आलेख : नागार्जुन और हमारा लोकतंत्र / मनोज कुमार सिंह

आलेख : नागार्जुन और हमारा लोकतंत्र / मनोज कुमार सिंह

    


हिंदी कविता और भारतीय समाज के लिए नागार्जुन की कविताओं का आत्यंतिक महत्त्व है। आज कविता और राजनीति दोनों क्षेत्रों में केंद्रीयता का अभाव है। परिधि के अनुभव का अभाव उसका मुख्य कारण है। कोई भी समाज अपनी परंपरा और ऐतिहासिक अनुभव को वर्तमान से जोड़े बगैर सार्थक सर्जना नहीं कर सकता। नागार्जुन की कविताओं में इसका समाहार है। उनकी कविताओं का स्थापत्य जहाँ एक ओर भारतीय काव्य परंपरा से जुड़ता है वहीं दूसरी तरफ अपने इतिहास, भूगोल और वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक अनुभव से निर्मित होता है। फलतः उनकी कविताओं में गहराई और विस्तार दोनों है।


कवि जीवन और अपने समय के अंतर्विरोधों की खरी पहचान रखता है और उसके पेच को आनेवाली पीढ़ियों के लिए थोड़ा शिथिल बना देता है। एक रचनाकार की इससे अधिक जिम्मेदारी नहीं होती और एक ईमानदार सर्जक इससे अधिक दावा कभी नहीं करता। जीवन की मार जिन पर पड़ती है कवि उनसे सहानुभूति रखता है। जीवन के जो घात-प्रतिघात हैं वह काव्य-रूप का स्थान ग्रहण करते हैं। किंतु जब भी इसका इकहरा पाठ बनाया जाता है रचनाएँ दुर्बल और हास्यास्पद होती हैं। वह विषय का प्रभाव ठीक से पाठक तक पहुँचा नहीं पातीं। एक प्रतिबद्ध कवि अपने विषय के दोनों पक्षों पर समान श्रम करता है। वह जीवन का अर्थ भौतिक सफलताओं से ही नहीं आंकता वरन् वह उन पक्षों का भी उद्घाटन करता है जिसके कारण बहुजन अपनी क्षमताओं को अवसर के अभाव में सिद्ध नहीं कर पाता। रचना जीवन पर एक समयक दृष्टिपात है। इसलिए एक रचनाकार उन लोगों को भी दर्ज करता है जो समाज के लिए अपनी समूची ताकत को निचोड़ देते हैं और चुपके से इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। एक कवि अपने समाज की ओर से श्रद्धावनत होकर उनकी स्मृति को प्रणाम करता है -


जिनकी सेवाएँ अतुलनीय/पर विज्ञापन से रहे दूर

प्रतिकूल परिस्थितियों ने जिनके/कर दिये मनोरथ चूर-चूर!

उनको प्रणाम!


कवि नागार्जुन जहाँ एक ओर लोगों के दुख-दर्द में शामिल हैं, हास में घुले हुए हैं, बच्चों-बूढ़ों में, युवकों- युवतियों में मिले हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ कुलीनता में छिपी घृणा का, विनम्रता में छिपे आडम्बर का पर्दाफाश करते चलते हैं। यह सब इसलिए कि एक सहज, सरल धरातल पर सब एक-दूसरे से मिल सकें, साथ-साथ चल सकें। रवीन्द्रनाथ टैगोर पर नगार्जुन की एक कविता है। उस कविता में कवि की कुछ शंकायें हैं - मसलन अगर आपने अभाव नहीं देखा तो संसार की निस्‍सारता से आपका क्या अर्थ। जिसने अभाव न देखा हो उसे तो धरती का भार हो जाना चाहिए पर तुम कवि कैसे हो गए-


'नहीं खाई होगी अभाव की मार कभी

मालूम न पड़ा होगा संसार असार कभी

साधन ये प्रस्तुत फिर न हुए क्यों तुम

अकर्मण्य, आलसी, विलासी भू-भार मात्र?

अहे कनक कमनीय गात्र

कवि के रूप में हो गए विकसित कैसे तुम अचानक

बाह्य आडंबर इतना भयानक? ”

कवि नागार्जुन अपने से उस कवि की तुलना करते हैं और कहते हैं-

तुम्हारा गुणगान मैं भला क्या करूँ

न उतना देखा है न सुना है

उतना.../कवि! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का/हरा हुआ नहीं कि

चरने को दौड़ते.../जीवन गुजरता प्रतिपल संघर्ष में!!


माध्यम तुम्हारा और मेरा दोनों का एक है, कलम ही दोनों का आधार है लेकिन रूपक में गहरा भेद है। नागार्जुन इस विषमता को इतिहास से जोड़ रहे हैं और उन से अपने को अलगा रहे हैं-


कलम ही मेरा हल है, कूदाल है!

बहुत बुरा हाल है!


नागार्जुन की विशेषता है कि जहाँ जीवन है वहाँ धँस जाते हैं और जहाँ आडंबर है उसे छिलकर अलग फेंक देते हैं। इसे अगर लोकतांत्रिक सौंदर्यबोध की कसौटी माना जाए तो सहज ही हम अपनी सिद्धि पा लें। नागार्जुन का समूचा जीवन बीहड़ों का रहा है इसीलिए अवसर-अनवसर जीने की इतनी ललक है। कवि अपने देश से बहुत दूर है, गृहस्थ से संन्यासी बन चुका है लेकिन उस आवरण को भेदकर जीवन का राग फूट पड़ता है।


घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!

याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!


अच्छी कविता की अपनी स्मृति-परम्परा होती है जो सहसा अपने को दूसरे से जोड़कर अर्थवान कर लेती है। इस पंक्ति को पढ़ते ही निराला की प्रसिद्ध कविता राम की शक्ति पूजाकी पंक्तियाँ याद आती हैं - याद आया उपवन विदेह का’...। नागार्जुन निराला से बहुत प्रभावित हैं तो बहुत मामलों में निराला को अतिक्रमित भी करते हैं। हिंदी काव्य-परंपरा के अनेक स्तरों से नागार्जुन की कविता सहज ही अपना संबंध बना लेती है। सिंदूर तिलकित भालका सहसा याद आना एक बौद्ध मिक्षु का विचलन नहीं प्रत्युत् जीवन की असहजता पर एक टिप्पणी है। जीवन-रस से धार्मिक आडम्बर को अर्थहीन बनाने का एक अचूक तरीका। उनकी भिक्षुणीशीर्षक से एक कविता है जिसमें एक युवती जो असमय सन्यास ग्रहण कर लेती है, उसके मनोदशाओं का वर्णन है। वह बुद्ध की स्वस्थ प्रतिमा को उत्कण्ठा से देखती है और यशोधरा के भाग्य को सराहती है कि तुम धन्य हो जिसे इन बाहों का आलिंगन मिला। एक मेरा भाग्य है! धर्मानुशासन के अनेक परतों में दबी वय-सुलभ सहजता का स्फुरण। वह बुद्ध की आँखों में शांति और करुणा नहीं उनके शारीरिक गठन को देखती है। स्वाभाविकता की पक्षधरता कवि की पक्षधरता होती है। उस भिक्षुणी को देखकर युवक चौंकते हैं, उसका कशाय वस्त्र, मुण्डित सिर हाथों में भिक्षापात्र उनको उत्तेजित करता है। वह भगवान अमिताभ से एक पुरुष की कामना करती है जो उसे प्रेम करे और सांसारिक सुखों का भागीदार बना सके। वह उसके डाँट-फटकार को सहज रूप से स्वीकार करने को प्रस्तुत है। वह अपने छूछे पात्र को जीवन-रस से भरना चाहती है। मंदिर में पूजन-अर्चन करने वाली स्त्रियों को, उनके साथ आये उनके शरारती बच्चों को जब देखती है तो उसकी भी इच्छा होती है-

घण्टा मैं बजाती!/तन्मय हो कितनी आरती उतारती!

पास ही होता नटखट शिशु खेलता/यदि किसी भद्र मुख

प्रतिमा से ढिठाई वह करता

दिखा-दिखा तर्जनी मैं उसे रोकती।


जीवन के निषेध से भव में अवतरण करना चाहती है एक स्त्री (भिक्षुणी) और मातृत्व की गरिमा से भर जाना चाहती है। एक सहज स्वाभाविक जीवन की चाह। यह जीवन जीनेके लिए है परिस्थितयों से पलायन करने के लिए नहीं। हम संकट में पड़ सकते हैं तो उसे मिलजुल कर पराजित भी कर सकते हैं। सतत् संघर्ष से जीवन का अर्थ संभव हो पाता है। अगर हम गरीब हैं, कमजोर हैं, हमारी हैसियत छोटी है उससे हम कुंठित नहीं होंगे वरन् हम उनके विरुद्ध लड़ेंगे और इन पर विजय हासिल करेंगे। जड़ नैतिकता को चुनौती देनेवाला कवि बड़ा होता है। वह जीवन के व्यापक संदर्भों के विस्तार के लिए संघर्ष करता है और खुद भी सहज बना रहता है। मानवीय सहजता को सहर्ष स्वीकार करता है-


कवि हूँ, सच है

किंतु षट्पदों जैसा क्या मैं/फूल सूँघकर रह सकता हूँ?”


