'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020
यात्रा साहित्य की परम्परा में 'देस-विदेस दरवेश'- हेमंत कुमार
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
मनुष्य
स्वभाव से ही जंगम प्राणी है, साथ ही उसके मस्तिष्क में बुद्धि तत्व की
प्रधानता होने के कारण किसी भी चीज को जस का तसमान लेने की उसकी फितरत नहीं होती
है। वह किसी भी चीज को कब, क्यों, कैसे आदि प्रश्नों के माध्यम से तार्किकता
के पहलुओं पर तौलता हैं। किसी भी चीज को पाने या जानने के लिए उसके अंदर
प्रबल उत्सुकता होती है, उत्सुकता भी मनुष्य के स्वभाव एवं प्रकृति पर
निर्भर करता है कि मनुष्य क्या पाना या क्या जानना चाहता है।अपने स्वभाव के अनुरूप
मनुष्य अपने आस-पास के परिवेश, वातावरण, वेश-भूषा, रहन-सहन, संस्कृति, खान-पान, गीत-गौनवी आदि चीजों से प्रभावित होने लगता है। जैसा की
मैंने पहले ही कहा कि मनुष्य जंगम प्राणी है अतः वह एक स्थान से दूसरे स्थान तक
हमेशा यात्रा करता रहता है, यात्रा करने से मनुष्य हमेशा गतिशील (प्रगतिशील)
बना रहता है तथा यह गतिशीलता ही उसके सकारात्मक सोच को बढ़ाती रहती है जिससे
मनुष्य को जीवन पर्यंत कुछ न कुछ पाने की लालसा बनी रहती है।जिस प्रकार से छोटा
बच्चा अपने घर-परिवार एवं समाज में धीरे-धीरे जुड़ता चला जाता है, ठीक वैसे ही यात्रा के दौरान हम यात्री उस
देश की रहन-सहन, वेश-भूषा, संस्कृति, भाषा आदि चीजों को बहुत सूक्ष्मता से अवलोकन करते
हुए जुड़ते चले जाते हैं।इसप्रकार से हम उस देश या स्थान विशेष के साहित्य से जुड़
जाते हैं,क्योकि बिना समाज, संस्कृति और भाषा के हम साहित्य की कल्पना
भी नहीं कर सकते हैं। साहित्य समाज का दर्पण होता है इस प्रकार समाज के
अच्छाई और बुराई का पता साहित्य से ही चलता है।
साहित्य
का एक महत्वपूर्ण अंग यात्रा साहित्य भी है। यात्रा साहित्य एक ऐसी विधा हैं जो
प्राचीन काल से अब तक ज्ञानवर्धन एवं साहित्य सृजन का एक महत्वपूर्ण अंग हैं।इस
साहित्य मे लेखक बस यात्रा का लेखा-जोखा मात्र नहीं देता है बल्कि उसमें लेखक की
एक शोध परक दृष्टि भी होती है तथा वह स्थान विशेष के प्राकृतिक परिवेश और वहां के
समाज का गंभीरता से अध्ययन करता है जिसके लिए उसे तमाम प्रकार की परेशानियों का
सामना भी करना पड़ता है। साहित्यकार नए परिवेश का दृष्टिपात तो करता ही
करता है साथ-साथ में अपने मूल स्थान की सभ्यता और संस्कृति से नए स्थान के लोगों
को अवगत भी कराता हैं।
उपरोक्त
इन्हीं सब खूबियों से लबरेज़ महेश कटारे द्वारा लिखा गया नवीनतम यात्रा साहित्य “देस बिदेस दरवेश” ज्ञानपीठ प्रकाशन सेसन् 2017 में प्रकाशित हुआ।लेखक ने देश-विदेश की
यात्रा के दौरान जो देखा परखा महसूस किया उसे बहुत सूक्ष्मतापूर्वक काफी चिंतन-मनन
के बाद उसको पुस्तकाकार रूप दिया। लेखक की तीन महत्वपूर्ण यात्रा का जिक्र इस “देसबिदेस दरवेश” यात्रा साहित्य में हुआ है जिनमे से
प्रमुख हैं- अमरनाथ यात्रा, गंगासागर स्नान की यात्रा, कनाडा यात्रा।
“अमरनाथ यात्रा : उस बरस”इस यात्रा साहित्य की शुरुआत लेखक ने बहुत
ही मनमोहक पंक्तियों के साथ किये हैं–“सैर कर दुनिया की गाफ़िल जिंदगानी फिर कहाँ, जिंदगानी गर मिले तो नौजवानी फिर कहाँ।” अमरनाथ यात्रा सामान्यतः जुलाई महीने से
शुरू होती है, लेखक ने भी अपनी अमरनाथ यात्रा जुलाई 2008 में ही प्रारंभ किए।अमरनाथ यात्रा के
दौरान लेखक ने अनुभव किये कि मुट्ठी भर अलगाववादी कश्मीरी किस तरह आम कश्मीरियों
के लिए अशांति का सबब बने हुए है अपितु पूरे भारत में अशांति फैलाये हुए हैं। इन थोड़े
अलगाववादियों की वजह से पूरे कश्मीर की अर्थ व्यवस्था डगमगा जाती है। अमरनाथ
यात्रा के समय ही अलगाववादी लोग दंगा-प्रसाद, कर्फ्यू आदि खौफनाख वारदात को अंजाम देते हैं
जिससे प्रभावित हो कर दार्शनिक पर्यटक बहुत कम आते है जिससे क्षेत्रीय कश्मीरियों
के दुकानदारी प्रभावित होती हैं यह दुकनदारी ही वर्ष भर का खर्च संभालने का मजबूत
आधार होता हैं। यदि सुंदर कश्मीरी पर्यटन के केन्द्रों को विकसित
कर लिया जाये तो यहाँ के क्षेत्रीय लोगो के जीवन यापन के लिए कर्मस्थली बन जाये। ये आम
कश्मीरी लोग अपने रोजी रोजगार में लग जाये तो कश्मीर में खून खराबा की नौबत ही
नहीं आएगी और अलगाववादियों को उतना समर्थन भी नहीं मिल पायेगा जिससे कश्मीर की
स्थिति ख़राब भी नहीं होगी। यदि केंद्र सरकार, राज्य सरकार और वहाँ के क्षेत्रीय लोगो के
आपसी सूझ-बूझ के आपसी समन्वय से ये कार्य आसानी से किया जा सकता हैं और कश्मीर में
रोजगार पैदा किया जा सकता हैं। लेखक यात्रा के समय यह महसूस किये कि कश्मीर के
निम्न क्षेत्र पर्यटन के केंद्र बन सकते हैं, यथा “सुंदर घाटी, घुड़सवारी, मत्स्य आखेट, खेल मनोरंजन के अनेक साधन। यहाँ
अनेक फिल्मों की शूटिंग हुई है। पहलगाम लिद्दर नदी के किनारों पर बसा है जिसका
सुंदर स्वच्छ जाल आँखों को तो भाता ही है... मुँह पर छींटे मारे तो जी जुड़ा जाता
है। आसपास हरनाग, लिदरावट कोला हुई ग्लेशियर हैं। यहाँ
आठवीं सदी में निर्मित शिव मंदिर भी हैं।”(देस बिदेस दरवेश, पृ. 18)
अमरनाथ
यात्रा में कर्फ्यू, बारूद जंग, पहाड़ी पतला सकरा रास्ता, बारिश का मौसम,राजनैतिक कलह, बर्फीली घाटियाँ, पाकिस्तानी आतंकवादियों का हमला आदि
कठिनायियों से होते हुए जिंदगी और मौत की अमरनाथ यात्रा है फिर भी उसके पीछे का
राज है शैव भक्तों का अटूट श्रद्धा और प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम उत्सव के प्रति
गहरा लगाव। अमरनाथ यात्रा के समय ही राजनीतिक संगठन भी
सक्रिय हो जाते हैं उनकी घटिया राजनीति के चलते हिंदू मुस्लिम में आपसी दूरियाँ
बढ़ती चली जाती हैं।यहाँ केकश्मीरी पूंजीपति वर्ग यहाँ के लोगों को ताश के पत्तों
की तरह प्रयोग करते हैं, अपने वोट बैलेंस और स्वार्थ की रोटी सेकने के लिए
छुट भैया लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं।
कश्मीरियों
के अंदर खौफ देख कर ऐसा लगता है कि उनके मन मस्तिष्क पर किसी और का कब्जा है
क्योंकि यात्रा करते समय जब लेखक बस में से छोटे बच्चों की तरफ हाथ हिलाया (टाटा)
तो खुश थे परंतु वही कश्मीरी मनुष्यों में कोई खुशी गम का कोई अनुभूति ही नहीं
मालूम पड़ रहा था।सभीलोग शून्य हो गए थें।अमरनाथ यात्रा के दौरान अमूमन बारिश का
समय होता है। उस वक्त सभी लोग अपने अपने बरसाती कपड़े पहने
