आलेख : भारतीय शिक्षा में गाँधी जी का योगदान / मनीषा वधवा
शिक्षा का, मानव-सभ्यता
के इतिहास के आदिकाल से ही, विकास होता रहा है और इसके
मूल्यों में समयानुसार परिवर्तन भी हुआ है। हर देश अपनी समाजिक-सांस्कृतिक
चुनौतियों का सामना करने के लिए समसामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी
शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन व परिवर्धन करता है। परन्तु कोई भी शिक्षा-नीति
राष्ट्र के लिए तभी उपयोगी मानी जा सकती है जब वह अपने राष्ट्र की संस्कृति व
भौतिक प्रगति के साथ-साथ सामान्य मानवी के जीवन मूल्यों तथा एकता की भावना को भी
सुदृढ़ करे। गाँधी जी की ‘बुनियादी शिक्षा, शिक्षा के उन मूल्यों के प्रति सर्वथा सजग, सतर्क और
चिन्तित थी। अतः शिक्षा के संबंध में उनके विचार भारत के संदर्भ में पूरी तरह
उपयुक्त हैं, जिसके कुछ बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा
रहा है।
महात्मा गाँधी के शिक्षा -संबंधी सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में दो
दृष्टियाँ स्पष्ट रूप से सक्रिय प्रतीत होती हैं- “प्रथम- अपने देश की सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को प्रमुखता
देना तथा द्वितीय उसे अधिक व्यावहारिक रूप देना। व्यावहारिक अनुभव के आधार पर
उन्होंने जिन अमूल्य सूत्रों का निर्माण किया उनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा
सकती। ‘‘सिद्धांत के बिना शिक्षा अन्धी होती है और व्यवहार
के बिना पंगु।” उन्होंने अपनी शिक्षानीति के सिद्धांतों को
व्यावहारिक दृष्टि से भी सर्वग्राह्य बनाने का प्रयास किया। मैं समझती हूँ कि
महात्मा गाँधी की भारतीय समाज के लिए इससे बड़ी कोई और देन नहीं हो सकती।
गांधी जी की शिक्षा-नीति
का दो संदर्भों में निरूपण किया जा सकता है-
(1) व्यापक संदर्भ (2) सीमित संदर्भ
व्यापक संदर्भ में मेरा
अभिप्राय उन सिद्धांतों से है जो भारत सहित सारे संसार के मानव समुदाय के लिए किसी
न किसी रूप में उपयोगी हों। इसके अन्तर्गत ये सिद्धांत हैं-
● चरित्र निर्माण एवं नैतिक विकास
● संस्कृतिमूलक शिक्षा
● अध्योत्मोन्मुखी शिक्षा तथा
● नारी शिक्षा
सीमित संदर्भ से मेरा
तात्पर्य ऐसे सिद्धांतों से है जो केवल भारत की विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और
मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्धारित किए गए हैं।
इस सीमित संदर्भ के
अन्तर्गत निम्नलिखित सिद्धांत रखे जा सकते हैं-
● अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा
● मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा
● राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा
● उद्योग केन्द्रित शिक्षा
● स्वावलम्बी शिक्षा
शिक्षा नीति की उपर्युक्त बातों को गाँधी जी ने ‘बुनियादी तालीम’ नाम दिया। बुनियादी तालीम से अभिप्राय उस शिक्षा से है जो बालक के व्यक्तित्व निर्माण की बुनियाद अर्थात् नींव का काम करे। इसे ही बेसिक एजूकेशन, बेसिक शिक्षा आधारभूत शिक्षा, एवं नई तालीम के नाम से भी जाना जाता है। गाँधी जी बुनियादी शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय अपेक्षाओं को ठोस रूप देना चाहते थे। इसके माध्यम से लोकतंत्रीय समाज की स्थापना, नागरिकता के गुणों का विकास, आर्थिक और नैतिक विकास आदि की संभावनाएँ देखते हैं।