शुचितावाद एक आभामंडल निर्मित करता है जिसमें एक हद के बाद प्रवेश निशिद्ध होता है। हिंदी साहित्य के इस शुचितावाद के खिलाफ लड़नेवालों में नागार्जुन का नाम सबसे पहले लिया जाना चाहिए। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहासमें निराला के बारे में लिखा कि इनकी प्रतिभा बहुवस्तुस्‍पर्शनीहै। इस प्रतिभा को नागार्जुन ने विस्तार दिया। निराला ने लिखा - दलित जन पर करो करुणा’, नागार्जुन ने लिखा-


गोबर महंगू बलचनमा और चतुरी चमार

सब छीन ले रहे स्वाधिकार/आगे बढ़कर सब जूझ रहे।

रहनुमा बन गये लाखों के।


नागार्जुन ने इन करुणा के पात्रों को प्रतिनिधित्व की क्षमता से भर दिया। भारतीय समाज में जितना व्यापक परिवर्तन हुआ है उसकी चर्चा कविता में बहुत कम हुई है। भारत के अनेक प्रांतों में राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व अब दलित और पिछड़े लोगों के हाथों में है। भारत का भद्र लोक उनसे कुलीन व्यवहार की माँगा करता है। तय है वे खुरदरे होंगे, उनकी भाषा लालू डिक्‍शन की भाषा होगी। वे अज्ञेय और निर्मल वर्मा की भाषा में नहीं बोलेंगे।

आश्‍चर्य तो तब होता है जब इस तरह की माँग प्रगतिशील लोगों के बीच से भी की जाती है। यह कैसे संभव है कि 'सुरसुर' और 'मुरमुर' दोनों एक साथ हो। परिवर्तन होगा तो कुछ टूटेगा भी। इस परिवर्तन का स्वागत नई पीढ़ी के कवियों ने कम किया अपेक्षाकृत नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के। एक खास काट की कविताओं का फैशन चल पड़ा है। साफ सुथरी, गढ़ी हुई। नागार्जन ने इस मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाई है। इस तरह की मानसिक कुलीनता और अमूर्तन पर उन्होंने गहरा व्यंग्य किया है-


''ठोस हो या पोल, जैसी भी होगी/

पकड़ में आएगी न तो जाएगी कहाँ आत्मा नानी??''


आत्मा जैसे अमूर्त तत्व के साथ नागार्जुन शरारती शैली में बात करते हैं। हर तरह के अमूर्तन और गढ़ाव से नागार्जुन अपनी कविता को बचाते हैं। हरिजनगाथानागार्जुन की एक ऐसी कविता है जिसका महत्व इतिहास में और फलीभूत होगा। यह कविता अपार संभावनाओं से भरी हुई है। भारतीय राजनीति की गुत्‍थी को इसकी व्याख्या से सुलझाया जा सकता है। हिंदी कविता में बच्चों पर कविताएँ आजकल अच्छी तादाद में लिखी जा रहीं हैं लेकिन वे बच्‍चे  हरिजनगाथा के बच्‍चों  से अलग हैं। वह धूसर और बेडौल नहीं हैं। सब बच्चे स्वस्थ और सुंदर होने चाहिए लेकिन वह समाज का पूरा सच भी तो हो। अधिकांश भारतीय बच्चे आज भी कमजोर, बीमार और असमय मौत के शिकार हो रहे हैं। कविता में जो वृद्ध पितामह है वह उस बच्चे का वर्णन करता है- अभागे के हाथ पैर अनोखे हैं राम ही उसका बेड़ा पार करेंगे। हम तो हैरान हैं। उसका भविष्‍य भला कैसा होगा। जबकि उसी समाज में प्रभु वर्ग के बच्चों के, बच्चों के बच्चों का भी भविष्‍य सुरक्षित है। उनके भविष्‍य की सुरक्षा में रिजर्व बैंक से स्विस बैंक तक मुस्तैद हैं। नागार्जुन कहते हैं कि दलित माँओं के अब सब बच्चे बागी होंगे। वे ही अग्निपुत्र होंगे अंतिम विप्पलव के सहभागी। वे नई ऋचाओं का निर्माण करेंगे। नये वेदों के वे गायक होंगे। वे ही नये भारत के संचालक होंगे। वे मात्र विधि निर्माता होकर ही संतोष नहीं करेंगे। यह देश उनका भी है। जिनके विश्‍वास पर वे अब तक चले आ रहे थे उन लोगों ने देश का बुरा हाल कर रखा है-


सामंतों ने कर दिया प्रजातंत्र का होम/

लाश बेचने लग गये खादी पहने डोम

खादी पहने डोम लग गए लाश बेचने/

माइक गरजे लगे जादुई ताश बेचने।


भारत की बहुसंख्यक जनता आज भी पिस रही है। वे नंगे बदन मिट रहे हैं इस देश के लिए। उनके पाँव में बेवाइयाँ ऐसी फटी हैं जैसे गर्मी में बांगर मिट्टी में दरार। वैसे ही तृषित सूखे जैसी सूखी धरती। लेकिन लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर मतदान करने जाते हैं। जिस वर्ग को सत्ता मिलती है उनके घर के बच्चों के जरा नखरे देखिए-


हाय! इतने सुंदर हाथ हो जाएँगे दागी!/

भड़क उठा परिमार्जित रुचिबोध

क्षण भर में ठिठककर/नई दिल्ली की तीनों परियाँ.../

तीन वोट रह गये

                फै़शन के नाम पर!


