आलेख : हिन्दी विदेशी-यात्रा साहित्य में महिलाओं का योगदान / स्वाति चौधरी
‘यात्रा’ एक स्त्रीलिंग
शब्द है जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘या’ धातु के साथ ‘ष्ट्रन’
प्रत्यय
के योग से हुई है। (या+ ष्ट्रन) जिसका अर्थ है जाना। यात्रा को अरबी भाषा में ‘सफ़र’
कहा
जाता है और इसे विभिन्न उद्देश्यों, स्वरूप, कार्य व्यापार
आदि के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। भ्रमण, घुमक्कड़ी,
यायावरी,
चलवासी,
खानाबदोशी,
आना-जाना,
घूमना,
भटकना,
आवारागर्दी
करना, तीर्थाटन, मेला, फेरी आदि विभिन्न शब्दों का प्रयोग
इसके लिए किया जाता है। गमन, प्रस्थान आदि अर्थों में भी इस शब्द का
प्रयोग होता है। इस प्रकार देखा जाए तो सामान्यत: ‘यात्रा’ शब्द
का अर्थ है एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना।
हिन्दी यात्रा-साहित्य के विकासात्मक अध्ययन के
क्रम में यह तथ्य सामने आता है कि यात्रा-साहित्य लेखन में पुरुषों का वर्चस्व
होने के बावजूद इसके शुरुआती दौर में महिला साहित्यकारों का भी महत्त्वपूर्ण
योगदान रहा है। यात्रा-साहित्य की प्रथम प्रकाशित पुस्तक ही एक महिला साहित्यकार
की है। हरदेवी की ‘लंदन यात्रा’ को इस क्षेत्र की प्रथम पुस्तकाकार रचना माना जाता
है। हिन्दी साहित्य के इतिहास को अगर देखा जाए तो आदिकाल में यात्रा साहित्य नहीं
देखने को मिलता है लेकिन मध्यकाल में साहित्य मुद्रित की अपेक्षा मौखिक विधा के
रूप में अधिक प्रचलित था। कुछ साधन सम्पन्न लोग ही अपनी शौर्य गाथाएं लिखवाते थे।
कुछ साधु-संत भी अपने भक्तिमय उद्गार कागज पर उतारते और कुछ अपने शिष्यों से
लिखवाते थे। अतः इस दौर में यात्रा साहित्य हस्तलिखित रूप में बहुत कम मात्रा में
उपलब्ध होता है। फिर भी, इस युग के हिन्दी
यात्रा ग्रंथों में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्राप्त दो हस्तलिखित यात्रा
ग्रंथों को देखा जा सकता है, जिसमें पहला गुसाई विठ्ठल जी की हस्तलिपि में ‘वनयात्रा’ तो दूसरा जीवन जी की माँ का ‘वनयात्रा’ उपलब्ध होता है।
सुरेन्द्र माथुर लिखते हैं कि “दूसरा हस्तलिखित ग्रंथ ‘वनयात्रा’ नामक है। इसका रचनाकाल संवत
१६०९ है। इसका रचनाकाल का वाक्य इस प्रकार दिया हुआ है : ‘संवत सोलै सै ना साल रे। भादरवों वदि
द्वादशी सार रे।। इसकी लेखिका श्रीमती जीमनजी की माँ (वल्लभी सम्प्रदायी) हैं।”[1] इस युग में जीमनजी की माँ के ‘वनयात्रा’ (1609 वि.) के
अतिरिक्त अयोध्या नरेश बख्तावर सिंह की पत्नी का ‘बदरी यात्रा कथा’ (1888 वि.) ग्रन्थ भी उल्लेखनीय है। इस
प्रकार देखा जा सकता है कि प्रारम्भिक समय से ही पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी
यात्रा साहित्य में अपना योगदान दे रही थीं।
उपर्युक्त छुटपुट लेखन के अलावा अन्य गद्य विधाओं
की तरह यात्रा-साहित्य की परंपरा भी मुख्यतः भारतेन्दु युग से आरम्भ होती है। इस
काल में रेलमार्गों के विकास, मुद्रण व खड़ी बोली के प्रसार के कारण हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में अनेक
यात्रा लेख प्रकाशित हुए। ऐसे कुछ लेख इस प्रकार हैं- गृहलक्ष्मी पत्रिका में
प्रकाशित ‘युद्ध
की सैर’ जिसमें
युद्ध की समाप्ति पर युद्ध क्षेत्र की विनाशात्मक स्थिति का चित्रण किया गया है, श्रीमती सत्यवती मलिक की ‘कश्मीर की सैर’
