अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
आलेख : आदिवासी दृष्टि और परम्परा की प्रारंभिक उपस्थिति: दुलायचन्द्र मुंडा / पुनीता जैन
मुंडारी कवि दुलायचंद्र मुंडा ने अपने काव्य-संग्रहों ‘सुड़ा-सँगेन’ (नवपल्लव, 1966) तथा ‘बम्बरू’ (मशाल, 1978) को हिन्दी में भी प्रस्तुत किया है। इस तरह हिन्दी में अनूदित नवपल्लव (सुड़ा-सँगेन) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। इसके पश्चात रामदयाल मुंडा द्वारा संकलित काव्य-संग्रह हिसिर (हार) 1972, में भी उनकी कविताएँ हिन्दी में प्रस्तुत हुई हैं। इसमें उनके साथ ही उदय, काशीनाथ कांडे, बल्देव, बुदु बाबू, भैयाराम, कुंजल साय मिरू, राम, विश्वनाथ, सहदेव, सागू आदि मुंडा कवि भी हिन्दी में प्रस्तुत हुए हैं। किन्तु अपने स्वतंत्र काव्य-संग्रहों व सचेत उपस्थिति के कारण दुलायचन्द्र मुंडा हिन्दी आदिवासी कविता में महत्त्वपूर्ण प्रारंभिक हस्ताक्षर कहे जा सकते हैं। ‘सुड़ा-सँगेन’ अर्थात् ‘नवपल्लव’ में आदिवासी पुरखा-साहित्य की गीत-परंपरा की स्पष्ट छाप है। आदिवासी पुरखा साहित्य में अत्यंत सामान्य कथनों को गीत में संगीत-वाद्य-नृत्य के साथ प्रस्तुत करने की परंपरा रही है। इसकी रचना भी सामूहिक रूप से होती रही है। दुलायचंद्र मुंडा के गीतों में यही सामान्यता सहजता के साथ ढली है। प्रथम दृष्टि से इनका हिन्दी अनुवाद अटपटा, अपरिपक्व लगता है किन्तु जब इन अनूदित गीतों के दिए गए मूल मुंडारी रूप को पढ़ा जाए तो अर्थ न समझ सकने की बाधा के बावजूद उसकी लय व तरलता को आसानी से अनुभूत किया जा सकता है, जिसकी ध्वन्यात्मकता व गेयता सहज ही आकृष्ट करती है। यह लय और गेयता ही आदिवासी गीतों की आत्मा है जिसके माध्यम से आदिवासी जन-जीवन का यथार्थ, लोक-गंध, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य व जीवन-शैली अभिव्यक्ति पाती है।
पारंपरिक आदिवासी
गीतों का आकार छोटा होता है तथा वे कई आदिवासी- रागों पर आधारित होते हैं।
दुलायचंद्र मुंडा के गीत इसी कोटि के हैं। यद्यपि इनका हिन्दी अनुवाद शाब्दिक है
जिसमें लय, गीतात्मकता,
ध्वनि का अभाव है, जिससे वे सपाट लगते हैं। अपने सहयोगियों के माध्यम से किया गया गीतों का
यह अनुवाद मूलभाषा की तरलता, गेयता व ध्वनि की रक्षा नहीं कर
पाता। किन्तु कवि की दृष्टि व आदिवासियत
को अवश्य बचाए रखता है। अभावों से भरे जीवन में भी स्वतंत्रता के मूल्य को पहचानने
वाले तथा संस्कृति के पोषक आदिवासी मुंडा अपनी नृत्य व गान की परंपरा में जीवंत
रहते हैं। ये गीत इसका उदाहरण हैं। काव्य-संग्रह सुड़ा-सँगेन (नवपल्लव) के प्रारंभ में जगदीश त्रिगुणायत की यह टिप्पणी
दुलायचन्द्र मुंडा के गीतों के वैशिष्ट्य को रेखांकित करती है-‘‘ श्री दुलाय के गीतों में मिट्टी की वही गंध, जंगलों
में वही हरियाली और झरनों का वही संगीत विद्यमान है जो सदा से मुंडा गीतों की विशेषता
रही है। विषय-वस्तु और शिल्प दोनों पक्षों
में ये अपनी परम्परा के अत्यंत निकट है। वे ही उपमान, वे ही प्रतीक, पंक्तियों की वही पुनरावृत्ति,
वे ही छंद जिन्होंने सारी मुंडा कविता का शृंगार किया है इनकी कविता
का भी श्रंगार कर रहे हैं। ...... फिर भी
इनके गीतों में ताजगी है। पुराने स्वर लय के ये गीमुंडात नितांत नवीन लगते
हैं। इनकी अनुभूतियों में गहराई तो है ही, नये प्रयोगों ने
इन गीतों में पर्याप्त सौन्दर्य और प्रभाव भर दिया है। ये सब गीत गेय हैं। कलम की
नोक पर उतरने के पहले ये कंठ में स्वरित हुए हैं और प्रकाशन के पहले अनेक गाँवों
के अखड़ों की शोभा बढ़ा चुके हैं।’’ आदिवासी संस्कृति और
परम्परा की दृष्टि से दुलायचन्द्र के गीतों का यह लिखित रूप गेयता के कारण ही इस
परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। लोक गंध में रचे बसे ये गीत प्रेम, प्रकृति और आदिवासी जीवन यथार्थ के चित्र प्रस्तुत करते हैं। प्रकृति के
विविध रंगों में रचा बसा आदिवासी जीवन, प्रेम, मिलन, विरह के द्रश्य इनमें मिलते हैं। ‘बम्बरू’ (मशाल) की कविताओं में गीतों की जगह कई