इन परिमार्जित रुचि-बोध वाली परियों का उपयोग क्या है, ये सुंदर हाथ किसके लिए काम करते हैं! इसका भी एक चित्र नागार्जुन के ही हवाले से-


रमा लो माँग में सिंदूरी छलना

फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना

तुम्हारी चाची को यह गुर कहा था मालूम।


इतना बड़ा फर्क है व्यवहार में। समाज में अगड़े और पिछड़े का भेद ऐसा हो गया है कि एक सच्चा जनकवि इसके अलावा क्या लिख सकता है-


 बताऊँ कैसे लगते हैं, गरीब देश के धनिक

कोढ़ी कुढ़ब तन पर मणिमय आभूषण!


जहाँ  ऐसी विषमाताएँ हों वहाँ पक्षधरता साफ होनी ही चाहिए। हाशिये पर डाल दिए गए बहुसंख्यक जनता का कवि नागार्जुन आनेवाली पीढ़ियों के पथ से विषवृक्ष उखाड़ रहा है-


तुम किशोर तुम तरुण तुम्हारी अगवानी में

खुरच रहे हम राजपथों की काई-फिसलन

खोद रहे जहरीली घासें। पगदडि्डयाँ निकाल रहे हैं।


प्रभुवर्ग द्वारा बनाए गए राजपथ फिसलन भरे हैं इनसे सावधान करना कवि अपनी जिम्मेदारी समझ रहा है। अनेक रहनुमा इस वर्ग के राजपथों के फिसलन में गुडुप हो गए। इस देश में पगदंडियों की जरूरत अधिक है। केवल राजपथों से काम नहीं चलेगा। जिनके दुःख तकलिफ से भारत के नेता दुबले होते रहे हैं उस जनता को यह भी खबर नहीं कि दिल्ली का राजा (?) कौन है-

पूछो, उन दिनों कौन था दिल्ली का राजा?

नचाकर हथेलियाँ/अबूझ सी पहेलियों में गुम हो गया 

बेचारा सबर-पुत्र।

मधुभाषी, शालीन और व्यवहार कुशल भारत के प्रथम राष्‍ट्राध्यक्ष, किसान-पुत्र के नाम से लोकप्रिय, भारतीयता की साक्षात प्रतिमूर्ति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद के गाँव से जब कवि नागार्जुन गुजरते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया देखने योग्य है-


                जीरादेई की धरती अब भी रोती है

                                फसल नहीं है धूल उड़ाकर खुश होती है

                                बैठ गये हैं कानों में जो उँगली डाले

                                उनके सर पर हाथ बनें हम चम्पीवाले।


नागार्जुन ने जीरादेई के लोगों से दोस्‍ती की होगी, वहाँ के नौजवानों से प्रेम विषयक बातें की होंगी और उनकी जाती जिंदगी की परेशानियों को देखा होगा तब कहीं जाकर चम्पी की बात मन में आयी होगी। युगपुरुष अक्सर अपने परिजनों के एवज में ही भलाई का स्वाँग करते हैं। छल और आवरण से वस्तुगत जरूरतों की भरपाई नहीं होती। ये राजपुरुष जनमत की चाँदमारी करते हैं-


करता है बहुमत जनमत की चाँदमारी

उद्यम उद्योग अचल बेकार है जनबल

हाथों पर चल रही छटनी की आरी।


साहित्य में एक दौर ऐसा भी था जहाँ कविताएँ दनादन गोलियाँ दागा करती थीं और कवि की आंत दूसरे की भूख से ऐंठ जाती थीं, आँखे उलट जाती थीं। लेकिन जुबान तोप की तरह चलती थी। हर पंक्ति महान क्रांति करती थी जैसे प्रतिभा का दौरा पड़ा हो। यह सारा उपद्रव (भाषा में) सत्ता में जगह पाने के लिए होता है। जैसे ही प्रभुवर्ग द्वारा हाल-चाल, खोज-खबर ली जाने लगती है तुरंत वे संस्कृति, स्त्री-सौंदर्य और परंपरा को अपना बाकी जीवन सौंप देते हैं। तंत्री-नाद कवित्त-रसमें लीन हो जाते हैं।  और भूखी पीढ़ी के लिए क्रांति के अवसर छोड़ जाते हैं। इस प्रकार की कविताएँ जिस दौर में लिखी जा रहीं थीं उस समय भी नागार्जुन अपनी सूझ-बूझ से कविताएँ लिख रहे थे। मछलीनई कविता में अनेक ढंग से आती है लेकिन जिस तरह वह नागार्जुन के यहाँ है वैसी सार्थकता उसे किसी कवि ने नहीं दी। मछली की निरीहता को उन्होंने स्त्री से जोड़ दिया -


हम भी मछली तुम भी मछली/दोनों ही उपभोग वस्तु हैं

ज्ञात स्वाद सुधीजन, सजनी हम दोनों को

अनुपम बतलाते ...

