शोध : कामताप्रसाद गुरु और किशोरीदास वाजपेयी एक तुलनात्मक विवेचन / चतराराम

कामताप्रसाद गुरु और किशोरीदास वाजपेयी एक तुलनात्मक विवेचन / चतराराम 

 

    कामताप्रसाद गुरु एवं पं. किशोरीदास वाजपेयी हिंदी के अग्रण्‍य वैयाकरण हैं। गुरु जी व्‍याकरणेतिहास के उत्‍कर्षकाल (1920 ई.-1947 ई.) के तथा वाजपेयी जी नवचेतना काल (1947 ई. से वर्तमान काल) के प्रतिनिधि वैयाकरण हैं। चूँकि दोनों अलग-अलग व्‍याकरणिक पद्धतियों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं, इसलिए उनके व्‍याकरणिक चिन्‍तन के तुलनात्‍मक अध्‍ययन के आयाम बढ़ जाते हैं। गुरु जी आंग्‍ल पद्धति ग्रामरका तथा वाजपेयी जी भारतीय पद्धति व्‍याकरणका अनुसरण करते हैं।

    गुरु जी अपने हिंदी व्‍याकरण की प‍द्धति का परिचय देते हुए लिखते हैं- यह व्‍याकरण, अधिकांश में, अंग्रेजी व्‍याकरण के ढँग पर लिखा गया है। इस प्रणाली के अनुसरण का मुख्‍य कारण यह है कि हिंदी में आरम्‍भ ही से इसी प्रणाली का उपयोग किया गया है और आज तक किसी लेखक ने संस्‍कृत-प्रणाली का कोई पूर्ण आदर्श उपस्थित नहीं किया। वर्तमान प्रणाली के प्रचार का दूसरा कारण यह है कि इसमें स्‍पष्‍टता और सरलता विशेष रूप से पाई जाती है और सूत्र तथा भाष्‍य, दोनों ऐसे मिले रहते हैं कि एक ही लेखक पूरा व्‍याकरण, विशद रूप में, लिख सकता है।1 इसका मतलब यह नही समझा जाना चाहिए कि गुरु जी भारतीय व्‍याकरण पद्धति से परिचित नही थे। वे बिल्‍कुल भारतीय व्‍याकरण पद्धति के महत्त्‍व से परिचित थे, किन्‍तु उसके आधार पर हिंदी का व्‍याकरण लिखने में स्‍वयं को समर्थ नही मानते थे। वे लिखते हैं- हिंदी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा जब इसका व्‍याकरण अष्‍टाध्‍यायी और महाभाष्‍य के मिश्रित रूप में लिखा जाएगा; पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखाई देता है। यह कार्य मेरे लिए तो, अल्‍पज्ञता के कारण, दुस्‍तर है; पर इसका संपादन तभी संभव होगा जब संस्‍कृत के अद्वितीय वैयाकरण हिंदी को एक स्‍वतन्‍त्र और उन्‍नत भाषा समझकर इसके व्‍याकरण का अनुशीलन करेंगे।2 वे कारकों एवं कालों का विवेचन विभक्तियों और आख्‍यातों के रूप में शुद्ध संस्‍कृत प्रणाली में करना चाहते थे, किन्‍तु इन विषयों की अंग्रेजी रूढ़ि के बहुप्रचलन के कारण परिवर्तन करना उचित नही समझा।


    गुरु जी ने अंग्रेजी व्‍याकरण का अनुकरण करते हुए शब्‍दों के आठ भेद किए हैं- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रिया-विशेषण, सम्‍बन्‍धसूचक, समुच्‍चयबोधक, विस्‍मयादिबोधक। उनके अनुसार भाषाशास्‍त्री किसी भी भाषा में शब्‍दों के आठ भेद मानते हैं। आगे उन्होंने यह भी स्‍पष्‍ट किया कि संस्‍कृत में शब्‍दों के आठ भेद नही माने गए हैं तो भी हिंदी में उपयोगिता की दृष्टि से शब्‍दों के आठ भेद मानने में कोई हानि नहीं, लाभ ही है। लेकिन यहाँ यह उल्‍लेख करना भी आवश्‍यक है कि कई भाषाशास्‍त्री शब्‍दों के उपर्युक्‍त आठ भेदों को हिंदी भाषा के लिए उपयुक्‍त नही मानते। देवेन्‍द्रनाथ शर्मा के अनुसार अंग्रेजी का विभाग जब अंग्रेजी के लिए ही संगत नहीं है तो हिंदी के लिए वह कहाँ तक स्‍वीकार्य हो सकता है?”3  हिंदी-व्याकरण ने अँग्रेजी के जिस वर्गीकरण को आदर्श बनाया, वह अँग्रेजी ने भी लातिन से उधार लिया था। स्वयं लातिनी व्याकरणों ने भी यूनानी (ग्रीक) व्याकरणों का अनुकरण किया था।4 भारतीय व्‍याकरण पद्धति से तुलनात्‍मक सरल समझी जाने वाली आंग्‍ल-ग्रामर पद्धति के अनुकरण के कारण गुरु जी अपने हिंदी व्‍याकरण में व्‍याकरण की विस्‍तृत प्रक्रिया का समावेश नहीं कर पाए; परिणामस्‍वरूप हिंदी भाषा का तलस्‍पर्शी विश्‍लेषण नहीं हो पाया तथा प्राय: किसी नवोद्भावना को भी प्रस्‍तुत नहीं कर सके।


    दूसरी तरफ किशोरीदास वाजपेयी, भारतीय व्‍याकरण पद्धति के मार्ग पर चलते हुए आंग्‍ल पद्धति के आठ शब्‍द भेदों को स्‍वीकार नहीं किया। उन्‍होंने यास्‍क के मत नामाख्‍यातोपसर्ग निपाताश्‍च का उल्‍लेख करते हुए शब्‍द के मुख्‍य चार ही वर्ग माने- नाम (संज्ञा), आख्‍यात (क्रिया), उपसर्ग और निपात (अव्‍यय) वाजपेयी जी का मानना है हिंदी का व्‍याकरण भारतीय व्‍याकरण पद्धति के आधार पर हिंदी की प्रकृति के अनुरूप हो। उन्‍होंने अपने हिंदी शब्‍दानुशासन में संस्‍कृत को आधार बनाया है। इस पर अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने बात चलाई थी कि हिंदी के व्‍याकरण में प्राकृत को आधार बनाना चाहिए, संस्‍कृत को नहीं। किशोरीदास वाजपेयी ने अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी के द्वारा उठाई गई विप्रतिपत्ति को उचित ठहराया और लिखा- जिस प्राकृत से हिंदी (राष्‍ट्रभाषा, मूल खड़ी बोली) का विकास है वह आँखों के सामने है ही नहीं। उसमें साहित्‍य बना नहीं; और बना तो लुप्‍त हो गया। साहित्‍य में जो प्राकृत प्राप्‍त है, उससे हिंदी (राष्ट्रभाषा) का गठन मेल नही खाता। इसीलिए संस्‍कृत को सामने रखा गया है, जिस से हिंदी का बहुत अधिक मेल है। ऐसा जान पड़ता है कि जिस प्राकृत से हिंदी का विकास हुआ है, वह संस्‍कृत से बहुत दूर न रही होगी।5  वाजपेयी जी संस्‍कृत व्‍याकरण प्रक्रिया के उपयोग से हिंदी भाषा का तलस्‍पर्शी विश्‍लेषण कर हिंदी व्‍याकरण को परिष्‍कृत एवं परिमार्जित कर सके तथा अनेक मौलिक नवोद्भावनाएँ देने में समर्थ हुए।


    व्‍याकरण के विविध पक्षों पर दोनों वैयाकरणों के व्‍याकरणिक चिन्‍तन में समानताएँ तथा असमानताएँ देखने को मिलती हैं। यहाँ वर्ण, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, लिंग, वचन, कारक, क्रिया, वाच्य, काल, अर्थ, वृत्ति, पक्ष, क्रिया विशेषण तथा अव्‍यय आदि के संबंध में दोनों की मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन किया जा रहा है। गुरु जी और वाजपेयी जी दोनों ने वर्ण विवेचन में वर्ण को अखण्‍ड मानते हुए हिंदी वर्णमाला में को तो शामिल किया है, किन्‍तु ड़ तथा ढ़ को स्‍थान नहीं दिया। स्‍वर और व्‍यंजन की परंपरागत परिभाषा दी कि स्‍वर उच्‍चारण में स्‍वयं समर्थ होते हैं तथा व्‍यंजन स्‍वरों की सहायता से उच्‍चरित होते हैं। ’, ‘’, ‘ तथा को मूल स्‍वर तथा ’, ‘’, ‘’,‘ को संयुक्‍त स्‍वर कहा है। स्‍वरों को उच्‍चारण के कालमान के आधार पर दोनों ने वर्गीकृत किया तथा स्‍वरों के प्‍लुत उच्‍चारण की चर्चा भी की। अनुनासिकता को केन्‍द्र में रखकर स्‍वरों का दोनों ने वर्गीकरण किया है। व्‍यंजनों की तीनों श्रेणियों अन्‍तस्‍थ, ऊष्‍म तथा स्‍पर्शवर्गीय का विवेचन दोनों ने किया है।


