अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
कविताएँ : नरेश अग्रवाल
धक्का-मुक्की
भीड़ की तेज धक्का-मुक्की में
अनेक गिरे
कुछ तुरंत खड़े हो गये
कुछ को मित्रों ने उठाया
कुछ बेहद खास थे
उन्हें सुरक्षाकर्मियों ने उठाया
उनमें भी एक-दो तो बेहद खास थे
जिन्हें सारी भीड़ ने मिलकर उठाया
मारा गया वह वृद्ध बेचारा
थोड़ी-सी चोट खाकर
झलक मात्र देख पाया था
अपने भ्रष्ट नेता की!
एंबुलेंस
बच्चे की तबीयत बहुत खराब है
उसे एक एंबुलेंस चाहिए
इसे बुलाने का नंबर
और फोन भी
कहांँ दौड़े आस-पास
सभी कोरे इसी तरह
बच्चा रो रहा है
लगातार रो रहा है
ज्वर से तप रहा शरीर
न ममता से इलाज
न ही घरेलू दवा से
पहले भी आई थीं
कितनी बार ही ऐसी विपत्तियांँ
हर बार इसी तरह
बहुत अधिक घबराया था वह
कोई उपाय न कर सका
किसी को बचा न सका
इन साधनहीनों के पास
हमेशा मौत ही आयी पहले
एंबुलेंस बाद में!
तमगा
उसने जहांँ-जहांँ
और जिस तरह के काम किए थे
सभी का विवरण
अपने शरीर पर गुदवाया
यह शौक बिलकुल अलग था
जैसा लोग चित्र गुदवाते हैं पीठ पर
या बांँहों पर
और खुश होते हैं
सब कुछ बारीक शब्दों में लिखा गया था
जैसे यह शरीर नहीं
कागज का कोई पन्ना हो
फिर एक साथ सारे विवरणों को पढ़ा
और अपनी दशा पर आँसू बहाने लगा
फिर हंँसा भी एकाएक
सोचकर कि इतने सारे काम करके भी
अब भी वह फर्श पर ही है
अगर कुछ नहीं करता तो.........
उन्हीं की देह में
इसे परायी धरती नहीं समझता
जहांँ वे काम कर रहे
वे भी उसी तरह
जैसे मेरी ही मिट्टी को टटोल रहे
उसमें फसल की संभावनाएंँ भर रहे
बीज पर बीज छिड़क रहे
उनका रंग भी पक गया धूप से
पसीने भी हमारे जैसे
चेहरे ढके हुए थोड़े
जितने दिख रहे उनमें भी समानता
मैं भूल गया दो पल के लिए कि कहांँ हूंँ
खड़ा था मिट्टी की एक मेंड़ पर
उनके बिल्कुल पास था
जैसे उन्हीं की देह में
दूरी अब बहुत कम
समुद्र की गर्जना को
कोई तानाशाह चुप नहीं करा पाएगा
न ही लहरों की चट्टानों से
टकराने के स्वर को
न ही हवा की गति को
जो आंँधी में बदलकर
कर सकती है उसके मुकुट को चूर-चूर
ये सारे थके हाथ
भले कितना ही थक जाएंँ शाम तक
सुबह वापस होते हैं ताजा
इनका रास्ता भले लंबा
लेकिन उतना भी लंबा नहीं
जबकि वे बढ़ रहे हैं आगे लगातार
दूरी अब तानाशाह से बहुत कम
अकेलापन
मेरी खिड़की थोड़ी दूर है
बालकनी सड़क से नजदीक
मैं लोगों को गुजरते देखता हूंँ
वे मुझे नहीं
मैं सभी की जल्दबाजी देखता हूंँ
उनकी घबराहट
और आपस की मित्रता भी
पांँव-ही-पाॅंव, चेहरे-ही-चेहरे
गाड़ियांँ और स्कूटर
सभी आगे बढ़ते
अपनी एक-एक झलक दिखाते हुए
यह झलक जैसे नदी का प्रवाह
या असंख्य छाया का एक साथ बढ़ना
मेरी छाया रुकी हुई
नहीं शामिल इनमें
मेरा अकेलापन
ढूंँढ़ रहा जैसे अपना कोई साथी
इस भीड़ में
छाॅंव के नीचे
ये चम्मच, कांँटे
लगातार भोजन से चिपके रहते हैं
सुबह, दोपहर, शाम
हमेशा खाने की मेज़ पर
हैं बिलकुल नन्हे-नन्हे
लेकिन रईसों के बड़े प्रिय
इनके बिना उनका काम नहीं चलता
पेट तक खाना नहीं उतरता
वहीं गंदे हाथ भी बड़े सुकून से
रोटी तोड़ लेते हैं
मेज़ पर नहीं
पेड़ की छाॅंव के नीचे भी
नरेश अग्रवाल
हाउस नंबर 35,रोड नंबर 2,
सोनारी गुरुद्वारा के पास,कागलनगर, सोनारी
जमशेदपुर 831011,(झारखंड), सम्पर्क 9334825981,7979843694,nareshagarwal7799@gmail.com
कविताएं ताज़ा फुलकों की तरह सौंधी और स्वादिष्ठ हैं। लेकिन गर्मागर्म फुल्के भी मुझसे एक बार मेंतीन या चार। अपनी जीभ से ज्यादा मुझपर भूख क़् नियंत्रण था। चिड़चिड़ी भूख तृप्त होते ही एक भी चपाती अधिक बर्दास्त नहीं करती थी। वह मेरी मां पर भी झुंझला उठती थी। मां को अपनी रोटी पर उतना ही प्यार आता था जितना मुझ पर। किन्तु मैं अपने पेट और हाजमे का गुलाम था।
जवाब देंहटाएंएक बार में तीन से ज्यादा कविताएं पचा नहीं पाता। संपादक पूरा fci godown क्यों परोसना चाहता है, वही जाने।
सभी कविताएं पठनीय हैं किंतु सरसरी तौर पर। तीन पढ़ लीं, बाकी फुर्सत से पढूंगा।
सुंदर अभिव्यक्ति और यथार्थपरक भी।
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