चरित्र निर्माण एवं नैतिक
विकासः-
वास्तव में चरित्र निर्माण एवं नैतिक विकास केवल एक विषय से
सम्बन्धित कोई स्वतन्त्र और पृथक् अवधारणा नहीं है। इसका स्रोत तो आध्यात्मिक एवं
सांस्कृतिक शिक्षा में ही निहित है। किन्तु गाँधी जी चरित्र निर्माण को शिक्षानीति
का केन्द्रबिन्दु मानते हैं। उनके अनुसार सच्ची शिक्षा माता-पिता ही दे सकते हैं।
चरित्र निर्माण ही सच्ची शिक्षा की नींव है। उनके अनुसार चरित्र व्यक्ति के आचरण
में झलकता है। उन्होंने नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा है-
‘‘हमारे देश में ऐसे नवयुवक तैयार हों जो इरादे के पक्के हों तथा इरादे के अनुसार काम करें। उनके विचार स्पष्ट हों। उनमें ज्ञान का ऐसा भंडार संग्रहीत हो कि वे दृढ़ता व शन्ति से अपना दृष्टिकोण दूसरों के सामने प्रस्तुत कर सकें। वे दूसरों का आदर करें। वे इन्द्रियजित एवं चरित्रवान हों।’’ महात्मा गाँधी का शिक्षा से तात्पर्य बालक एवं मानव के शरीर, मन एवं आत्मा में निहित सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों के विकास से है। यही कारण है कि चरित्र निर्माण शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘‘मैंने हृदय की संस्कृति या चरित्र के निर्माण को सदैव प्रथम स्थान दिया है।’’
किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए उस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र ही अतुलनीय भूमिका निभाता है। व्यक्ति के जीवन की पवित्रता ही समस्त चरित्र निर्माण का आधार है। सदाचारी व्यक्ति की जीवन-पद्धति सभी के कल्याण के लिए होती है। अतः गाँधी जी ने व्यक्तिगत पवित्रता पर बल देते हुए कहा है- ‘‘समस्त ज्ञान का लक्ष्य ही चरित्र का निर्माण करना होना चाहिए। व्यक्तिगत पवित्रता समस्त चरित्र निर्माण का अधधर होना चाहिए। चरित्र के बिना शिक्षा और पवित्रता के बिना चरित्र व्यर्थ है।”
संस्कृतिमूलक शिक्षा :-
गाँधी जी के शिक्षा संबंधी
चिन्तन का आधार भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ रही हैं। भारत में
सांस्कृतिक जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्होंने परिवार, समाज और राष्ट्र को
भावात्मक एकता के सूत्र में बाँध रखा है। भारतीय संस्कृति ने ऐसे मूल्य दिए हैं
जिनसे प्रत्येक व्यक्ति अपना उपकार करने के साथ-साथ राष्ट्र का भी उपकार कर सके।
जीवन के सच्चे आनन्द को प्रदान करने में भारतीय संस्कृति में अपार क्षमता है।
भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे
सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा
कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्।।
अर्थात् उसमें सभी के सुख, स्वास्थ्य तथा कल्याण की भावना निहित है। इसलिए गाँधी जी ने सांस्कृतिक मूल्यपरक शिक्षा पर बल देते हुए कहा है- ‘‘मैं शिक्षा के साहित्यिक पक्ष की बजाय सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति बालक-बालिकाओं के लिए मुख्य बीज है।”
गांधी जी के अनुसार आत्मा की उन्नति ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। ‘‘सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् शिक्षा वही है जो मनुष्य को मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित करती है। इसे ही गाँधी जी ने आत्मा को उच्चतर जीवन की ओर उठना कहा है। उन्होंने जब संस्कृति की बात की तो उनका तात्पर्य ऐसी शिक्षा से था जिसका आस-पास के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव पड़े। गाँधी संस्कृति, मूल्य और शिक्षा की बात करते हुए अपने चिन्तन, दशा और दिशा में बिल्कुल स्पष्ट थे। जब उन्होंने संस्कृति की बात की तब उन्होंने लोक संस्कृति की बात की जो व्यक्ति को समरसता, जीवन्तता और आनन्द प्रदान करती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है- “जो व्यक्ति अपनी शिक्षा समाप्त करता है वह अपने आस-पास वालों से दूर हटता जाता है। गृह-जीवन में उसे रस नहीं आता। गाँव के दृश्य उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखते। उसे अपनी सभ्यता निकृष्ट, जंगली व अन्धविश्वासों से पूरिपूर्ण तथा व्यावहारिक दृष्टि से निकम्मी लगती है।"
‘‘उसे शिक्षा इस ढंग से दी जाती है कि वह अपनी परम्परागत संस्कृति से विमुख हो जाता है। भारतीय संस्कृति केवल भारत के लिए ही उपयोगी नहीं है अपितु यह सौर्वभौम संस्कृति है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में विश्वास रखती है। यह संस्कृति विश्व में प्रशस्य एवं अभिवन्दनीय है। इसमें वे तत्व निहित हैं जो मानव शिक्षा के लिए सर्वथा उपयोगी तथा मानवीय गरिमा के अनुरूप हैं” महात्मा गाँधी की सांस्कृतिक शिक्षा में सत्य, अहिंसा तथा प्रेम की भावना निहित है। उन्होंने बार-बार दोहराया है कि ‘‘सत्य ही ईश्वर है और उसकी प्राप्ति का मार्ग अहिंसा है। वे मानते हैं कि सत्य की साध्य है और सत्य की प्राप्ति के दो साधन हैं-
‘अहिंसा और
प्रेम’ वे अहिंसा को वीरों का अस्त्र मानते हैं। उनकी
मान्यता थी कि अहिंसक व्यक्ति निर्भय और विनम्र भी होता है वे मानते हैं कि अहिंसा
के बिना सत्य का साक्षात्कार असंभव है। उन्होंने अहिंसा को बड़े सूक्ष्म अर्थ में
ग्रहण किया है। उनका मानना था कि अहिंसा प्रेम से उत्पन्न होती है। इस सिद्धांत
में विश्व-भ्रातृत्व का संदेश छिपा हुआ है। मानव-जाति में एकता कुछ विचारों की
समता पर आधारित है। यदि विचार की समता के प्रति ममता नहीं होगी तो समाज और विश्व
में एकता और शांति किस प्रकार स्थापित की जा सकती है। संस्कृतिमूलक शिक्षा ही व्यक्तियों
के विचारों की समानता को दृढ़ता प्रदान करती है जिससे मानव समाज ‘सभ्य’ कहलाता है और उसमें एकता बनी रहती है। कविवर
सुमित्रानन्दन पन्त ने इसी भावना को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-
“मनुष्यत्व
का तत्त्व सिखाता निश्चय हमें गाँधीवाद।
सामूहिक जीवन विकास की साम्य-योजना
है अविवाद।।”
अध्यात्मोन्मुखी शिक्षाः-
गाँधी जी का दृढ़ विश्वास था कि जो ईश्वर में विश्वास रखता है, वह सभी धर्मों में सामान्य रूप से श्रद्धा एवं विश्वास रखता है। उन्होंने कहा है कि- ‘‘ईश्वर सत्य है।” अत: जिस तरह सत्य को नहीं नकारा जा सकता उसी तरह ईश्वर को भी नहीं नकारा जा सकता। उनकी धारणा थी कि जिस प्रकार शरीर के लिए भोजन जरूरी है, उसी प्रकार मन और आत्मा को स्वस्य बनाए रखने के लिए प्रार्थना आवश्यक है। यही सृष्टि भगवान द्वारा रची गई है। आध्यात्मिक संसार भौतिक संसार से श्रेष्ठ है। भगवान परम आत्मा ही है। अतः व्यक्ति के विकास में शारीरिक व आध्यात्मिक दोनों ही विकास अनिवार्य हैं। यदि उनकी अध्यात्मोन्मुखी शिक्षा को ध्यान से देखें तो वह ‘श्रीमद् भगवद् गीता’ के विचारों से प्रभावित है। यही कारण है कि वे इस प्रकार की शिक्षा को मुनष्य की चरम आकांक्षा का रूप मानते हैं। महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरू ‘श्री गोपाल कृष्ण गोखले’ का गाँधी जी के बारे में प्रस्तुत कथन बहुत मूल्यवान है- ‘‘वे राजनीति के आध्यात्मिकीकरण के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे।”
नारी शिक्षा:-
गाँधी जी की शिक्षा-नीति के व्यापक संदर्भ से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों के विवेचन के बाद शिक्षा-नीति के सीमित संदर्भ में ‘बुनियादी शिक्षा’ के सिद्धांतों का स्पष्टीकरण भी युक्ति-संगत होगा। यह वर्गीकरण सुविधा की दृष्टि से किया गया है अन्यथा गाँधी जी की शिक्षा का कोई भी सिद्धांत ऐसा नहीं है जिसकी व्याख्या दूसरे शिक्षा-सिद्धांत के बिना की जा सकती हो। अतः ये सिद्धान्त एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं।
अनिवार्य एवं निःशुल्क
शिक्षाः-
गाँधी जी का शिक्षा दर्शन
देश की राजनीतिक,
सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के अनुभवों पर आधारित है। उन्होंने
वर्धा सम्मेलन में सात वर्ष से चौदह वर्ष तक के बालक-बालिकाओं के लिए अनिवार्य एवं
निःशुल्क शिक्षा को बच्चे का जन्म-सिद्ध अधिकार माना है। उनके अनुसार बच्चे को
शिक्षा से वंचित रखना उसके अधिकार का हनन तथा मानवता के प्रति अपराध है। राज्य का
यह दायित्व है कि वह 7-14 वर्ष के सभी बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करे। वे बच्चों
से शुल्क लेने के को शिक्षा के लिए बाधक मानते थे। वे फीस लेकर शिक्षा देने को
पश्चिम के प्रभाव का परिणाम समझते थे। उन्होंने भारतीय परिस्थितियों में पाश्चात्य
देशों की तरह की महँगी, किताबी और विद्याथिर्यों को
निष्क्रिय बनाने वाली शिक्षा को व्यावहारिक दृष्टि से अनुचित सिद्ध किया था। देश
के विभिन्न राज्यों में उनकी प्रेरणा से स्थापित विद्यापीठ इसी बात के ज्वलन्त
प्रमाण हैं।
मातृभाषा के माध्यम से शिक्षाः-
महात्मा गाँधी शिक्षा के
माध्यम के रूप में मातृभाषा को लेकर अत्यन्त संवेदनशील थे। इस सम्बन्ध में वे किसी
प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे। प्रस्तुत कथन इस बात का स्वयं सिद्ध
प्रमाण कहा जा सकता है- ‘‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों मैं उससे उसी तरह चिपटा
रहूँगा जिस तरह बालक अपनी माँ की छाती से। वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है।’’
गाँधी जी का मानना है कि
मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में बच्चों को शिक्षा देने से उनपर दोहरा बोझ
पड़ता है- एक तो विचारगत एवं विषयगत समस्याओं के निदान एवं उचार हेतु ज्ञान
प्राप्ति के लिए अनावश्यक रूप से समय और श्रम की हानि तथा दूसरे-दूसरी भाषा के
सीखने में ऊर्जा अपव्यय के साथ-साथ उस भाषा में अपने विचारों को प्रस्तुत करने की
स्थिति में बच्चों के मस्तिष्क को कुंठित होने देना। ये देनों ही स्थितियाँ किसी
भी राष्ट्र के लिए अच्छी नहीं मानी जा सकती। इससे बच्चों की स्नायुओं पर अनुचित
बोझ पड़ता है और वे मौलिक कार्यों एवं विचारों को व्यक्त करने में अक्षम हो जाते
हैं। अधिकतर बच्चों में रट्टा लगाने और अनुकरण करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती
है जो उनके बौद्धिक विकास के लिए सर्वथा हानिकारक है। वे प्रभावी संप्रेषण की
क्षमता से वंचित हो जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए महात्मा गाँधी ने कहा
है- ‘‘इस विदेषी भाषा के माध्यम से हमारे देश में मौलिक विचारक पैदा करने के
बजाय ऐसे लोग तैयार किए गए जो हमारे देश में रहते हुए भी विदेशी हैं।’’
गाँधी जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के कट्टर समर्थक थे। वे अंग्रेजी भाषा के विरोधी थे। उन्होंने कहा था- ‘‘जो स्थान इस समय अनुचित ढंग से अंग्रेजी भाषा भोग रही है, वह स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए। इस विषय में मतभेद होना दुर्भाग्य की बात है। शिक्षित वर्ग की एक भाषा होनी चाहिए और वह हिन्दी ही हो सकती है। उसे उचित स्थान मिलने में जितनी देर हो रही है, उतना ही देश का नुकसान हो रहा है। अंग्रेजी मोह से छुटकारा पाना स्वराज्य प्राप्ति की अत्यंत आवश्यक शर्त है। अंग्रेजी रूपी बुराई ने समाज में इतना घर कर लिया कि अनेक लोगों की दृष्टि में शिक्षा का अर्थ अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के सिवाय कुछ है ही नहीं।’’
स्वतंत्रता के बाद नेताओं
ने उनकी एक न सुनी। इसकी ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं-‘‘जो नेतागण
मेरी हाँ में हाँ मिलाते थे, शासन की गद्दी पर बैठने के बाद
मेरी इच्छा का अनादर करने लगे।’’ कितनी वेदना है गाँधी जी के
उपर्युक्त कथन में 21 सितंबर 1947 के ‘हरिजन’ में वे लिखते हैं- ‘‘मैं कहता हूँ कि एक सांस्कृतिक
उपहारक के रूप में अंग्रेजी को भी उसी तरह निकाल फेंकना चाहिए जिस तरह हमने
अंग्रेजों के राजनीतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका।’’
गाँधी जी ने शारीरिक श्रम को महत्त्व दिया। वे चाहते थे कि हर
व्यक्ति अपना काम स्वयं करे तथा शारीरिक श्रम करने वाले को सम्मान की दृष्टि से
देखा जाए। गाँधी जी एक ऐसे अनुभव सिद्ध महापुरूष थे जिन्होंने ज्ञान व कर्म के
परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध को अपने जीवन में प्रमाणित किया। वे ज्ञान और कर्म को
एक-दूसरे का पूरक मानते थे। उनको यह आभास हो गया था कि ज्ञान एवं कर्म में भिन्नता
अपनाने वाली पश्चिमी ढंग की शिक्षा भारत जैसे देश के लिए उपयोगी नहीं होगी। इसलिए
उन्होंने, आक्रोश प्रकट करते हुए, कहा था-
उपर्युक्त विचारों को ध्यान में रखकर उन्होंने बुनियादी शिक्षा के
अन्तर्गत श्रम के महत्त्व को स्थान दिया। प्राथमिक शिक्षा के स्वरूप के बारे में
उनका स्पष्ट मत था कि किसी उद्योग या हस्तकला को माध्यम बनाकर ही सारी शिक्षा दी
जानी चाहिए। इसी धारणा को और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘जहाँ तक मेरा तजुर्बा कहता है,
मैं तो प्राथमिक शिक्षा के लिए तकली को ही बीच में रखना चाहता हूँ
क्योंकि तकली बच्चे के लिए एक खिलौना ही नहीं है अपितु उत्पादक वस्तु भी है।’’
महात्मा गाँधी ने बुनियादी तालीम की प्रारंभिक योजना को स्पष्ट करते