    वाजपेयी जी वर्ण की सत्‍ता केवल मौखिक ही मानते हैं, जबकि गुरु जी मौखिक तथा लिखित दोनों रूपों में। गुरु जी ने हिंदी वर्णमाला में वर्णो की संख्‍या 46 मानी है, जबकि वाजपेयी जी ’, ‘’, ‘ को मूल ’, ‘’, ‘ से पृथक् न मानकर वर्णो की संख्‍या 43 मानते हैं। वाजपेयी जी संस्‍कृत-व्‍याकरण का अनुकरण करते हुए अं तथा अ: को अयोगवाह कहते हैं, जबकि गुरु जी ने इस पारिभाषिक शब्‍द का प्रयोग नही किया है। वाजपेयी जी, गुरु जी के द्वारा प्रयोग में लाए सानुनासिक शब्‍द को गलत बताते हैं तथा इसके स्‍थान पर अनुनासिक को सही बताते हैं। “‘अनुनासिकत्व स्वरों की स्वरूपगत चीज है; इसलिए सानुनासिक स्वरकहना गलत है।6 गुरु जी ने आभ्‍यन्‍तर प्रयत्‍न के अनुसार वर्णो के विवृत’, स्‍पृष्‍ट’, ईषत्-विवृत् तथा ईषत्-स्‍पृष्‍ट भेद किए हैं; वाजपेयी जी इस वर्गीकरण को हिंदी मे अस्‍पष्‍ट तथा अप्रासंगिक मानते हैं। गुरु जी ने बाह्य प्रयत्‍नों के अनुसार वर्णो को अघोष तथा घोष में विभाजित किया है, वाजपेयी जी ने ऐसा वर्गीकरण प्रस्‍तुत नही किया है; क्‍योंकि उनकी दृष्टि में यह चीज हिंदी में स्‍पष्‍ट नही है। गुरु जी ने स्‍वराघात की चर्चा की है, वाजपेयी जी ने नही। वाजपेयी जी ने हिंदी संधियों की चर्चा की है, गुरु जी ने नहीं।


    संज्ञा विवेचन में गुरु जी ने संज्ञा शब्‍द का प्रयोग किया है, जबकि वाजपेयी जी संज्ञा शब्‍द के स्‍थान पर नाम शब्‍द अधिक उपयुक्‍त समझते हैं। वाजपेयी जी की दृष्टि में नाम, सर्वनाम शब्‍द सीधे हैं, पाणिनि पद्धति में भी नाम शब्‍द चलता है, नामधातु का वर्णन भी हिंदी व्‍याकरणों में मिलता है। यद्यपि उन्‍हें नाम शब्‍द पसन्‍द था तथापि वे संज्ञा शब्‍द का विरोध न कर पाए; उन्‍होंने स्‍वयं माना कि संज्ञा शब्‍द हिंदी व्‍याकरणों में बहुप्रचलित है। दोनों वैयाकरणों में परिभाषा स्‍तर पर भी अंतर देखने को मिलता है। गुरु जी उस विकारी शब्‍द को संज्ञा कहते हैं, जिससे प्रकृत किंवा कल्पित सृष्टि की किसी वस्‍तु का नाम सूचित हो; जबकि वाजपेयी जी सत्त्व प्रधान शब्‍दों को नाम कहते हैं- सत्त्‍वप्रधानानि नामानि। दोनों ने व्‍यक्तिवाचक, जातिवाचक तथा भाववाचक संज्ञाओं का विवेचन किया है। गुरु जी की उपलब्धि यह है कि उन्‍होंने सर्वनाम तथा विशेषण को संज्ञा से भिन्‍न वर्ग का शब्‍द प्रमाणित किया; उनसे पूर्व हिंदी व्‍याकरण में ये दोनों संज्ञा के ही भेद माने जाते थे।


    दोनों वैयाकरणों ने सर्वनाम को संज्ञा (नाम) के बदले आने वाले शब्‍द के रूप में परिभाषित किया है। गुरु जी का सर्वनाम विवेचन विस्तृत तो है किन्‍तु अंग्रेजी पद्धति पर है। उन्‍होंने पुरुषवाचक सर्वनाम को प्रधान पुरुषवाचक तथा अप्रधान पुरुषवाचक में विभाजित किया है, वाजपेयी जी ने पुरुषवाचक सर्वनाम का ऐसा वर्गीकरण नही किया है। निजवाचक आप को गुरु जी सर्वनाम मानते हैं, जबकि वाजपेयी जी नही। गुरु जी ने जो को संबंधवाचक सर्वनाम तथा जो के साथ आने वाले सो’, ‘वह को नित्‍य संबंधी सर्वनाम कहा है; वाजपेयी जी ने जो’, ‘सो’, ‘वह का सर्वनाम में विवेचन तो किया है, पर बिना उपर्युक्‍त नाम दिए। गुरु जी ने क्‍या और कुछ दोनों को सर्वनाम बताया है, किन्‍तु वाजपेयी जी हिंदी शब्‍दानुशासन में पहले तो इन्‍हें अव्‍यय बताते हैं लेकिन बाद में वे लिखते हैं कि “ ‘क्‍यातथा कुछ सर्वनाम भी हैं, अव्‍यय भी हैं; या अव्‍यय भी हैं और सर्वनाम भी हैं।7 गुरु जी कोई को अनिश्‍चयवाचक सर्वनाम मानते हैं, जबकि वाजपेयी जी इसे सामान्‍य-ज्ञानार्थक सर्वनाम।


    वैसे तो गुरु जी ने संक्षिप्‍त हिंदी व्‍याकरण तथा वाजपेयी जी ने हिंदी शब्‍दानुशासन में परम्‍परागत रूप से विशेषण को विशेष्‍य की विशेषता प्रकट करने वाले शब्‍द के रूप में परिभाषित किया है, किन्‍तु गुरु जी ने हिंदी व्‍याकरण में संज्ञा की व्‍याप्ति मर्यादित करने वाले विकारी शब्‍द के रूप में परिभाषित किया है। गुरु जी ने विशेषण के विशेषण को क्रिया-विशेषण कहा है, जबकि वाजपेयी जी ने प्रविशेषण। दोनों वैयाकरणों ने संख्‍यावाचक विशेषण के बारे में काफी लिखा है, किन्‍तु शून्‍य के बारे में किसी ने उल्‍लेख भी नही किया। सवा से सवे रूप नही बनने का कारण वाजपेयी जी ने बताया।गुरु जी ने उपयोगिता की दृष्टि से समस्‍त हिंदी विशेषणों के तीन भेद किए- सार्वनामिक विशेषण, गुणवाचक विशेषण तथा संख्यावाचक विशेषण। उन्होंने परिमाणबोधक विशेषण को संख्‍यावाचक विशेषण का ही एक भेद माना। वाजपेयी जी ने सरल शब्‍दानुशासन में कई आधारों पर विशेषण का वर्गीकरण किया है। उन्‍होंने विशेष्‍य भेद के आधार पर तीन भेद- संज्ञा विशेष्‍य, क्रिया विशेषण तथा विशेषण का विशेषण (प्रविशेषण); प्रयोग-भेद से दो भेद- उद्देश्‍यात्‍मक विशेषण तथा विधेयात्‍मक विशेषण; विशेषता-भेद से दो भेद- गुणरूप विशेषण तथा क्रियारूप विशेषण किए। गुरु जी के अनुसार एक का समुदायवाचक रूप अकेला है, जबकि वाजपेयी के अनुसार एक की समष्टि नही हो सकती; वस्‍तुत: अकेला एकाकी के अर्थ में है। वाजपेयी जी स‍मष्‍टिप्रधान संख्‍यावाचक शब्‍दों जैसे- ‘दोनो’, ‘तीनो को बीसों’, ‘सैकड़ों आदि शब्दों से पृथक् श्रेणी का मानते हैं, जबकि गुरु जी समुदायवाचक विशेषण (चारों, दसों) तथा अनिश्चय (बीसों आदमी, सैकड़ों रूपयें) में ओं प्रत्यय मानते हैं। दोनों ने हिंदी में प्रचलित संस्‍कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी शब्‍दों के संबंध में लिंग-विवेचन अर्थ एवं रूप के आधार पर किया है। स्‍त्रीलिंग प्रत्‍ययों के द्वारा स्‍त्रीलिंग शब्‍द बनाने तथा पुल्लिंग प्रत्‍यय के द्वारा पुल्लिंग बनाने का भी विवेचन किया गया है। गुरु जी ने एकलिंग तथा उभयलिंग पारिभाषिक शब्‍दों का प्रयोग कर उनका विवेचन किया है; वाजपेयी जी ने इन पारिभाषिक शब्‍दों का न तो प्रयोग किया है और न ही विवेचन। वाजपेयी द्वारा प्रस्‍तुत पुंविभक्ति उनकी मौलिक उद्भावना है।


