वैचारिकी: महात्मा गांधी की वर्तमान प्रासंगिकता/ डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
मौजूदा दौर पर अगर हम सूक्ष्मता से दृष्टि डालें तो पाएंगे
कि गांधी के विचारों की जितनी जरूरत आज महसूस की जा रही है, उतनी आजाद भारत में इस हद तक कभी महसूस नहीं की गई थी।समाज
में फैलती मूल्यहीन राजनीति,जनता की सेवा
करने के बहाने अपनी सेवा करवाने वाले तथाकथित जन सेवक, जनता के हाकिम बन बैठने वाले इन नेताओं द्वारा जनता को वास्तविक मुद्दों से
भटका कर तथाकथित राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाकर जनता को गहरी नींद में सुलाना हो, राजनीति को धर्म, अपराध और
भ्रष्टाचार से जोड़कर स्वराज्य की मूल अवधारणा को तहस-नहस कर देना हो, और गलत जानकारियों की बाढ़ पैदा करके ध्यान भटकाने
वाली मीडिया हो।ये सभी मुद्दे आज हमारे
समाज में गंभीर चुनौती के रूप में उभरे हैं।गांधी इन सभी मुद्दों पर जैसी राय रखते
थे, उन पर मौजूदा दौर आंखें चुराता हुआ दिखता है। इन सभी विषयों
पर बिंदुवार विश्लेषण करना उचित रहेगा।अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और समाज
का आईना कहने वाले मीडिया पर चर्चा सबसे करना उचित होगा।
गणेश शंकर विद्यार्थी का कथन है कि पत्रकार हमेशा सत्ता के
प्रतिपक्ष में होता है।अब दूसरी ओर मौजूदा दौर में भारत के मीडिया की जो स्थिति है, उस पर भी थोड़ी रोशनी डालना ठीक रहेगा। 'रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स' की सालाना रिपोर्ट के अनुसार भारत प्रेस की आजादी के मामले 140 वां स्थान है।2 इस ‘न्यू इंडिया’ में पिछले 6 महीनों में चार पत्रकारों की हत्या हुई है। जो पत्रकार
सत्ता विरोधी खबरें छापते हैं उनकी गिरफ्तारियां भी हुई है, उन पर झूठे मुकदमे भी तैयार किए गए।धन,बल,सत्ता के डर से मीडिया को
चुप भी कराया गया। ऐसे कई उदाहरण हम आज देख सकते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि
आज का मीडिया सत्ता की गोद में बैठा है। अगर वरिष्ठ पत्र्र्कार रवीश कुमार की ज़बान
में कहें तो मौजूदा मीडिया ‘गोदी मीडिया’ है जो सत्ता की गोद में बैठा है। सत्ता को आईना दिखाने वाले
पत्रकार को यह ‘गोदी मीडिया’ ‘नेगेटिव माइंडेड’ कहता है। इसके
अलावा इस मीडिया का यह भी मानना है कि नो ‘नेगेटिव कवरेज’ समाज में सकारात्मकता
लाती है, इसलिए शासक वर्ग से प्रश्न पूछना अनुचित है। पर
यह बात कहते हुए यह गोदी मीडिया इस बात को भूल जाता है कि प्रश्न करने से समाज की
मूल समस्याओं की ओर समाज का ध्यान जाता है जिसका निवारण करने से समाज का वास्तविक
विकास होता है।पत्रकार का दायित्व है कि वह समाज को लगातार सच्चाई का आईना दिखाता
रहे। बिना किसी रोक के, बिना किसी के दबाव में।
गाँधी हिंदी स्वराज्य में लिखते हैं, “अखबार का एक काम
तो है लोगों की भावना जानना, और उन्हें ज़ाहिर
करना;
दूसरा काम हैं लोगों में अमुक ज़रूरी भावनाए
पैदा करना ; तीसरा काम हैं लोगों के दोष हो तों चाहे जितनी
मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना।” 3
जब मीडिया का ज्यादातर हिस्सा ‘सरकारी’ और ‘दरबारी’ हो चुका होता है तब
हमें इसके समाधान के लिए गांधी की ओर देखना उचित रहेगा। सन 1940 में जब व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू हुआ था तब इस सत्याग्रह
के दौरान विनोबा भावे अंग्रेजो के खिलाफ आक्रामक भाषण दे रहे थे। इन भाषणों पर महात्मा गांधी अपने अखबार में