हुए इस बात पर बल दिया है कि वातावरण के अनुकूल उत्पादक उद्योग को केन्द्र में
रखकर बालक को प्रत्येक विषय का ज्ञान कराया जाए।
गाँधी जी के सामने यह सबसे बड़ी समस्या थी कि सभी के लिए अनिवार्य
और निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध किस प्रकार किया जाए। उस समय देश के पास संसाधनों का
नितान्त अभाव था। इसलिए उन्होंने स्वावलंबी शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने सोचा था
कि इससे प्रत्येक विद्यालय अपने खर्च योग्य संसाधन जुटा पाएगा।
भारत के संदर्भ मे गाँधी जी द्वारा स्वावलंबी शिक्षा का महत्त्व
और भी बढ़ जाता है। भारत में 80 प्रतिशत आबादी गाँव में रहती है तथा खेती-बाड़ी के
काम से जुड़ी हुई है। बहुत कम लोग ही उद्योग धन्धों, कला, साहित्य,
आदि के क्षेत्र में कार्यरत हैं। एक कृषि प्रधान देश में केवल
सफेद-पोश लोगों को ही निर्मित करने वाली शिक्षा का कोई लाभ नहीं है। उन्होंने
स्पष्ट कहा है- ‘‘हमारे बच्चों को ऐसी शिक्षा नहीं दी जानी
चाहिए, जिससे वे शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखें।’’
कुछ लोगों का मानना है कि आज के संदर्भ में गाँधी जी की बुनियादी
शिक्षा अपूर्ण शिक्षा-नीति प्रतीत होती है। उन लोगों का कहना है कि बुनियादी
शिक्षा का उच्च- शिक्षा से जुड़ाव नहीं दिखाई पड़ता। उस समय 80 प्रतिशत आबादी गाँवों
मे रहती थी। अतः उस समय ग्रामीण भारत के लिए यह उपयोगी थी। आज देश की आधी आबादी
शहरों व कस्बों में रहती है। यह शिक्षा शहरी लोगों के लिए उपयुक्त नहीं लगती।
इसमें क्राफ्ट पर आवश्यकता से अधिक बल दिया गया है। छोटे बच्चे अच्छा उत्पादन नहीं
कर पाते जिसके कारण इसमें कच्चे माल की बर्बादी की अधिक संभावना रहती है। विभिन्न
क्राफ्ट के माध्यम से शिक्षा देने के लिए कुशल शिक्षक उपलब्ध हो पाना भी संभव नहीं
है। क्योंकि यदि किसी को कोई क्राफ्ट अच्छी तरह आता होगा तो वह शिक्षक नहीं बनना
चाहेगा। इस शिक्षा नीति की शिक्षण-विधियाँ भी स्वाभाविक प्रतीत नहीं होती। आज यदि
कुछ बच्चों को बुनियादी शिक्षा दी जाए तो वे अपने आप को अन्य बच्चों की अपेक्षा
पिछड़ा हुआ समझेंगे। आज विभिन्न क्षेत्रों में हमारी आवश्यकताएँ बदला गई हैं और उद्योग
का चयन आवश्यकता के आधार पर किया जाता है।
गाँधी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था- ‘‘हमारे
बच्चों को ऐसी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए जिससे वे शारीरिक श्रम को हिकारत की
निगाह से देखें।’’
संदर्भ
गाँधी मोहनदास : सत्य के प्रयोग; (अनुवादक- काशीनाथ त्रिवेदी), अहमदाबादः नवजीवन प्रकाशन
पाण्डे आर. एस. (1978) : शिक्षा दर्शन आगराः विनोद पुस्तक मंदिर
पालीवाल आर. के. : गाँधी : जीवन और विचार (ई-बुक mkgandhi.org/ebks/hindi)
भट्टाचार्य सव्यसाचि (2008) : महात्मा और कवि (अनुवाद तालेबर गिरि) नई दिल्ली, नेशनल बुक ट्रस्ट
मित्तल ल. (2019) : शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार दिल्ली : पीयरसन
सलूजा चाँद किरण (2004) : शिक्षा एक विवेचना, दिल्लीः रवि बुक्स
मनीषा वधवा
एसोसिएट प्रोफेसर, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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