रसना-रति के लेलिहान उस अग्निकुंड में

भून-भूनकर हमें खा गए।


नागार्जुन मिथिला के थे। मिथिला की स्त्री और वहाँ का मछली प्रेम दोनों को अगर स्वायत्त कर दें तो इनका अर्थ बिल्कुल बदल जाएगा। परंतु इन दोनों को जोड़ दिया जाए तो अर्थ कारुणिक हो जाएगा। दोनों ही पुरुष की शिकार हैं। लोक कथाओं में ऐसे दुर्लभ-संयोग घटित होते हैं जब मनुष्‍य अन्य जीवों से संवाद करता है लेकिन वह घनघोर दु:ख का क्षण होता है, ऐसा दु:ख जिसका निवारण मनुष्‍य से संभव न हो, जिसका कोई अपना न हो। घायल की गति घायल जाने। जीवन की जटिलता को खोलने के लिए रचनाकार जीवन के अनेक स्तरों से पात्रों का चुनाव करता है और उनके माध्यम से जटिलता के कारणों तक पहुँचता है। पुरुषों की भाँति नागार्जुन की कविताओं में स्त्रियाँ भी कई रूप में आती हैं। अलग-अलग प्रसंगों में, अलग-अलग भूमिकाओं के मुताबिक। उनके यहाँ अधिकांश स्त्रियाँ संबंधों में आती हैं और जो इससे इतर हैं उनके रूझानों को कवि ने साफ कर दिया है। उनके व्यंग्य और उनकी रूचि को नागार्जुन ने फैलने का अवसर दिया है। जीवन में भदेस गँवई पर अपने सरोकार में व्यापक हैं नागार्जुन। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है उनके काव्य-विषय का फलक। आज के समाज में ऐसे लोग बड़े आधुनिक माने जाते हैं जो सूट-बूट में सजे होते हैं और गिटपिट भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वे कितने आधुनिक हैं उनके आचरण से पता चलता है। वे आज भी स्त्री का प्रतिमान सीता-सावित्री को मानते हैं और बलपूर्वक उसे अपने परिजनों पर थोपते हैं। उनको अपने परिवार की स्त्री पात्रों पर सहज विश्‍वास ही नहीं होता कि वे भी अपना आचरण सँभाल सकती हैं। स्त्रियों से जितनी ही पवित्रता की माँग रखते हैं अपने जीवन में उस तत्त्व से उतना ही परहेज रखते हैं। नागार्जुन की एक कविता है जो अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी को संबोधित है-


                कणिका, माई डियर!/कहाँ पैदा हुई थी तेरी माँ!

                कहाँ पैदा हुए तेरे बाप!/और कहाँ आकर तू पैदा हुई?

                सोचता हूँ, भविष्‍य का मानव इंटर कांन्टिनल होगा।


यह आकांक्षा है एक गवार-सा दिखने वाले कवि का। अपने जनपद मिथिला के पेड़-पौधों, जल-मछलियों, धूल-मिट्टी से प्रेम करने वाले नागार्जुन की ही ऐसी कविता हो सकती है। जो कवि एक तरफ अपनी देवी-देवताओं, मठों-मंदिरों, मुल्लाओं-पंडितों को मुँह विराता है वही दूसरी तरफ चीन अमेरिका, रूस-यूरोप की जनता की परेशानियों से परेशान होता है और वहाँ के शासक की धूर्तताओं का भंडाफोड़ करता है। जो कवि 'बादल को घिरते देखा है' जैसी कविता लिखता है वही सूअर को 'मादरे हिंद की बेटी' कहता है। कालिदास सच-सच बतलानाजैसी कविता हिंदी का दूसरा कवि नहीं लिख सकता कालिदास को एक हाड़मांस का आदमी मानना उनके वश की बात नहीं। ऐसी धारणाएँ अपनी परंपरा के प्रति अधिकांश लोगों में हैं। गालिब के खतों के बारे में यह बात कही जाती है कि वे पत्र नहीं लिखते बात करते हैं। नागार्जुन की बहुत-सी कविताएँ बात करती हैं। कालिदास से नागार्जुन एक अंतरंग मित्र की भांति बात करते हैं और सच-सच उगलवा लेते हैं।


पर पीड़ा से पूर-पूर हो, थक-थककर औ चूर-चूर हो।

अमल धवल गिरि के शिखरों पर

प्रियवर तुम कब तक सोये थे?

रोया यक्ष की तुम रोये थे!/कालिदास! सच-सच बतलाना!


कोई रचनाकार जब अपनी परंपरा से भिड़ता है तो वह उसमें अपने अनुभव को जोड़ देता है। नागार्जुन ने इस कविता में ऐसा किया है-


                जाने दो, वह कवि-कल्पित था/मैंने तो भीषण जाड़ों में

                नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर/महामेघ को झंझानिल से

                गरज-गरज भिड़ते देखा है।

                बादल को घिरते देखा है।


बादल कवियों का बड़ा प्रिय विषय है। हिंदी कविता में भी बादल पर अनेक कविताएँ लिखी गई हैं। निराला की बादल संबंधी कविताएँ अपनी अलग पहचान रखती हैं और उन कविताओं को पढ़ते वक्त लगता है कि बड़ा कवि कैसे विषयों को अपनी निजता से भर देता है। नागार्जुन ने बादल पर उतनी कविताएँ तो नहीं लिखी हैं परंतु जो थोड़ी सी हैं उन पर नागार्जुन की अपनी छाप है। एक कविता है श्‍याम घटा-सित वीजुरि रेहइस कविता में बिजली और बादल के जो विविध-रूप हैं वह अद्भुत हैं-