और ‘अमरनाथ यात्रा’
आदि। पुस्तक रूप में
प्रकाशित प्रथम यात्रा ग्रंथ हरदेवी की ‘लंदन यात्रा’ है, यह बताया जा चुका है। “मुद्रण-कला विकास पर
हो ही रही थी, पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित होने के अतिरिक्त धीरे-धीरे यात्रा-साहित्य के ग्रंथों का मुद्रण भी
प्रारंभ हुआ। इस मुद्रित रूप में यात्रा-साहित्य का सर्वप्रथम
ग्रंथ जो देखने को मिल सका है वह ‘लंदन-यात्रा’ नाम से है। इसकी लेखिका
हरदेवीजी हैं। इनकी यह पुस्तक ओरियंटल प्रेस, लाहौर से सन १८८३ ई। में प्रकाशित हुई थी।”[2] इसमें लाहौर से बंबई पहुँचने और फिर बंबई से लंदन
तक की जहाज यात्रा के साथ-साथ लंदन में बिताये दिनों का विस्तृत वर्णन किया गया
है। इसके बाद के स्त्री यात्रा वृत्तान्तों में पुस्तक रूप में प्रकाशित श्रीमती
विमला कपूर के यात्रावृत्त ‘अनजाने देशों में’ में इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, इटली, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया की
यात्रा का चित्रण किया गया है। लक्ष्मीबाई चूड़ावत के यात्रावृत्त ‘हिन्दुकुश के पार’
में अफ्रोएशियाई
लेखक संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग लेने के लिए रूस की यात्रा का चित्रण किया
गया है। पद्मा सुधि के ‘अलकनंदा के साथ-साथ’ यात्रा-वृतांत में बदरीनाथ की यात्रा तथा अमृता
प्रीतम के यात्रावृत्त ‘इक्कीस पत्तियों का गुलाब’ में बुल्गारिया, सोवियत रूस, युगोस्लाविया, हंगरी, रोमानिया व जर्मनी का सफरनामा है। इंदु जैन के यात्रावृत्त ‘पत्तों की तरह चुप’
में जापान में
टोक्यो प्रवास के अनुभव के साथ-साथ हिरोशिमा और नागासाकी की यात्रा के क्रम में
वहाँ के अणुबम की विभीषिका से त्रस्त स्थानों के वर्तमान स्वरूप को प्रस्तुत किया
गया है। पद्मा सचदेव का यात्रा वृतांत ‘मैं कहती हूँ ऑखिन देखी’ 12 अध्यायों में विभाजित है। इसमें माता
वैष्णो देवी-जम्मू से श्रीनगर, असम, गुवाहाटी, ब्रह्मपुत्र, केरल, इंग्लैंड, सोवियत यूनियन, अमरीका, हाँग-काँग, बैंकॉक, लंदन, कजाकिस्तान, तुर्किस्तान व यूरोप के विभिन्न यात्रा
वर्णनों में प्रकृति के प्रति प्रेम तथा विभिन्न देशों की संस्कृति व समाज का
चित्रण मिलता है। इस प्रकार देखा जाए तो स्त्री यात्रा साहित्य की एक लंबी परंपरा
रही है, लेकिन इस आलेख में
विदेश-यात्रा से संबंधित कुछ प्रमुख स्त्री यात्रा साहित्य पर ही ध्यान केन्द्रित
किया जाएगा।
आज स्त्री देश में ही नहीं विदेशों में भी स्वछंद
रूप से भ्रमण कर रही है। वह अपनी यात्रा के अनुभवों को लिपिबद्ध भी कर रही है। अतः
हिन्दी यात्रा साहित्य में महिलाओं की विदेश यात्रा से संबंधित अनेक यात्रा वृतांत
देखने को मिल रहे हैं। इन्हीं विदेश यात्राओं को ध्यान में रखकर इस आलेख
में कुछ प्रमुख यात्रा वृत्तांतों को अध्ययन का आधार बनाया जायेगा। इनमें से
प्रमुख इस प्रकार हैं – नासिर शर्मा का ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’, मृदुला गर्ग का ‘कुछ अटके कुछ भटके’, ऊर्मिला जैन का ‘देश-देश में गाँव-गाँव में’ डॉ. सुमित्रा शर्मा
का ‘संस्कृति
प्रवाह-दर-प्रवाह’ शिवानी का ‘यात्रिक’, रमणिका गुप्ता का ‘लहरों की लय’, गरिमा श्रीवास्तव का ‘देह ही देश’, मधु कांकरिया का ‘बादलों में बारूद’, अनुराधा बेनीवाल का ‘आजादी मेंरा ब्रांड’
