मुद्राराक्षस के नौटंकी नाटकों की रंगमंचीय प्रयोगशीलता / रूपांजलि कामिल्या
शोध-सार -
नाट्य-सृजन
एवं नाट्य-प्रदर्शन नाट्यकला के दो परिपूरक पक्ष हैं। बिना रंगमंच के नाटक की
कल्पना तथा बिना नाटक के रंगमंच की स्थापना का कोई अस्तित्व नहीं है।
नाट्य-संवेदना को दर्शकों के मानस में संवाहित करने का महत्वपूर्ण कार्य नाटक के
रंगमंचीय प्रयोगशीलता द्वारा संभव हो पाता है। इस रंगमंचीय प्रयोगशीलता के विविध
आयाम स्वातंत्र्योत्तर युगीन नाटककारों में विशेष तौर पर देखा जा सकता है।
मुद्राराक्षस इसी समय के सत्तर-अस्सी दशक के एक सशक्त नाटककार हैं जिन्होंने असंगत
नाट्य प्रयोगों के साथ-साथ नौटंकी नाटकों का सृजन कर, पारंपरिक नाट्य शैली में भी आधुनिक रंगमंचीय प्रयोग
कर परंपरा के प्रयोगशील आयाम को दर्शाया है। ‘आला अफसर’ और ‘डाकू’ इसके प्रमाण है। ये दोनों ही नाटक अपनी रचना और
आस्वाद के स्तर पर प्रयोगशील होने के साथ-साथ प्रभावक भी हैं। दिग्भ्रमित होती जा
रही समाज, पतानोन्मुखी राजनीति, सरकारी कामकाज की अराजकता, भ्रष्टता एवं सत्ताधिकारों की मनमानी और नैतिक पतन की
ओर अग्रसर मानव की पाशविक प्रवृतिओं को आवश्यकीय रंगमंचीय उपकरणों के उपयोग से जिस
तरह यथार्थ एवं समसामयिक समाज से जोड़ कर मंचनयुक्त बनाया है, इससे नाटककार की कलात्मक परिपक्वता एवं नाटकों की
प्रयोगधर्मिता पाठक एवं दर्शक के समक्ष स्पष्ट है।
बीज-शब्द - नाटक, रंगमंच, स्वातंत्र्योत्तर, पूरक, नौटंकी, प्रयोगशीलता, रंग-शिल्प, समकालीन, लोक, परंपरा, समाज, राजनीति, सत्ताधीश, अराजकता, भ्रष्ट, अवसरवादी, रंगमंचीय, उपकरण, लोकप्रिय, शासन व्यवस्था, व्यंग्यात्मक, मंचसज्जा, रूपसज्जा, अभिनेयता, प्रकाश योजना, ध्वनि-संगीत, फ्लेशबेक, विडंबना।
मूल आलेख -
नाटक
अपनी प्रकृति में एक ऐसी विधा है, जिसके दो
पक्ष हैं ; पहला पक्ष कथ्य का है एवं दूसरा
पक्ष रंगमच का। बिना रंगमंचीय गुण के कोई भी नाटक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता।
जिस प्रकार साँस के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती उसी प्रकार रंगमच के बिना
नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती। लक्ष्मीनारायण लाल ने रंगमंच और नाटक के
पारस्पारिक सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “रंगमंच की आत्मा नाटक अथवा नाटकीयता
है और उसका सनातन धर्म प्रदर्शन है।”[[i]]
नाटक को जीवनदान तभी मिलता है जब रंगकर्मियों द्वारा उसका प्रदर्शन, रंगशाला में किया जाता है। नाटककार यदि सर्जन करता है
तो रंगकर्मी उसे पुनः सर्जन करता है। गोविन्द चातक मानते हैं कि “वस्तुतः मंच पर
नाटक अपनी सही जिन्दगी जीता है। नाटक स्थूल भाषिक कंकाल है, प्राणशक्ति की प्रतिष्ठा उसमें मंच ही करता है।”[[ii]]
ये एक-दूसरे से इतने संश्लिष्ट एवं गहरे रूप से जुड़े हुए हैं कि इन्हें पृथक् रूप