                श्‍याम घटा, सित बीजुरि रेह/अमृत टधार राहु अवलेह

                फाँक इजोतक तिमरिक थार/निबिड़ विपिन अति पातर धार

                दारिद उर लछमी जनुहार/लोहक चादरि चानिक तार

                देखल रहि रहि तड़ित-विलास/जुगलकिशोरक उन्मद-रास।


सांवले बादलों के बीच बिजली की रेखा है। पिघलते हुए अमृत को राहु अवलेह बना दे रहा है। तम के थाल में जैसे ज्योति के टुकड़े रखे हैं। घनघोर जंगल में पतली-सी धार बह रही है ऐसा लगता है कि लक्ष्मी ने दरिद्रता के गले में माला डाल दी हो। लोहे के चादर पर जैसे चांदी के तार जड़े हों। दो विद्युत्त रेखा काले आसमान में मानों युगल किशोर की तरह रास रचा रहे हों।


प्रकृति का मानवीकरण तो छायावादी कवियों ने खूब किया है लेकिन प्रकृति से छेड़छाड़ तो सिर्फ नागार्जुन के यहाँ हैं। इन्होंने पुजारिन भाभी पर एक कविता लिखी है। उस कविता का प्रारंभ होता है कजरारे बादल, टर्टाते हुए मेंढ़क और कुहुकते मोर से। विजन की मूठ से अपनी पीठ खुजलाती हुई पुजारिन भाभी अपने देवर से कहती हैं-


                छेड़ती रहेगी छिनाल पुरवइया     

                इकलौती बिटिया वाले अधेड़ बाप की भाँति

                झुका रहेगा तुम पर बादल/तुम्हारे तो मजे ही मजे रहेंगे

                ओ मेरे रसिया देवर!    


तब फिर क्या, प्रकृति के सारे उपादन सक्रिय हो जाते हैं और रसिया देवर का पूरा शरीर कंटकित हो उठता है। मेघ और-और झुकते जाते हैं उन पर। प्रकृत की सहजता संबंधों से रोमांचित है। उम्र की कोई कुंठा नागार्जुन में नहीं है। उनकी कविताओं में प्रेम सहज भाव से आता है। प्रेम अपने सामाजिक और कौटुम्बिक भूमि पर घटित होता है। खेतों में काम करते हुए, पहाड़ों पर टहलान मारते हुए रसोई घर में किसी गृहणी के हाथों अचार खाते हुए कहीं से भी जीवन प्रसंग फूट पड़ता है। जिस लोक-जीवन का चित्र उनकी कविताओं में है उसमें सुख-दुख दोनों हैं। वे इतने सहज और सरल चरित्र हैं कि उनका दुख पाठक को करुणा और विद्रोह से भर देता है और कवि उस व्यवस्था को बदल देना चाहता है जो उन पात्रों को दुख दे रहा है। नागार्जुन के यहाँ दुःख का चित्र इतना लंबा कभी नहीं खींचता की त्रासदी का उदात्त तत्त्व आप खोजने लगे और कला के शिखर पुरुष उन्हें करार दें। थोड़ी ही देर में वहाँ मुस्कराता हुआ बच्चा, कोई अधेड़ पुरुष उपस्थित हो जाता है और आप उन के मुस्कान में अपनी मुस्कान मिला देते हैं।


आप कहीं अकेले हैं, सुदूर यात्रा में हैं, दुखी हैं और आप को उस समय कहीं से नागार्जुन की कविता मिल गई तो उस समय आप पर पहला प्रभाव होगा कि आप अपनों के बीच कैसे लौटें। और नहीं तो आप यात्रा में किसी से मित्रता जरूर गांठ लेंगे। उनकी कविता पढ़ने के बाद आप अकेले नहीं रह सकते। नागार्जुन आपको कुटुंब से जोड़ देंगे। अकेला नहीं करेंगे। और यही कविता एक सामाजिक कर्म हो जाती है। आज की अधिकांश कविताएँ एकांत के दुःख से भरी हैं। उन कविताओं का कोई समाज नहीं है। उसमें सिर्फ व्यक्ति है और कार, टी.वी., फोन के लिए विगलित हो रहा है। कवि जार-जार आँसू बहा रहे हैं। जबकि निजी जीवन में वे बहुतों से सम्पन्न हैं। बहुतों के लिए ईर्ष्‍या के पात्र हैं। इन कवियों का व्यक्तिगत जीवन भी नागार्जुन के मुकाबले काफी ठीक-ठाक है पर रोये जा रहे हैं। क्‍या मजाल, उनकी कविता में सुख का एक दृश्‍य भी मिल जाय!