कविताएँ मुक्त छंद में मिलती हैं। इनका स्वर भी प्रेम मिलन-वियोग, देश-प्रेम, संस्कृति प्रेम, दुःख-सुख,
पर्व-त्योहार आदि हैं। भाषिक-माधुर्य के लिए मुंडारी के गीतों को
पढ़ा जा सकता है चाहे इनका हिन्दी रूप उस गेयता व ध्वनि, लय
का निर्वाह नहीं कर पाता । किन्तु हिन्दी अनुवाद दर्शाते हैं कि आदिवासी -चेतना अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य
से वृहत संसार को परिचित कराने हेतु उद्यत है।
दुलायचन्द्र मुंडा के गीतों के मौलिक स्वरूप में जिस लय, ध्वनि और प्रवाह का
सजीव रूप से निर्वाह हुआ है, अनूदित रूप में वह प्रायः नष्ट हो गया है। मुंडारी में पढ़ना-समझना हिन्दी
के पाठक के लिए कठिन कार्य है किन्तु इसके मौलिक नाद-सौन्दर्य से परिचित होने के
लिए एकाध उदाहरण द्वारा इसके महत्त्व को
समझा जा सकता है- ‘‘दिशुम समुन्दर दो जिलिमिलिय/ दुकु -सुकु
कोगे ओयरेन तन/ तल टुकु रे अञ दो ञ केसेद्जन /अतोम उड़ड.ञे बलय तन / दुकु सुकु कोगे
ओयरेन तन / आञ मुली तेको हिजुः तन / अञ जिदो बोले अलय -बलय / कोतः कोरे जी तञ
ओटड्. कन ।’’ (नवपल्लव,
पृष्ठ-4) उक्त गीत का अनूदित रूप है - ‘‘देश रूपी समुद्र
झिल-मिला रहा है/ (जिसमें) दुख और सुख ही तैर रहे हैं/ बीच के टीले पर मैं घिर गया
हूँ/ किनारा पाना मुझ से असंभव हो गया है/ दुख और सुख तैर रहे हैं/मेरी ओर ही आ
रहे हैं/ मैं अत्यंत व्याकुल हूँ/मेरा जी कहाँ कहाँ उड़ रहा है।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-5) उपर्युक्त उदाहरण द्वारा यह पूर्णतः स्पष्ट है कि दुलायचन्द्र
मुंडा के मुंडारी गीतों की यह हिन्दी प्रस्तुति शब्द अनुवाद है भावानुवाद नहीं
जबकि मुंडारी गीत का रूप-विन्यास, ध्वन्यात्मकता, तुकांत पंक्तियाँ, लय उसकी गेयता के प्रमाण है । इस
सीमा के बावजूद सुशीला सामद के पश्चात दुलायचन्द्र के गीत हिन्दी में प्रथम
आदिवासी प्रस्तुति के कारण महत्त्वपूर्ण है । सुशीला सामद का काव्य हिन्दी की
छायावाद परम्परा की एक कड़ी है जबकि दुलायचन्द्र मुंडा का काव्य आदिवासी
गीत-परम्परा में प्रकृति के सान्निध्य, आदिवासी जीवन-यथार्थ
के चित्र प्रस्तुत करता है। फलस्वरूप वे हिन्दी में प्रारंभिक आदिवासी कविता के
महत्त्वपूर्ण स्तम्भ कहे जा सकते हैं।
प्रकृति के
सानिध्य में जीवन के माधुर्य का रसपान एक सुंदर सी कल्पना है जिसका वास्तविक चित्र
आदिवासी कलम उकेरती है। वस्तुतः प्रकृति,
पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पक्षी,
पहाड़, नदी, झरने,
जंगल अर्थात सम्पूर्ण
सृष्टि आदिवासी जन-जीवन का अटूट हिस्सा है। अतः
दुलायचन्द्र मुंडा के गीतों में प्रेम का स्वरूप प्रकृति से युक्त होकर ही
अभिव्यक्त हुआ है। प्रस्तुत गीत का अवलोकन करने पर हम देखते हैं शृंगार का भाव
प्रकृति से किस तरह संपृक्त होकर आकार लेता है - ‘‘दोपहर को
मैं पहाड़ चढ़ा था/ और कुसुम की छाया में बैठा था/ कुसुम की छाया में मैने गाया /
जिसको पिजोड़ीः चिड़िया ने दुहराया / पिजोड़ीः चिड़िया ने इसको दोहराया / कोयल ने
मुरली छेड़ी / वट वृक्ष की एक डाल पर / कटफोड़वा ने ढोलक पर ताल ठोकी / कुँवारी का
समय चहल -पहल का समय / तितली- सा उड़ने फिरने का समय/ मुझको मन करे, पहाड़ों पर गाता फिरना/ रसिक जी को मन करे, गाछों की
छाया में/ संगिनियों से वार्तालाप करना ।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-10-11)
प्रेम और प्रकृति के इस रूप विन्यास के कई गीत दुलायचन्द्र मुंडा के ‘नवपल्लव’’ संकलन में सहज ही प्राप्य हैं। प्रकृति के
परिसर में ऐसे कई वृक्ष, पुष्प होंगे जिनसे सामान्य जन अपरिचित होगें। आदिवासी कविता प्रकृति के इस
छिपे हुए समृद्ध संसार के द्वार खोल कर विविध वृक्षों, लताओं,
फूलों से पाठक का परिचय कराती है -‘‘ जूही और
चमेली, धवई और अटल फूल/ कुटी और कदम, हरि
और तोवा फूल / हे प्रिय सोना मुनी / इनमें किस फूल में तुम्हारा मन है!’’ (नवपल्लव, पृष्ठ
16) श्रंगार या प्रेम की इस अभिव्यक्ति
में जो सहजता है वह वस्तुतः आदिवासी जन की सरलता व सादगी का प्रतिबिम्ब है। यह