से जाना-समझा नहीं जा सकता। जिस प्रकार फूल का रूप-रंग और सुगंध एक-दूसरे से जुड़े
हुए हैं उसी प्रकार नाटक और रंगमंच भी परस्पर से अविच्छिन्न हैं। यही कारण है कि
नेमिचंद्र जैन कहते हैं कि “रंगमंच
से अलग करके नाटक का मूल्यांकन या उसके विविध अंगों और पक्षों पर विचार अपूर्ण ही
नहीं, भ्रामक हो जाता है। संसार के नाटक
साहित्य के इतिहास में कहीं भी नाटक को रंगमंच से अलग करके, केवल साहित्यिक रचना के रूप में, नहीं देखा जाता।”[[iii]] दरअसल मंच नाटक का भौतिक, मानसिक और भावात्मक रूपान्तरण करता है। नाटक की
पूर्णता उसके दृश्यत्व में है, जो उसे
रंगमंच ही प्रदान करता है। अतः नाटक और रंगमंच को एक दूसरे का पूरक कहना गलत नहीं
होगा।
स्वातंत्र्योत्तर
युग में विशेषकर साठ से अस्सी दशक के मध्य में नाट्य-रचना की शैली, कथ्य, शिल्प सभी स्तरों पर व्यापक रूप से प्रयोगधर्मी परिवर्तन दिखाई
देता है। इस समय के नाटककारों ने मानव-जीवन के अंतः-बाह्य पहलुओं को नाटक से जोड़ा।
फलतः नाट्य-सृजन में नये भाव-बोध, नयी
दृष्टि एवं नये परिप्रेक्ष्यों का विकास हुआ तथा शिल्प के धरातल पर नवीन प्रयोग
हुए। इन नव-विकसित नाटकों का सृजन भाव, विषय, विचार, शिल्प, मंचन आदि सभी धरातलों पर कहीं परंपरा से एकदम हटकर तो कहीं
पारंपरिक तत्वों को माध्यम बनाकर नवीन शिल्प-योजना के साथ किया गया। एक और ध्यान
देने योग्य बात यह है कि इस समय के नाटकों पर पाश्चात्य रंग-शिल्प का प्रभाव
निरंतर बढ़ता गया। अतः संरचनात्मक दृष्टि से नये-नये प्रयोग किये गये एवं नई-नई
शैलियों का सूत्रपात हुआ।
मुद्राराक्षस
हिंदी नाट्य-साहित्येतिहास में सत्तर-अस्सी दशक के एक सशक्त नाटककार के रूप में
प्रसिद्ध हैं। उन्होंने असंगत नाट्य प्रयोगों के साथ-साथ नौटंकी नाटक भी लिखे हैं
और रंगमंच पर उनके प्रयोग सफल भी हुए हैं। इन नौटंकी नाटकों के रंग-शिल्प में जहाँ
एक ओर पारंपरिक भारतीय नाट्य-शिल्प का प्रयोग हुआ है वहीं दूसरी ओर युगीन
आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसे नया स्वरूप, नया आयाम एवं नया रंग भी प्रदान किया है। उनका
रंग-शिल्प आधुनिक रंग-बोध से संवृत है। उन्होंने स्वयं लिखा भी है कि “मेरे लिए शिल्प फैशन नहीं आवश्यकता है।”[[iv]] ‘आला अफसर’ एवं ‘डाकू’ मुद्राराक्षस के नौटंकी नाटक हैं। गोगोल
के रूसी नाटक ‘इन्सपेक्टर-जनरल’ का ‘आला अफसर’ के नाम से नौटंकी शैली में भारतीय पृष्ठभूमि के आधार
पर हिंदी में नाट्यान्तरण किया। यह नाटक कथ्य के स्तर पर साधारण ही है पर शिल्पगत
दृष्टि से देखा जाय तो नौटंकी के आधुनिक सन्दर्भ में कलागत प्रयोग के कारण इस नाटक
का हिंदी नाटक और रंगमंच के इतिहास में एक बड़ा परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण
योगदान है। अफसरशाही और राजनीतिक स्थिति पर व्यंग्य, समकालीन समस्याओं का सन्दर्भों सहित चित्रण इस नाटक
का मुख्य विषय रहा। न्याय और सहानुभूति के नाम पर जनता का शोषण, सरकार बदल जाने पर भी शासक वर्ग का ज्यों का त्यों
रहना आदि कुछ ऐसे पक्ष हैं जो इस नाटक को बौद्धिक वर्ग से लेकर व्यापक जनसमूह तक
लोकप्रिय बनाया है। ‘डाकू’ मुद्राराक्षस द्वारा सृजित अंतिम नाटक है। शासनतंत्र, राजनीति में बढ़ती जा रही भ्रष्टता के प्रति
मुद्राराक्षस की चिंता इस नाटक के माध्यम से स्पष्ट पता चलता है। इस भ्रष्टता से
जूझते हुए सामान्य मनुष्य की दयनीय दशा का चित्रण इस नाटक में हुआ है। इस नाटक में
महाराजा और हाकिम भ्रष्ट शासनतंत्र का प्रतीक हैं। वे अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाये
रखने के लिए भ्रष्ट शासन पद्धति का उपयोग करते हैं। ऐसे लोग अपने लोभ में इतने गिर
जाते हैं कि गरीबों की मजबूरियों का फायदा उठाकर बचनराम जैसे गरीब, निहत्ते एवं अशिक्षित लोगों को डाकू बनाते हैं।
मुद्राराक्षस ने अपने इस नाटक के माध्यम से ऐसे शासन व्यवस्था पर व्यंग्यात्मक प्रहार
किया है। यह नाटक शिल्पगत दृष्टि से एक नवीन प्रयोग है। नौटंकी शैली में लिखा गया
यह हिंदी का पहला नाटक है, जिसमें
फ्लेशबेक पद्धति का इस्तेमाल हुआ है।
समकालीन
रंगमंच को नौटंकी कला ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। एक पारंपरिक नाट्य-शैली को
आधुनिकता की पुट के साथ प्रस्तुत करने का सफल प्रयास मुद्राराक्षस ने अपने इन दो
नाटकों में किया है। इन नाटकों में उन्होंने केवल स्वातंत्र्योत्तर राजनीति, समाज का विचार ही नहीं किया बल्कि पत्रकारिता, शासकीय सत्ता की अवसरवादिता, भ्रष्टाचार तथा लूट की वृत्ति की तरफ भी ध्यान दिया।
मुद्राराक्षस ने अपने नौटंकी नाटकों में जिन पात्रों को चुना वे सजीव हैं। घटित
घटनाओं का पूरा उल्लेख इसमें होता है। अभिनय के साथ गायकी नौटंकियों को जीवित करती
है। मुद्राराक्षस के नौटंकी नाटकों में मंचसज्जा, रूपसज्जा, अभिनेयता, प्रकाश
योजना, ध्वनि-संगीत योजना आदि रंगमंचीय
तत्वों का प्रयोग हुआ है।
‘आला
अफसर’ हिंदी रंगमंच की एक सशक्त थियेट्रिकल घटना थी।”[[v]]
इस नौटंकी का नाट्य-साहित्य के इतिहास में एक बड़ा परिवर्तन उपस्थित करने में
महत्वपूर्ण योगदान रहा। नौटंकी शैली में प्रस्तुत होने के कारण ‘आला अफ़सर’ में अंक-योजना नहीं है। लोककला के माध्यम से आधुनिक जीवन में
व्याप्त भ्रष्ट राजनीति एवं नौकरशाही को दर्शाने के लिए नाटक में तीन दृश्यों का
प्रयोग देखा जा सकता है। पहला दृश्य चेयरमैन का दफ्तर है, दूसरा दृश्य होटल का कमरा है एवं तीसरा दृश्य चेयरमैन
का घर है। तीसरे दृश्य में खादिम द्वारा बिस्तर वगैराह लाद कर लाने का सीन है।
नौटंकी के लिए मंच को विशेष सजाया नहीं जाता है, खुले स्थान पर छोटी-सी जगह पर ही उसका मंचन हो सकता
है। अतः ‘आला अफ़सर’ के दृश्यों के मंचन के लिए भी खास मंचसज्जा की
आवश्यकता नहीं है। सहज मंचसज्जा में ही नाटक का मंचन संभव है। ‘आला अफ़सर’ की तरह ‘डाकू’ भी नौटंकी शैली का नाटक होने के कारण इसमें भी
अंक-योजना नहीं है एवं नाटक के दृश्यों में मंचन के लिए मंचसज्जा बहुत ही सहज
साध्य है। नाटक की कथा रंगा द्वारा गाँववालों को सुनाया जाता है जो पूर्वदीप्ति
में आगे बढ़ता है। मंच पर गाँववालों का किरदार दर्शक निभाते हैं। नाटक में कई सारे
दृश्यबंध, जैसे- गरीबों के बस्ती का आँगन, गाँव, शहर, डाकुओं
का इलाका, महाराज का दफ्तर और उनका घर, जेल आदि का प्रयोग है। इतने दृश्यों के प्रयोग के
बावजूद मंचसज्जा अत्यंत ही साधारण होने के कारण बोझिल नहीं लगता। मंचीय उपकरण के
नाम पर रोटियाँ सेंकने के समय लकड़ी, सभा के समय भोंपू और झंडियाँ का इस्तमाल किया गया है तथा अंत में
महाराज की हत्या के लिए बचनसिंह के हाथ में तलवार का प्रयोग है। नाटक की मंचसज्जा
शासक लोगों द्वारा गरीबों पर हो रहे अत्याचार एवं विवशता के चलते गरीब लोगों
द्वारा उस अत्याचार को सहने की मजबूरी को दर्शाने में सफल है।
‘आला
अफसर’ तथा ‘डाकू’ में रंगा ही निर्देशक एवं सूत्रधार की भूमिका निभाता है। रंगा ही
सारे खेल की चाल और सूर बांधता है। मंच पर पात्रों के प्रवेश से लेकर प्रस्थान तक
की सूचना रंगा ही देता है। दृश्य परिवर्तन तथा जो दृश्य मंच पर दिखाए नहीं जा सकते, उसका वर्णन रंगा द्वारा किया गया है। जैसे- बचनराम की
स्त्री का सतित्व नष्ट करना और उसका जलकर आत्महत्या करना आदि। नौटंकी में रंगा की
भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
रंग
कार्य में रूप-विन्यास का अपना अलग ही महत्व है। पात्रों के चरित्र और अस्तित्व की
प्राण-प्रतिष्ठा इसी से ही होती है। युग, परिवेश, वातावरण, सभ्यता, संस्कृति आदि के अनुसार पात्रों को रंग, आकर आदि रूपसज्जा द्वारा प्रदान किया जाता है। ‘आला
अफसर’ और ‘डाकू’ नौटंकियों में रूप-विन्यास की दृष्टि से कलात्मकता देख सकते हैं।
नौटंकी होने के कारण इन नाटकों के सभी पात्र हमारे इर्द-गिर्द के ही है। ‘आला
अफसर’ में दिल्ली से आया क्लर्क चौबीस-पच्चीस वर्ष का है, उसका रंग गोरा और साँवला के बीच का है। वह भूरे रंग
का सूट पहने हुए है। चेयरमैन की पत्नी और बेटी साड़ी पहने हैं और मेकअप भी किये
हैं। खादिम का सिर गंजा है। ‘डाकू’ में भी पात्रों के अनुसार वेशभूषा और
रूप-विन्यास देखा जा सकता है। बचनराम का डाकू बचनसिंह बनने से पहले का वेशभूषा
सामान्य गरीब किसान का होता है पर डाकू बनने के बाद वह डाकुओं की तरह वेश धारण कर
लेता है तथा जेल में कैदी की पोशाक में रहता है। बाकी सब पात्रों के चरित्रों के
अनुसार ही उनकी वेशभूषा है। मुद्राराक्षस ने सामान्य वेशभूषा तथा रूपसज्जा के साथ
