कविताएँ : नरेश अग्रवाल

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

कविताएँ : नरेश अग्रवाल



हथियार की तरह

पत्थरों की रगड़ से
आग उत्पन्न हुई
लेकिन पत्थर नहीं जले

आश्चर्य हुआ उन्हें
अपनी आग से लकड़ियां
जलते देखकर

वे भी लुढ़क-पुढ़ककर
आग के समीप आए
उसे स्पर्श किया
फिर भी वे नहीं जले
केवल गर्म होकर पसर गए

फिर एक बार इन्हें
फेंक कर मारा गया था
बहुत सारे लोगों को
जिनकी देह से खून निकला
और चोट भी लगी खतरनाक
जबकि इनका कुछ भी नहीं बिगड़ा

समझ गए वे अब
काम इनसे लिया जाता है
केवल एक हथियार की तरह


देश के नक्शे में
 
सच कहा तुमने
मेरे शरीर को अनगिनत टुकड़ों में
बांँटा जा सकता है
आंँखों से लेकर नाखून तक
 
अत्यधिक उपयोगी चीजों से बना है
समूचा नक्शा मेरी देह का
और जब पसीना गिरता है
इसके चारों ओर से, श्रम करने के बाद
अपनी रक्षा और घर चलाने हेतु
 
सोचता हूंँ उस समय
अपने परिवार के साथ-साथ
देश को भी तो योगदान दे रहा हूंँ
अपनी पूरी निष्ठा से

और आशा करता हूंँ देश के नक्शे में
मेरे जैसे आम आदमी का नक्शा भी
जरूर शामिल होगा


पेड़ पीछे हटते गए

इंसान आगे बढ़ते गए
पेड़ पीछे हटते गए

इंसानों को अधिक जमीन चाहिए थी
वे लोभ से भरे थे
उनके शस्त्रों में हाथियों का बल था
मशीनों में मगरमच्छ जैसे दांत थे
आरे थे बड़े-बड़े लहरों से अधिक धार वाले
जो चांद को भी दो पल में काट सकते थे
नहीं था तो रहम
न मन में और न ही संबंधों में

वे भूखे थे मछलियों के शिकार पर निकले
जहाज की तरह
उनके लिए कल नहीं था
सब कुछ बांट लेना चाहते थे
आज की आज, अभी की इस पीढ़ी में

पेड़ रुक गए एक दिन पीछे हटते-हटते
अब सामने समुद्र था या रेगिस्तान
यहां भी जीने की कोशिश करते वे
इससे पहले ही
विस्फोटकों से उड़ा दिए गए

अब पेड़ नहीं थे और जमीन अधिक
न छाया थी, न पक्षी, न घोंसला
हवाएं अधिक थी लेकिन
उनमें जीवन कम था

बदलाव की दिशा
 
ओस में भी
जल के असंख्य कण होंगे
इन्हें कोई नहीं देख पाता
 
चिथड़े में भी कितनी चोटें होंगी
अंदाज लगाना मुश्किल
 
पांँव घिस गए
कितनी दूर चलकर
कितनी अधिक रगड़ से
कोई नहीं जानता
 
कुएंँ ने कितनी बार प्यास बुझाई
किस-किस की, कोई नहीं जानता
 
आक्रोश अचानक पैदा नहीं होता
जड़ें अचानक नहीं फैलतीं
सब कुछ होता है धीरे-धीरे
 
मद्धिम रोशनी जो अब मशाल बन चुकी
ढॅूंढ़ती है बदलाव की दिशा
छटपटाती है बलिष्ठ हाथों के लिए

धक्का-मुक्की

 

भीड़ की तेज धक्का-मुक्की में

अनेक गिरे

कुछ तुरंत खड़े हो गये

कुछ को मित्रों ने उठाया

 

कुछ बेहद खास थे

उन्हें सुरक्षाकर्मियों ने उठाया

 

उनमें भी एक-दो तो बेहद खास थे

जिन्हें सारी भीड़ ने मिलकर उठाया

 

मारा गया वह वृद्ध बेचारा

थोड़ी-सी चोट खाकर

झलक मात्र देख पाया था

अपने भ्रष्ट नेता की!

 

 

 

एंबुलेंस

 

बच्चे की तबीयत बहुत खराब है

उसे एक एंबुलेंस चाहिए

इसे बुलाने का नंबर 

और फोन भी

 

कहांँ  दौड़े आस-पास

सभी कोरे इसी तरह

 

बच्चा रो रहा है

लगातार रो रहा है

ज्वर से तप रहा शरीर

न ममता से इलाज

न ही घरेलू दवा से

 

पहले भी आई थीं

कितनी बार ही ऐसी विपत्तियांँ

हर बार इसी तरह

बहुत अधिक घबराया था वह

कोई उपाय न कर सका

किसी को बचा न सका

 

इन साधनहीनों के पास

हमेशा मौत ही आयी पहले

एंबुलेंस बाद में!

 

 

तमगा

 

उसने जहांँ-जहांँ

और जिस तरह के काम किए थे

सभी का विवरण

अपने शरीर पर गुदवाया

 

यह शौक बिलकुल अलग था

जैसा लोग चित्र गुदवाते हैं पीठ पर

या बांँहों पर

और खुश होते हैं

 

सब कुछ बारीक शब्दों में लिखा गया था

जैसे यह शरीर नहीं

कागज का कोई पन्ना हो

 

फिर एक साथ सारे विवरणों को पढ़ा

और अपनी दशा पर आँसू बहाने लगा

 

फिर हंँसा भी एकाएक

सोचकर कि इतने सारे काम करके भी

अब भी वह फर्श पर ही है

अगर कुछ नहीं करता तो.........

 

 

उन्हीं की देह में

 

इसे परायी धरती नहीं समझता

जहांँ वे काम कर रहे

वे भी उसी तरह

जैसे मेरी ही मिट्टी को टटोल रहे

उसमें फसल की संभावनाएंँ भर रहे

बीज पर बीज छिड़क रहे

 

उनका रंग भी पक गया धूप से

पसीने भी हमारे जैसे

 

चेहरे ढके हुए थोड़े

जितने दिख रहे उनमें भी समानता

 

मैं भूल गया दो पल के लिए कि कहांँ  हूंँ

खड़ा था मिट्टी की एक मेंड़ पर

उनके बिल्कुल पास था

जैसे उन्हीं की देह में

 

 

दूरी अब बहुत कम

 

समुद्र की गर्जना को

कोई तानाशाह चुप नहीं करा पाएगा

न ही लहरों की चट्टानों से

टकराने के स्वर को

 

न ही हवा की गति को

जो आंँधी में बदलकर

कर सकती है उसके मुकुट को चूर-चूर

 

ये सारे थके हाथ

भले कितना ही थक जाएंँ शाम तक

सुबह वापस होते हैं ताजा

 

इनका रास्ता भले लंबा

लेकिन उतना भी लंबा नहीं

जबकि वे बढ़ रहे हैं आगे लगातार

दूरी अब तानाशाह से बहुत कम

 

अकेलापन

 

मेरी खिड़की थोड़ी दूर है

बालकनी सड़क से नजदीक

मैं लोगों को गुजरते देखता हूंँ

वे मुझे नहीं

 

मैं सभी की जल्दबाजी देखता हूंँ

उनकी घबराहट

और आपस की मित्रता भी

 

पांँव-ही-पाॅंवचेहरे-ही-चेहरे

गाड़ियांँ और स्कूटर

सभी आगे बढ़ते 

अपनी एक-एक झलक दिखाते हुए

यह झलक जैसे नदी का प्रवाह

या असंख्य छाया का एक साथ बढ़ना

 

मेरी छाया रुकी हुई

नहीं शामिल इनमें

 

मेरा अकेलापन

ढूंँढ़ रहा जैसे अपना कोई साथी

इस भीड़ में

 

 

छाॅंव के नीचे

 

ये चम्मचकांँटे

लगातार भोजन से चिपके रहते हैं

सुबहदोपहरशाम

हमेशा खाने की मेज़ पर

हैं बिलकुल नन्हे-नन्हे

लेकिन रईसों के बड़े प्रिय

इनके बिना उनका काम नहीं चलता

पेट तक खाना नहीं उतरता

 

वहीं गंदे हाथ भी बड़े सुकून से

रोटी तोड़ लेते हैं

मेज़ पर नहीं

पेड़ की छाॅंव के नीचे भी


नरेश अग्रवाल

हाउस नंबर 35,रोड नंबर 2,

सोनारी गुरुद्वारा के पास,कागलनगर, सोनारी

जमशेदपुर 831011,(झारखंड), सम्पर्क 9334825981,7979843694,nareshagarwal7799@gmail.com

2 टिप्पणियाँ

  1. कविताएं ताज़ा फुलकों की तरह सौंधी और स्वादिष्ठ हैं। लेकिन गर्मागर्म फुल्के भी मुझसे एक बार मेंतीन या चार। अपनी जीभ से ज्यादा मुझपर भूख क़् नियंत्रण था। चिड़चिड़ी भूख तृप्त होते ही एक भी चपाती अधिक बर्दास्त नहीं करती थी। वह मेरी मां पर भी झुंझला उठती थी। मां को अपनी रोटी पर उतना ही प्यार आता था जितना मुझ पर। किन्तु मैं अपने पेट और हाजमे का गुलाम था।
    एक बार में तीन से ज्यादा कविताएं पचा नहीं पाता। संपादक पूरा fci godown क्यों परोसना चाहता है, वही जाने।

    सभी कविताएं पठनीय हैं किंतु सरसरी तौर पर। तीन पढ़ लीं, बाकी फुर्सत से पढूंगा।

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  2. सुंदर अभिव्यक्ति और यथार्थपरक भी।

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