आदि।
नासिरा शर्मा का ‘जहाँ फव्वारे लहू
रोते हैं’ 2003 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 18 खंडों में विभक्त (18 वे खंड
में साक्षात्कारों का संकलन) व मुख्यत: ईरान की यात्राओं पर आधारित यात्रा वृतांत
है। ईरान के अलावा भी इसमें जापान, पेरिस, लंदन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईराक, फिलिस्तीन, कुर्दिस्तान आदि की
यात्राओं के अनुभव, जहाँ सुरक्षा और
शांति सपने की तरह हैं, को विस्तार से
वर्णित किया गया है। वहाँ के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक सभी तरह के परिवेश का बहुत ही
गहराई से चित्रण इसमें किया गया है। इन यात्राओं को लिखना लेखिका के लिए अंत्यत
कष्टदायक रहा है। ईरानी क्रांति के आतंक, अत्याचार व अमानवीय घटनाओं को अभिव्यक्त करना इतना आसान कार्य नहीं था, क्योंकि एक बार देखी गई भयावह घटनाओं को
लिखते समय उनसे फिर से गुजरना अत्यंत कष्टदायक है। कई बार तो लेखिका लिखते समय
उत्तेजना से भर उठती है। वह लिखती है कि “बदन में गर्म खून-गर्म खून दौड़ने लगता, आँखे तन-सी जातीं, नसें चिटखने-सी लगतीं और मैं कई-कई दिन तक मेज की
तरफ जाने का हौसला नहीं बना पाती थी।”[3] इसमें कपोल कल्पना को आधार न बनाकर यथार्थ रूप
में परिस्थितियों को प्रस्तुत किया गया है। लेखिका ने जिन-जिन देशों की यात्राएं की
हैं वहाँ के हालातों को जनता के बीच रहकर-देखा और जाना परखा है। इस पुस्तक में
उपनिवेशी ताकतों का विरोध परिलक्षित किया जा सकता है। इसमें विशेष रूप से
ईरान-ईराक क्रांतियों की यथार्थ स्थिति को बहुत ही निकट से देखने का अवसर मिलता
है।
ईरान व शाह व्यवस्था के विरोध में कलम उठाने के
कारण लेखिका को कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा। ईरान पर लिखने व इन
रिपोर्ताजों के कारण ही पी-एचडी. में दाखिला नहीं हो सका और आखिरकार ईरान पर अपने
इसी दृष्टिकोण के कारण 1983 ई. में जामिया मिल्लिया से इस्तीफा देकर, अध्यापन कार्य छोड़कर कलम चलाना शुरू कर
दिया क्योंकि हर जगह लड़ाई करने से कलम चलाना ही अच्छा है। कलम से भी लड़ाई लड़ी ही
जा सकती है। इन देशों की ओर रुख करने व शाह व्यवस्था के विरुद्ध लिखने के बारे में
लेखिका कहती है कि “अकसर मैं सोचती हूँ कि इस तरह के लेखन के चलते मैं पिछले तीस वर्ष से
कितने तनाव-दबाव और व्यथा में रही हूँ मेरे लेखन ने इन देशों का रुख कैसे किया मैं
नहीं जानती मगर कारण जरूर कुछ होगा शायद सिर्फ इतना सा कि मैं अपने समय के प्रति
सचेत हूँ।”[4]
इस प्रकार इन यात्राओं को करना और लिखना लेखिका
के लिए बहुत ही मुश्किल कार्य रहा है जिनका मुख्य उद्देश्य अपने समय के प्रति सचेत
रहते हुए असुरक्षा और अशान्ति के दौर से गुजर रहे इन देशों के दु:ख-दर्द को सभी के
सामने लाना है। इन देशों की 1976 से 2003 के बीच की गई यात्राओं का देखा, भोगा वृतांत इस पुस्तक में प्रस्तुत किया
गया है। ईरान, पेरिस व बगदाद, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईराक, फिलिस्तीन, कुर्दिस्तान में लेखिका ने एक
पत्रकार व बुद्धिजीवी वर्ग की हैसियत से जहाँ पर भी जो कुछ देखा उसी रूप में उसका
चित्रण किया है। इसीलिए लेखिका इन्हें यात्रावृत्त का नाम न देकर रिपोर्ताज कहती