होते हैं। क्योंकि बीच-बीच में बारिश भी हो रही होती है
जिससे रास्ते पर बर्फ की कीचड़ भी हो जाता है जिससे यात्रा करना बहुत ही दुख भरी
हो जाती है। पिस्सू शिखर पर चढ़ाई के दरमियान लेखक जो अनुभव
किए वे इस प्रकार---“मैं अपने निर्णय पर खुश हूँ --चट्टानों,फिसलन से भरा रास्ता, गहरी खाइयाँ, नीचे यात्रियों की सर्पीली कतार। हाँफते, काँखते, निराश दयनीय।भोले बाबा को पुकारते लोग
जैकारा लगाते लोग सहायता मांगते आंखें यहाँ तक दुबारा न आने की कसमें खाते लोग भी। भोले
बाबा यह चढ़ाई पार करा दे।” (वही पृ. 20)शिव भक्तों का कष्टकर यात्रा तय करने का
मकसद शिव भक्तों का भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा, विश्वास और लगन हैं तथा साथ ही साथ भगवान
शिव अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा भी करते हैं जिससे भक्तों में इतनी कठिन
यात्रा तय करने का साहस रहता है।
अमरनाथ
यात्रा एक रमणीय यात्रा है जिसमें एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, लेखक खुद अमरनाथ यात्रा के बारे में कहते
हैं- “अमरनाथ यात्रा की सबसे ऊंची जगह 15400 फुट की ऊंचाई पर पहुंचकर लगता है जैसे हम
पृथ्वी लोक से ऊपर उठ आए हैं। अगल-बगल धवल हिम से सज्जित पर्वत शिखरों पर पड़ती
सूर्य रश्मियाँ अनेक रंग उत्पन्न कर रही हैं इन रंगों से अनेकानेक आकृतियाँ बन रही
हैं---- मिट रही हैं--- सृष्टि और लय का विलक्षण खेल। आँखें चौधियाकर झपकती हैं तो खुलने पर
दृश्य बदला हुआ होता है। अमरनाथ की यात्रा धैर्यपूर्वक बढ़ने चढ़ने तथा
निष्ठा एकाग्रता से लोकोत्तर अनुभूति के दर्शन की यात्रा है।”(वही पृ. 27)लेखक अब अपने अमरनाथ यात्रा के बहुत करीब
पहुंच चुके हैं जिससे एक अजीब सी खुशी हो रही है - "मैं गुफा के प्रवेश की
अन्तिम सीढ़ी पर हूँ। बर्फ का जल बर्फीला पत्थर, पैर सुन्न होने लगे। सब कुछ भूल भाल में बर्फानी बाबा की इस
सीढ़ी पर माथा रगड़ता हूँ। यहाँ न जाने किसके पैर पड़े होंगे। आगे बढ़ा
सामने हिमरूप शिव हैं- उनके पास हिम रूप माँ पार्वती हैं एक छोटा सा पिंड गणेश जी
का है। कश्मीर के बालटाल स्थान पर स्थित बाबा बर्फानी
(अमरनाथ) का दृश्य मनमोहक दृश्य खुला है ना कोई किवाड़, न परदा। हाँ मनुष्य ने अपनी व्यवस्था के लिए उन पर
दोहरी रुकावट डाल दी है और श्रद्धालू कोई 15 फुट की दूरी से उनके दर्शन करता है। बर्फानी
जल पैरों को गीला करता बह रहा है। इस समय बाबा की हिम आकृति कोई 5 फुट की है। आदमी की गर्मी महादेव को निरंतर पिघला रही
है।’’(वही पृ. 31)यही दर्शन पाने के लिए वृध्द -वृध्दाएँ, वैशाखी को टांग बनाए लंगड़े वे भी जिनके
पास एक भी पैर नहीं है बस जय भोले, जय भोले कहते पार करते जा रहे हैं गगनचुंबी शिखर
को। अतः स्पष्ट है कि धर्म का आस्था से गहरा सरोकार
है धार्मिक व्यक्ति अपने देव के प्रति ही नहीं संबंधों व विचारों के प्रति भी
आस्थावान होता हैं। अमरनाथ यात्रा के लिए निकले हुए लेखक को पूरे 7 दिन लगे दर्शन हो जाने के बाद वापस आते
समय पुनः काश्मीरी पहाड़ी चाँदी से लदी हुई मनभावन प्रतीत हो रही थी। ऐसा मन
में हो रहा था सदा के लिए यह सभी दृश्य को आँखों में बसा लूँ। लेखक
