कविता: चैताली सिन्हा ‘अपराजिता’ की कुछ कविताएं
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चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
‘कठफोड़वा’
“पगडंडियों पर चलते हुए
अचानक चल पड़ी थी मैं
जंगली पेड़-पौधों की ओर
कि तभी
ठिठक गए मेरे पैर
अचानक ही
जैसे कोई बुला रहा हो मुझे
अपने तीखे स्वर में,
कानों को सुनाई देने लगी थी
एक कठोर ध्वनि...टक...टक...टक...!
निरंतर उसी लय में
जैसे तोड़ रहा हो कोई
घर का ताला
काट रहा हो कोई पेड़ का तना
बना रहा हो उसमें सुरंग
जैसे बनाता है...कठफोड़वा l
कठफोड़वा...
जो अब कहीं दिखाई नहीं देता
नहीं देता दिखाई
किसी मोटे पेड़ के तने पर
कोई सुरंग,
कोई कठोर ध्वनि
अब नहीं देती सुनाई...
कर गए हैं कूच वे भी
हो गया है उनका भी पलायन
जैसे हो रहे हैं आदिवासी...!
कट गए हैं वे मज़बूत पेड़ भी
जिसके पेट पर
चलाता था अपना नुकीला चोंच
कठफोड़वा,
ठीक वैसे ही
जैसे चलाता है लकड़हारा
अपनी कुल्हाड़ी जंगली पेड़ों पर
और कभी – कभी
ख़ास पेड़ों पर भी...!
अब नहीं दिखती
रंग-बिरंगी तितलियों के
रंग-बिरंगे पंख,
उड़ चले वे भी, दूर...कहीं
बहुत...दूर...!
हो गई लुप्त प्रजातियाँ
उनकी भी...,
जैसे हो गए हैं घने जंगलों का
सुनहरा दृश्य...!
प्रकृति की गोद में समाया
वह सूरज...!
जिसकी अरुणिमा,
मन को ठंडक पहुंचाती थी
पहुंचाती थी एक पुरसुकूं आनंद हृदय को
अब वह भी ओझल है
कठफोड़वा की तरह,
कठफोड़वा ओझल है...l”
‘बेर का पेड़’
रोज़ सुबह
मिट्टी के आले से
विद्यालय जाते हुए
बीच में कहीं मैदानी छोर की ओर
खड़ा था एक बड़ा – सा
बेर का पेड़
जिसमें लगे थे बेर
पके नहीं...!
हरे-हरे कच्चे
छोटे से बेर...
उसी पर टूट पड़ते थे
हम बच्चों की टोली
लगाता था निशाना
लिए हाथ में...
कोई मिट्टी का ढेला तो कोई
छोटा सा कंकड़
कभी बेर के गुच्छे पर
और कभी फाँक की ओर...
यही प्रयास नित सुबह
जारी रहती
विद्यालय जाते हुए...!
सच कहूँ तो
बड़ा मज़ा आता था
उस अथक प्रयास में
उस विश्वास में
यह सोचकर कि
कभी तो निशाना लगेगा
कभी तो सफ़लता मिलेगी
कभी तो संभलेंगे
गिरकर उठने के लिए...!
यह उठना भी तो
उसी बेर ने सिखाया
सिखाया स्वयं के भीतर
जिजीविषा की लौ जलाना
हारे हुए को
पुनः जिताना
दिशाहीन को
दिशा दिखाना...!
आज बहुत याद आता है
वह बेर का पेड़
याद आती हैं वे पगडंडीयां भी
जो थीं कुछ सीधी
और कुछ टेढ़ी – मेढ़ी भी...!
वर्षों बाद जाना हुआ गाँव
देखा तो सबकुछ बदल – सा गया था
हो गया था उजाड़
बंजर और बदरंग ज़मीन...!
अब नहीं था कोई पेड़ वहां
था तो सिर्फ़...
उसके मोटे तने की ठूंठ...!
ठीक वैसे ही
जैसे कोई,
सिर मुंडवाई औरत हो...!
‘किताबों में धूल’
तहखानों में रखी किताबें
हो गई हैं मटमैली
वैसे ही जैसे हो गया है गंगा का पानी...!
बहुत दिनों से मानों
इसकी झाड़-पोंछ न हुई हों
न ली हो इन धूलों की सुध
किसी ने वर्षों से...!
सोचती हूँ...!
किताबों के प्रति इतनी उदासीनता क्यों...!
क्या इसकी उपयोगिता
कभी भी समाप्त हो सकती है...!
आज लम्बे अर्से के बाद
मैंने खोली थी अपनी दराज़
देखने लगी थी
किताबों में जमी धूल को
उसके विस्तार को...
बंद पड़े कांच के खानों में भी,
जहाँ किताबें उदास पड़ी थीं
धूल अपनी डेरा जमाये हुई थी...
सो रही थी चुपचाप
किताबों की ज़िल्द के ऊपर
और कभी-कभी उसके भीतर भी
दिखा रही थी अपनी मटियाली छवि,
जो अपनी मोटी परत जमा चुकी थी
दराज़ के हर कोने में...!
क्या धूल को मालूम है एकांत का रहस्य
या यूँ ही आ जाती है
खिड़की में लगी जालों से भीतर
चुपके से...
ताकि उसका आना कोई
देख न सके...!
या हैं ये महज़ कुछ धूल के कण
जो आज किताबों से ज़्यादा
जम चुकी है
हमारे मस्तिष्क में,
हमारे हृदय में,
हमारी आत्मा में और
हमारी चेतना में...!
‘कंचे’
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आज भी लुभाते हैं
वे गोल-गोल कंचे
हरे-नीले, लाल, काले-पीले
छोटे-बड़े कंचे...!
कुछ रंगीन चटकदार
और कुछ रंगहीन बेडौल कंचे
का आकार
आज भी सजीव हैं स्मृतियों में
सजल हो उठी हैं
इन आँखों में,
रेतीले पानी के भीतर
चमकते पत्थर की तरह
जो ले गया था दूर
कहीं बहुत दूर...
मुझे...मेरे बचपन में,
हिलाया-डुलाया था मुझे
इस तनाव भरे शहर की
आवो-हवा से
गुदगुदा रही थी मुझे
हंसाने के लिए...!
जीवन के थपेड़ों से छुड़ाकर मुझे
ले जाने को अधीर हैअधीर है
इस तंगदिल दुनिया से
बेखबर हो रहने के लिए...!
पर सोचती हूँ
तनाव तो तब भी था
तनाव...
न जीत पाने के कारण
ईर्ष्या तो वहां भी थी
हार जाने के कारण
संघर्ष तो तब भी कर रहे थे
अपने प्रतिभागियों को
हराने के लिए...
उसके चेहरे पर हार की
काली छाया देखने के लिए
तो फिर यह द्वंद्व क्यों...?
अतीत के प्रति यह मोह क्यों...?
जीवन के प्रति यह राग कैसा...!
कुछ भी तो नहीं बदला
न बचपन
न जवानी
न अतीत और न ही वर्तमान
मनुष्य सबमें समभाव रहता है l
‘सेल्फी’
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ताजमहल के सामने
खड़े होकर लोग
खिंचवाते हैं अपनी तस्वीर
सोचती हूँ...!
इससे क्या होगा
क्या ताज उनकी कहलाएगा
या है यह महज़ एक भ्रम...!
जिसमें खुद को
भुलाए रखना चाहते हैं लोग
दुनियावी माया जाल में,
जताना चाहते हैं
अपनी स्टेटस को
जो निहायत ही खोखली, तंग और
उजड़ा हुआ है...
जैसे रहती है बंजर ज़मीन
रहता है आकाश
और...
और रहता है मनुष्य का मन भी आजकल l
हँसते हैं नकली हंसी
सेल्फी लेते हुए
जिसमें दीखता है
चेहरे का फ़ीकापन
फ़ीकी हंसी की छाया
पड़ती है चेहरे की
झुर्रियों पर...
जो बताता है आदमी का उम्र
उसका बदरंग जीवन
स्वप्नहीन जीवन
जिसे बुना था
बड़े साज़ो-सामान से
हो गया है ख़ाली
वह भी...!
ठीक उसी तरह
जिस तरह हो गया है
इंसान का मन
उनकी आत्माएं
भर गया है उसमें
दिखावे का रंग
जो स्याह में भी सफ़ेद
और सफ़ेद में भी स्याह नज़र आता है l
करते हैं खुद से धोखा
देने लगते हैं तसल्ली,
जैसे दिन को रात और रात को दिन
कहते हैं नेता, अभिनेता और
और साहित्यकार भी...!
करते हैं उलट-पुलट
नक़्शे को,
जैसे सेल्फी लेते हुए
करते हैं लोग
बिगाड़ते हैं अपने
चेहरे का नक्शा
करने लगते हैं टेढ़े-मेढ़े
मुँह को,
कभी सीधे खड़े होकर और कभी
गर्दन को वक्राकार में घुमाकर
ताकि नकली हंसी और चेहरे की
झुर्रियां उभर न आए
कैमरे के तिलस्मी पर्दे पर,
दीख न जाए
आदमी का अक्स
उस जादुई डिबिया पर...!
जीना चाहता है आदमी
निरंतर उसी भ्रम में,
कई बार भ्रम
अच्छा लगता है,
क्योंकि यह भ्रम मनुष्य को
सुख देता है
रखता है दूर उसे
हर भयावह स्वप्न से
जिसे वह देखना नहीं चाहता
सुनना नहीं चाहता,
जीना नहीं चाहता...!
‘खो गया अक्स’
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कैसे कहूँ
कैसी दीखती थी मैं,
माँ कहती थीं
सबसे सुंदर बेटी थी मैं
कैसे कहूँ
कैसी दीखती थी मैं...!
अधजली लकड़ी की तरह
हो चुकी हूँ मैं
ना ज़िन्दा हूँ
ना मुर्दा हूँ मैं
आधी काली आधी गोरी हूँ मैं
कैसे कहूँ
कैसी दीखती थी मैं...!
बहुत खोजा था मैंने
अपना खोया हुआ अक्स
आईने के सामने खड़े होकर
नहीं ढूँढ पाई थी
कुछ भी...उस चार इंच के
शीशे के भीतर,
परेशां-सी लौट आई थी
अपने उसी हक़ीकत में
जो आज जो भी था
मेरा अपना था...!
‘नींद क्यों आती नहीं’
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नींद क्यों आती नहीं
रात-रात भर
आँखें बरबस ही खुली रह जाती है यूँ
जैसे रात का अँधेरा नहीं, दिन का उजाला
हो...
न जाए क्यों...?
एक डर है गहरे कहीं भीतर
जो नींद को पलकों पर छाने नहीं देती...!
देखने नहीं देती हंसीन सपने
जो मन को गुदगुदाए...!
डर बेरोज़गारी का
बेरोज़गार रह जाने का
उसपर भी एक नया डर
आये-दिन सरकार के जारी नए –नए फरमानों का
डर योग्यता को परखे जाने के नए-नए औजारों का
डर...यदि कसौटी पर खड़े न उतर पाएं तो
जीवन व्यर्थ ही मिट जाने का
सपनों की उड़ान कभी हवाओं में
पंख लगाये घूमा करती थी
करती थी मन को आह्लादित
नए-नए आशियाने गुनने को, बुनने को
आज सब तिनकों-सा बिखरता नज़र आता है...!
गुम...कहीं ...वीराने मे...!
जीवन तपस्या है फूलों की सेज नहीं
कह गए हैं बड़े-बड़े साधक
परंतु तपस्या का क्या कोई अंत नहीं
नहीं कोई सीमा फूलों की सेज तक पहुँचने का...!
कोई विकल्प उस फूल को अपने नीरव-
जीवन में उगाने का
खिलाने का...!
आज की युवा पीढ़ी
क्या सुलगाते रहेंगे
मुक्तिबोध की तरह बीड़ी
और एक दिन उसी तरह
ठिठुर कर हो जायेंगे नरकंकाल
जैसे हो गए थे मुक्तिबोध
या कि हो जायेंगे विक्षिप्त
जैसे हो गए थे निराला
फिर कर दिया जाएगा उनका भी अंतिम संस्कार
जैसे कर दिया गया मुक्तिबोध का
निराला का
और आनेवाले समय में
इस जन का भी...!
रात काली न सही
चांदनी ही सही
लेकिन नींद दोनों ही में नहीं
आलम बहुत ख़तरनाक है
न जाने किस मरघट में जमने की शुरुआत है
सोचकर कलेजा मुँह को आता है
जब चारों ओर पसरा सन्नाटा
अंधकार को चीरते हुए
आता अपने पास है...!!
जाने किस मरघट में जमने की शुरुआत है...
जाने किस मरघट में जमने की शुरुआत है...!
‘जाले’
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“आज फिर कविता लिखने को मन व्याकुल हुआ...!
ह्रदय में दबे स्थायी भाव
आज फिर से सुगबुगाने लगी...!
कहीं गुमनामी के अँधेरे में जिसे छुपा दिया था मैंने
आज फिर से बाहर निकलने को
कुलबुलाने लगी l
कुलबुलाने लगी ये कहने के लिए
कि मैं एक ऐसी कवयित्री हूँ
जिसके अपने शब्द खो चुके थे
पड़ गए थे उनमें जाले...
ठीक वैसे ही जैसे कोई घर सदियों से
तालेबंदी में हो...!
आज फिर वही शब्द करते हैं बेचैन
जैसे करती है भनभनाती मक्खियाँ
जाले से बाहर निकलने के लिए...!
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए l
बड़ी कठिनाई होती है शब्दों के गढ़ंत में
कहीं बनावटी न लगने लगे...
परंतु अंतःकरण में पसरा सन्नाटा
कभी झूठी कहानी नहीं गढ़ सकती
नहीं कर सकती हंसी-ठिठोली अपनी ही आत्मा से
शब्द अहतियात भी बरतते हैं...!
चैताली सिन्हा, शोधार्थी पीएचडी, हिन्दी
जे.एन.यू. (भारतीय भाषा केंद्र), सम्पर्क: chaitalisinha4u@gmail.com
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