साहित्यिक कृति और उसके सिने रूपांतरण की
जब हम बात करते हैं तो हम देखते हैं कि जहाँ साहित्य में लेखक अपने बिम्बों के
निर्माण से पाठक के मन मस्तिष्क में स्थान बनाते हैं तो दूसरी ओर सिनेमा में दृश्य
निर्माण,ध्वनि, गीत-संगीत आदि के द्वारा निर्देशक दर्शकों को कृति के मर्म तक पहुँचाने
का प्रयास करते हैं। यह दोनों कला माध्यम का अपना स्वरूप है जिसमें पर्याप्त
विविधता है। इसी साहित्य और सिनेमा के अंतर के विषय में नरेंद्र नागदेव लिखते हैं-
“साहित्य में सहूलियत यह है कि लेखक पृष्ठ-दर-पृष्ठ चरित्रों के मनोभावों में गहरे
उतरता चला जा सकता है ,जैसे निर्मल वर्मा के गद्य में होता है। जबकि सिनेमा को अपने
पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने के लिए उसके चेहरे पर नजर आते मनोभाव ही पकड़ने
होते हैं।”[1]
लेखन में शब्दों के द्वारा पात्रों के
मनोभावों में उतरना होता है। यह साहित्य की और लेखन की अपनी एक विशेषता है। उन्हीं
मनोभावों को पढ़ने के लिए सिनेमा में दर्शकों को स अभिनेता/अभिनेत्री के चेहरे के
भावों पर आश्रित रहना होता है। यह उसकी एक सीमा है। यह निर्देशक पर निर्भर करता है
कि माध्यम रूपांतरण की सीमा रचना के साथ न्याय करती है या अन्याय। निर्देशक ने
रचना के मर्म को कितना समझा है ? कितना ग्रहण किया है ? किस रूप में ग्रहण किया है
? और उसे किस रूप में दिखाना चाहते हैं ? यह सब निर्देशक के हाथों में होता है। यहाँ
ध्यान रखने की बात यह भी है कि निर्देशक की भी अपनी सीमाएँ होती हैं। निर्देशक को
प्रभावित करने वाले कुछ करक भी हैं जैसे- निर्माता का प्रभाव, बाज़ार की जरूरत और
माँग ,व्यवसाय होने के कारण निर्देशक पर एक दबाव रहता है। मनोरंजन का पक्ष अधिक
होने का दबाव भी उस पर कई बार हावी हो जाता है। इस दबाव के कारण कई बार मूल कथ्य
से अधिक मनोरंजन और दर्शकों की चाह को ध्यान में रख कर सिने रूपांतरण किया जाता
है।
मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ का
सिने रूपांतरण सन् 1974 ई. में बासु चटर्जी द्वारा किया गया। इसमें निर्देशक और
पटकथा लेखक की भूमिका में स्वयं बासु चटर्जी ही रहे थे। निर्देशक बासु चटर्जी
लेखिका मन्नू भंडारी के लेखन कला से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने ‘यही सच है’ कहानी
का फिल्मांकन करने के बाद मन्नू भंडारी के साथ कई अन्य फ़िल्म व धरावाहिक प्रोजेक्ट
पर भी काम किया। इस विषय में बासु चटर्जी लिखते हैं –“कुछ दिनों के बाद इसी के
आधार पर रजनीगन्धा फ़िल्म का निर्माण हुआ जिसे अच्छी सफलता मिली ...उसके बाद मैनें मन्नू
जी की एक और कहानी ‘एखाने आकाश नाई’ पर ‘जीना यहाँ’ नाम से फ़िल्म बनाई जिसे फ़िल्म फेयर का
क्रिटिक अवार्ड मिला।”[2] 1985-86 बासु चटर्जी
ने लेखिका के साथ दूरदर्शन के लिए दो धरावाहिक (रजनी, दर्पण) में काम किया जिसमें
लेखिका ने पटकथा लेखन का कार्य किया। इन सभी बातों से निर्देशक का लेखिका के
लेखन कार्य से प्रभावित होने का पता चलता है।
किसी भी साहित्यिक कृति का सिने रूपांतरण
करते समय माध्यम रूपांतरण के अनुसार कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाता
है। जैसे –
1.संक्षेपण
2.विस्तार
3.स्थायीकरण आदि।
माध्यम की सम्भावनाएँ,सीमाएँ, निर्देशक के द्वारा