सामजिक, राजनीतिक पात्रों को दर्शाया है।
‘अभिनेयता’
यानी पात्रों का क्रिया-व्यापार। अभिनय वह कला है जो नाटक के देशकाल और वातावरण को
प्रकट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गोविन्द चातक के अनुसार “नाट्य इसलिए
उच्च कोटि की कला है क्योंकि इसका माध्यम जीवंत, जटिल मानव शरीर है और यह मानव शरीर जिस प्रकार जीवन
की सृष्टि करता है उसी प्रकार अभिनय में भी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का सफल माध्यम
बनता है।”[[vi]]
इस प्रकार अभिनेयता के कारण ही नाटक में सजीवता आती है और नाटक जीवन का एक हिस्सा
प्रतीत होता है। रंगमंच पर अभिनय प्रस्तुत करते समय अभिनेता नाटक द्वारा रेखांकित
पात्र की भूमिका में उतारते हुए उसकी शब्दार्थमयी योजना को जीवन्त स्वरूप प्रदान
करता है। नेमिचंद्र जैन का कहना है “अभिनेता ही नाटककार के साथ वह सर्वप्रमुख और
केन्द्रीय सृजनशील घटक है जिसके कारण प्रदर्शन को एक प्रभावशाली और संश्लिष्ट
कला-विधा का दर्जा मिलता है।”[[vii]]
उनके इस कथन से यह निर्विवाद है कि किसी भी नाटक के रंगमंचीय प्रयोगधर्मिता में एक
महत्वपूर्ण कड़ी अभिनेयता है। ‘आला अफसर’ के प्रारंभ की गणपति वंदना के लिए खड़े
लोगों में उपहासात्मक भक्ति का दर्शन होता है। चेयरमैन, हाकिम, हेडमास्टर तथा पुलिस इंस्पेक्टर के अभिनय से भ्रष्ट राजनीति को
दर्शाया गया है। सामान्य क्लर्क को आला अफसर समझ कर उसके सामने नतमस्तक हो जाना, परोक्ष रूप से लालच दिखाना, मिठाई खिलाना, सेवा करना आदि अभिनय, अफसरों की अवसरवादी तथा भ्रष्ट प्रवृति को प्रस्तुत
करता है। गरीब लोगों को धक्के मारकर भागना अत्याचारी प्रवृति का द्योतक है। इसके
साथ चेयरमैन की पत्नी और बेटी दोनों के साथ क्लर्क का इश्क लड़ाना, नशे में बोलना आदि अभिनय यथोचित बने हैं। हेडमास्टर
का हकलाने का अभिनय विशिष्टता पैदा करता है। साथ ही घबराना, चौंकना, तालियाँ बजाना आदि अभिनय प्रसंगानुरूप बने हैं। ‘डाकू’ में
प्रारंभ की देवता की प्रार्थना विडंबनात्मक अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
प्रार्थना के बाद जेल में कैदियों द्वारा खाना पकाया जा जाता है, जहाँ पर क्रोध से बचनराम लकड़ी तोडता है और बदले की
कसम खाता है। हाकिम का बचनराम की पत्नी पर गन्दी दृष्टि डालना, महाराजा के घर पर ले जाकर उसका सतीत्व नष्ट करना, ख्याति की लालसा में बचनराम जैसे सामान्य आदमी को
प्रलोभन दिखा कर डाकू बनाकर आत्मसमर्पण करवाना आदि अभिनय घटती जा रही मानवता और
राजनीति की भ्रष्ट स्थिति को दर्शकों के सामने उजागर करता है। प्रारंभ में जो लोग
कोरस में प्रार्थना करते हैं, उन्हीं
में से समय आने पर कोई पत्रकार, कैदी भी
बन जाते हैं। अंत में जेल तोड़कर बचनराम का भाग जाना, महाराजा का तुतलाना, बचनराम द्वारा उसकी हत्या करना आदि अभिनय प्रभावात्मक