नागार्जुन की लोकप्रियता का यही आधार है कि उन्होंने कभी अपना रोना नहीं रोया। दूसरे के दुःख से दुखी होते रहे। दुख के भी साथी और सुख के भी साथी। गाँव उनसे छूटा तो मजबूरी में, शौकिया नहीं। इसलिए बहुत-बहुत दिनों बाद वे गाँव लौट पाते हैं क्योंकि जीवन गाँव से उनका चल नहीं सकता था। इसी गाँव से आज का मध्यम वर्ग निकला है लेकिन अधिकांश साहित्यकार कुछ ही दिनों बाद शहरी विडम्बनाओं के दार्शनिक बन जाते हैं। गाँव उनकी स्‍मृति  से भी गायब हो जाता है।


बहुत दिनों के बाद कवि अपने गाँव आया है और सभी इंद्रियाँ सक्रिय हैं। कवि अपनी आँखों से फसलों की मुस्कान देखता है, मौलसिरी के टटके फूलों को सूंघता है, चंदनवर्णी धूल का स्पर्श करता है, ताल मखाना खाता है और धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान से कानों को भर लेता है। रूप, रस, गंध, स्पर्श यानी सांगोपांग जीवन। माघ का महीना है - वृक्ष के डाल-डाल से पोर-पोर से कलियों का गुच्छा फूट पड़ा है, सोया हुआ हँसा ठठाकर। मधुमक्खियों का झुण्ड दीवानगी से झूम रहा है। गाँव की किशोरियाँ तुषार पूजने गई हैं, सरसों और तीसी के फूलों में पगी हुई हैं। अंग-अंग कांप रहा है और नागार्जुन माघ की प्रात से कहते हैं अरे जा अब बहुत हुआ!


फागुन आधा बीत चुका है कोयल अपने सुर पर आम्र मंजरियों को कुतर-कुतर के शान चढ़ा रही है। मधुसिक्त मधुमक्खियों का झुंड दूब को चिपचिपा बना दिया है। गाँव के छोटे-छोटे बाल-गोपाल आम के बगीचे में मधुपत्तों को चख रहे हैं। उजले-उजले, लाल-लाल, कपिश रक्ताभ मंजरियों को देखकर कवि की आँखे तृप्त हो रही हैं और कवि उस पंचोभग्राम को नमन करता है जहाँ के ये नयनभिराम दृश्‍य हैं। पंचोभ ग्राम का कविता में उपस्थिति होते भी कविता अपने भूगोल से जुड़ जाती है। साहित्य अपनी भौगोलिकता में ही अपनी सांस्कृतिक गौरव को अर्जित कर सकता है। नागार्जुन लगातार अपनी ठोस भौगोलिक परंपरा और जातीय विश्‍वासों से जुडे हैं साथ ही उनकी अतार्किक और असामाजिक मान्यताओं से संघर्ष करते हैं। मिथकों के प्रति नागार्जुन के मन में पूजाभाव नहीं है। वे उसकी अर्थवत्ता की नई तरह से जाँच करते हैं और जो उपयोगी नहीं है उसे ढोने से न सिर्फ परहेज करते हैं बल्कि उस पर व्यंग्य भी कसते हैं। कलकत्ता में ट्राम लाईन को देखकर कवि  को क्या याद आता है और उसे कवि किस रूप में व्यक्त करता है देखने योग्य है-


                चिकना सुंदर शानदार बालीगंज

                मध्य वक्ष पर ड्राम-लाइन का जनेऊ पहने।


'ब्राह्मण वाद के सीने पर नागार्जुन ने विज्ञान और जनता की रेल दौड़ा दी। जब भी मैं त्रिलोचन की बहुचर्चित कविता चंपा काले अच्छर नहीं चीन्हतीपढ़ता हूँ तो मुझे बाबा नागार्जुन की कविता गामक चिट्ठीकी याद जरूर आती है। यह कविता अपने कथ्य और शिल्‍प दोनों में बेजोड़ हैं। कविता मैथिली में है। इस कविता में ग्रामीण स्त्री अपने परदेसी पति के पास पत्र लिखवाती है। पहली ही पंक्ति है-चिट्ठी पबैत देरी तुरंतभजैब विदा जं हाथ होए खाली तइयो।हाथ खाली हो तो भी पत्र पाते ही आप चले आइयेगा। यह निढाल कर देने वाली गँवई शैली है जहाँ ना-नुकुर करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। गाँव का आदमी जब शहर आता है तो उसका परिवार सोचता है कि अब भगवान ने चाहा तो उनका दुख-दारिद्रय दूर हो जाएगा, लेकिन इस बात पर उनका मन पूरा विश्‍वास नहीं करता। गरीब आदमी सुख के क्षण में भी दुख की आशंकाओं से घिरा होता है क्योंकि दुख उसके जीवन का पर्याय है। हाथ खाली होने के बावजूद आने की बात वह स्त्री इसलिए करती है क्योंकि उसका आदमी बहुत दिनों से गाँव नहीं आया है और बच्चा उसको बहुत याद करता है। दूसरी बात कि गाँव में आम चलन है कि आदमी से पैसे कौड़ी की बात स्त्री को नहीं करनी चाहिए अगर उसके पास होगा तो वह खुद ही सब करेगा। एक चिंता और है। परदेस का मामला और आदमी की जात, कौन जाने क्यों नहीं आ रहा। इसलिए बेटे की आड़ में वह अपनी बात कहती है-

बउआ तकैत अछि बाट सदै। बापू-बापू करतँहि रहैत अछि औ सदिखन...

                पबितँहि लिफाफा वा पोसकाट/दउड़ल अबैत अछि आँगन दिस

                देहरि लग/नाच लगैत अछि ओ हर्षे/हम्मल बाबू-हम्मल तिट्ठी

                हमम्ल तिट्ठी हम्मल बाबू/ओ कोना विसर ना गेल एह।

ओ कोना विसर ना गेल एह...वह तो आपको कैसे विस्मृत हुआ होगा। यह ऐसा दृश्‍यांकन है कि सहसा विश्‍वास नहीं होता कि भाषा से ऐसा भावचित्र उकेरा जा सकता है।  बच्चे की तुतलाती हुई आवाज़, डाकिए के हाथ से अपनी चिट्ठी को लेकर घर की ओर दौड़ना, टेक की तरह हम्मल हम्मल बाबू रटना और तुरंत उस स्त्री द्वारा अगली ही पंक्ति में यह जड़ देना कि वो भला कैसे भूला होगा!  एक भावप्रवण दृश्‍य उपस्थित हो जाता है। उसके तुरंत बाद कविता  भाव जगत से व्यवहार जगत में उतर आती है-


                दूटा छागर छन्हि कबुल से ताबे रहौन्ह

                तइओ त चाही गोट दस टकही हमरा ततकाल

                मुदा अहां/नहि करी एहि सब थुक चिंता/

                देखल जयतइ/चिंता केने की हैत फल/चल आउ गाम

                जं हाथ होए खाली तइओ...।


इस कविता में जो स्त्री है वह थोड़ी भिन्न है। उन दोनों के बीच प्रेम तो है ही लेकिन जो सबसे अधिक है वह  है उनकी सांसारिक जरूरते। वे जरूरतें उसे बार-बार विवश करती हैं कि वह पति से पैसे की माँग रखे। चाहे आदमी से कितना भी प्रेम हो अगर वह स्त्री की जरूरतें पूरी नहीं करता तो वह संबंध चल नहीं सकता। कुछ कविताएँ स्त्रियों पर ऐसी हैं जिनमें सिर्फ शरीर है, उसकी जलन है। उस शरीर की कुछ और भी जरूरतें हैं ऐसा कही से भान भी हुआ तो लगता है कि कविता नहीं हुई। जरूरतें आदमी को काइयाँ बनाती हैं, वह संबंधों से बारगेनिंग करता है क्योंकि वह जिस संसार से टकराता है उसी से अपनी माँग की पूर्ति चाहता है। वह वृहदत्तर समाज व्यवस्था को नहीं जानता। और इसलिए लगातार अपनों से भीड़ता है। आगे इसी कविता में-

खेपब हम चारखा काटि मुदा

नहि जाएब नइहर एहि बेरि ओहि साल जकां

नहि कहा पठैबन्हि काका के

हम ऐहि बेरि ओहि साल जकां

आबहुँ नहि आएबंत अबस्स हम देब तार...।

चरखा कात कर निबाह करुंगी लेकिन पिछले साल की तरह इस बार नैहर नहीं जाऊँगी। काका को सदमें नहीं पेठाऊँगी। पिछले साल की तरह । तुम आ जाओ नहीं तो तार भेजूँगी।


और अंत में-

मोड़ल-मोड़ल ओ मैल सन

ऐहि पोस्टकार्ड पर लिखलन्हि अछि

                कौआक टांग सन अच्छर में/बउआक माय/अपनहि हाथै...।


बची खुची जो कसर थी वह समर्पण के जादू से पूरी कर दी, उस गँवई स्त्री ने। जरूरतें आदमी को चालाक बनाती हैं और आदमी व्‍यावहारिक होता चला जाता है। गाँव की एक ऐसी छवि जो मुग्ध करती है, वैसी कविताएँ नागार्जुन ने कम लिखी हैं। नागार्जुन गाँव के कवि हैं, जन के कवि हैं और वह उनको दु:ख से मुक्त देखना चाहते हैं। वह उस गँवई कुरूपता से घृणा करते हैं और वहाँ खुशहाली देखना चाहते हैं।


जिस किसी भी कवि के पास अंतर्दृष्टि होगी वह आधुनिक काल के सर्वाधिक समर्थ संस्था राजनीति से अपनी जनता के हक और अधिकार के लिए लड़ेगा। क्‍योंकि सकारात्‍मक राजनीति से ही गरीब जनता का दु:ख दूर हो सकता है। आज का कवि राजनीतिक हुए बिना प्रासंगिक नहीं हो सकता।

                                                                                                                

मनोज कुमार सिंहसहायक प्रोफेसर

हिंदी विभाग, देशबंधु कालकाजी,नई दिल्ली-110019

    सम्पर्क : manojdesh72@gmail.com, 9810584409    

                                  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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