अपना एक अनुभव और बताते हैं कि जो लोग हेलीकॉप्टर से अमरनाथ की यात्रा करते हैं
उनका अधूरा दर्शन है क्योंकि अमरनाथ यात्रा तो पहलगाम से चंदनवाड़ी होकर पवित्र
गुफा के दर्शन के पश्चात बालटाल तक के कठिन रास्ते मौसम के साथ पूरे होते हैं। इस
प्रकार से लेखक के माध्यम से हम पाठक वर्ग भी अमरनाथ यात्रा करने में सफल हुए।
गंगासागर
बरास्ता कोलकाता यानी आनंद नगर में बदहवासी
गंगासागर
का स्नान सुनकर मन में एक अजीब सी हलचल होती है कि गंगासागर मतलब गंगा नदी से भी
बड़ी कोई नदी है जो कि सागर जैसी है इसलिए उसे गंगासागर कहते होंगे परंतु ऐसी
धारणा बिल्कुल गलत है। गंगासागर एक सागर द्वीप है जो कि पश्चिम बंगाल के
क्षेत्र में आता है यहाँ गंगा नदी सागर से मिलती है इसलिए इसे गंगा सागर संगम भी
कहते हैं।गंगासागर बंगाल की खाड़ी के कांटिनेंटल शैल्फ में कोलकाता से 150 किलोमीटर दक्षिण में एक द्वीप है। गंगासागर
का स्नान का महत्व हिंदू धर्म ग्रंथों में बहुत पुराना है।कपिल मुनि के श्राप के
कारण ही राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की इसी स्थान पर तत्काल मृत्यु हो गई थी। उनके
मोक्ष के लिए राजा सगर के वंश के राजा भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाए थे और गंगा
यहीं सागर से मिली थी।कहाँ जाता है कि एक बार गंगा सागर में डुबकी लगाने पर 10 अश्वमेध यज्ञ और 1000 गाय दान करने के समान फल मिलता है। इसी लिए
कहाँ जाता है सब तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार इन्ही सब खूबियों के कारण लेखक भी
अपने परिवार संग गंगा सागर का स्नान करना चाहते थे किंतु परंतु में प्रत्येक वर्ष
टलता जाता था अंततः लेखक का संयोग गंगासागर स्नान का 2009 में बन ही गया।गंगासागर के भीड़ में सबसे
बड़ा डर अपनों के बिछुड़ जाने का होता है। लेखक का एक साहित्यकार होने के कारणउनका
सोचना विचारणीय है सभ्य समाज पर व्यंग करते हुए लेखक कटारे जी ने समाज पर बहुत ही
बेबाकी से प्रहार करते है आज उत्तर आधुनिक, भूमंडलीकरण के दौर में भी भक्ति में कम
रूढ़िवादिता में ज्यादा विश्वास करते हैं जबकि इसके विपरीत यूरोप, अमेरिका अपने कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते
हुए लगातार विकास के कीर्तिमान स्थापित करते जा रहें है। इसी बात को लेखक इस प्रकार निरूपित करते
हैं “हमारा
देश आश्चर्यजनक रूप से धार्मिक हुआ है। पर्वो, कुंभो पर करोड़ो की भीड़ बीना किसी निमंत्रण
के एकत्र हो जाती है असुविधाओं से जूझती, दोगुना-चौगुना खर्च करती और जान तक जोखिम में
डालती। हम लोग किसी साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन के लिए
बड़ी मँजी हुई भाषा में महँगे-महँगे निमंत्रण पत्र छपवाते हैं, बाटते निवेदन करते हैं। प्रसिद्ध
विद्वानों को वक्तव्य देने, उद्बोधन के लिए बुलाकर जनता से जनता की बात करते
हैं।बेहतर बैठक व्यवस्था तथा चाय-पानी का इंतजाम तक होता है,अखबारों में समाचार,सूचनाएँ प्रकाशित करवाते हैं,जबकि हमारे आस-पास ही कहीं किसी मूर्ख
कथावाचक की कथा सुनने या धार्मिक नौटंकी देखने सैकड़ों-हजारों की संख्या यूँ ही हो
जाती है।”(वही पृ. 46 )