है। इसके संबंध में रामचन्द्र तिवारी लिखते हैं कि “कई देशों के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और पत्रकारों के वे निकट
संपर्क में रही हैं जो कुछ उन्होंने बयान किया है वह उनका एक पत्रकार-बुद्धिजीवी
की हैसियत से अनुभव किया हुआ सच है। इन बयानों को उन्होंने रिपोर्ताज कहा है।
रिपोर्ताज वे ही असरदार होते हैं जिनमें आँखों देखी सच्चाई पेश की जाती है। नासिरा
के इन रिपोर्ताजों में तो उनका देखा हुआ ही नहीं भुगता हुआ सच भी है। ऐसा सच भी है
जिसे पढ़कर पीड़ा और क्षोभ की अनुभूति एक साथ होती है।”[5] लेखिका फासिस्ट व्यवस्था के विरुद्ध है जिसकी इस
यात्रावृत्त में समय-समय पर हर तरफ से आवाज उठाई गयी है। आभ्यंतर युद्ध, आम लोगों की आवाज की लड़ाई, ईरान में खुमैनी का शासन काल, उस समय की रूढ़िवादिता, सद्दाम हुसैन का ईरान में शासन व ईराक का
आधुनिकता की ओर बढ़ना जैसे सभी पक्षों का चित्रण इसमें किया गया है।
हिन्दी की सुपरिचित कथाकार मृदुला गर्ग का यात्रावृत्त ‘कुछ अटके कुछ भटके’ 2006 में पेंगुईन
प्रकाशन से प्रकाशित देश विदेश की यात्राओं का वृतांत है। इसमें मालदीव, सूरीनाम, जापान, सिक्किम, केरल, असम, तमिलनाडु व दिल्ली की यात्राओं की अभिव्यक्ति की
गई है। तेरह अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में पहले अध्याय ‘भटकते गुजरा जमाना’
में यात्रा के संबंध
में अपने विचार व्यक्त करते हुए लेखिका कहती है कि यात्राएं प्रयोजनमूलक और
प्रयोजनयुक्त दो प्रकार की होती हैं। इसी तरह देशी, विदेशी और सैलानियों(देवेन्द्र सत्यार्थी, फाह्यान, ह्वेनसांग, वास्कोडिगामा) की टिप्पणियों को उठाते हुए
हल्के-हल्के में कई गंभीर बातों पर चर्चा की गई है। लेखिका कहती है कि “असल चीज, सफर है, मंजिल नहीं। भटकना है, पहुँचना नहीं।”[6] इसी भटकाव की स्थितियों का चित्रण इसमें किया गया
है यद्यपि सभी यात्राएं मुख्यत: पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार की गई हैं
जिनमें व्याख्यान और सेमिनार उनकी मंजिलें रहे हैं। दो वृत्तांत ‘सपने से दीदार तक’
और ‘दीदार से सपने तक’
में मालदीव यात्रा व
‘सांप कब
सोता है’ में
सूरीनाम की यात्रा का वर्णन किया गया है। विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल होने के
लिए प्रतिनिधि मण्डल के साथ सूरीनाम जाना होता है। वहाँ से लौटते वक्त एम्स्टर्डम
के संग्रहालय में जाकर वहाँ वॉन के सन फ्लॉवर के चित्रों को देखना व सूरीनाम के
सबाना पार्क व वहाँ के घने जंगलों की सैर रोमांच पैदा करते हैं। ‘दिल से गए दिल्ली’, ‘घर बैठे सैर’, ‘तिलस्मी बुनराकु’ लेखों में ललित निबंधात्मक शैली में
दिवास्वप्नी यात्रा-कथा को प्रस्तुत किया गया है। ‘हिरोशिमा में क्रौंच और कनेर’ लेख में जापान की
यात्रा व वहाँ की अणुबम विभीषिका को प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार यह यात्रा वृतांत भाव, विचार, अभिव्यक्ति-शैली आदि सभी स्तरों पर अपने भिन्न
स्वरूप के कारण विशिष्ट महत्त्व रखता है। इसमें लेखिका कथाकार, टिप्पणीकार, व्यंग्यकार सभी रूपों में दिखाई देती है।
कलात्मकता, प्रकृति प्रेम, साहित्यात्मकता के साथ-साथ गंभीरता से
उठाए गए कुछ सवाल भी इसमें प्रस्तुत होते हैं।
रमणिका गुप्ता का यात्रा वृतांत ‘लहरों की लय’ 2007 में प्रकाशित