बने हैं। इसके साथ महाराज का आईने में देखते हुए प्रवेश, कान खुजाना पात्र की विशिष्टता स्पष्ट करते हैं।
लोगों का आकाश की ओर हाथ उठाकर “अल्ला
मेघ दे पानी दे...” गीत
गाना लोगों की अकालग्रस्त स्थिति को स्पष्ट करता है। मुद्राराक्षस के नौटंकियों
में अभिनय कुशलता अपने जीवन्त रूप में विद्यमान है। लोक जीवन का सच्चा अभिनय सीमित
पात्रों द्वारा बख़ूबी से किया गया है।
प्रकाश-योजना
रंगकला का एक सर्जनात्मक आयाम है। नाट्यस्थल और समय को प्रदर्शित करने की दृष्टि
से प्रकाश-योजना का विशेष महत्व है। प्रकाश-योजना से आधुनिक रंग-प्रस्तुति अत्यंत
सहज, सुलभ हो गयी है। नौटंकी शैली के
कारण मुद्राराक्षस के इन दो नाटकों में प्रकाश योजना अत्यंत साधारण ही है। ‘आला
अफसर’ में होटल के कमरे का बल्ब मोमबत्ती जैसा मंद प्रकाश वाला है। चेयरमैन के घर
की रौशनी तेज है। बाकी नौटंकी एक समान प्रकाश में चलती है। ‘डाकू’ में सिर्फ एक
बार अँधेरा होकर कोरस का गाना शुरू होने का और गाना समाप्त होने पर प्रकाश होने का
उल्लेख है। मुद्राराक्षस ने अपने नौटंकी नाटकों में पूर्व प्रचलित प्रथा से भिन्न
बिजली का प्रयोग करके नौटंकी शैली में आधुनिकता का एक नया पैमाना प्रस्तुत किया
है। पर उन्होंने प्रकाश-योजना के अधिक संकेत नहीं दिए हैं।
भरतमुनि
ने गीत-संगीत को नाटकीय प्रभाव की सृष्टि की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना
है। नाटक एक दृश्य-श्रव्य विधा होने के कारण नाटकों में ध्वनि-संगीत-योजना का एक
विशेष स्थान है। डॉ. शांति मलिक के अनुसार “नाटक में यह साधन अलंकार-मात्र न होकर
नाटककार के प्रभावशाली उपकरण है।”[[viii]]
ध्वनि-संगीत-योजना द्वारा रंगमंच की अंतरात्मा की भावमयता को विशेष उभार मिलता है।
खासकर नौटंकी में गीत-संगीत का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। मुद्राराक्षस के
अनुसार “नौटंकी की समूचे अभिनय में थिरकन होती है।”[[ix]]
‘आला अफसर’ और ‘डाकू’ नौटंकी होने के कारण गीत-संगीत नाटकों की आत्मा बनी है।
इनमें लोकगीतों का, छंदयुक्त
गीतों का, हिंदी एवं अंग्रजी के राइम्स का, कबीर के दोहे का, फ़िल्म के गाने का नाट्य-प्रसंगों के सन्दर्भ में नये
ढंग से प्रयोग किया गया है। ‘आला अफ़सर’ नाटक का आरम्भ ही “गाइए गणपति जय वंदन। जिनके कान न सुनते क्रंदन,...”[[x]] - इस विडंबनापूर्ण कथागायन से हुआ है। वहीं ‘डाकू’ का आरम्भ “सदा
स्वागतम् मन मंदिर में . . .”[[xi]] की उपहासात्मक प्राथर्ना से हुआ है। दोहा, चौबोला, दोबोला, दादरा, बहरतवील, मांड़, कव्वाली
आदि तरह-तरह के छंदों का एवं लोकगीति शैलियों का बेहतरीन प्रयोग इन नाटकों में
किया गया है। ‘डाकू’ में अब्बास उद्दीन अहमद की “अल्ला मेघ दे पानी दे ...”[[xii]] बांग्ला लोकगीत का विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया गया है। गर्मी