गंगासागर
स्नान के बहाने लेखक दूसरा महत्वपूर्ण सन्देश यह देना चाहते है कि आज के आपा- धापी
के युग में लगातार मानवी संबंधों में कमी आती जा रही है। माँ- बाप अपने बेटे को समय नहीं दे पाते
हैं ,पति अपने
पत्नी को समय नहीं दे पाते हैं। ऐसे समय में तीज-त्योहार, स्नान, मेले तीर्थाटन आदि परिवार के पूरे सदस्यों
के बीचनिकटता लाने के माध्यम हैं। इसीलिए लेखक कहते हैं कुछ काम हम अपने लिए नहीं
अपने परिवार के लिए भी करते हैं। जैसे ही भतीजा अनील पत्नी और बहन को गंगासागर
स्नान कराकर लाया तो ऐसा प्रतीत हुआ कि साध पूरी हुई,पूर्व का पुण्य हाथ आ गया। लेखक
अपने इस यात्रावृतांत में खुद कहते हैं “पत्नी और बहन के चेहरे पर संतुष्टि का सौम्य भाव देख
मैं आश्वस्त हुआ और वस्त्र उतार शरीर को साल में लपेट मात्र चड्ढ़ी पहने मैं भी जल
की ओर चला।मैंने एक हिलोर के आगे सिर किया और पूरा भीग गया। अब दूसरी लहर की प्रतीक्षा थी।”( वही पृ. 47)
कोलकाता
में गंगासागर स्नान के बाद कोई चीज आती है तो वह हैं काली माता का दर्शन, कोई कोलकाता आये और काली मंदिर ना जाये।काली
माता के दर्शन के समय लेखक को यह प्रतीत हुआ कि किस प्रकार पोंगा पंडित लोग
पूजा-पाठ के नाम पर अपने कमाई के साधन के रूप में भगवान का स्पेशल दर्शन, चोर रास्ते से दर्शन न जाने क्या क्या
कराकर आम आदमी को मूर्ख बनाकर अपने कमाई का माध्यम बनाये हुए हैं। क्या यही
पूजा-पाठ का वास्तविक तरीका है, यह सोचने की जरूरत हैं। यथा “बड़ी लंबी पंक्ति है- आधा किलोमीटर तो
सड़क पर है, मंदिर में घुमाओ से कितनी दूरी और बढ़ेगी,अनुमान नहीं लगाया।पंक्ति का अर्थ ढाई-तीन
घंटे चींटी की तरह चलना। एक चोर रास्ता भी है कि पूजा करवाने के लिए
पुजारी तय कर लीजिए, वह वही बीच से मंदिर के भीतर पंक्ति में धसा देगा। हमने भी
इस चोर रास्ते का प्रयोग करना चाहा- जैसे ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ वैसे ही धरम-करम की बेईमानी नहीं मानी
जाती।”( वही पृ. 52)
लेखक ने
गंगासागर स्नान करने के बाद ट्रेन के इंतजार में स्टेशन पर देखा कि महानगरों में
मानवता मरती जा रही है किसी को किसी की मदद की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती है। सभी लोग
केवल अपने कामों को तवज्जो देते हैं, अपने काम के लिए भले ही दूसरों का नुकसान हो जाये, किसी की जान तक चली जाये इसका उनसे कोई
लेना देना नहीं हैं। लेखक को स्टेशन पर ही एक विभत्सय दृश्य दिखाई
दिया “बाहर खुले आकाश तले एक बुढ़िया भिखारीन है,अधफटे वस्त्रों में अधनंगी।एक पतला सा
गीला कंबल लपेटे है। फर्श पर पानी बह रहा है और वह वही एक झूठे
प्लास्टिक के गिलास में कुछ खखोल रही है।’’( वही पृ. 53)
उपरोक्त
दृश्य को एक सामान्य आदमी और एक लेखक दोनों अलग-अलग दृष्टि से देखेगें परंतु कुछ
को इस रिश्ते से कोई लेना-देना नहीं। वही ऐसा दृश्य देखकर लेखकद्रविभूत हो जाता
है और कहता है “ऐसी वृद्ध महिलाओं को देखकर मुझे अपनी माँ का
स्मरण हो आता है बेचैन हो उठता हूँ, कुछ कर नहीं सकता था बस पश्चाताप करता हुआ मुंह
फेर लेता हूँ। हमारे पास चार कंबल है, एक इस वृध्दा को ओढ़ा कर हम तीन में काम