विदेश यात्रा से संबंधित वृतांत है जिसमें 1975 से 1994 तक के 30 वर्षों के दौरान
किए गए यात्रानुभवों को अभिव्यक्त किया गया है। इसमेंमैक्सिको, अमेरिका, कनाडा, बर्लिन, बेल्जियम, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, इटली, युगोस्लाविया, जर्मनी, ब्रिटेन, नार्वे, स्वीडन, फ्रैंकफर्ट, थाईलैंड, हाँग-कांग, फिलीपींस, क्यूबा व रूस की यात्राओं को अभिव्यक्त किया है।
इसमें उन्होंने मुख्य रूप से मजदूर जीवन की विपन्नताओं, आदिवासी जीवन व स्त्रियों के जीवन को बहुत निकटता
से देखा है। इनकी यात्राएं बाहर के साथ-साथ अंदरूनी भी हैं। इसमें लेखिका की दोहरी
भूमिका दिखाई देती है। एक तरफ एक सौन्दर्यप्रेमी की तरह उसकी दृष्टि को एल्पस
पर्वत का अद्भुत सौन्दर्य, नियाग्रा जल प्रपात, नार्वे के नाविकों के डोंगियों में जोखिम
भरी समुद्री यात्राएं, उत्तरी व दक्षिणी
ध्रुवों की साहसिक यात्राएं अभिभूत करती हैं तो दूसरी तरफ एक सामाजिक-राजनैतिक
कार्यकर्ता के रूप में उसे खदानों में काम करते व छोटे-छोटे घरों में ठूँस-ठूँस कर
भरे मजदूरों की दुर्दशा को देखकर दुख होता है। लेखिका जहाँ-जहाँ जाती है वहाँ के
संगीत, नृत्य, इतिहास, साहित्य, कला, जीवन आदि का पता लगाने की कोशिश के साथ-साथ मैक्सिको, नार्वे-स्वीडन के आदिवासियों की
जीवनशैलियों में भारत की सभ्यता के भी दर्शन करती रहती है।
उर्मिला जैन का ‘देश-देश, गाँव-गाँव’ 2007 में दिल्ली से
प्रकाशित पश्चिमी व अफ्रीकी देशों की यात्रा का वृतांत है जिसमें 32 यात्रा लेखों
में ब्रिटेन, फ्रांस, लैटिन अमेरिका व विश्व के अन्य देशों के
भूगोल, इतिहास, समाज व संस्कृति को प्रस्तुत किया गया है।
इंग्लैंड के यात्रा लेखों से शुरु हुई इस पुस्तक में पश्चिमी देशों की स्त्रियों
की दशा पर भी विचार किया गया है। इंग्लैंड आदि पश्चिमी देशों में पहले से ही
स्वछंदता, वैवाहिक जीवन में
तलाक, पुनर्विवाह, समान-वेतन आदि जैसे अनेक अधिकारों के
बावजूद स्त्रियों को जिस घुटन का एहसास होता है उसे इसमें अभिव्यक्त किया है।
इसमें आयरलैंड, नोबेल पुरस्कारों का
शहर स्टॉकहोम, सांता क्लॉस का गाँव, रियोडिजेनेरो, पैंटानोल में ओम आदि स्थानों के यात्रावृत्त काफी
रोचक हैं। इस पुस्तक में लेखिका विश्व के विभिन्न देशों की संस्कृतियों को
अभिव्यक्त करने में सफल हुई है।
कहानीकार व उपन्यासकार के रूप में ख्याति प्राप्त शिवानी का ‘यात्रिक’ 2007 में प्रकाशित
एक महत्त्वपूर्ण यात्रा वृत्तांत है। जिसमें ‘चरैवेती’ और ‘यात्रिक’ शीर्षक रचनाओं में क्रमश: मार्क्सवादी रूस
व पश्चिमी विचारधारा के केंद्र इंग्लैंड को पार्श्वभूमि में रखा गया है।
मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रूस की यात्रा लेखन में रूस के संग्राहालय, लेनिन, चेखव म्यूजियम, गोर्की की कलम, पांडुलिपि आदि सभी का चित्रण किया गया है।
सुमित्रा शर्मा के ‘संस्कृति
प्रवाह-दर-प्रवाह’ 2014 में समीक्षा प्रकाशन से प्रकाशित हुई जिसमें
मोरिशस, अमरनाथ, नेपाल, बाली, जकार्ता, सिंगापुर, हरिद्वार, ऋषिकेश व बैंकॉक में की गयी देश-विदेश की
यात्राओं का चित्रण किया गया है। इन यात्राओं में सूक्ष्म अनुभवों ने शब्दों के
माध्यम से मनोरम आकार पाया है। इनकी यात्राओं के संबंध में नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