लगातार लेख लिख रहे थे। इसी बीच अंग्रेज सरकार का फरमान आया है कि विनोबा भावे के
विषय पर आप नहीं लिख सकते, किसी और विषय पर लिख
लीजिए।इस सेंसरशिप के विरोध में गांधी ने कहा कि मैं जिस विषय के बारे में लिखना
चाहता हूं, अगर उसी पर ही मुझे लिखने से रोका जा रहा है तो
मैं अखबार ही नहीं निकालूंगा। इस घोषणा के साथ आपने अखबार के प्रकाशन को स्थगित कर
दिया और देश की जनता को आह्वान किया कि अब हर व्यक्ति को चलता फिरता अखबार बनना
होगा।इसी के माध्यम से सूचनाओं का प्रसारण होता रहेगा। यह बात आजाद पत्रकारिता के
संबंध में गांधी के विचारों को साफ करने के साथ-साथ बिकाऊ मीडिया के विकल्प के तौर
पर देखी जा सकती है। अभी हाल ही में हांगकांग में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में
सूचनाओं का आदान-प्रदान मेन स्ट्रीम मीडिया के बिना हो रहा है। लोग सूचनाएं
प्रतीकों के सहारे एक दुसरे से साझा कर रहे हैं। यह बहुत कुछ चलते फिरते अखबार के
समान ही है।
आजकल राजनीति में एक शब्द बहुत प्रचलित हो रहा है और वह
शब्द है ‘समीकरण’। यहां ध्यान देने योग्य बात है कि समीकरण शुद्ध गणितीय शब्द है। राजनीति में
इस शब्द का प्रयोग अगर बढ़ने लग जाए तो यह एक चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि राजनीति के मूल में मानव कल्याण की भावना रहती है
और उसके लिए मानव मूल्य महत्वपूर्ण होते है। अगर
हम इन मूल्यों को भूलाकर सत्ता के गठजोड़ के लिए अलग-अलग समीकरण बनाने के
लिए तैयार हो जाते हैं तोवह समाज पतनोन्मुखी हो जाता है। मौजूदा राजनीति में ‘आया राम, गया राम’ की धारणा सत्ता के लिए धन, बल और छल का प्रयोग राजनीतिक समीकरण बिठाने की धारणा को स्पष्ट करती हैं।
ऐसी राजनीति के सुधार के लिए गांधी का जीवन और उनके आदर्श
उदाहरण से भरे पड़े है। यह सभी को याद है कि रोलेट एक्ट के विरोध में शुरू हुए
असहयोग आंदोलन सन 1922 तक अंग्रेज सत्ता को
घुटनों पर लाते हुए दिखता है, पर तभी ‘चोरा-चोरी’ कांड होता है और
गांधी इस आंदोलन को स्थगित कर देते हैं। भारी आलोचना के बावजूद भी गांधी अपने
निर्णय से नहीं हटते हैं। इसके पीछे गांधी का मानना था कि ऐसे हिंसक कार्यों से
अगर देश स्वतंत्र हो भी गया तो क्या फायदा? क्या हम हमारे भावी भारत को अराजक हाथों में सौपना पसंद करेंगे? गांधी का यह तर्क उस समय कई लोगों को गले नहीं उतरा, पर अगर गंभीरता से आज सोचे तो मौजूदा राजनीति जो लगातार
मूल्यहीन होती जा रही है, इसके पीछे मुख्य भूमिका
निभाने वाले राजनीतिक वर्ग का साधनों के चयन में गलती का परिणाम है। यह ध्यान देने
योग्य बात है कि असहयोग आंदोलन गांधी का पहला बड़ा आंदोलन था। अगर गांधी समझौता कर
लेते तो निश्चित रूप से उस समय देश की सत्ता उनके हाथों में होती। पर उन्होंने
अपवित्र साधन से प्राप्तकिसी भी साध्य को स्वीकार नहीं किया, चाहे वह सत्ता ही क्यों ना हो। जब देश स्वतंत्र हुआ था, तब उनके सभी शिष्य दिल्ली की चमक दमक में खोए हुए थे। उस
समय यह बूढ़ा व्यक्ति पदके लालच से दूर दंगों की आग बुझा रहा था।
महात्मा गांधी के जीवन पर बनी गांधी फिल्म का एक दृश्य
गांधी के राष्ट्रवाद से संबंधित विचारों को प्रदर्शित करता है। गांधी जब द्वितीय
गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए लंदन जाते हैं तो वे वहां के मजदूरों से भी
मिलते हैं। उस समय वहां के मजदूरों से चर्चा करते हुए कहते है कि आपकी मिलों में