की तपती दिनों में बारिश की कामना में लिखे गये इस गीत का उल्लेख यहाँ भूखे लोग
करते हैं। वे ऐसे राज में निवास करते हैं जहाँ का शासनतंत्र भ्रष्ट है, इसलिए उन्हें पेट भरने के लिए खाना तक नहीं मिलता है
बल्कि शासनतंत्र के लोग महाराजा और हाकिम अपने स्वार्थ के लिए इन भूखे, गरीब जनता के लाचारी का फायदा उठाते हैं। ‘आला अफ़सर’ में ‘शोले’ (1975) फिल्म के एक कव्वाली का प्रयोग हुआ है।
उदाहरणस्वरूप :-
“अनोखे : चाँद सा कोई चेहरा जो पहलू में हो
(भूल जाता है)
चाँद सा कोई चेहरा जो पहलू में हो
(याद नहीं आता)
चोखे : इससे आगे हमें नहीं आता।”[[xiii]]
बार-बार इन्हीं पंक्तियों को कोरस द्वारा दोहराने पर इसका हास्य-व्यंग्यात्मक प्रयोग सामने आता है। नितिन बोस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘धूप छाँव’ (1935) के एक गीत “तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा”[[xiv]] का प्रयोग भी इस नाटक में देखा जा सकता है। जब चितपुर कस्बे के फरियादी देवदत्त को असली आला अफ़सर समझकर अपने फरियाद लेकर आते हैं तब कोरस द्वारा यह गीत गाई गयी है। इसका प्रयोग चितपुर के शोषित जनता के लिए किया गया है जो सत्ता के शोषण से त्रस्त है और झूठी उम्मीद में अपने फरियाद लेकर देवदत्त के पास आये हैं। इसके अलावा हिंदी के “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे वो . . .”[[xv]] एवं अंग्रेजी के “बा बा ब्लैकशीय हैव यू ऐनी वूल . . .”[[xvi]] राइम्स का भी हास्य-व्यंग्यात्मक प्रयोग हुआ है। मुद्राराक्षस ने स्वयं के बनाये हुए कई सारी तुकबंदीपूर्ण छोटे-छोटे हास्य-व्यंग्यात्मक कविताओं का भी प्रयोग किया है। उक्त नाटक में चोखे और अनोखे जैसे हस्यात्मक पात्र इनका गायन करते हैं।
जैसे-
“चमचे की बीवी चमकीली
पैंट हो रही उसकी ढीली
बेटी उसकी छैल छबीली
बेपेंदी की चढ़ी पतीली। . . .”[[xvii]]
मुद्राराक्षस
अपने सभी नाटकों में गीतों का प्रयोग नहीं किया है पर जितने भी नाटकों में किया है
वह अपनी अर्थपूर्णता के कारण विशिष्ट प्रतीत होते हैं। साथ ही नेपथ्य से स्त्री की
चीख, लकड़ी तोड़ने की आवाज़, डकार, नारों की आवाज़, तालियाँ
आदि ध्वनियों का उपयोग किया गया है। इस प्रकार ध्वनि-संगीत योजना से मुद्राराक्षस
ने अपने नौटंकियों में विशिष्टता लाये हैं तथा परिस्थिति के अनुरूप अर्थपूर्ण
गीतों के प्रयोग से उनके नाटक में खास तरह की भिन्नता प्रतीत होती है जो नौटंकियों
को प्रभावात्मक बनाती है।
नाटक
अपनी रचना और आस्वाद दोनों ही स्तर पर सर्वाधिक संवेदनशील, सशक्त, जीवन्त एवं प्रभावक रूप से सामूहिक तथा सामाजिक विधा है। इस
समाजिक विधा को रंगमंच में सफल रूप से प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न नाटकीय
उपकरणों की आवश्यकता होती है। उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट पता चलता है कि
मुद्राराक्षस ने अपने नौटंकी नाटकों में मंचसज्जा, वेशभूषा एवं रूपसज्जा, अभिनेयता, प्रकाश योजना एवं ध्वनि-संगीत योजना जैसे नाटकीय उपकरणों का
यथोचित ढ़ंग से प्रयोग किया है। उन्होंने इन उपकरणों के साथ कई सारे नए-नए प्रयोग
अपने इन नाटकों में किया है। नौटंकी जो एक परंपरागत नाट्य-शैली है, उसे आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करना एक सराहनीय
प्रयास है। ‘डाकू’ नाटक में फ्लेशबेक शैली का प्रयोग तथा रंगमंच पर उसके सफल मंचन
से वह हिंदी नाटक और रंगमंच जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान अर्जित किया है। नाटकों
की मंचसज्जा के लिए पूर्व प्रचलित दृश्यों की तरह भरमार तथा कृत्रिम वस्तुओं को
मंचसज्जा के साधन न बनाकर हमारे रोजमर्रा के जीवन की सामान्य वस्तुओं को मंचसज्जा
का रूप दिया है। लेकिन मंच पर उपस्थित चीजों से दर्शक दृश्य के बारे में सही
अंदाजा लगा पाता है। उनके नौटंकी नाटकों में पात्र की संख्या सीमित होने के कारण
अभिनेयता में किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं होता है। दिग्भ्रमित होते समाज, पतानोन्मुखी राजनीति, सरकारी कामकाज की अराजकता, भ्रष्टता एवं सत्ताधिकारों की मनमानी और नैतिक पतन की
ओर अग्रसर मानव की पाशविक प्रवृतिओं जैसे ज्वलंत एवं यथार्थवादी प्रश्नों को
मुद्राराक्षस ने अपने नौटंकी नाटकों में उठाया है और विभिन्न रंगमंचीय उपकरणों का
प्रयोग कर इनका सफल मंचन हुआ है, जिससे इन
प्रश्न पर सोचने के लिए दर्शक और पाठक कहीं न कहीं मजबूर हो जाते हैं।
मुद्राराक्षस स्वयं एक सजग नाटककार होने के साथ-साथ अभिजात अभिनेता तथा कुशल
निर्देशक भी हैं। इसलिए उनके नाटक रंगमंच की दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्व रखते
हैं। अतः उनके नौटंकी नाटकों में विद्यमान सहजता और कलात्मकता से उपजे परिपक्वता
का दर्शन होता है।
संदर्भ -
[[i]] लक्ष्मीनारायण लाल, रंगमंच और नाटक की भूमिका, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, संस्करण-1965, पृ.-14
[[viii]] डॉ. शांति मलिक, हिंदी नाटकों की शिल्प विधि का विकास, नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, दिल्ली, संस्करण-1971,
पृ.-506-507
[[xvii]] मुद्राराक्षस, आला अफ़सर, राजेश प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 1981,पृ.- 53
शोधार्थी (हिंदी विभाग),
अंग्रेजी एवं विदेशी
भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद,
kamilyarupanjali@gmail.com, 7382695721
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36,
जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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