    दोनों विद्वानों ने वचन की परिभाषा तथा उसके दोनों भेदों- एकवचन एवं बहुवचन का विवेचन किया है। दोनों ने बहुवचन के दोनों रूपों का वर्णन किया है, जिसे गुरु जी विभक्तिसहित बहुवचन तथा विभक्तिरहित बहुवचन कहते हैं और वाजपेयी जी सविभक्तिक बहुवचन तथा निर्विभक्तिक बहुवचन। दोनों द्वारा प्रतिपादित एकवचन से बहुवचन बनाने के कई एक नियमों में समानताएं भी हैं; जैसे- हिंदी आकारान्त पुल्लिंग शब्दों के निर्विभक्तिक बहुवचन बनाने में अन्त्य के स्थान पर हो जाता है; अकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों का निर्विभक्तिक बहुवचन अन्त्य के स्थान पर एँ करने से बनता है तथा आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के निर्विभक्तिक बहुवचन में अन्त्य स्वर के परे एँ प्रत्यय लगता है। दोनों ने आदरार्थ बहुवचन एवं नित्य बहुवचन में प्रयुक्त शब्दों जैसे- दर्शन, हस्ताक्षर आदि की चर्चा की है।


    वाजपेयी जी ने सविभक्तिक एवं निर्विभक्तिक बहुवचन का विवेचन वचन-प्रकरण में किया है; जबकि गुरु जी ने विभक्तिरहित बहुवचन का विवेचन तो वचन-प्रकरण में किया है, किंतु विभक्तिसहित बहुवचन का विवेचन कारक-प्रकरण में किया है। गुरु जी ने आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के विभक्ति रहित बहुवचन में विकल्प से यें लगाने का नियम प्रतिपादित किया है; जैसे- शाला-शालायें, माता-मातायें, अप्सरा-अप्सरायें आदि। वाजपेयी जी के अनुसार उपर्युक्त शब्द अशुद्ध हैं। वाजपेयी जी पुल्लिंग-स्त्रीलिंग सभी शब्दों के सविभक्तिक बहुवचन ओं विकिरण से बने मानते हैं, जबकि गुरु जी ओं तथा यों प्रत्ययों से। बहुवचन रूप- लड़कों, बहनों, बालकों, बुढ़ियों, माताओं, कवियों, नदियों, बाबुओं में वाजपेयी जी ओं विकिरण मानते हैं, जबकि गुरु जी बुढ़ियों, कवियों, नदियों में यों प्रत्यय तथा शेष में ओं प्रत्यय मानते हैं। गुरु जी ने उर्दू शब्दों में उर्दू प्रत्यय लगाकर बहुवचन बनाने के नियम लिखे हैं, जबकि वाजपेयी जी ने नहीं। गुरु जी और वाजपेयी जी दोनों ने कारक-विवेचन में कारक की परिभाषा एवं उसके भेदों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। ने’, ‘को’, ‘से’, ‘में आदि को दोनों ने विभक्ति कहा है। वाजपेयी जी ने इन के लिए प्रयुक्त परसर्ग शब्द को नापसंद किया है तथा विभक्ति शब्द को उचित माना है। दोनों ही विद्वान विभक्तियों को चरम प्रत्यय मानते हैं।

   

    गुरु जी संज्ञा या सर्वनाम के उस रूप को कारक कहते हैं, जिसका संबंध वाक्य के दूसरे शब्दों के साथ प्रकाशित हो, जबकि वाजपेयी जी क्रिया के साथ जिसका सीधा संबंध हो उसे ही कारक कहते हैं। इस प्रकार कारक की परिभाषा को लेकर दोनों में अंतर है; परिणामस्वरूप कारकों के भेदों की संख्या भी अलग-अलग हैं। गुरु जी अंग्रेजी ग्रामर का अनुसरण करते हुए कारकों के आठ भेद- कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण तथा संबोधन मानते हैं, जबकि वाजपेयी जी संस्कृत परंपरा का अनुसरण करते हुए कारकों के छह भेद मानते हैं- कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण। वे संबंध एवं संबोधन को कारक नहीं मानते। गुरु जी कारकत्वशब्द में मानते हैं; वाजपेयी जी अर्थ में, शब्द में नहीं। “ ‘राम पुस्तक पढ़ता है’….‘राम जिस लड़के का नाम है, वही वस्तुत: पढ़ने का काम करता है, और इसलिए वही कर्ताहै। उस लड़के का बोध रामशब्द से होता है, इसलिए इसे भी कर्ताकहेंगे।8 गुरु जी ने हिंदी में कारक और विभक्ति में अंतर नहीं माना है, जबकि वाजपेयी जी ने माना है। वे लिखते हैं विभक्तियों को कारक समझ लेने से बड़ी गड़बड़ी पैदा हो जाएगी। को आदि विभक्तियाँ कर्म में ही नहीं, कर्ता आदि अन्य कारकों में भी आती हैं।9 विभक्ति नाम के औचित्य पर वाजपेयी जी ने चर्चा की है, गुरु जी ने नहीं। वाजपेयी जी ने संश्लिष्ट विभक्ति ’, उपपद विभक्ति, संबंध विभक्तियाँ के’, ‘रे’, ‘ने तथा संबंधार्थ तद्धित प्रत्यय ’, ‘’, ‘ का उल्लेख एवं विवेचन किया है, जबकि गुरु जी ने नहीं। क्रिया प्रकरण में दोनों ने क्रिया की परिभाषा, धातु, नामधातु, अकर्मक क्रिया, सकर्मक क्रिया, द्विकर्मक क्रिया, प्रेरणार्थक क्रिया, संयुक्‍त क्रिया आदि का विस्‍तारपूर्वक विवेचन किया है। दोनों ने हिंदी धातु को स्‍वरान्‍त माना है।

