अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
समीक्षा : कब तक मैला साफ करोगे, तुम कब तक मारे जाओगे / डॉ. पूनम तुषामड़
'कब तक मारे जाओगे' सिद्धार्थ बुक्स
प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह का आवरण चित्र "कुंवर
रविंद्र" द्वारा डिजाइन किया गया हैं। कविता संग्रह में 62 कवियों की 129 कविताएं शामिल हैं।
जिससे संग्रह काफी अच्छा बन पड़ा हैं। संग्रह के फ्लैप पर सम्मानीय दलित
साहित्यकार 'जयप्रकाश कर्दम जी'
की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी हैं, जिसमें वे कहते हैं
कि "सत्ता एवं सम्पदा पर काबिज प्रभु वर्ग द्वारा धर्म के नाम पर किसी समुदाय
को जन्मना अस्पृश्य घोषित कर उसे मल-मूत्र ढोने और सफाई कार्य करने के लिए बाध्य
करना किसी भी सभ्य समाज के मस्तक पर एक बड़ा कलंक हैं"। आज इक्कीसवीं सदी में
भी भारतीय गाँवों में दलितों और खासकर भंगी अथवा वाल्मीकि कहे जाने वाले समुदाय की
यही स्थिति है। उसमें भी इस जाति की महिलाऐं तिहरे शोषण का शिकार हैं।
इसका बेहद मार्मिक रूप कवि डी.के.भास्कर की कविता "एक रोटी के एवज में"
से अंकित इन पंक्तियों में देखा जा सकता है।
दाई बनकर जनाती है
बच्चे
नाभि-नाल काटती है, नहलाती है
मुँह में उंगली डाल, साफ़ करती है गला
बाद में वही बड़ा
होकर, साफ़ करता है गाला
उसे गाली देकर ...
इससे भी आगे की
घृणा और मनोवृति की आसान शिकार होती हैं इन सेठ, साहूकारों के घरों में काम करने वाली
महिलाऐं जिनके दर्द को अन्य नामों से पुकार कर इनसे घृणा करने वाले को इनका बलात्कार करते हुए किसी प्रकार की छूत महसूस नहीं होती ..दलित
स्त्रियों की इस पीड़ा को इसी संग्रह में प्रकाशित कवि 'हसन रजा' की 'साहूकार 'नामक कविता से समझा
जा सकता है :-
उसके घर की सफाई तो
मैं /कर देती हूँ /पर उसकी उन नज़रों का मैल/साफ़ नहीं कर पाती/
जो पोंछा लगते वक्त
मेरे सीने पर/ और झाड़ू लगते वक्त /मेरे पिछवाड़े पर टिकी रहती हैं /ये सब झेलते हुए
भी / दुनिया वाले हम पर ही / कहर ढाते हैं /हमें कचरे वाली /और उन्हें साहूकार
बुलाते हैं.
इस कविता में
अभिव्यक्त सवाल अगर आज भी इस विवशता के साथ उठाया जा रहा है, तो ये विचारणीय है
कि सामाजिक स्थितियां इन दलित स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर हैं। कविता संग्रह
'कब तक मारे जाओगे'
की कविताओं को पढ़ते हुए हम कह सकते
हैं कि भिन्न-भिन्न कवियों की कविताएं होते हुए भी विषय में काफी समानता है। किसी
को यह एक विषय का दोहराव भी लग सकता है। किन्तु इन कविताओं का एक दूसरा महत्वपूर्ण
एवं सकारात्मक पक्ष भी है और वह है कि ये कविताएँ नहीं बल्कि सफाई पेशे से जुड़े
समुदाय की महागाथा है। जहाँ सभी कविताओं के भिन्न होने पर भी उसमे व्यक्त वेदना और
भाव वही है किन्तु इस संग्रह की अनेक कविताएं अपनी धारदार भाषा में तथाकथित स्वर्ण
और सभ्य समझे जाने वाले समाज को सीधे ललकारती और चुनौती भी देती हैं।कवि राज
वाल्मीकि की ग़ज़ल की कुछ पक्तियां देखें :
हमने जुल्म सही
सदियों तक तू, इनको न समझ सका.
समझ जाएगा तू भी
प्यारे ,हम दलितों में रह कर देख.
हम तो रोज़ गटर में
घुस कर, नरक सफाई करते हैं.
कैसा अनुभव है ये
करना एक बार तो करके देख.
ये संग्रह भारतीय
समाज की ढकी-छिपी जातिवादी सोच की परतों को उघाड़ फैंकता हैं। जहाँ समाज अपने ही
समाज के एक समुदाय या जाति के प्रति इस कदर क्रूर है कि उसे उसके मानवीय मूल्यों
से भी विमुख होकर जीने को मजबूर कर दिया है। इसी समाज व्यवस्था का दोहरा रूप और
व्यवहार किसी संकट और माहमारी के समय कैसे बदल जाता है उस पर बेहद सटीक प्रश्न
इस संग्रह की कई कविताओं में उठाए गए हैं जिनमें से डॉ. सुरेखा की कविता
"सफाई सैनिक" बेहद सटीक व्यंग्यात्मकता के साथ प्रश्न करती है।
करते थे जो अपमान
हर दिन
आज गले में माला
पहना रहे हैं
क्या समझ गए हैं
अहमियत इन की
जो सफाई सैनिक पूजे
जा रहे है ?
सम्मान जो आज मिल
रहा है
क्या कल बरक़रार रह
पाएगा ?
सवाल और भी बहुत
हैं जैसे भारत को विश्व गुरु बनाने वाली सत्ता कि नज़र में ये सफाई मजदूर समुदाय
आखिर क्यों इंसान नहीं है ?.आधुनिक तकनीक के नाम पर रोज नए-नए उपकरणों की खोज और अनुसन्धान
करने वाली कॉर्पोरेट कम्पनीज़ की नज़र में आज तक सीवरेज में जहरीली गैसों से मरने
वालों के लिए कोई आधुनिक उपकरण तैयार करने का विकल्प क्यों नहीं है। एक सीवरेज
वर्कर सफाई सैनिक की इसी पीड़ा को 'दीपक मेवाती' की कविता में देखा जा सकता है जहाँ वह मौजूदा सत्ता से सीधे सवाल
करता है। :-
विज्ञान तरक्की कर
बैठा है, पर उस पर कोई फर्क नहीं
चाँद पर दुनिया जा बैठी है, पर उस पर कोई तर्क नहीं
देह उसकी औज़ार बानी
है, गंदे नालों की खातिर .
मौत ने जीवन छीन
लिया, सबके सु जीवन की खातिर.
इस संग्रह की
कविताओं को पढ़ते हुए जो मुख्य मुद्दे नज़र आते हैं वे इन समाज के सफाई कर्मी की आत्मपीड़ा, उस पीड़ा से जन्मा
आक्रोश, इस आक्रोश के चलते इस अपमानित जीवन से मुक्ति की छटपटाहट, पूरे संग्रह में इन
कवियों ने अपनी दयनीय स्थितियों को रखते हुए उस से मुक्त होने के लिए शिक्षा और
संघर्ष का मार्ग सुझाया है।
यह संग्रह जैसे ही प्रकाशित होकर आया
इस पर लगातार अनेक कवियों की इतनी सारी महत्वपूर्ण और सुन्दर टिप्पणियां आई।
जिसमें उन्होंने इस संग्रह की
प्रशंसा करते हुए सकारात्मक
टिप्पणियां एवं प्रतिक्रियाएं सोशल मिडिया एवं अन्य स्थानों पर दी। किन्तु कुछ
साहित्यकारों का मत इनसे भिन्न भी रहा।इस संग्रह को लेकर उन्हें इसके किसी एक जाति
विशेष अथवा समुदाय विशेष पर होने से ऐतराज़ था। उनका मानना था कि 'दलितों में
साहित्यिक स्तर पर विभेद उत्पन्न नहीं होना चाहिए'। यह बात सही हैं कि दलित एक इकाई
हैं। एक वृहद् अम्ब्रेला हैं,
जिसके अंतर्गत सफाई पेशे से जुडी सभी
जातियां आती हैं, किन्तु 'वाल्मीकि' या 'भंगी' कही जाने वाली यह जाति अपने पर थोपी गई परंपरागत पेशेगत पहचान के
चलते अपनी सहगामी जातियों के द्वारा भी भेदभाव एवं निम्न समझी जाती है। संभवतः यही
कारण हैं कि वह अपनी एक अलग पहचान निर्मित करने की और अग्रसर हैं। जहाँ वह
संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करते हुए अपने महापुरुषों से प्रेरणा पाकर स्वयं को
शिक्षित, जागरूक और चेतनशील बनाने की ओर बढ़ता दिखाई देता है। इस संग्रह की
ऐसी अनेक कविताएं हैं जो 'झाड़ू' को 'कलम' तब्दील करने की बात करती हैं और सदियों से अपमानित जीवन को त्याग
कर शिक्षित और सम्मानित जीवन और पेशे अपनाने की बात करती हैं.. जिनमें कोई एक
सफाईकर्मी सदियों की गुलामी समाज में अपने संवैधानिक सामाजिक हकों के लिए आह्वान
करता दिखता है। कवि श्याम किशोर बैचेन की ये कविता देखें..
झाड़ू छोड़ो कलम उठाओ
परिवर्तन आ जाएगा
शिक्षा को हथियार
बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा
दारू छोड़ो ज्ञान
बढ़ाओ
परिवर्तन आ जाएगा
हर कीमत पर पढ़ो, पढ़ाओ
परिवर्तन आ जाएगा
वाल्मीकि या भंगी
कही जाने वाली ये जाति भी डॉ.
बाबा साहेब आंबेडकर को अपना आदर्श
मानकर अपने अन्य जननायकों बुद्ध और फुले के विचारों को आत्मसात कर अपनी चेतना और
अभिव्यक्ति का आधार बनाने लगी हैं। कविता संग्रह 'कब तक मारे जाओगे' में सम्मिलित
कविताएं इन दलित रचनाकारों की इसी प्रकार की अभिव्यक्ति का सामूहिक प्रयास हैं।
प्रत्येक कवि की
कविता में आपको अपने पुश्तैनी पेशों को त्याग कर, अपनी अगली पीढ़ी के लिए शिक्षा और
सम्मानित जीवन जीने की छटपटाहट स्वतः दिखाई देगी। इस संग्रह के शुरुआती पृष्ठों
में पृष्ठ संख्या चार पर अंकित एक खूबसूरत चित्र जिसमें बांस की लम्बी झाड़ू को कलम
के रूप में चित्रित करके उसके शीर्ष पर ताज दिखाया गया है, बेहद अर्थपूर्ण एवं
आशान्वित करने वाला है। यह चित्र कानपूर (यू.पी.) के प्रख्यात लेखक देव कुमार जी
की है। इसके पश्चात् अगले पृष्ठ पर सम्पादकिय है जिसमें संपादक नरेंद्र वाल्मीकि
समाज में सफाई कर्मियों की दशा पर चिंतित होते हुए कहते हैं कहते हैं कि
"सफाई कर्मियों के मात्र पैर धो देने से इस वर्ग का भला नहीं हो सकता है साहब
! इस समाज के सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान देना होगा "..
कोरोना जैसी
महामारी के दौर में सफाई कर्मचारियों द्वारा दी गई अपनी अभूतपूर्व सेवाओं के लिए
सरकार एवं लोगों द्वारा इन सफाई सैनिकों का सम्मान किये जाने पर व्यंग्य करते हुए
सम्पादक कहते हैं कि "सफाई पेशे से जुड़े लोगों को अपने घरों की चौखट तक पर न
चढ़ने देने वाले लोग आज कोरोना महामारी के दौर में सफाई कर्मचारियों को जगह-जगह
फूलमाला पहनाकर सम्मानित कर रहे हैं। यहाँ संपादक ने समाज एवं सत्ता के दोगले
व्यवहार पर सटीक प्रहार किया है। संग्रह के पृष्ठ आठ पर एक चित्र और अंकित है
जिसमें एक सफाई कर्मचारी पिता अपने बच्चे को स्कूल की और ले जा रहा है और उसके
पैरों में पड़ी पुश्तैनी पेशे की बेड़ी को शिक्षा की कलम के प्रहार से टूटते दिखाया
गया है। ये है नवीन पीढ़ी की सोच जिसे जितनी खूबसूरती से युवा कवि 'शिवा वाल्मीकि' ने चित्रांकित किया
है। वह अद्द्भुत है। इस संग्रह में उपयोग किये जाने वाले दोनों चित्रों के चयन का
श्रेय युवा संपादक नरेन्द्र वाल्मीकि को ही जाता है।
इस संग्रह की
कविताएं केवल सदियों से संतप्त अभिशप्त जीवन का आर्तनाद या विलाप भर नहीं हैं, बल्कि वे आधुनिक
सोच लिए हुए एक स्वच्छ समतामूलक समाज की कल्पना को साकार करने की ओर उन्मुख कदम
हैं। इन कविताओं में जीवन का चुनौतीपूर्ण यथार्त भी है और बेहतर भविष्य का स्वप्न
भी। घृणित पेशों का धिक्कार भी है और सम्मानित पेशों को अपनाने की ललकार भी। इस
संग्रह में जाने-माने प्रख्यात कवियों के साथ-साथ आप का परिचय कई ऐसे युवा कवियों
से भी होगा जिन्होंने शायद पहली बार कविताएं कहीं प्रकाशित कराई हैं जो बेहद
खूबसूरत कविताएं हैं। जिनमे 'रेखा सहदेव' की 'सम्मान' कविता, देविंदर लक्की की 'बस्स ! बहुत हुआ'
कविता, हसन रज़ा की 'साहूकार' अनिल बिडलान की मैं
झाड़ू कहीं पर भूल जाऊं.. जैसी अनेक उत्कृष्ट कविताएं जो आपको अपमानित घृणित पेशों
की बेड़ियों को तोड़ कर मुक्ति पथ की ओर लेकर जाती महसूस होंगी तथा अपनी निश्छल सपाट
बयानी से इस क्रूर व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करती हैं...इस संग्रह में ऐसी अनेक कविताएं
हैं, सभी का जिक्र यहाँ पर संभव नहीं है किन्तु यह कहा जा सकता है कि ये
कविताएं निश्चित ही दलित साहित्य की वैचारिक ज़मी को एक उन्नत फलक प्रदान करती हैं।
देश के भिन्न-भिन्न
राज्यों से सम्बंधित भंगी अथवा वाल्मीकि समुदाय के कवियों का साझा संकलन होने के
कारण भाषा शैली और शिल्प पर बात यहाँ बेमानी है। पुस्तक में अनेक स्थानों पर
शाब्दिक त्रुटियां रह गई हैं,
किन्तु भंगी अथवा वाल्मीकि समाज की
पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाले इस महत्वपूर्ण संग्रह की मुखर कविताओं के सामने वे
नज़रअंदाज़ की जानी चाहिए
दलितों में भी दलित
समाज की आधुनिक विचारशैली से गुंथी कविताओं का मिला-जुला संकलन है, "कविता संग्रह कब तक
मारे जाओगे" जो समाज और व्यवस्था को तो कटघरे में ला कर सवाल खड़ा करता ही है।
उसके अतिरिक्त समाज में सदियों से फैली अज्ञानता के अंधकार को चीर कर उसे डॉ.
आंबेडकर के विचारों के आलोक में आगे बढ़ने की दिशा भी देता है। संपादक तथा संग्रह
में शामिल सभी क्रांतिकारी कवियों को शुभकामनाएं।
पुस्तक : कब तक मारे जाओगे (काव्य संकलन)
संपादक : नरेंद्र वाल्मीकि,प्रकाशक : सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली, पृष्ठ : 240,मूल्य : ₹150 ,वर्ष : 2020
समीक्षक: डॉ. पूनम तूषामड़
दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो' (हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति : आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।
Satik vivechan vishleshan mam
जवाब देंहटाएंअपनी माटी एक साहित्यिक वेब पत्रिका है मेरे इस लेख को अपने पोर्टल पर स्थान देने के लिए संपादक जी व अन्य सादस्यों का विशेष आभार।
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