चला सकते हैं।”(वही पृ. 53)अंततः लेखक बहुत ही सजीले अंदाज मेंसमाज
पर व्यंग करते हुए कहते हैं कोलकाता का “हावड़ा भव्य भद्र उच्चस्तरीय स्टेशन है।यहाँ गरीब
तो दिखते हैं गरीबी नहीं दिखती।”(वही पृ. 56 ) इन्हीं बातों के माध्यम से लेखक ने बड़ी
सतर्कता पूर्वक कोलकाता के महानगरी जीवन के तौर-तरीकों को तमाम प्रकार से प्रश्नों
के घेरे में लाकर खड़े करते हुए प्रतीत होते हैं। यही एक सजग साहित्यकार की अपनी अलग खूबी
होती हैं।
“कनाडा यात्रा उर्फ अवार्ड और कठिन डगर
पनघट की”
गाँव का
कृषक समाज में मामूली जीवन यापन करने वाले मनुष्य बहुत ही कम संसाधन में खुशहाल
रहते हैंतथा अपने काम-धंधे में हमेशा व्यस्त रहते हैं।उसे संसार के महानगरी जीवन
और विदेशी जीवन शैली का बिल्कुल ही पता नहीं रहता है अतः इस प्रकार का जीवन
(विदेशी या महानगरी ) शैली साधारण आदमी को अजूबाप्रतीत होती है। यदि
कल्पना किया जाए कि सामान्य गाँव में रहने वाले आदमी को विदेश जाने का मौका मिले
तो उसके लिए एक अप्रत्याशित उपलब्धि होगी। ऐसा ही कुछ लेखक के साथ हुआ। लेखक
महेश कटारे द्वारा लिखा गया उपन्यास “कामिनी काय कांतारे” को “ढींगरा फेमिली फाउंडेशन व हिन्दी चेतना” अंतरराष्ट्रीय कथा अवार्ड के लिए चुना गया। यह
सम्मान समारोह अमेरिका की जगह कनाडा में आयोजित होगा।इस प्रकार से यह सुनिश्चित हो
चुका था कि लेखक को अब कनाडा जाना होगा। अब लेखक को विदेश जाने की प्राथमिक मूलभूत
आवश्यकताएँ पूरी करनी थी, इसके लिए जो सबसे जरूरी चीजें थी वह थी पासपोर्ट
का होना, लेखक के पास पासपोर्ट नहीं था। पासपोर्ट
बनवाने में लेखक को बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा। तमाम समस्याओं के बाद भी लेखक अमेरिका
(टोरंटो)पहुच ही गये और पहुंचने के बाद लेखक ने यह अनुभव किया कि यहाँ स्टैंडर्ड
समय भारत से 10 घंटे पीछे है। लेखक जब कनाडा पहुंच गए तो स्वागत के लिए
उनके परिचित आत्मीय श्याम त्रिपाठी तथा डॉक्टर हरीश शर्मा लेखक को अपने घर लाये। घर आते
ही "अतिथि देवोभव" परंपरा से परिपूर्ण हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार
"घर में प्रवेश से पूर्व श्रीमती सुरेखा त्रिपाठी ने अक्षत, कुमकुम के तिलक व आरती के साथ हमारा
स्वागत किया।"(वही पृ. 95)लेखक का ऐसा भव्य स्वागत हुआ की स्वतः ही
कहने लगते है अपनी भारतीय परंपरा संस्कृति और स्नेह बाहर खासकर विदेशों में भी
हमारे भारतीय लोग अपने सभ्यता और संस्कृति को जीवित रखे हैं जो कि हम मूल भारतियों
के लिए गर्व बात हैं।
लेखक
कनाडा में प्रत्येक चीजों को बहुत ही गंभीरता से अध्ययन करते हुए कहते हैं कि
"मैंने दूसरे दिन रेस्टोरेंट में पाया कि लोग यहाँ बोलते नहीं फुसफुसाते हैं
कि दूसरी टेबल तक आवाज़ न पहुंचे।लेखक जब कनाडा के टोरंटो शहर से घूम रहे थे तो
अनुभव किए कि "अंटोरिया राज्य की राजधानी टोरंटो कनाडा के सबसे बड़े, प्रमुख नगरों में से है- देश की व्यवसायिक
राजधानी...वैसे ही जैसे हमारे यहाँ मुंबई।पर मुंबई सेदस गुना व्यवस्थित और बीस
गुना स्वच्छ। हर धर्म व नस्ल के लोग रहते हैं।" (वही पृ. 97)उपरोक्त बातों से अंदाजा लगाया जा सकता है