   

    वाजपेयी जी ने संस्‍कृत-व्‍याकरण के अनुकरण से क्रिया पद के लिए आख्‍यात पद का भी प्रयोग किया है। वाजपेयी जी ने हिंदी धातुओं का विकास तथा उनके रूपग्रहण की पद्धतियों की विस्‍तारपूर्वक व्‍याख्‍या की है, जबकि गुरु जी ने नहीं। और हो धातु की भी तुलना वाजपेयी जी करते हैं, गुरु जी नही। गुरु जी व्‍युत्‍पत्ति के अनुसार धातु के दो भेद करते हैं- मूल धातु एवं यौगिक धातु; वाजपेयी जी ने धातु का ऐसा वर्गीकरण नहीं किया है। वाजपेयी जी ने क्रिया के तिङन्त और कृदन्त भेद, क्रिया के सिद्ध और साध्‍य रूप, त्रिकर्मक क्रिया, पूर्वकालिक क्रिया, क्रियार्थक क्रिया तथा क्रिया के अकर्तृक प्रयोग का विवेचन किया है; गुरु जी ने नहीं। गुरु जी ने उभयविध धातु, अपूर्ण अकर्मक, अपूर्ण सकर्मक तथा सजातीय क्रिया आदि नाम से विवेचन किया है, वाजपेयी जी ने नहीं। वाजपेयी जी ने द्विकर्तृक क्रिया (प्रेरणा) तथा क्रिया के अकर्तृक प्रयोग के संबंध में उपधातु की अवधारणा प्रस्‍तुत की है, गुरु जी ने नहीं।

       गुरु जी ने संयुक्‍त क्रिया और संयुक्‍त कालों का स्‍पष्‍ट विभाजन किया हैवाजपेयी जी ने ऐसा कोई स्‍पष्‍ट विभाजन तो नहीं किया, किन्‍तु वे संयुक्‍त क्रिया को विशिष्‍ट संयुक्‍त क्रिया मानते हैं। वाजपेयी जी ने संयुक्‍त क्रिया को संश्लिष्‍ट तथा विश्लिष्‍ट दो रूपों में विभाजित किया है और अधिकतर संयुक्‍त क्रियाओं को विश्लिष्‍ट मानते हुए उनमें जुड़ने वाली सहायक क्रियाओं का विवेचन किया है; गुरु जी ने विभिन्‍न कृदन्‍तों आदि के आधार पर संयुक्‍त क्रिया की रचना मानी है।  गुरु जी ने वाच्‍य का विवेचन अर्थपरक तथा वाजपेयी जी ने रूपपरक किया है। वाजपेयी जी वाच्‍य एवं प्रयोग को पर्याय मानते हैं, इसके विपरीत गुरु जी वाच्‍य एवं प्रयोग को भिन्‍न-भिन्‍न संकल्‍पना मानते हैं। वे वाच्‍य का विवेचन वक्‍ता द्वारा दी गई प्रधानता या अर्थ के आधार पर तथा प्रयोग का विवेचन रूप रचना के आधार पर करते हैं।

   

    गुरु जी एवं वाजपेयी जी ने काल प्रकरण में वर्तमान काल, भूतकाल तथा भविष्‍यत्काल को विवेचित किया है। दोनों ने पक्ष को स्‍वतन्‍त्र व्‍याकरणिक कोटि के रूप में विवेचित न कर काल के अन्‍तर्गत ही समाहित किया है। वाजपेयी जी कृदन्‍त एवं तिङन्त क्रिया रूप में हिंदी के कालों का विभाजन करते हैं। काल-रचना संबंधी विवेचन में मूल अन्‍तर यह है कि गुरु जी कृदन्‍तों से बनने वाले कालों का उल्‍लेख करते हैं तो वाजपेयी जी उन्‍हीं कृदन्‍तों में प्रयुक्‍त प्रत्‍ययों के आधार पर वर्गीकरण करते हैं। अधिकांश सामग्री समान होते हुए भी बहुत से नामों में अन्‍तर है। गुरु जी के पूर्ण वर्तमान काल तथा पूर्ण भूतकाल को वाजपेयी जी क्रमश: आसन्‍नभूत, विप्रकृष्‍टभूत कहते हैं। वैसे तो गुरु जी काल एवं अर्थ की अलग-अलग व्‍याख्‍या करते हैं। पहले पाँच अर्थों- निश्‍चयार्थ, संभावनार्थ, सन्‍देहार्थ, आज्ञार्थ तथा संकेतार्थ की चर्चा करते हैं, किन्‍तु बाद में काल एवं अर्थ को मिलाकर कुल 16 काल प्रस्‍तुत करते हैं। वाजपेयी जी ने अर्थ शब्‍द का तो प्रयोग नही किया है, किन्‍तु विशेष भविष्‍यत् क्रियाओं में‍ विधि, आज्ञा, प्रार्थना, आशीर्वाद, शाप आदि का विवेचन किया है।


    गुरु जी एवं वाजपेयी जी में क्रिया-विशेषण को लेकर काफी मतभेद हैं। वाजपेयी जी ने क्रिया की विशेषता बतलाने वाले शब्‍दों को ही क्रिया-विशेषण कहा है, जबकि गुरु जी ने क्रिया की विशेषता बतलाने वाले शब्‍दों के साथ-साथ विशेषण एवं क्रिया-विशेषण की विशेषता बतलाने वाले शब्दों को भी क्रिया-विशेषण कहा है। गुरु जी कालवाचक (जब, तब), स्‍थानवाचक (यहाँ, वहाँ) तथा दिशावाचक (इधर, उधर) को क्रिया-विशेषण मानते हैं, जबकि वाजपेयी जी इन्‍हें क्रिया-विशेषण न मानकर अव्‍यय मानते हैं। वे मानते हैं कि जो अव्‍यय हो, वह क्रिया-विशेषण भी जरूर हो, यह कोई नियम नहीं है। यदि कोई अव्‍यय क्रिया की विशेषता बतलाता है तब वह अवश्‍य क्रिया-विशेषण होगा अन्‍यथा नहीं।

   

    दोनों वैयाकरणों ने अव्‍यय को एक-सा परिभाषित किया है कि अव्‍यय में विकार नहीं होता। आगे गुरु जी ने पाश्‍चात्‍य पद्धति का अनुकरण करते हुए अव्‍यय को चार भेदों में विभाजित किया है- क्रिया-विशेषण, सम्‍बन्‍धसूचक, समुच्‍चयबोधक तथा विस्‍मयादिबोधक, जबकि वाजपेयी जी ने संस्‍कृत-पद्धति का अनुकरण करते हुए अव्‍ययों की गणना सीधे ही की है तथा कुछ तद्धित एवं कृदन्‍त पदों को अव्‍यय प्रतिपादित किया है। गुरु जी ने अपने हिंदी व्‍याकरण में उदाहरण हिंदी के मान्‍य लेखकों के ग्रंथों से लिए हैं; इसके विपरीत वाजपेयी जी के हिंदी शब्‍दानुशासन में प्राय: ऐसा नहीं किया है, वे स्‍वयं उदाहरण देते हैं। दोनों वैयाकरणों में हिंदी व्‍याकरण के अध्‍ययन के प्रति रुचि आजीवन बनी रही। वाजपेयी जी सर्वनाम एवं तद्धित प्रकरण तो गुरु जी कारक एवं काल प्रकरण पुन: लिखना चाहते थे।

   

    गुरु जी एवं वाजपेयी जी के व्‍याकरण के कथ्‍य-पक्ष के साथ-साथ उनके अभिव्‍यक्ति-पक्ष में भी अन्‍तर दृष्टिगोचर होता है। जहाँ तक भाषा-शैली का सवाल है, दोनों की भिन्‍न-भिन्‍न हैं। वाजपेयी जी भाषा-शैली के सम्‍बन्‍ध में उनकी ही जुबानी इस प्रकार है- “ ‘सभा का निर्देश मैंने नही माना था कि ग्रंथ की भाषा ऐसी गुरु-गम्‍भीर होनी चाहिए, जैसी कि शास्‍त्रों की होती है। कठिन विषय के नवीन तत्त्‍व यदि वैसी गुरु (बोझिल) भाषा में प्रकट किए जाएँ, तो समझने वालों पर आफत ! सरल सहज भाषा में कठिन तत्त्‍व भी अच्‍छी तरह झलकते हैं। इसीलिए सभा का निर्देश (भाषा तथा शैली के सम्‍बंध में) मैंने नहीं माना था। मेरी प्रसन्‍न-शैली की जगह सभागंभीर-शैली चाहती थी। मैंने अपनी ही शैली रखी। सभा की वर्तनी भी मैंने स्‍वीकार न की थी।10 गुरु जी की भाषा प्रांजल है तथा सभा के निर्देशानुरूप गंभीर शैली में व्‍याकरण लिखा गया है। वाजपेयी जी ने अपने विवेचन में अन्‍य वैयाकरणें एवं भाषा वैज्ञानिकों पर कटाक्ष एवं उपहास भी किया है, जबकि गुरु जी ने नहीं।

   

    सिद्धान्‍त निर्धारण में गुरु जी एवं वाजपेयी जी में अन्‍तर स्‍पष्‍ट दिखता है। गुरु जी सिद्धान्‍त से प्रारम्‍भ होकर व्‍यावहारिक धरातल पर आते हैं। वे व्याकरणिक विषय के आवश्‍यक पक्षों का विवेचन करते हैं तथा स्‍पष्‍टता से गहराई तक पहुँचते हैं। सिद्धान्‍त की पुष्टि के लिए वे उदाहरण देते हैं। इस प्रकार गुरु जी परिभाषा, उदाहरण, विवेचन तथा टिप्‍पणी के क्रम में विवेचन करते हैं। वाजपेयी जी भाषा-प्रयोग को ध्‍यान में रख उदाहरणों के आधार पर सिद्धान्‍त प्रस्‍तुत करते हैं। कहीं-कहीं वे भाषा-प्रयोग एवं उदाहरण तक ही सीमित रह गए हैं; स्‍पष्‍ट सिद्धान्‍त निर्धारित नहीं कर पाए।

   

    दोनों वैयाकरणेां की व्‍याकरणिक विषय की प्रस्‍तुति में अंतर है। गुरु जी की प्रस्‍तुति व्‍यवस्थित है। एक विषय का विवेचन एक ही स्‍थान पर मिलता है, अलग-अलग स्‍थानों पर नहीं। वाजपेयी जी की विषय प्रस्‍तुति में बिखराव परिलक्षित होता है। एक ही विषय पुस्‍तक में कई जगहों पर मिलता है। वे किसी एक विषय की विवेचना करते हैं तो बीच में विषयान्‍तर कर मूल विषय से हट जाते हैं, जिससे पाठक को मूल विषय समझने में कठिनाई आती है। कहीं-कहीं तो उन्‍होंने विषय की परिभाषा त‍क नहीं दी है। भाषा के समस्‍त प्रयोगों को भी वे समेट नहीं पाए हैं।

   

    वाजपेयी जी के हिंदी शब्‍दानुशासन में अप्रासंगिक उक्तियाँ, व्‍यक्तिगत प्रसंग तथा उनकी श्‍लाघाप्रियता झलकती हैं। उनकी श्‍लाघाप्रियता उनके इस अनुच्‍छेद में स्‍पष्‍ट प्रकट हुई है- “ ‘राष्ट्रिय देख कर लोग केन्द्रिय तथा प्रदेशिय आदि लिखने ही लगे थे ! प्रवाह चलता है, गलत या सही ! फिर उसे रोकना कठिन काम ! परन्‍तु वह उपक्रम तुरन्‍त दबा दिया गया। एक ही व्‍यक्ति ने उसे भी रोक दिया ! यों एक तुफान दब गया। हिंदी को विकृत कर देता, यदि जहाँ का तहाँ दबा न दिया जाता।11 गुरु जी के हिंदी व्‍याकरण में अप्रासंगिक उक्तियाँ तथा व्‍यक्तिगत प्रसंगों का उल्‍लेख नही है। उनके लेखन से विनम्रता का भाव प्रकट होता है।


संदर्भ-

1. कामताप्रसाद गुरु : हिंदी व्याकरण, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संशोधित संस्करण, 1952,   

   पृ. 3-4 (भूमिका)

2. वही, पृ. 4 (भूमिका)

3. देवेन्द्रनाथ शर्मा : भाषाविज्ञान की भूमिका, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, नौवाँ संस्करण,         

   2015, पृ.228

4. रवीन्द्र कुमार पाठक : हिन्दी व्याकरण के नवीन क्षितिज, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,     

   दूसरा संस्करण, 2012, पृ.135

5. किशोरीदास वाजपेयी : हिंदी शब्दानुशासन, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, पाँचवाँ संस्करण,  

   1998, पृ. 3 (दूसरे संस्करण पर लेखक का निवेदन)

6. वही, पृ. 91

7. वही, पृ. 244

8. आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली (विष्णुदत्त राकेश), खंड-1 (कुल खंड-6), वाणी प्रकाशन, 

   नई दिल्ली, 2008, पृ. 43

9. वही, पृ. 44

10. किशोरीदास वाजपेयी : हिंदी शब्दानुशासन, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, पाँचवाँ संस्करण, 

   1998, पृ. 35 (दूसरे संस्करण पर लेखक का निवेदन)

11. वही, पृ. 57


चतराराम

शोधार्थी

मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय

उदयपुर

cram.kls@gmail.com, 9413483476

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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