेरित और प्रभावित है।
इस मनःस्थिति में वे हिन्दी भाषा और साहित्य के मूल असांप्रदायिक चरित्र की
अवहेलना करते हैं। या सच्चे मन से स्वीकार नहीं कर पाते। वे यह नहीं देखते कि चंद
या जायसी हिन्दू –मुस्लिम युद्ध का वर्णन करके भी कहीं पक्षधर नहीं होते। आधुनिक
काल के सबसे बड़े आलोचक रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में मुसलमान कवि जायसी यदि किसी
से तुलनीय हैं तो गोस्वामी तुलसी दास से।
इतिहास
को इतिहास की दृष्टि से ही देखना चाहिए। इतिहास हमारे प्रिय और अप्रिय लगने से
नहीं बनता। इतिहास को दबाने और झुठलाने से वर्तमान अधिक अप्रिय हो सकता है। मूल
बात यह है कि आज इस्लाम के प्रति हमारा जो संतुलित ऐहिक दृष्टिकोण है वह मध्यकालीन
जन –जीवन में संभव नहीं था। इन दो परिस्थितियों के बीच लंबा इतिहास है जिसे अनदेखा
नहीं किया जा सकता। इस्लाम जब इस देश में आया तो आक्रामक होकर, आज वह हमारे राष्ट्रीय जीवन का अंग है, इन दोनों
बिन्दुओं को समझकर ही इतिहास को वर्तमान में समरस किया जा सकता है’। आचार्य शुक्ल की मूल मान्यता थी कि इस्लाम की आक्रामक परिस्थितियों ने
भक्ति के इस प्रभाव को तीव्र कर दिया। जबकि दूसरी तरफ हजारी प्रसाद द्विवेदी
भारतीय चिंताधारा का स्वाभाविक विकास मानते हैं। भक्ति के उदय में दोनों की दृष्टि
एक –दूसरे से भिन्न हैं। फिर भी इस्लाम के संबंध में द्विवेदी जी का मत है “हिन्दी साहित्य में भी यह प्रभाव ‘प्रभाव के रूप में
ही स्वीकार किया जाना चाहिए प्रतिक्रिया के रूप में नहीं” अर्थात द्विवेदी जी भी
भले प्रतिक्रिया के रूप इस्लाम को स्वीकार नहीं कर रहे हैं लेकिन उसके प्रभाव को
नजरंदाज नहीं कर रहे हैं। आचार्य शुक्ल की भक्ति काल के उदय संबंधी इस मान्यता की
पुष्टि वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक वल्लभाचार्य की बाद में मिली इन पंक्तियों से
और भी पुष्ट हो जाता है “देश म्लेछाक्रांत है, गंगादि तीर्थ
दुष्टों द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं, अशिक्षा और अज्ञान के
कारण वैदिक धर्म नष्ट हो रहा है, सत्पुरुष पीड़ित तथा ज्ञान
विस्मृत हो रहा है, ऐसी स्थिति में एकमात्र कृष्णाश्रय में
ही जीवन का कल्याण है”। इतिहास के क्रम में जब आचार्य शुक्ल की मान्यताओं को देखते
हैं तो वह भले शत-प्रतिशत सही न हो लेकिन बिलकुल निराधार भी नहीं है। यहाँ शुक्ल
जी भक्ति के उदय संबंधी स्थापना को ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में देखे जाने की जरूरत
हैं न कि सांप्रदायिक दृष्टि से।
जिस
आलोचक ने डेढ़ सौ पेज की भूमिका के साथ जायसी ग्रंथवाली को परिश्रमपूर्वक संपादित
किया है। उस ग्रंथ में सिर्फ ‘पद्मावत’
ही नहीं है बल्कि इस्लाम संबंधी सैद्धांतिक पुस्तक ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ भी है। यह
उदाहरण ही उनके असांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए काफी है। यह भी ध्यान देने की बात
है कि शुक्ल जी यदि इतना ही ब्राह्मणवादी और रूढ़िवादी होते तो वे न ‘लाइट ऑफ एशिया’ का ब्रजभाषा में ‘बुद्धचरित’ नाम से अनुवाद करते, बल्कि किसी हिन्दू से जुड़े धार्मिक ग्रंथ का अनुवाद करते। इसके अलावा अपने
इतिहास ग्रंथ में रसखान, रहीम दास इत्यादि मुस्लिम लेखकों का
उन्होंने जितनी तन्मयता और आत्मीयता से मूल्यांकन किया है क्या वह कोई मायने नहीं
रखता है? किसी व्यक्ति को संपूर्णता में न देखकर संदर्भ से
काटकर नायक –खलनायक बनाने की प्रवृत्ति हिन्दी साहित्य में इधर तेजी से उभर रही
है। उसी का शिकार आचार्य शुक्ल को भी बनाने की कोशिश की गई है।
आचार्य शुक्ल पर इधर एक आरोप और दिखाई दिया वह
है हिन्दी और उर्दू का मसला। हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि वे हिन्दी साहित्य का
इतिहास लिख रहे थे। हिन्दी गद्य के विकास के अंतर्गत हिन्दी और उर्दू के बीच
तात्कालिक बहसें विद्वानों में जो चल रही थी उसी का उन्होंने विश्लेषण किया है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वे हिन्दी की स्वाभाविक बोलचाल की भाषा के पक्षधर थे।
उर्दू के फारसीनिष्ठ शब्द भंडार को वे कृत्रिम मानते थे। उस समय जब अदालत की लिपि
और भाषा फारसी थी जो जनमानस से दूर होने के कारण कठिनाई का कारण बनती थी। फारसी
लिपि की जगह देवनागरी लिपि का पक्षधर होना समय की जरूरत थी। ऐसा नहीं है कि आचार्य
शुक्ल को उर्दू मात्र से विरोध था। वे उसे यही की उपज मानते थे किन्तु अरबी –फारसी
शब्द भंडार की वजह से अस्वाभाविकता और कृत्रिमता के वे विरोधी थे। बालमुकुंद गुप्त
की शैली की तारीफ करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है: “वे पहले उर्दू के अच्छे लेखक थे, इससे उनकी हिन्दी बहुत चलती हुई और फड़कती हुई होती थी”। हिन्दी की
स्वाभाविक बोलचाल की भाषा में यदि ब्रजभाषा या संस्कृत की अत्यधिक प्रभाव आ जाए तो
उसे भी वे अच्छा नहीं मानते थे। प्रतापनारायण मिश्र की भाषा में पूरबीपन और गोविंद
नारायण मिश्र की भाषा में संस्कृत की पदच्छ्टा से भाव में जो बोझिलपन आ गया था, उसकी भी आलोचना शुक्ल जी ने की है। वे कैसी
भाषा के हिमायती थे इसका अंदाजा इस उद्धरण
से मालूम पड़ता है-" मुंशी सदासुख की भाषा साधु होते हुये भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल
में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूरबीपन था। राजा शिवप्रसाद सिंह का उर्दूपन
शब्दों तक परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा
लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे
की बोलचाल का पुट उसमें कम न था। भाषा का निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेन्दु
की कला के साथ ही प्रकट हुआ।"वह समय हिन्दी को
एक भाषा के रूप में पहचान दिलाने और उसके अस्मिता के निर्माण का समय था। उसे उसी
रूप में देखना चाहिए न कि हिन्दी –उर्दू विवाद के रूप में।
आचार्य
शुक्ल के प्रगतिशील मूल्यों के वाहक थे। यह बात उनके रीतिकाल की विवेचना से ही
सिद्ध हो जाता है। कम संसाधनों के बावजूद इतिहास का जो ढांचा उन्होंने खड़ा किया आज
तक उसे पूरी तरह से चुनौती नहीं मिल पाया है। बाद के विद्वान भी उसी लकीर को पीटते
रहे हैं। यह शुक्ल के इतिहास ग्रंथ की ताकत है। हर बड़े लेखक और विद्वान की तरह
आचार्य शुक्ल में भी कुछ अपने अंतर्विरोध और समय का दबाव हो सकता है लेकिन इसका
अर्थ यह नहीं कि वह संग्रहालय में रखने की चीज है। इस मापदंड पर फिर तो शायद ही
दुनिया की कोई कृति बचेगी जिसे संग्रहालय में न डाला जा सके।
जितेंद्र
यादव
संपादक –‘अपनी माटी’ त्रैमासिक ई –पत्रिका
शोधार्थी, हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली
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