कि क्यों कनाडा विकसित देश है और हमारा देश भारत विकासशील। कनाडा मे लेखक का प्रत्येक दिन बटा हुआ था
की किस दिन क्या करना हैं क्योकि समय के अनुरूप काम करना कनाडा की जीवन शैली है
अतः इन्होने भी अपने को उसी के अनुरूप ढाल लिया। यहाँ के लोग अपना काम समाप्त करके ही भोजन
करते हैं तथा भोजन मे दही अवश्य शामिल करते हैं। स्त्री हो या पुरूष सभी लोग प्रत्येक
प्रकार के कार्यों में सहभागी होते हैं। कनाडा के किचन रूम में स्त्री – पुरूष एक साथ भोजन पकाते हुए देखे जा सकते
हैं इसके विपरीत प्रायः भारत में स्त्रियाँ भोजन पकाती हैं, पूरे परिवार का कपड़े धुलती हैं, यह कैसी मानवता हैं विचार करने की जरुरत
हैं। सम्मान समारोह वितरण स्थल पर भारत और कनाडा का
झंडा लगा हुआ था। विदेश में भी अपने देश का झंडा देखकर भला किसका मन
प्रफुल्लित नहीं होगा। बाद में लेखक को यह अहसास हुआ हमारे भारत और
कनाडा के साहित्य प्रेमियों में बहुत अंतर है। इस सम्मान समारोह में शिरकत करने के लिए
आए हुए लोग 80 से 100 किलोमीटर दूर से हिंदी के अलावा अन्य
भारतीय भाषाओंके लोग पंजाबी, तमिल, मलयाली, बंगाली, गुजराती,असमी सामील हुए। वही हमारे भारत देश में “जब तक कार्यक्रम व्यक्तिगतलाभ-हानि के
स्तर पर न जुड़ा हो, हमारे प्रोफेसर, छात्र शामिल होने की जहमत नहीं उठाते।”( वही पृ. 100)
लेखक यह
अनुभव किए की सभी कनाडाई अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं ऐसे में लेखक अपने कनाडाई
मित्र से पूछते हैं “आपने आज का रविवार साहित्य को दिया...समय निकाला
कैसे?...कोई नहीं
जी।...क्योंकि
कनाडा में क्रिकेट नहीं होता सो निकाल आया समय। समय को खाने वाला क्रिकेट से बड़ा कोई
नहीं।...उन्होने ठहाका लगा दिया।”( वही पृ. 101)इस प्रकार से लेखक के मित्र का ये कहना कि
यहाँ (कनाडा) क्रिकेट नहीं होता, बहुत सारे प्रश्नों को जन्म देता है।इसका एक पक्ष
यह है कनाडाई व्यक्ति द्वारा यह कहना कि कनाडा में क्रिकेट नहीं होता इस लिए लोगो
का समय बचता है, सतही मूल्याङ्कन को प्रदर्शित करता हैं। केवल
क्रिकेट में ही समय व्यतीत नहीं होता इसपर विचार करने की आवश्यकता है। भारत में
क्रिकेट शौक से खेला जाता है यही कारण है कि वैश्विक पटल पर क्रिकेट के क्षेत्र
में भारत नामचीन हस्ती है। क्रिकेट से भारत की अर्थव्यवस्था और पर्यटन में
काफी सुधार हुआ है। इस पर भी गौर करने की जरुरत है। इसका
दूसरा पक्ष यह है किकनाडा और भारत दोनों ही जगहों पर पहले ब्रिटेन का उपनिवेश था
मगर कनाडा ने आजादी के बाद अपने राष्ट्रिय विकास के लिए हर संभव प्रयास करता है।कनाडा
के लोगो के पास फालतू के समय बिलकुल नहीं होता हैं। कनाडा के लोग अपने उपनिवेशिक देश से जुडी
कोई भी कार्य नहीं करते हैं। कनाडा के लोग अपनी खुद की अलग पहचान बनाने में
विश्वास करते हैं इसीलिए कनाडा में क्रिकेट नहीं होता। भारत अब भी गुलामी का दास्ता रुपी क्रिकेट
का दामन थामे हुआ है। जबकि राष्ट्रिय खेल हाँकी की स्थिति मिस्टर
ध्यानचंद के योगदान के बाद से चिंताजनक बनी हुई हैं।
अगले दिन
जब लेखक विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा जलप्रपात देखने निकले तो लेखक को महसूस हुआ की