लिखते हैं कि “सुमित्राजी के शब्द सिर्फ बयान नहीं है वे रागात्मक अनुभूतियों और
तलस्पर्शी साक्षात से भरपूर हैं इसीलिए उनमें ऐसी व्यंजना समाई है जो मन को दूर तक
विचरण करा लाती हैं। ये यात्रा संस्मरण ऐसे मृगछौनों की तरह हैं जो स्वछंद रूप से
पूरे प्रांतर में आकुल भाव और जिज्ञासा भरी आँखों से कुचालें भरते हैं और फिर
उन्हीं पथों से नहीं लौटते जिस पथ से उन्होंने यात्रा की शुरुआत की थी।”[7]
अनुराधा बेनीवाल की यूरोप घुमक्कड़ी के संस्मरणों के आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ की पुस्तक श्रृ्ंख्ला में ‘आजादी मेरा ब्रांड’ पहली किताब है, जिसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से जनवरी 2016 में हुआ। यह पुस्तक स्त्री की स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद करती है। मुख्यत: इस कृति का वास्तविक ब्रांड आजादी ही है। इसी आजादी की तलाश में यूरोप के 13 देशों में एक लड़की के द्वारा की गयी घुमक्कड़ी की कहानी इसमें है। इसमें अकेले, बिना किसी मकसद के, बेपरवाह, बेफिक्र होकर की गई यात्राओं का वृत्तान्त है। एक अकेली बेकाम, बेफिक्र, बे टेम घूमती-फिरती लड़की में अलग ही ताकत होती है, साहस होता है। ऐसा साहस जिसे बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया गया होता। इसी साहस के दम पर की गई बेमकसद यात्राओं की अनूठी दास्तान है ‘आजादी मेरा ब्रांड’। इसमें यूरोप के तेरह शहर लन्दन, पेरिस, लील, ब्रसल्स, कॉकसाईड, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, म्युनिक, इंस्ब्रुक, बर्न की एकाकी यात्राओं के वृत्तांत है। इन एकाकी यात्राओं में कहीं पर भी ऊब महसूस नहीं होती है। ज्ञान के बोझ से कहीं पर भी भारीपन नहीं लगता है। बल्कि इसमें तो पाठक भी साथ-साथ यात्रा करने लगता है। इस यात्रा में यह अजनबी, आवारा लड़की कब आपकी दोस्त बन जाती है पता ही नहीं चलता। वह आपको अन्दर और बाहर दोनों ही तरह की यात्राओं से रूबरू कराती चलती है। इसमें जितनी यात्राएँ बाहर की दुनिया की हैं, उतनी ही अन्दर की दुनिया की भी हैं, और वह इन्हीं दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है।
यह पुस्तक भारत की स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता
का एक घोषणा पत्र है जिसमें वह लड़कियों से धर्म, संस्कार, मर्यादा की बेड़ियों को तोड़कर, सबकुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है।
इसमें लेखिका का व्यक्तित्व खुलकर प्रस्तुत हुआ है। वह देह की मुक्ति से लेकर हर
तरह के सामाजिक बन्धनों को तोड़ती हुई अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, विचारों सबकुछ को उघाड़कर प्रस्तुत कर देती है, कहीं भी लज्जा व शर्म के मारे कुछ भी
छुपाती नहीं। वह अपनी कमजोरियों और ताकत को साहस और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत
करती है, अतः उसकी ईमानदारी
पाठक को हर जगह प्रभावित करती है। लेखिका कहती है मुझे चल सकने की आजादी चाहिए -
टेम-बेटेम, बिंदास, बेफिक्र होकर, हँसते-रोते, सिर उठाकर सड़क पर निकल पड़ने की आजादी। कुछ
अच्छे-बुरे, अनहोनी की चिंता किए
बगैर अकेले ही चल पड़ने की आजादी की तलाश में अनजाने शहरों की भूल-भूलैय्या में
बेवजह, बेफिक्र, अनजान, अकेले-फिरते अपरिचितों से रास्ता पूछते, अजनबी लोगों के घरों में ठिकाना बनाते हुए