कल्पनाशीलता अलौकिक जगत के अलग-थलग व कृत्रिम प्राकृतिक सौन्दर्य में प्रेम
विस्तार नहीं पाती बल्कि वह द्रश्य के यथार्थ में प्रकृति के विविधवर्णी अंगों के
द्वारा आकार लेती है। अभिधा का यह सौन्दर्य
प्रकृति और मनुष्य की सहजता में यथार्थ होता है- ‘‘यदि तुम बबूल या चम्पा
फूल होती तो / मैं गंध से ही तुमको पहचान लेता / यदि तुम धबई या टीसू फूल ही होती
तो / दूर से ही तुमको पहचान लेता ।’’
(नवपल्लव, पृष्ठ-22)
श्रंगार के
संयोग-वियोग दोनों पक्ष का प्रकृति के माध्यम से अवतरण हिन्दी कविता में भी प्रायः
व्यंजित हुआ है। किन्तु आदिवासी जीवन के लिए प्रेम ही नहीं पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक आयोजनों
में भी प्रकृति से गहरे तक जुड़ाव है। प्रकृति के स्वतंत्र सौन्दर्य का अत्यंत सहज रूप
भी इन कविताओं में सम्मुख आता है - ‘‘साल का फूल तो हे दादी बहुत सुंदर है / पल्लव तो हे दादी पल्लव सुकोमल है/
फूल बहुत सुंदर है, गह-गहा कर खिले है / पल्लव सुकोमल है,
पल्लव झिलमिल कर रहे है।’’ (नवपल्लव पृष्ठ-7) / .......‘‘पहाड़ पर पहाड़ी महुआ / रब रब खूब गिरता है/ तड़ाई में ‘तराई का साखू /झर-झर कर गिरता है/ ........ हे दीदी चलो चुनने चले / अकाल
के समय पकाकर खाएंगे ।’’ (बंबरू, पृष्ठ-15) यही नहीं उसका दैनंदिन जीवन-क्रम भी जंगल पर
आधारित है। आदिवासी समाज की आंतरिक अनुभूतियाँ ही नहीं उसका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पक्ष भी प्रकृति के साथ गहरे तक
सन्नद्ध है- ‘‘ उपवन में बाँसुरी बज रही है/ इधर पनघट में
आँसू झर रहे हैं/ दीदी गो चलो / लकड़ी और पत्ती तोड़ने जंगल चले/ तुम टोकरी पकड़ो/
मैं रस्सी पकडूंगी / लो चंपा फूल/ लकड़ी और पत्ती तोड़ने जंगल चले ।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ
45-46)
प्रकृति के
साथ यह संबंध इतने स्वाभाविक हैं कि जिन पशुओं को हमारा कथित समाज असहज या भय की
दृष्टि से देखता है उनके प्रति आदिवासी समाज सहज ही सहजीविता का भाव रखते हैं। यह
सहअस्तित्व का वास्तविक रूप है जिसे स्वयं कवि भी स्वीकार करते हैं - ‘‘हम सभी आदिवासी लोग/प्राचीन काल में बनवासी थे/ बाघ भालू सभी हमारे साथी
थे / ये ही हमारे सहवासी थे / गर्मी बरसात और जाड़े में / भूख-प्यास और दुखों में /
बाघ की मांद और वृक्ष की छाया अच्छी थी / हम लोग थे सब साथ में ।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ 70)
प्रकृति, जंगल और आदिवासी
जीवन के इस अन्योन्याश्रित स्वरूप के कारण ही जंगल कटने, बाँध
निर्माण, बिजली परियेाजनाओं के कारण उत्पन्न समस्याओं ने
उन्हें विस्थापन की पीड़ा तथा जंगल के लिए प्रतिरोध की मुखर आवाज बनने की आधार भूमि
दी। 1966 में प्रकाशित ‘नवपल्लव’ के गीतों में भी जंगल उजड़ने की पीड़ा और
प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं जिसको आगे चलकर वर्तमान कवियों ने मुखरता से अभिव्यक्त
किया है’ - ‘‘पहाड़ तो जला दिए गए हैं पंडुक /हम दोनों कहाँ
अब चारा पानी ढूंढेंगे/ बावली तो तोड़ दिया है बुदु मछली / हम दोनों कहाँ तैर कर अब
गुजर बसर करेंगे / ...... रसिक (कहता) है,
यह शांति का देश अब गुजर गया / गरीबी ने भीषण ज्वालाएँ बुन दी है /
लोग पंडुक की तरह चारापानी के लिए मर रहे है/ मछलियों की तरह धारा में बह रहे हैं
।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ 6) यहाँ प्रकृति प्रेमी आदिवासी अपने दुख
दर्द भी प्रकृति से ही साझा करता है।
दुलायचंद्र मुंडा की कविता में आदिवासी क्षेत्रों के उजड़ने, जंगल
के नष्ट होने का गहरा दर्द है जो आगे ‘हिसिर’ (हार) तथा ‘बम्बरू’
(मशाल) जैसे संग्रहों में भी व्यक्त हुआ है - ‘‘जैसे ही हमने जंगल उजाड़ा / वैसे ही हम भूख के शिकार हुए / उसे सोचना ही
गुनाह है / हम मनुष्य में नहीं गिने जा सकते।’’ (हिसिर
-पृष्ठ-23) ।
जंगल उजड़ने
की पीड़ा और चिंता एक बड़ी समस्या है जो तथाकथित ‘विकास’ के कारण बढ़ती ही
चली गयी। किन्तु जंगलों को पुनः संवारने की आशा व इच्छा भी उनके काव्य-स्वर में
मौजूद है - ‘‘सखुए का फूल खत्म हो रहा है/ युगों से / वन
देवता हमारी रक्षा करते आ रहे हैं / (हाय) वन खत्म हो रहा है/ (अब) वन देवता रूष्ट
हो रहे हैं / वन ही हमारा मूल स्तम्भ है/ वन हम बर्बाद नहीं करेंगें/ वन को
सजाएंगे संवारेंगे/ हम वृक्ष अवश्य लगाएंगे ।’’ (बंबरू, पृष्ठ
15) प्रकृति से गहन संबंधों का विवरण कई गीतों में मिल जाएगा । दुलायचंद्र के कई
गीतों में पक्षियों, वृक्षों से सहज संवाद मिलते हैं जो किसी
विशिष्ट प्रयोजन के लिए नहीं है। ये जीवंत संवाद प्रकृति से कुछ सीख लेने के लिए
है। कोयल की ये पंक्तियाँ आदिवासी ‘होड़’ (मनुष्य) तथा प्रकृति के घनिष्ठ संबंधों की उदाहरण हैं - ‘‘मनुष्य इन पेड़ों से तुम भी कुछ
सीखो/ मेरे साथ बोलना सीखो / इस धरती पर सुख दुख (हैं ही)/ मैं पीड़ितों को शक्ति
देने आई हूँ। ’’ (हिसिर पृष्ठ-29) आदिवासी जन के लिए जंगल का महत्त्व
आजीविका की दृष्टि से ही नहीं
बल्कि उसके जीव-जंतुओं , पक्षियों, वृक्ष-लताओं
से भावनात्मक व सांस्कृतिक संबंधों के कारण भी है। इसलिए यह केवल लाभ-हानि का मसला
नहीं है। आदिवासी संस्कृति, जीवन-जगत की दिनचर्या में जंगल
के इन अंगों की उपस्थिति है, जिसका अभाव उसे दुःख, पश्चाताप से भर देता है- ‘‘सब तरफ देखने से /टांड ही
टांड दिखाई देता / एक समय था / जंगल से धरती ढकी थी / जंगल से धरती ढकी थी / दिन
तक रात रहती थी /धरती पर लोग / सूर्य की रोशनी खोजते फिरते थे / पश्चाताप करने का
मन करता/ ऐसे जंगल उजड़ गये / अफसोस करने का मन करता / जंगल का नाम ही डूब रहा है।’’
(नवपल्लव, पृष्ठ 18)
जंगल कटने
अथवा उजड़ने के पीछे पूंजीवादी, विकासवादी नीतियाँ
जिम्मेदार हैं इसके बावजूद आदिवासी मन में पश्चाताप का भाव है। यह सघन अनुभूति है
जो अपने जीवन के आधार के नष्ट होने के दोष में स्वयं को भागीदार बनाती है। यह केवल
स्वीकार भाव नहीं है इसमें पुनः जंगल बसाने की इच्छा-शक्ति व दृढ़ता भी है। यह
इच्छा-शक्ति कविता ही नहीं कहानियों में भी दिखाई देती है जो आदिवासी -मानस को
समझने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । वस्तुतः यह एक उदात्त जीवन मूल्य है जो अपनी
कमियों की जिम्मेदारी लेते हुए जंगल को पुनः स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित
करती है - ‘‘जंगल खत्म हो रहा है/ धरती बंजर बन रही है/ अतः
गाछ रोपेंगे/ टांड के आड़ में रोपेंगे/ कतार, कतार / आम कटहल
जामुन कुसुम / फरसा पीपल आदि आदि / गाछ रोपेंगे/ छोटे बड़े सभी गाछ रोपेंगे/ कतार
कतार / गर्मी जब खत्म होती है/ बरसा जब आने वाली होती है / बीज और डाल काट कर
रोपंगे / कतार कतार ।’’ आक्रोश और प्रतिशोध से शून्य सहज सर्जना की कितनी शालीन और सादगी पूर्ण
अभिव्यक्ति है यह। वस्तुतः यही आदिवासियत की सरल-तरल उपस्थिति है। जिसके विस्तृत
चित्र दुलायचंद्र मुंडा के प्रथम काव्य
संग्रह ‘नवपल्लव’ में मिलते हैं
क्योंकि दूसरे काव्य-संग्रह ‘बंबरू’ (मशाल) में उनका काव्य-स्वर प्रेम, विरह, देश-प्रेम
आदि में अधिक रमा है। आदिवासियत की वास्तविक काव्यभूमि वे ‘नवपल्लव’ में
ही सृजित करते हैं। आदिवासी स्वभाव और प्रकृति की सहज सादगी उनके प्रतिरोध में भी
दिखती है । विरोध और उसकी सरलता का जीवंत चित्र देखिए - ‘‘तुम
सब दिकुओं के सिपाही हो/ मैं तो किसान आदमी हूँ/ तुम लोग मुझे दिक मत करो/ मैं दिक
दिक करना नहीं जानता हूँ।’’
दरअसल
आदिवासी स्वभाव प्रेम, गीत, नृत्य-संगीत और अपनी दैनिक दिनचर्या में डूबे रहने वाला सहज स्वभाव है।
समानता, सहजीविता, स्वतंत्रता के मूल्य
उसकी जीवन-विधि में सम्मिलित है। वह
संघर्ष से पूर्व मेलजोल और संवाद में विश्वास
करता है - ‘‘देश में छोटे -बड़े सब हैं / (भारत माँ के)
बाल-बच्चे ही हैं / लड़ाई झगड़े नहीं करेंगे भाई/ एक पीढ़े पर आओ बैठकर बात करेंगे।’’
(नवपल्लव पृष्ठ 13)
आदिवासी संघर्ष और विरोध के पीछे वनों का नष्ट होना तथा उनकी आजीविका के
साथ संस्कृति पर हमला है। जीवन की इन कठिनाइयों के स्वर ‘बम्बरू’
(मशाल) काव्य-संग्रह में मुखर रूप से प्रस्तुत हुए हैं- ‘‘ खरीद बिक्री भी नहीं मिलती/काम धंधा भी नहीं मिलता / कैसे हम जीवन निर्वाह
करेंगे / डेढ़ रूपया पैइला चावल हो गया / कैसे हम निर्वाह करेंगे ।’’ (बंबरू पृष्ठ-29) ..... /सोना चाँदी कोयला लोहा / धान और चावल से यह देश
भरा हुआ है/ हमारा देशधनवान देश है/ लेकिन हम सब भूख से तड़प रहे हैं।’’ (बंबरू, पृष्ठ-20)
दुलायचंद्र
मुंडा के काव्य या कहें गीतों में विसंगतियाँ,
विडंबना, विद्रोही भाव की अभिव्यक्ति
चमत्कृत करने वाली वक्रोक्ति के माध्यम से
नहीं हुई है। वे स्थिति की सपाट प्रस्तुति ही करते हैं। वस्तुतः ये गीत, कविताएँ, आदिवासियत के सादगी, सरलता
व सीधे संवाद करने की कला के नमूने हैं जिसमें टेढ़ापन, आक्रामक
स्वर या विलोम सृजित करने की कृत्रिम कलात्मकता नहीं है, सीधा
संवाद, सहज अभिव्यक्ति है बड़े- से-बड़े जीवनानुभव, जीवन-दर्शन या चिंतन की सीधी अदायगी कविता में कथा को सृजित करके भी की जा
सकती है, दुलायचंद्र मुंडा इसे प्रस्तुत करते हुए अपनी काव्याभिव्यक्ति में शैली की विविधता का भी
परिचय दे देती है - ‘‘शिकार करने मैं जंगल गया था/ पोटोः
काँटा मेरे पैर में गढ़ गया/ पैर आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया/ घर लौटना भी असंभव हो
गया/ दोपहर का समय था/ सारा वन सुनसान था/ व्याकुल कर देनेवाली धूप थी/ छोटी सी
झाड़ी में मैंने शरण ली/रास्ते के किनारे की अम्बराई में /कोयल और कठफोड़वा बात कर
रही थी/ दुःख-सुख सब एक है/विधाता ने ही ऐसा लिख दिया है।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-8-9)
‘नवपल्लव’ या ‘बंबरू’ काव्य-संग्रह के
हिन्दी अनूदित रूप में हिन्दी भाषा के अपरिपक्व ज्ञान ने गीत की प्रस्तुति,
भाषा की लय को प्रभावित किया है फलस्वरूप जीवन-अनुभव के चित्र सजीव
नहीं है किन्तु गेयता और सहजता का गुण बनाए रखने
का प्रयास हुआ है - ‘‘सालू सुग्गा और सालू मैना/मैना
मेरा फंसा लिया गया /सालू सुग्गा और सालू मैना/मेरा सुग्गा बझा लिया गया ।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-14)
आदिवासी
समाज सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध है । उसके वाचिक या लिखित साहित्य में प्रेम, वियोग, पर्व-त्योहार, श्रम-सौन्दर्य, नृत्य,
संगीत, वादन का अद्भुत मेल अत्यंत सहजता से
हुआ है। दुलायचन्द्र मुंडा के गीतों में भी सरहुल आदि पर्व के संदर्भ मिलते हैं - ‘‘मागे पर्व का भात खाकर अब जरगा नाच जा रहा है/सरहुल भात खाने के लिए ही अब
जदुर नाच आ रहा है।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-21)
...... /‘‘तीरों
से सज गये /जंगलों में प्रवेश कर गए /सरहुल के स्वागत में / हड़ियाँ और भोजन का
प्रबंध करने लगे।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-34)
उत्सवधर्मी
आदिवासी स्वभाव आशावादी और उमंग से पूर्ण होता है। सरहुल पर्व तथा नृत्य के कई द्रश्य
दुलायचंद्र मुंडा के गीतों में स्वाभाविक रूप से आते हैं। जीवन के प्रति उत्साह
पूर्व दृष्टिकोण, नृत्य, वादन, संगीत के
सान्निध्य के कारण उनके जीवन में अकेलापन, अवसाद, जैसी मनोदशा के द्रश्य नहीं मिलते हैं, न ही नवीन
भौतिकवादी चाकचिक्य से उकताए मनुष्य की हताशा और निराशावादी भाव ही इनके गीतों में
मिलेंगे। जबकि जीवन के धूप-छाँव, सुख-दुख के द्रश्य अत्यंत
सादगी से कविता में अवतरित हुए हैं। ये द्रश्य आदिवासी जीवन संघर्ष और उनकी
चिंताओं से परिचित कराते हैं। किन्तु ये कठिनाइयाँ निराशा में नहीं बदलतीं - ‘‘
स्त्री बच्चे भूखे पड़े हैं/ (मेरा) काम उद्यम भी बंद है / मेरा
पुवाल का घर चू रहा होगा / कैसे मैं नदी पार करूँ।’’ (हिसिर,
पृष्ठ-28) ये हिन्दी
प्रस्तुति किसी भी दृष्टि से असाधारण कथ्य प्रस्तुत नहीं कर रहा है, न ही वक्रोक्ति है या लय है।
किन्तु इन्हीं पंक्तियों के मुंडारी रूप ध्वन्यात्मकता से परिपूर्ण हैं। दरअसल जीवन
की कठिनाइयों व संघर्ष को गीत-संगीत द्वारा सहज करने की आदिवासी संस्कृति की अपनी शैली और विशेषता है। इस जीवनशैली में
समानता व स्वतंत्रता के मूल्य महत्त्व रखते हैं। अखड़ा में सामूहिक मेल-जोल, नृत्य-गायन
या घोटुल में युवक-युवतियों का मेल-मिलाप, परस्पर परिचय व
सामाजिक शिक्षा आदिवासी जीवनशैली का अंग है। यहाँ स्त्री-पुरूष समान हैं। लैंगिक
भेदभाव, सभ्य समाज की पाखंडपूर्व वर्जनाएँ,स्त्री के प्रति पक्षपाती दृष्टि उनके सामाजिक जीवन में नहीं है। यद्यपि
सांस्कृतिक हस्तक्षेप के कारण कई विपरीत प्रभाव आदिवासी समाज में भी दिखने लगे हैं
किन्तु आदिवासी पुरखा-साहित्य या
दुलायचंद्र मुंडा जैसे पुराने कवियों का काव्य दर्शाता हैं कि आदिवासी संस्कृति सरल और नैसर्गिक गुणों से
परिपूर्ण है। दुलायचंद्र मुंडा के काव्य में आदिवासी जीवन के ऐसे मनोरम द्रश्य
अनेक गीतों में मिल जाते हैं। करम गीत में युवाओं के मेल के अनोखे द्रश्यों का
चित्रण इन प्रस्तुतियों में द्रष्टव्य है- ‘‘ढोलक की ताल के
साथ गाने में आनंद आता है/ युवती से स्पर्श होने से नाचने में मन लगता है/ पर यह
सुख तो क्षण भर के लिए ही / चेत जाने के बाद सुख नहीं मिलता है/ परंतु यह अखड़ा /
गाँव में अच्छा ही है/ (क्योंकि) दिनभर के काम से थके जनों की थकावट को / गीत को
एक कड़ी में ही दूर कर देता है।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ 65)
इन करम गीतों में प्रेम-वियोग के सुंदर द्रश्य मिलते है - ‘‘ कहे थे - मैं आउंगा / करम नाचने भादों एकादशी में / पर पार हो गया नहीं आए
/ प्रिय ! कहाँ क्यों हो गये / आएंगे, इसी विचार से / मैं
यत्न से फूल गूंथ रखी थी / पर डलिया में ही सूख गये / प्रिय ! कहाँ क्या हो गए ।’’
(नवपल्लव, पृष्ठ-72)
श्रंगार के
संयोग -वियोग पक्ष के सहज स्वाभाविक द्रश्य हिन्दी में कृष्ण-काव्य में देखने को
मिलते हैं किन्तु आदिवासी जीवन का यह अटूट अंग है। यहाँ वियोग के द्रश्यके पीछे
आदिवासी जीवन के संघर्ष, विस्थापन की पीड़ा, श्रम हेतु पलायन, विवशता और भविष्य की चिंता जैसे कुछ ऐसे कारण है जो यथार्थ के धरातल पर
मौजूद हैं। विज्ञापन और प्रौद्योगिकी के इस समय में व्यक्ति के जीवन में निकट
संबंधों के सरल क्षणों का क्षय हुआ है।
दुलायचंद्र मुंडा के गीत जीवन के इन्हीं सरल द्रश्यों के स्वाभाविक उच्छवासों को
शब्द में पिरोते हैं - आँखों से तुमको नहीं देखता हूँ/ चिट्ठियों में ही तुमको देखा
करता हूँ/ कान से तो नहीं सुनता हूँ/ लोगों से ही तुम्हारी बात सुनता हूँ/ चिट्ठी,
पत्रों में ही तुमको देखता हूँ/ लगता है फिर तुमको नहीं देख सकूँगा/
लोगों से ही तुम्हारी बात सुनता हूँ/ हे भाई !
समूचा देश अंधकार-सा लगता है। ’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-
23/24) साठ के दशक में लिखी इस कविता का कथ्य आज भी प्रासंगिक है। गीत की लय में बंधी ये
पंक्तियाँ आदिवासी समाज में पलायन की पीड़ा को भाषा में अभिव्यक्ति देती हैं।
वस्तुतः दुलायचंद्र का काव्य-कर्म वियोग के द्रश्यों द्वारा युगीन परिवेश तथा आदिवासी -संघर्ष को चित्रित करने का प्रयास
करता है।
स्वतंत्रता
के मूल्य को आदिवासी समाज बखूबी समझता है। प्रकृति के स्वतंत्र सौंदर्य के बीच
स्त्री-पुरूष की स्वतंत्रता का यहाँ स्पष्ट महत्त्व है। जीवन के स्वतंत्र विकास के
रास्ते बाधित होते ही वे विचलित हो उठते हैं- ‘‘चमचम चमकता हुआ इचः फूल/तराई में सिसकारी बजा रहा है/ उजले उजले अटल
फूल/घर के पिछवाड़े में सिसक रहा है/ ...... इस छोटी सी वाटिका में / कहीं भी
स्वच्छंद सुख नहीं।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-30) स्त्री का विवाहित जीवन कई तरह के बंधनों में
जकड़ जाता हैं स्त्री-पुरूष समानता के विचार के बावजूद विवाह होते ही स्त्री से
घर-रसोई -बच्चों में सिमट जाने की अपेक्षा की जाती है। यह स्थिति आदिवासी स्त्री
के लिए भी उतनी ही सच है - ‘‘ चिंता करोगी, पछताओगी, तो भी /फूल गूंथ नहीं पाओगी / चिंता करोगी
पछताओगी / तो भी तितली की भाँति फिर नहीं उड़ पाओगी / फिर फूल नहीं गूंथ पाओगी /
क्योंकि तुम घर हो गयी, द्वार हो गयी (शादी हो गयी)/ तितली
की भाँति फिर नहीं उड़ पाओगी / क्योंकि घड़ा और लाकुर बन गयी।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-21)
अन्न को ईश्वर
मानने की प्रथा आदिवासी संस्कृति का हिस्सा है। अन्न की पूजा व उसे सम्मान देने का
एक जीवंत द्रश्य है - हे धान माँ,
हे मडुआँ माँ ! / आओ तुम दोनों
प्रवेश करो/हे धान माँ, हे मडुआँ माँ !/आओ तुम दोनों
बैठो / अंधार कोठरी का द्वारा खुला है / आओ तुम दोनों अंदर आओ/ पत्थर का पीढ़ा बिछा
हुआ है / आओ तुम दोनों बैठो ।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-99), दरअसल
आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य व जीवन-यथार्थ की दृष्टि से दुलायचंद्र मुंडा का
प्रथम काव्य-संग्रह इनका प्रतिनिधि संग्रह है। ‘बम्बरू’
का काव्य प्रेम-विरह और देशभक्ति की ओर चला जाता है जबकि ‘बम्बरू’ के साथ ही, ‘हिसिर’
की कई कविताओं में देश के प्रति समर्पण भाव, राष्ट्र
नायकों के प्रति प्रशंसा का भाव व्यक्त हुआ है। हालांकि इनमें प्रतिरोध के स्वर
मुखर नहीं है किन्तु जंगल उजड़ने की चिंताएँ आकार ले रही थी। ‘बम्बरू’ और ‘हिसिर’ में आदिवासी-परम्परा के साथ
युगबोध और तत्कालीन परिवेश के भी द्रश्य उपस्थित है। बिरसा मुंडा की स्मृति है- ‘‘सरवादः में तीर चला /डुम्बारी में गोली चली/मुंडा जाति तुम्हें नहीं
भूलेगा/ बिरसा तुम्हारी बात औषध सी थीं।’’ (हिसिर, पृष्ठ-27)
दुलायचन्द्र
मुंडा आदिवासियत के वैशिष्ट्य के साथ युगीन परिवर्तनों पर भी पैनी दृष्टि रखते
हैं। युग-परिवर्तन के साथ ही जंगल का रहवासी जीवन प्रभावित हुआ, जंगल नष्ट हुए तथा
पर्यावरण परिवर्तित हुआ- ‘‘इस साल क्या हो गया / कि माँदर की
आवाज बंद हो गयी/ हाय रे इमली छाया/ (यहाँ) घास उग आई है/ इस साल युवक लोग
/बाँसुरी नहीं पकड़े है/ ..... / इस बरसात में / बड़ी नदी में पानी नहीं है।’’
(नवपल्लव पृष्ठ-66) जंगल के उजड़ने और आदिवासी पलायन, जीवन-संघर्ष, सांस्कृतिक संक्रमण में सीधा संबंध है,
ये एक श्रंखला है जो एक के पश्चात दूसरी घटित होती चली जाती है।
दुलायचंद्र मुंडा आदिवासी कविता के प्रारंभिक हस्ताक्षर है किन्तु छठे दशक में ही
आदिवासी जन-जीवन के सम्मुख उत्पन्न विषम परिस्थितियों के प्रति उन्होंने स्पष्ट
चिंता व्यक्त की है-‘‘ पके पीपल के फल खत्म हो गये/ हे मैना!
हम दोनों (अब) कहाँ चलेंगे!/ गदराए बड़ के फल भी समाप्त हो गये / हे केयाद्
(पक्षी) हम दोनों कहाँ उठ कर चलेंगे।’’
(नवपल्लव पृष्ठ-102) इन
पंक्तियों की सादगी सायास नहीं अत्यंत स्वाभाविक और जीवन के वास्तविक द्रश्यों से
उत्पन्न हुई है। यहाँ चिंताओं का तीक्ष्ण शोर नहीं है, जीवन
की मूलभूत आवश्यकताओं के द्वारा युगीन विसंगति को द्रश्य-पटल पर सरलतापूर्वक
प्रस्तुत कर दिया गया है- ‘‘जंगल की जलावन लकड़ी खत्म हो गयी/ भाभी! क्या तुम जलाओगी / डाड़ी का
पानी तो सूख गया/ क्या से (किससे) तुम भात पकाओगी ।’’ (नवपल्लव,
पृष्ठ-103)
आदिवासी संस्कार पलायन और निराशा में विश्वास नहीं
करता। कर्मशील श्रम-सौन्दर्य के कई सामान्य द्रश्य जनजीवन से लेकर गीत में पिरोए
गए हैं- ‘‘इधर पानी बरसा /
पहाड़ और उपवन गूँज उठे / तिरि रिरि के स्वर में बाँसुरी बजी / दीदी ! हे दीदी चलो / पहाड़ी- रूगड़ा चुनने।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-86) सामाजिक, आर्थिक रूप से
विपरीत स्थितियों में भी आशा और श्रम पर विश्वास की यह संस्कृति वास्तविक रूप से कर्म के सिद्धांत को जीवन में
चरितार्थ करती हैं- ‘‘क्या किया जाए / गरीबी के समान कोई
दुष्ट नहीं है/ क्या किया जाए / खेतवारी और पूँजियाँ सबके सब खो गयीं / गाय बकरी
और घर द्वार / डूब गये हम हो गये अनाथ / रसिक चन्द्र कहता है / काम करेंगे आलसी
नहीं बनेंगे ।’’ (नवपल्लव,
पृष्ठ-58) प्रकृति के साथ
ही मानव मूल्यों के पतन पर भी कवि की दृष्टि है- ‘‘भाई भाई
को नहीं पहचानता / भाई भाई में लड़ रहे हैं/ भाई भाई से जुदा हो रहा है।’’ (नवपल्लव, पृष्ठ-73)
दुलायचन्द्र
मुंडा अपने प्रथम काव्य-संग्रह में गीतों
में लय और तुक पर ध्यान देते हैं,
किन्तु उत्तरार्द्ध की
कविताओं मे वे मुक्त छंद में भी लिखते हैं। ‘बम्बरू’
(मशाल) में कई गीत इसी रूप
विन्यास के हैं। प्रेम-विरह की ये प्रस्तुति मुक्त छंद व नयी संरचना में हैं- ‘‘जूड़े में तुमने मुझको बांध लिया/ आंचल में तुमने मुझको छिपा लिया/ मीठी
मीठी बातों में / तुमको मैं भुला नहीं सकता।’’ (मशाल
पृष्ठ-43) यह दुलायचन्द्र मुंडा की काव्याभिव्यक्ति का नया स्वरूप है, समय के
परिवर्तन के साथ परिवर्तित होता हुआ। उनकी ये सभी प्रस्तुतियाँ लोक द्वारा स्वीकृत
है तथा उनके गीत मुंडा आदिवासी समाज द्वारा अखड़ा या पर्व-त्यौहारों के मौकों पर
गाऐ जाते हैं। उनके मूल मुंडारी रूप में गेयता सुरक्षित है। सामाजिक जीवन, प्रेम,
सुख-दुख की अनुभूति से पूर्ण उनके गीत जब स्वयं उनके द्वारा विशिष्ट
लय में गाये जाते थे तब उनके गाने की शैली से प्रो. रामदयाल मुंडा भी उनके प्रशंसक
बन गये थे। स्पष्ट है ये गीत केवल लिखित साहित्य का अंग नहीं है बल्कि ये वे जीवंत
गीत है जो लोक में स्वीकृत व प्रचलित होकर स्थापित हुए हैं। दुलायचन्द्र मुंडा के
ये गीत करम, टेरोः, मागे, अड़न्दी, झूमर,
जदुर, दुरड्. आदि आदिवासी रागों पर आधारित है।
राग करम पर आधारित इस गीत की सहजता ही इसका सौन्दर्य है- ‘‘कितने
सुख में हम लोग थे/ प्रेम और आनंद की बातें करते थे/ लेकिन न जाने क्यों ! /किस
बात से एक दूसरे से रूठ गये/ मैंने देखा था न ऐसा स्वप्न / कि बिछुड़ जाएँ एक दूसरे
से एक दिन ।’’ (बंबरू, पृष्ठ-40)
दुलायचन्द्र मुंडा के काव्य में कलात्मकता का कोई कृत्रिम
आवरण नहीं है। वक्रता, व्यंजना की जगह अभिधा में रची बसी बयानगी प्रकृति की तरह खुली और स्पष्ट
है। सादगी और सहजता आदिवासियत का वैशिष्ट्य है जिसका उदाहरण ये कविताएँ हैं ।
उन्होंने काव्य-सर्जना के लिए जिन प्रतीकों, मिथकों या द्रश्यों
का प्रयोग किया है वे आदिवासी जीवन व उसके अतीत का अभिन्न अंग है। प्रकृति का
जीवंत और जीवन में रचा-बसा रूप उनके काव्य में आकार लेता है- ‘‘गाय चराते वक्त आज /दोस्त मैंने तुमको देखा था/ पहाड़ की तराई में / पत्थर
के टिल्हे पर /बैठे -बैठे ही गा रहे थे तुम मन में ।’’ (बंबरू,
पृष्ठ- 60) एक तरफ जीवन का यह स्वाभाविक सा प्रकृतिमय रूप है तो
दूसरी ओर जंगल के विनाश की चिंता में कहीं भी बनावटीपन या कड़वाहट न होकर सीधे सीधे
द्रश्य की असंगति को प्रस्तुत किया गया है- ‘‘पहाड़ की तराई
के किंकोड़ोः पक्षी सोच रहे हैं / सेमल की चोटी पर के भँवरे पश्चाताप कर रहे हैं/
किस कारण से किंकोडोः सोच रहे है!/ किस
कारण से भँवरे पश्चाताप कर रहे हैं/ बैठने
को गाछ खत्म हो रहा है, इसलिए / फलों का रस खत्म हो रहा है,
इसलिए।’’ (नवपल्ल्व, पृष्ठ
105) बिना किसी वक्रता के ऐसी सहज प्रस्तुति वस्तुतः आदिवासी स्वभाव व जीवन-दृष्टि
को सम्मुख लाती है। दुलायचंद मुंडा के शब्द विरोध को भी आक्रामक या आक्रोश युक्त
नहीं होने देते। प्रकृति उनका मुख्य आधार है तथा न्याय और समानता उनका नैसर्गिक
जीवन मूल्य । इसलिए उनका विरोधी स्वर भी प्रकृति के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाता
है, हाँ प्रतिरोध के लिए वे मुक्त छंद के द्वारा नयी काव्य
भंगिमा तराशते हैं- ‘‘ लो इस पुरानी तलवार को / इस पुराने
बलुवे को /इस पुराने फरसे को / जल्दी/ इतनी धार तेज कर लाओ / हमारे आने के रास्ते
में / कंटीले वृक्ष बढ़ रहे हैं/ कंटीली झाड़ियाँ पनप रही हैं/ चुन-चुनकर काट
फेंकंगे/ समूल उखाड़ फेकेंगे/ तभी हमारे रास्ते / सदा साफ रहेंगे ।’’ (बंबरू, पृष्ठ 55)
समग्रतः
दुलाय चन्द्र मुंडा आदिवासी परम्परा,
संस्कृति व आदिवासियत की प्रतिनिधि आवाज हैं जिन्होंने अपने
सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के साथ ही युगीन संदर्भ पर भी सचेत दृष्टि रखी है। हिन्दी
में आदिवासी हस्ताक्षर की यह उपस्थिति आदिवासी वैशिष्ट्य और चिंताओं को उन्हीं के शिल्प
में प्रस्तुत करते हुए अपनी महत्ता स्थापित करती है। दुलायचंद्र मुंडा का
काव्य-कर्म आदिवासियत के संदर्भ का प्रतिनिधित्व करता है, यही
उसका मौलिक परिचय है।
पुनीता जैन
प्राध्यापक -हिन्दी, शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भेल, भोपाल, मो. 94250-10223
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