बनने वाले सामान का निर्यात जब भारत में होता है तो वहां के उद्योग धंधे बर्बाद
होते हैं। इसका समाधान निकलना चाहिए| इसका मतलब यह
नहीं है कि मैं आप लोगों को बेरोजगार करना चाहता हूं, बल्कि मैं आपको वहां की वास्तविक स्थिति बता रहा हूं। आप अपनी सरकार से इस
समस्या की ओर ध्यान देने के लिए आंदोलन करें। ऐसा रास्ता निकालने का प्रयास करें
जिससे आपकी रोजी भी बची रहे और भारत भी लुटने से बच जाए।इससे एक दशक पूर्व महात्मा
गांधी यंग इंडिया में 27 अक्टूबर, 1921 को लिखते हैं, “मेरे लिए
राष्ट्रीयता और मानवता एक ही चीज है। मैं
राष्ट्रभक्त इसलिए हूं कि मैं मानव और सहृदय हूं। मेरी राष्ट्रीयता एकांतिक नहीं
है, मैं भारत की सेवा करने के लिए इंग्लैंड या जर्मनी को क्षति
नहीं पहुंचाऊँगा।”4 यह था गांधी का राष्ट्र
के प्रति प्रेम। यानी कि गांधी का राष्ट्रप्रेम किसी को बर्बाद करने का समर्थक
नहीं था, बल्कि उसके अस्तित्व को बचाए रखने की बात करता
है। यहां सह अस्तित्व के दर्शन मिलते हैं। मौजूदा दौर में जिस तरह का राष्ट्रवाद
आम जनता के सामने परोसा जा रहा है उसमें एक धर्म, एक भाषा, एक राष्ट्र की बात जोर ज्यादा पकड़ती हुई दिखती
है| यहां ध्यान रहें कि यह शुद्ध विदेशी दर्शन है। भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सह-अस्तित्व’ की धारणा का
समर्थक रहा है जो गांधी के विचारों में भी देखने को मिलता है। गांधी इस बात को
अच्छी तरह से समझ रहे थे कि जो लोग एक रंग का देश बनाना चाहते हैं, वह यह भूल रहे होते हैं कि एक रंग का फूल जो हमें दिखता है
उसमें भी कई तरह के रंग मिले हुए होते हैं| ऐसे में एक भारत जैसे बहुरंगी देश में एक धर्म, एक भाषा, एक राष्ट्र की अवधारणा कभी भी सफल नहीं हो
सकती।आज भी जो देश संकीर्ण राष्ट्रवाद के मार्ग पर चल रहे हैं वह न केवल बाहरी, बल्कि आंतरिक रूप से भी बिखरे हुए हैं।गाँधी लिखते हैं, “मेरी जीवन योजना में साम्राज्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं।
राष्ट्रभक्ति का नियम परिवार के मुखिया के नियम से भिन्न नहीं है। और जिस
राष्ट्रभक्ति में मानवतावाद के प्रति उत्साह कम है, वह उतना ही कम राष्ट्रप्रेमी भी माना जाएगा।“5 इन विचारों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है कि महात्मा गांधी के
राष्ट्रप्रेम में विश्व प्रेम के भाव छुपे हुए हैं।
यह एक बड़ी विडंबना रही है कि स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत
के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक सद्भाव में भी जहर घुलने लगा और यह जहर अंग्रेजों
ने घोला। महात्मा गांधी इस तथ्य को अपने शुरुआती दौर में ही पहचान गए थे। इस कारण
उन्होंने बिना किसी द्वेष के सर्वधर्म सद्भाव को आगे बढ़ाया।उनकी प्रार्थना में
गाए जाने वाले गीत और विभिन्न धर्म की पुस्तकों का पाठ यह स्पष्ट करता है।गांधी जी
की आपसी सद्भाव की अवधारणा कट्टरपंथियों को हमेशा खटकती रही और सांप्रदायिकता के
ज़हर में डूबी गोडसे और उसकी गैंग ने अपने पांचवें प्रयास में गांधी जी की हत्या कर
दी।आज गांधी की हत्या करने वाले लोग बहुत
ताकतवर बन चुके हैं और अपने सांप्रदायिक एजेंडे को लगातार बढ़ा रहे हैं।पर
यह दुख की बात है कि सांप्रदायिकता को सीधी चुनौती देने वाला कोई गांधी जैसा नेता
आज नहीं दिखता है।जब भी सांप्रदायिक दंगे होते थे तब गांधी खुद उन्हें बुझाने के
लिए निकल पड़ते थे। और सांप्रदायिक ताकतों की आंखों में आंखें डाल कर यह कहने का
साहस करते थे कि जहां कहीं भी जो अल्पसंख्यक है उनके पक्ष में मैं खड़ा हूं। चाहे
वह अल्पसंख्यक बिहार का मुसलमान हो या पंजाब का हिंदू-सिख। आज के माहौल पर एक
वार्ता में गांधी साहित्य के विशेषज्ञ प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, “आज हमारे सामने गाँधी की विचारधारा को सही साबित करने की
चुनौती का समय है। आजादी के बाद से अब तक ऐसा मौका आया ही नहीं की हमें साबित करना
पड़े कि महात्मा गांधी की विचारधारा असली मानवता की विचारधारा है। अब वो समय आया|”6 अपूर्वानंद का यह कथन एक वास्तविक तथ्य माना जा सकता है।
आज के दौर में जहां दुनिया में बहुसंख्यकवाद हर क्षेत्र में
हावी हो रहा है और उसे सही साबित करने के लिए कई तरह के कुतर्क दिए जा रहे हैं ऐसे
में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय बनी है। कमजोर के पक्ष में
खड़े होने की धारणा सर्वोदय की धारणा में निर्णायक होती है। और कमजोर के
मानवाधिकारों की सुरक्षाअसली मनुष्यता मानी जाती है। गांधी इन्हीं वंचित वर्गों के
पास में न केवल खड़े होते हैं, बल्कि उनका घाव
भरने का प्रयास करने के साथ-साथ सांप्रदायिक ताकतों से अपना संघर्ष भी जारी रखने
की हिम्मत करते थे।और यह केवल दिखावे के तौर पर नहीं, बल्कि खुद अपनी जान की बाजी लगाने से भी नहीं चूकते थे। कोलकाता कत्लेआम के
बाद जब सुहरावर्दी से गाँधी का पहला सामना हुआ, तों गाँधी जी ने उनसे सीधा ही पूछा, “शहीद साहब, ऐसा क्यों हैं कि यहाँ हर कोई आपको गुंडों का सरदार कहता
हैं ?”
7 आज के दौर में ऐसे जन नेता लुप्त हो गए हैं जो
सांप्रदायिक सद्भाव कायम रखने के लिए दंगों के समय भी दंगाइयों से भिड़कर उन्हें
इस तरह का आईना दिखाने की हिम्मत करते थे।
अंत में अल्बर्ट आइंस्टाइन के इन वाक्यों के प्रति संदेह जताते हुए अपनी बात समाप्त करना ठीक रहेगा। आइंस्टाइन कहते हैं कि आने वाली नस्ले शायद मुश्किल से ही विश्वास करेगी कि हाड-मांससे बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता फिरता था। यहां पर संदेह शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया गया है, क्योंकि यह बात गांधी के विरोधी और उनके हत्यारे भी मानते हैं कि गांधी जी का भूत उनका पीछा नहीं छोड़ने वाला। लोक मानस में गांधी इतनी गहराई से उतरे हुए हैं कि आप उनके प्रतीकों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर है। चाहे वह खादी हो, चरखा हो या उनका चश्मा।
संदर्भ
1. डोमिनिक लापिएर &लेरी कॉलिंस : आजादी आधी
रात को, हिंद पॉकेट बुक्स, पाचवा रिप्रिंट, 2017 दो,पृ. 33
2. http://thewirehindi.com/78741/world-press-freedom-index-india-slips-two-places-in-media-freedom/
3. मोहन दास कर्म चंद गाँधी : हिन्द स्वराज्य,प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली,2015 पृ. 37
4. आरके प्रभु एवं यू आर राव संकलन एवं संपादक, महात्मा गांधी के विचार, नेशनल बुक ट्रस्ट
इंडिया, नई दिल्ली, 2012, पृ. 420
5. वही, पृ.420
6. महावीर समता सन्देश पाक्षिक समाचारपत्र, उदयपुर,
7. गाँधी मार्ग : संग्रहणीय अंक, गाँधी शांति
प्रतिष्ठान नई दिल्ली, मई –जून 2019, पृ. 34
डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता(हिंदी साहित्य), राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय मनोहरगढ़, जिला प्रतापगढ़
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