एक महीने में की गई यह यात्रा देशकाल के कई नवीन आयामों को प्रस्तुत करती हुई चलती
है।
‘देह ही देश’ गरिमा श्रीवास्तव ‘देह ही देश’ 2017 में राजपाल एंड
संज से प्रकाशित गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास के दौरान लिखी गई यात्रा
डायरी है। यह यात्रा और डायरी दोनों का सम्मिलित रूप है जो 2009-2010 के दो
अकादमिक सत्रों में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से जाग्रेब
विश्वविद्यालय के सुदूर पूर्वी अध्ययन विभाग में प्रतिनियुक्ति के दौरान लिखी गई
थी। यह किताब सर्ब-क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष के दौरान स्त्रियों द्वारा भोगे गए
यथार्थ का दस्तावेज है जिसमें 90 के दशक में पूर्वी यूरोप के सयुंक्त युगोस्लाविया
में हुए युद्ध और विखंडन से विस्थापित हुए लोगों को खासकर स्त्री की शारीरिक एवं
मानसिक शोषण की स्थितियों का चित्रण किया गया है। इसमें सामूहिक बलात्कार की शिकार
बनकर मानसिक संतुलन खो बैठी स्त्रियों की सच्चाई, अपने नवजात की जान बचाने के लिए निर्वसन होने
वाली स्त्री की सच्चाई या एरिजोना मार्केट में देह-व्यापार में डूबती उतरती
स्त्रियों के सच या उनके अनकहे आख्यानों को सुनाने की कोशिश की गई है। इस यात्रा डायरी में
बड़ी ही सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ युद्ध, विस्थापन, पुनर्वास व सेक्स जैसे हर तरह के परिदृश्यों को
परत-दर-परत उजागर किया गया है। जब-जब इस डायरी को पढ़ने की कोशिश करते हैं मस्तिष्क
संवेदना शून्य हो जाता है। ये अन्दर से बाहर और देह से देश तक की ऐसी यात्राएँ है, जहाँ हत्या है, क्रूरता है, बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ है, सिहरन है, चीखते-चिल्लाते बच्चे हैं। यह रक्तरंजित युद्ध के
इतिहास का सच्चा बयान है। इस इतिहास को देखने पर पता चलता है कि इस सर्ब क्रोआती
बोस्नियाई संघर्ष की भूमिका 1939-1945 के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही रच
दी गई थी। जब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध चल रहा था और
ये क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी देश के दो खेमों में बंट गये थे। ऐसे में दोनों
में आपसी टकराव का खतरा हमेशा बना रहा। बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध और सोवियत रूस द्वारा आण्विक
परिक्षण, हिन्द-चीन संकट, क्यूबा मिसाईल संकट ये सब इसी शीतयुद्ध के
परिणाम थे और इसी का परिणाम था सर्बियाई-क्रोएशियाई युद्ध जिसके परिणामों का
चित्रण इस पुस्तक में किया गया है।
जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास, युद्ध का इतिहास। जिसमें है खून से सनी
औरतें और बच्चे, क्षत-विक्षत जिस्म, गर्भवती होती स्त्रियाँ, जानवरों की तरह खरीदी और बेची जा रही
औरतें, जंगलों की तरफ भागते
पुरुष व भेड़ियों की तरह लपकते सर्बियाई सैनिक। ऐसे-ऐसे चित्रण जिनको पढ़कर मस्तिष्क
सुन्न हो जाता है। लगता है जैसे सब कुछ अपनी ही आँखों के आगे घट रहा है और हम
प्रत्यक्षदर्शी होकर मात्र देख रहे हैं। लगता है बस अब और नहीं। बहुत हो गया। इससे
ज्यादा नहीं देखा सुना जा सकता लेकिन ये सोचने मात्र से यह क्रम रूकता थोड़ी ना है।
सेर्गेई, याद्राका, एडिना, स्त्रोकोविच, फिक्रेत, बोल्कोवेच, दुष्का, नीसा, अजर ब्लाजेविक, हसीबा, मेलिसा जैसी तमाम औरतें...जो पात्र अलग-अलग है
लेकिन दुःख, दर्द व पीड़ाएँ सभी
की एक है। जो एक-एक करके अपनी कहानियाँ सुनाती जाती है, हर औरत के साथ रूह कंपा देने वाली कहानियाँ जुड़ी
हुई है। जिसमें पाठक की अनुपस्थिति होकर भी हर जगह उपस्थिति लगती है। सर्बिया ने
युद्ध में बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ नागरिक और सैन्य
कैदियों के 480 कैम्प बनाए थे। इन्हीं कैम्पों में स्त्रियों पर अमानुषिक अत्याचार
किये गये थे। ये सभी सर्बियाई कैम्प रैप शिविरों में बदल गये थे। इनमें स्त्रियों
को शारीरिक और मानसिक यातनाएँ देकर, बलात्कार करके योनियों तक सीमित करके रख दिया गया था। इतिहास के उन
विद्रूप पन्नों को एक-एक करके इस किताब में खोलकर रखा गया है।
युद्ध के दौरान सैनिकों का जितना क्रूरतम और
वीभत्स चेहरा हो सकता है, उसे ‘देह ही देश’ में देखा जा सकता
है। तरसेम गुजराल इस यात्रा डायरी के सम्बन्ध में लिखती हैं कि “रक्तरंजित इस डायरी
में जख्मी चिड़ियों के टूटे पंख हैं, तपती रेत पर तड़पती सुनहरी जिल्द वाली मछलियाँ हैं, कांच के मर्तबान में कैद तितलियाँ हैं। युगास्लाविया के
विखंडन का इतना सच्चा बयान हिंदी में यह पहला है।”[8]
उपर्युक्त यात्रा वृतांतों में देखा जा सकता है कि आज स्त्रियाँ घर व देश की सीमाओं को लांघकर स्वतंत्र रूप से यात्राएं करने लगी है। इन्हीं यात्राओं में वे अपनी व्यापक दृष्टि को कभी दार्शनिक रूप में प्रस्तुत करती हैं तो कभी संवेदनात्मक पहलुओं को सामने लाकर मानवता की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। इस प्रकार आज का स्त्री यात्रा साहित्य अपनी रसमयता, पैनी दृष्टि और प्रांजलता के लिए प्रत्येक सहृदय द्वारा पठनीय, माननीय, सरस, सम्मोहक, सुखद और सर्वथा सराहनीय है।
संदर्भ
1. सुरेन्द्र माथुर, ‘हिन्दी यात्रा साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन’(1962), साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 86
2. सुरेन्द्र माथुर, ‘हिन्दी यात्रा साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन’(1962), साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 92
3. नासिरा शर्मा, ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’(2003), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. भूमिका
4. नासिरा शर्मा, ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’(2003), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. भूमिका
5. रामचन्द्र तिवारी,’ हिन्दी का गद्य साहित्य’(2014), विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 414
6. मृदुला गर्ग, ‘कुछ अटके कुछ भटके’(2006), पेंगुइन बुक्स, इंडिया, पृ. 13
7. डॉ. सुमित्रा शर्मा ‘संस्कृति
प्रवाह-दर-प्रवाह’(2014), समीक्षा पब्लिकेशन, दिल्ली, पृ. 11
8. गरिमा श्रीवास्तव, ‘देह ही देश’(2017), राजपाल एंड संज, दिल्ली, फ्लैप पेज
स्वाति चौधरी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
सम्पर्क : Swatichoudhary212@gmail.com, 9461492924
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
सुंदर
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