कनाडा के लोगो में कर्तव्यनिष्ठा कूट-कूट कर भरी हुई है सभी लोग अपने कार्यों को
अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ईमानदारी से करते हैं। कनाडा में सरकारी हो या प्राइवेट सभी
व्यक्ति में कार्य करने के प्रति सामान भाव मिलते हैं। इसके विपरीत भारत देश के सरकारी
कर्मचारियों की कर्तव्यनिष्ठा पर व्यंगात्मक प्रहार करते हुए लेखक कहते है -“अपने यहाँ तो हाजिरी के हस्ताक्षर निपटाकर
कर्मचारी बाहर निकल चाय पान की गुमटियों पर आकर गप्पे ठोकते, बहस करते,डील करते दिखाई देते हैं। कुर्सी
पर बैठते ही भगवान हो जाता है कर्मचारी, जैसे फाइल नहीं तकदीर उसके हाथ में हो। शासन का
क्या भय ? वह तो कर्मचारी स्वयं है। ट्रांसफर के अलावा उसका कोई कुछ नहीं
उखाड़ सकता।”( वही पृ. 103)
टोरेंटों
(कनाडा) में सबके कामों को अहमियत दी जाती है। यहाँ एक सामान्य आदमी (सिटी बस ड्राइवर)
भी कंप्यूटर इंजीनियर से अधिक सुविधाजनक जॉब है,निर्धारित समय का काम, भरपूर वेतन, आवास सुविधा, बीमा, चिकित्सा, अवकाश अनेक काम।लेखक को पता चला की भारत
के कुछ साथी इंजीनियरिंग छोड़कर बकायदा ड्राइविंग कर रहे हैं। समान्यतः
मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह कहीं गया है तो वहाँ की चीजें यादगार के रूप में
खरीद लेता है लेखक और उनके मित्र पंकज सुबीर कुछ सामान खरीदने निकले पंकज जी तो
बहुत सारी चीजें खरीदारी की परंतु लेखक इतनी महंगी चीजें खरीदना मुनासिब नहीं समझे। सोचे
छोटी-मोटी चीजें खरीद ले जैसे बच्चों के लिए पेन वगैरह।एक पेन का दाम $5 से $50 यानि 5 डालर वाली पेन 300 रुपये में मिलेगी। लेखक को अपने स्वदेशी चीजों से प्रेम है
वह अनायास ही कह उठते हैं कि “विदेशी वस्तुओं के प्रति अजब ललक हैं हमारे समाज
में। यह अमेरिका से खरीदा है, यह कनाडा से..लंदन से... पेरिस से– बर्लिन से।ऐसा बताने में हमारा सीना फूलता
है।”(वही पृ. 108)
अंततः
लेखक के वापस भारत आने का दिन आ ही गया इन्होने अपने इष्ट मित्रों से स्नेह पूर्वक
मिलते हुए काफी आवा-भगत के साथ टोरेंटों से बर्लिन और वहाँ से दिल्ली चले आयें। इस
प्रकार से महेश कटारे ने अपने जीवंत अनुभवों को साकार रुप प्रदान करते हुए अपनी
तीन महत्वपूर्ण यात्रा अमरनाथ यात्रा, गंगासागर की यात्रा और एक विदेशी कनाडा यात्रा का
अनोखा संगम “देस विदेस दरवेश ” में बहुत ही रोचकता के साथ पाठक वर्ग के
सम्मुख परोसा है, जिससे हम पाठक वर्ग भी अनायास ही यात्रा का वर्णन
पढ़ते-पढ़ते उस स्थान विशेष से जुड़ते जाते हैं।ऐसा मालूम पड़ता है कि लेखक के साथ –साथ पाठक वर्ग खुद यात्रा कर रहा हो। लेखक
कीआम भाषा खड़ी बोली हैं तथा बीच-बीच में ठेठ मुहावरों एवं लोकोक्तियों का
प्रयोग किए हैं,जिससे भाषा धाराप्रवाह हो गयी है। इसप्रकार
से यह पुस्तक अपनी विशिष्ट योगदान के कारण यात्रा साहित्य में अपना उच्च स्थान
रखती है।
सन्दर्भ
1. महेश कटारे, देस बिदेस दरवेश, प्रथम संस्करण-2017, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली- 110003
हेमंत कुमार, (शोध छात्र)
केरल केन्द्रीय
विश्वविद्यालय, केरल
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