ग्रहण किये गए पाठ ,बाज़ार की माँग के अनुसार निर्देशक कथा में इन तीनों बिन्दुओं
का उचित प्रयोग करते हुए फ़िल्म को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते हैं। इन बातों
को ध्यान रखते हुए उसमें मूलभूत बदलाव किये जाते हैं। इसके साथ ही अन्य सुविधा के
अनुसार ही स्थान आदि में भी बदलाव किया जाता है।
मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर
आधारित फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ के सिने रूपांतरण की जब हम बात करते हैं तब हमें उनके अंतर
को समझना होगा जो कि माध्यम रूपांतरण ,उसकी सीमाएँ व चुनौतियों के अनुरूप हमें
देखना होगा।
फ़िल्म और कहानी के आरम्भ को जब हम देखेंगे तब
हमें दोनों में अंतर साफ़ दिखाई देता है।
Ø कहानी का आरम्भ दीपा
के घर (कानपुर) से होता है जहाँ वह संजय का इंतज़ार करती है और खीझती रहती है। दीपा
संजय के देर से आने की आदत से परेशान थी।
Ø फ़िल्म में दीपा के
स्वप्न देखने और उसमें ट्रेन के छूटने और उसका अकेले स्टेशन पर रह जाने को दर्शाया
गया है। इसके द्वारा निर्देशक दीपा के उलझन को दिखाने का प्रयत्न करते हैं। वे
दर्शक को दीपा के मन की थाह देने का प्रयास करते हैं।
यहाँ यह अंतर इन दोनों के माध्यम की पहुँच
और सुविधा के अनुसार किया गया है। यहाँ इन दोनों माध्यम में बहुत अंतर है। इनकी
अपनी सीमाएँ हैं और अपना विस्तार भी है। इन सीमाओं के कारण निर्देशक ने कहानी के
आरम्भ में भी कुछ बदलाव किये हैं। कहानी में लेखिका अपने शब्दों से एक ऐसे
दृश्य का निर्माण करती हैं जिसमें कुछ ही वाक्यों को पढ़कर पाठक संजय के चरित्र और
उसके देर से आने की आदत, दीपा का उसके लिए इंतज़ार करना आदि जैसी बातों को जानने और
समझने लगते हैं। यह गुण साहित्य व लेखन की सम्भावनाओं के कारण है। कला के इस
मध्यम की संभवना से पाठक सहजता से कथा के मर्म को समझते हैं।
वहीं सिनेमा में उसकी सीमा के कारण निर्देशक को
संजय की देर से आने के स्वभाव, नायिका और संजय के सम्बन्धों और नायिका की मनः
स्थिति को दर्शाने के लिए पहले ही दृश्य में कई बदलाव किये गये हैं।
Ø संजय के चरित्र को
दर्शाने के लिए नायिका का फ़िल्म देखने के लिए थियेटर के बाहर संजय का इंतजार करना
, संजय का देर से आना, उसका फ़िल्म की टिकट को घर पर भूल जाने की बात कहना, कॉफ़ी
हाउस में जाकर कॉफ़ी पीने के दौरान संजय का अपने परिचित लोगों के पास जाकर दीपा को
भूलकर बातों में लग जाना आदि इस माध्यम रूपांतरण की सीमा थी जिसे इन दृश्यों के
माध्यम से विस्तार दिया गया है। इन दृश्यों के माध्यम से निर्देशक ने संजय
के चरित्र को भलि भांति परिभाषित किया है।
Ø जबकि कहानी की दीपा
का संजय के लिए घर पर इंतज़ार से शुरुआत होती है। यह अंतर कहने,सुनने पढ़ने और देखने
के अंतर के कारण होता है। पढ़ते हुए पाठक कथा के छोटे-बड़े संकेतों को पकड़ कर चलते
हैं। सिनेमा में कई संकेत महत्त्वपूर्ण होते हुए भी छूट जाते हैं।
कई बार माध्यम रूपांतरण के अन्य सुविधाओं को
ध्यान में रखते हुए रचना सम्बन्धी स्थानों में भी बदलाव किया जाता है।
Ø ‘रजनीगन्धा’ में
दिल्ली और मुंबई शहर का चित्रण है जबकि कहानी में कानपुर और कलकत्ता का ज़िक्र है। फ़िल्म
में नायिका और संजय दिल्ली में रहते हैं। दीपा नौकरी के साक्षात्कार के लिए मुंबई
जाती है। कहानी में दीपा कानपुर में रहती है और साक्षात्कार के लिए कलकत्ता जाती
है। इस बदलाव के कारण फ़िल्म में कई दृश्य भी अलग हो जाते हैं। जैसे-कहानी में
रेलवे स्टेशन से घर तक के सफ़र का जो चित्रण है वह कलकत्ता के सड़कों का है जो कि फ़िल्म
में दिखाना सम्भव नहीं था।
इस प्रकार के बदलाव का कारण फिल्मांकन से
सम्बन्धित सुविधाएं व आर्थिक दृष्टि से कम खर्च,आदि होता है। इसके अलावा फ़िल्म
रूपंतरण में बदलाव का एक कारण इसका सामूहिक कार्य का होना है। अर्थात फ़िल्म बनाने
में एक पूरी टीम होती है जो कि निर्देशक से लेकर कैमरामैन,स्पॉट दादा आदि होते हैं।
जबकि साहित्यिक कृति एकल कार्य का परिणाम होता है। साहित्यकार अपने विचारों की
उड़ान से कहानी में उसके परिदृश्य के अनुसार स्थान का नाम लिखते हैं। किन्तु
फिल्मांकन करने के समय, अर्थ और सुविधा के अनुसार ही स्थान का चुनाव होता है।
Ø इस फ़िल्म रूपांतरण
में श्रीमती मेहता जो कि दीपा की पड़ोसन हैं उनके बेटे को दिखाया गया है। जबकि
कहानी में एक बच्ची का ज़िक्र किया गया है।
यह किरदार उतना महत्त्वपूर्ण तो नहीं है जिससे
कहानी का मर्म प्रभावित हो। किन्तु सुविधा के अनुसार रूपंतरण के बदलाव की दृष्टि
से इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
Ø इस फ़िल्म में यह
बताया गया है कि संजय और दीपा किस प्रकार मिले। लेकिन कहानी में उसका वर्णन उस
प्रकार से नहीं किया गया।
Ø फ़िल्म में यह दिखाया
गया है कि दीपा अपने भैया-भाभी के साथ रहती है और फ़िल्म के आरंभ में ही उसके भैया
भाभी एक महीने के लिए शहर से बहार जाते हैं। जबकि कहानी में यह बताया गया है कि
दीपा के भैया-भाभी पटना में रहते हैं और दीपा कानपुर में अकेली रहती है।
Ø फ़िल्म में दिखाया
गया है कि इरा का कोई बच्चा नहीं है जबकि कहानी में बताया गया है कि उसका एक बेटा
है। इरा गौण पत्र है। अतः इस प्रकार के बदलाव से कहानी के मूल कथ्य पर कोई असर नहीं
हुआ इसलिए यह बदलाव सुविधानुसार किया गया।
फ़िल्म और साहित्य के केंद्र में पाठक और
दर्शक होते हैं। अतः कहानी लिखते समय यह पता होता है कि पाठक शिक्षित है। अतः उसके
अनुसार कहानी लिखी जाती है। उसमें पाठक के लिए स्पेस होता है कि वो कहानी के बिम्ब
और शब्दों के अधार पर अपने मन में कहानी से सम्बन्धित चित्र बना लेते हैं। फ़िल्म
में निर्देशक को यह ध्यान में रखना पड़ता है कि उसका दर्शक एक शिक्षित व्यक्ति भी
हो सकता है और एक अशिक्षित मजदूर भी हो सकता है। इसलिए फ़िल्म की भाषा, उसका
परिदृश्य, संस्कार आदि ऐसे स्तर का हो जो किसी दर्शक को अप्रासंगिक न लगे।
फ़िल्म में दीपा के पूर्व प्रेमी का नाम
निशीथ की जगह नवीन रखा गया है। फ़िल्म रूपांतरण में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि
रचना का मर्म प्रेषित हो जाए। रचना के साथ पूर्ण न्याय करना निर्देशक का
कर्तव्य होता है। किन्तु बाज़ार की माँग के अनुसार फ़िल्म में मनोरंजन पक्ष पर ध्यान
देना भी आवश्यक होता है। इसी मनोरंजन पक्ष की प्रचुरता की माँग के कारण कई बड़े
साहित्यकारों को अपनी रचनाओं को फ़िल्मी पर्दे पर उतारने का सपना छोड़ना पड़ा।
निर्देशक, निर्माता और साहित्यकार की उलझन के विषय में मुंशी प्रेमचन्द 28 नवंबर,
1934 को
जैनेंद्र कुमार को लिखे एक पत्र में लिखते हैं - ‘‘फिल्मी हाल क्या
लिखूं? मिल (बाद में मजदूर नाम से जारी चलचित्र) यहां पास न
हुआ। लाहौर में पास हो गया और दिखाया जा रहा है। मैं जिन इरादों से आया था, उनमें से एक भी पूरा
होता नजर नहीं आता। ये प्रोड्यूसर जिस ढंग की कहानियां बनाते आए हैं, उसकी लीक से जौ भर
भी नहीं हट सकते। ‘वल्गैरिटी’ को ये ‘एंटरटेनमेंट बैल्यू’ कहते हैं।... मैंने
सामाजिक कहानियां लिखी हैं, जिन्हें शिक्षित समाज भी देखना चाहे; लेकिन उनकी फिल्म
बनाते इन लोगों को संदेह होता है कि चले, या न चले!’’ [3]
इन सभी उलझनों के बाद जब किसी साहित्यिक
कृति का सिने रूपांतरण होता है तब ऐसे में निर्देशक से यह अपेक्षित होता है
कि वह मनोरंजन पक्ष और कृति के मूल कथ्य को संतुलन के साथ दर्शाए। इस फ़िल्म में
बासु चटर्जी अपने इस कर्तव्य को बखूबी निभाने में कामयाब रहे हैं। मनोरंजन के
अनुसार प्रेम को नवीन-दीपा और संजय-दीपा के प्रसंग में बहुत सुन्दरता से दिखाया है।
मनोरंजन के पक्ष से देखे तो हम देख पाते हैं कि निर्देशक ने दीपा और नवीन के बीच
नजदीकियों को दिखने के लिए दृश्य में कई बदलाव किया है जैसे –
Ø फ़िल्म दीपा को
स्टेशन पर लेने के लिए नवीन जाता है। कहानी में इरा स्टेशन जाती है। इसी प्रकार फ़िल्म
में इरा नवीन से परिचित है किन्तु कहानी में निशीथ एक होटल में इरा और दीपा से
मिलता है जिसमें दीपा इरा से उसका परिचय करवाती है।
Ø कहनी में यह भी
बताया गया है कि संजय निशीथ को लेकर सशंकित रहता है। फ़िल्म में ऐसा नहीं होता है।
Ø फ़िल्म में दिखाया
गया है कि जब दीपा साक्षात्कार देने के बाद दिल्ली लौटने के लिए स्टेशन जाती है तब
ट्रेन चलने पर नवीन कुछ दूर दौड़कर उसके हाथ को छूने का प्रयास करता है। जबकि कहानी
में यह लिखा गया है कि निशीथ दौड़कर दीपा के हाथ का स्पर्श करता है। यह स्पर्श पा
कर दीपा को सब कुछ पा लेने का अहसास होता है।
इस कहानी और फ़िल्म को कुछ लोगों ने प्रेम त्रिकोण भी कहा है। किन्तु यह प्रेम त्रिकोण न होकर दीपा के चंचल मन और इच्छा की कहानी है। इसमें दीपा यह फैसला ही नहीं कर पा रही है कि उसको प्रेम किससे है ? निशीथ से मिलने पर उसे लगता है कि वही उसका सच्चा प्रेमी है। संजय के साथ रहने पर उसके दिए हुए रजनीगंधा की खुशबू में खो कर उसे वही उसका सच्चा प्रेमी लगता है। इस उलझन को निर्देशक ने बहुत ही सराहनीय रूप में दर्शाया है। इस फिल्म की सफलता को हम इस बात से जान सकते हैं कि ‘यह एक पहली मुख्य फिल्म थी जो बम्बई तथा अन्य शहरों में 25 सप्ताह से ज्यादा चली।[4] इस रचना को दर्शकों के साथ बॉक्स ऑफिस पर भी सफलता से निर्देशक द्वारा पहुंचाया गया है। या यूँ कहें कि मन्नू भंडारी की रचना यही सच है के साथ बासु चटर्जी ने न्याय किया है। उन्होंने लेखिका के द्वारा नायिका के द्वंद को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है किन्तु अंत को सुखांत स्वरूप देने का प्रयास किया है जो कि नायिका के मनोभावों को पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर पाता है।
सन्दर्भ
https://www.jansatta.com/sunday-magazine
[4] यादव,राजेन्द्र, चटर्जी बासु,सारा आकाश पटकथा –राजकमलप्रकाशन,प्र.संस्करण
2007 ,पृष्ठ सं-9
https://books.google.co.in/books
पुष्पा कुमारी
शोधार्थी, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें