अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
कविताएँ : आशीष कुमार वर्मा
हमारी हर समस्या गैर जरूरी बताई गई थी
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हमारी हर समस्या गैर जरूरी की तरह बताई गई थी इतिहास के पन्नों में
गैर जरूरी बताया गया था उनके द्वारा हमसे रूबरू होना
समाज के सबसे निचली मंजिल पर बसे हम लोगों को
कभी नहीं देखा गया नींव की तरह
उपेक्षित छोड़ दिया गया था हमेशा की तरह
हमारे हुक्मरानों के फैसलों में आखिरी पंक्ति में खड़े हम लोग
उनकी प्राथमिकता में नहीं थे
उनके फैसलों की मार सबसे ज्यादा हमीं ने खाई थी
हमें नहीं लगा था उतना डर महामारी से
जितना डर हमारे पुरुखों को लगा था भूख से, अभाव से, गरीबी से
उस महान परंपरा के भावी भविष्य की तरह आज भी जीवंत
हम लोगों ने सबसे बड़ी महामारी की तरह परोसा हुआ वरदान अंगीकार किया था
अपने महान परंपरा के महान वाहक की तरह आज भी हम चले जा रहें थे
आंखों में रिरिआती हुई पीड़ाएं हिचकोले लेे रहीं थीं
सब्र की सारी सीमाओं का अब आत्मा में हनन हो रहा था
मुनियां के पेट का दर्द अब नसों में उमड़ने लगी थी
और सामने पसरा था अनंत आकाश
आकाश की ऊंचाई जितना ही हमें तय करनी थी दूरी
आकाश जितना ही हमारे आंतों में पीड़ा थी
आकाश जितना ही यह दुर्धर्ष समय लिपटा हुआ था हमारी देह से
उसी तरह अनिश्चित समस्याओं का ज्वार पसरा पड़ा था इस अनंत आकाश में...
सत्ता का सबसे क्रूरतम मज़ाक
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सत्ता का सबसे क्रूरतम मज़ाक बदस्तूर जारी है
माकूल है यह समय घृणा जायी सभ्यता के उत्तराधिकारियों के लिए
उनके दिमाग की तलहटियों में अब रेंगने लगे हैं कीड़े
उनकी नकाबपोश शिष्टता और भद्रता का सारा खेल अब स्थगित कर दिया गया है
अपने पूरे नंगेपन में अब वो मौजूद है
नकाबपोश लोगों ने ही जाने कितनी बार दिखाई थी पूरी शिद्दत से ईमानदारी
अब उनके मस्तिष्क का मवाद अपनी पूरी ताकत से रिसने लगा था
और मवाद से सने कोड़े को सबसे कमजोर लोगों पर बरसाया गया
सुरक्षा के नाम पर तोड़ दिए गए कईयों की हड्डियां
और उगाए गए उनकी देह पर सभ्यता के लाल काले फूल
भूख और असुरक्षा से घिरे लोगों को लिजलिजे आश्वासनों से जिंदा रखने की कोशिश की जा रही थी
भूख और असुरक्षा के बीच ही उनकी जिजीविषा को रौंदा गया
उनकी मामूली मांस मज्जा से लिपटी हुई हड्डियों के कर दिए गए कई कई टुकड़े
और बिखेर दिया गया हवा में , जमीं पर
उनके खून के धब्बे सभ्यता के मुख पर कालिख की तरह चमक रहे थे
इस तरह उसने अपनी मेहनतकश जनता से
अपनी जिम्मेदारी निभाई थी
यह सब उकेरा जाएगा इतिहास के पन्नों में काली स्याही से
शीर्ष पर काबिज़ लोगों से पूंछे जाएंगे सवाल
दागे जाएंगे गोली भाषा में कामगारों की जुबां
मांगे जाएंगे तुमसे लोकतंत्र का हिसाब...
मां
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जब खुशी गले तक समा जाती है
आंखों से फिर छलक आती हो तुम!
अंतस में उमड़ती है तुम्हारी पीड़ाएं
और अपनी बेबसी का मंजर
नाचने लगता है मेरे आगे
बाहें तरसती है...
याद आतें हैं पुराने दिन
याद आती हैं वो सारी रातें
जो समस्याओं से लबालब थी
पर
तुम्हारे होने से वो सब सह लिए जाते थे
हंसते रोते जी लिए जाते थे
सारे कमियों एवम् अभावों के बाद भी
तुम्हारा होना ही सब कुछ होना था
सब कुछ हो जाना भी
तुम्हारा होना नहीं हो सकेगा
नहीं ये संभव नहीं ...
महामारी के इस दौर में
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महामारी के इस दौर में
दुश्वारियां चौखट पर मुंह बाए है
सारी समस्याओं को इस वक़्त मुल्तवी कर दिया गया है
समस्या केवल एक रह गई है
कोरोना ?
प्रकृति के साथ साझे संबंधों की प्रक्रियाओं में कई तरह की गड़बड़ियां की जा चुकी है
तुम्हारे और हमारे साझे गठजोड़ ने विकास की जद्दोजहद से किसी भी तरह का संकोच वर्जित किया था
यहां हर बात वर्जित कर दी गई थी
जो मनुष्यता का तकाजा हो
यहां विकास कि खेती को रासायनिक खाद से सींचा गया
और बढ़ाई गई पैदावार कई गुने तेजी से
ताकि लाभ का गणित अपने गुणात्मक रूप में फलीभूत हो सके ।
जिंदगी के गर्म रास्तों पर
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जिंदगी के गर्म रास्तों पर
जो लम्हें छीन लिए गए
उस हकीकत को कविता में
जगह दी जा सकती है,
कविता -----
कविता केवल कोरी कल्पना नहीं होती
वह सुखद , सरस हो ,
ये जरूरी नहीं
वह जीवन का कड़वा सच भी
तो हो सकती है
जीवन की राह में जो छूट गया है
जो चला गया है
उसे कविता में पुनः लाया जा सकता है
उकेरा जा सकता है पन्नों पर
भयानक दृश्य , भूख , बेरोजगारी
या बेबस आत्महत्याएं,
अनन्य अभावों और
असंख्य अतृप्त इच्छाओं को
उकेरा जा सकता है पन्नों पर
व्यष्टि या समष्टि के अधूरेपन को
कविता की देह में
जगह दी जा सकती है
उसे जिया जा सकता है
भयानक संघर्षों भरे हृदयों कि
आत्मा में तांक झांक कर
मुठभेड़ की जा सकती है ,
समस्त जीवनानुभव समेटकर
कटुताओं को जी कर
जो है और जो नहीं है
उसे समेटकर
जीवन के दर्शन में शामिल
किया जा सकता है
कविता में सब कुछ संभव है ।
मेरी देह में
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मेरी देह में जैसे बरसों की थकान
संघनीभूत हुई जा रही है
और हड्डियों से निकलने लगी है
पीड़ाओं की चीत्कार ,
आत्मा के शरीर से होने लगे हैं संघर्ष
जैसे कविता की जीवन से मुठभेड़ हो ।
आत्मा के आंगन में
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आत्मा के आंगन में
पनप रहा है एक घर
बढ़ रही है उसकी दीवारें
बन रहें हैं कमरे
जीवन के ...
आत्मा के आंगन में
एक वृक्ष पनप रहा है
उसकी शाखा प्रशाखाएं फैली है
दुनिया के भूगोल तक
फैले हैं उसके सपने
जीवन के ...
तुम्हारा हाथ
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तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर
अक्सर लगा है कि
दुनिया पहले से ज्यादा सुंदर हो गई है,
मैं प्रकृति के ज्यादा करीब हो गया हूं,
जैसे - पुष्पों की कोमल पंखुड़ियों से
मेरी आत्मा का भूगोल बन रहा हो ,
जैसे - तुम्हारी मौजूदगी से
मेरी आत्मा का इतिहास लिखा जा रहा हो ,
और मनुष्यता से मेरा गहरा नाता हो ।
आशीष कुमार वर्मा
शोधार्थी, एम . फिल (हिंदी साहित्य),हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी , गाचिबॉली हैदराबाद, मो. 8707892692
बहुत सुंदर रचनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनाएँ है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें