संत्रास, कुंठा, घुटन और महानगरों का अम्बेडकरवादी लेखन / डॉ. कर्मानंद आर्य
बाबा साहब वर्ण को व्यवस्था नहीं बल्कि
अव्यवस्था मानते थे। मानव और मानव में भेदभाव करने वाली कोई भी चीज व्यवस्था नहीं
हो सकती बल्कि उसे अव्यवस्था ही कहा जाना उचित होगा। उनका मानना था कि वर्ण
व्यवस्था के क्रूर विधानों के कारण दलितों एवं शूद्रों की बहुत दुर्दशा हुई हैं।
वे लिखते हैं – ‘भारत में अस्पृश्यों की मुसीबतें विश्व में
अन्यत्र रह रहे दासों एवं गुलामों से ज्यादा कठिन हैं। इसलिए यह जरुरी हैं कि
साम्राज्यवाद और नस्लवाद आदि से लड़ते समय अस्पृश्यता से लड़ना न भूला जाय’। बाबा साहब अंबेडकर की इन चिंताओं से देश न जाने
कब रूबरू होगा!! गाँव हो या देश दलितों के लिए कहीं भी अमन चैन की जिन्दगी नहीं
हैं। कामकाजी दफ्तरों और शैक्षिक संस्थानों में जातिगत आधार पर भेदभाव के मामले
अक्सर संज्ञान में आते हैं। यह तथ्य हैं कि गाँवों से शहर में पलायन किये हुए लोग
अब सवर्णों के रहमोंकरम पर नहीं हैं। स्थितियां बदली हैं तो अस्पृश्यता के रूपों
में बदलावों को भी सहज रेखांकित किया जा सकता हैं।
लोक में कहावत हैं कि कुम्हार की बेटी को न
नैहर में सुख होता हैं और न ही ससुराल में। वह कहीं भी रहे उसे तो बस काम करना
हैं। खटना-कमाना हैं। उसके जीवन की यही त्रासदी हैं, पर उसके पास
विकल्प भी कहाँ हैं? वह मिट्टी के बर्तन बनाती हैं और अंततः मिट्टी
में धूल-धूसरित हो जाती हैं। कुम्हार ही क्यों धोबी, अहिर, जाटव,
मांझी,
धोबी,
धनगर
आखिर किसकी बेटी हैं जो महलों का सुख भोगती हैं? दलित जीवन की भी
यही त्रासदी हैं। वे कहीं भी रहे उनके जीवन में संत्रास, कुंठा, घुटन
कभी पीछा नहीं छोड़ते। जो धर्मसत्ता उसे गाँव में दक्षिण टोले का नागरिक बनाती हैं
वही धर्मसत्ता उन्हें रेल की पटरियों, बजबजाते नालों के किनारे, कूड़ा
फेकने वाली जगहों पर पनाह लेने को मजबूर भी करती हैं। यह विभाजन केवल गरीबी और
अमीरी का नहीं हैं। यह सवाल जाति का हैं। कौन किस मुहल्ले में रहेगा, क्यों
रहेगा, कौन क्या करेगा, क्यों करेगा यह सब जाति के आधार पर तय
कर दिया जाता हैं। महानगरों में कामकाजी दलितों के लिए अलग से ‘अंबेडकर
मुहल्ले’ ‘करीम बस्ती’ ‘मुसहर टोले’ का इंतजाम होता
हैं। यह भेद जाति और धर्म के आधार पर सदियों से होता रहा हैं। हिन्दू के मोहल्ले
में मुसलमान तो मुसलमान के मुहल्ले में हिन्दू बसते हुए पहले डरता था पर अब शहरी
आबादी में दलित सवर्ण के पास रहने बसने और पसमांदा शेख सय्यद के पास बसने से डरता
हैं। उसके डर की पड़ताल करें तो ज्ञात होगा कि इसके प्रमुख कारणों में से एक हैं
जातिवाद।
फारवर्ड प्रेस का एक आलेख ‘दलितों
को अंबेडकर-फुले की सलाह’ यह
तथ्य उद्घाटित करता हैं कि अंबेडकर और उनसे पूर्व जोतिबा फुले ने
शूद्रों-अतिशूद्रों को शहरों की तरफ कूच करने की सलाह दी थी। जोतिबा के दादा
शेतिबा और पिता गोविंदराव के शहरी और ग्रामीण अनुभवों की तुलना से जन्में सहजबोध
ने उन्हें शहर की स्वतंत्रता का प्रशंसक बनाया। खुद जोतिबा का जीवनयापन शहर में
ठेकेदारी करने के अवसर मिलने से ही संभव हुआ (गोविन्द गणपत काले, ‘महात्मा
फु लेयांच्या अप्रकाशित अथावनी’)। अंबेडकर ने भी शहर की तरफ जाने की
सलाह दलितों को मुख्यत: शहरों में जातीय पहचान के दंश और जातिगत पेशे से छुटकारे
की संभावना के कारण दी थी। इसलिये गांधी के ग्राम स्वराज और पंचायत-आधारित मॉडल से
उनका विरोध था क्योंकि इनमें इससे छुटकारे की संभावना नहीं थी। गांधीवादी दर्शन,
ग्रामीण
व्यवस्था और जीवन को एक आत्मनिर्भर इकाई के रूप में महिमामंडित करता हैं लेकिन
उसमें जातीय संघर्षों की संभावना को नजरअंदाज करता हैं। इसीलिये अंबेडकर ने गांधी
के ग्राम स्वराज का ओरिएंटलिस्ट समझ पर आधारित विकल्प प्रस्तुत किया (ओम्वेट डी. ‘दलित्स
एंड द डेमोक्रेटिक रेवोल्युशन : डॉ. अंबेडकर एंड द दलित मूवमेंट इन कोलोनियल
इंडिया’ 2004)।
महानगरीय जीवन की कठिनाई को व्यक्त करने वाले
कई दृष्टांत हमारे समाज में बिखरे हुए मिल जायेंगे। अभी फिलहाल के दिनों में
दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करने वाली अध्यापिका और हिंदी दलित कविता की
महत्वपूर्ण हस्ताक्षर डॉ. रजनी अनुरागी ने फेसबुक पर जो टिप्पणी डाली वह हमारे
समाज की हकीकत को बखूबी बयान करती हैं। उनकी उस टिप्पणी को यहाँ पर साभार कोट कर
रहा हूँ ताकि इस जातीय घृणा और अवसाद को संवेदनशील लोग जान समझ पायें। वे लिखती
हैं- पिछले लगभग 10 दिन से किराए पर दो शयनकक्ष वाला फ्लैट देख
रही हूं। रोहिणी दिल्ली में डीडीए की और अन्य कई ग्रुप हाउसिंग सोसायटीज़ के आवासीय
परिसर हैं। रोहिणी हर लिहाज से बढ़िया जगह हैं। मैं, जैसा कि सभी
जानते हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल
कॉलेज में पढ़ाती हूँ। मेरे पापा रूप नगर, नम्बर 1 के सीनियर
सेकेंड्री बॉयज स्कूल से उपप्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। पेशे की दृष्टि से
मेरी जाति/ वर्ण क्या होना चाहिए?? जबकि मैं इस जाति व्यवस्था की घोर
विरोधी हूँ। यह सब मैं क्यों लिख रही हूं? इसका कारण यह हैं कि मकान मालिकों को
मेरे पेशे की बजाय जाति जानने में दिलचस्पी का होना हैं। आपका सरनेम क्या हैं?
किस
जाति से हैं? वैसे तो हम जाति वाति मानते नहीं, पर
कौन कैसा आ जाए? (क्योंकि जाति विशेष के लोग 'सत्धर्मी'
होते
हैं!!!)
वे आगे एक और तथ्य का उदघाटन करती हैं कि मकान मालिक तो मकान मालिक प्रोपर्टी डीलर के पानी पिलाने वाले और मकान की चाबियाँ लेकर मकान दिखाने का संयुक्त काम करने वाले सहायक तक (यहां मार्क्सवाद लाने की आवश्यकता नहीं) ने पहले सीधे कास्ट फिर मेरे ये कहने पर कि- क्या मतलब! उसने सकपकाते हुए पूरा नाम जानने की कोशिश की। प्रॉपर्टी डीलर परिचित था सो उसने तुरंत उसे मकान पता करने और दिखाने को कहा। डीलर ने बात सम्भालते हुए कहा, "जी क्या करें मकान मालिक पूछते हैं!! मैंने कहा ऐसे किसी जातिवादी का मकान हम बिल्कुल नहीं लेंगे और हम वहां से आ गए। दूसरा वाकया ये हैं कि दिल्ली के सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त जातिवादी ने मुँह खोलकर जाति पूछी और हमने अपनी जाति उनके मुँह पर फैंक दी। जाति को हाथ में लिए वे बोले......जाति से क्या होता हैं!! हे हे हँसने लगे। जब कुछ होता नहीं तो पूछते क्यों हो? अभी तक फ्लैट नहीं मिला हैं जबकि 30 सितम्बर तक वर्तमान फ्लैट खाली करना हैं। क्या हिंदी के कवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में उन्हीं लोगों को संबोधित यह कविता तो नहीं लिखी थी–
‘ऊपर सिर पर कनक क्षत्र, भीतर
काले के काले
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले’
यह परिघटना कोई नई नहीं हैं। दलितों को ऐसी
दुर्घटनाओं से लगातार दो-चार होना पड़ता हैं। वही अपने अनुभव रजनी अनुरागी अपने एक
और पोस्ट में लिखती हैं। दो साल पहले अपनी बहन के लिए जब मकान देख रही थी तब भी
यही समस्या सामने आई थी। दो मकान मालिकों ने हाँ करने के बावजूद, सब
फाइनल करने के बावजूद मकान नहीं दिया। बाद में उन्हें एकदम डीडीए कंडीशन में रॉ
फ्लैट लेना पड़ा। मांस-मच्छी तो नहीं खाते, यह भी उनसे पूछा गया। वो दुर्गापुर में
पोस्टिड थे, सिंह लगाते थे तो पूछा गया कि भूमिहार हो क्या,
ये....वो
.....ब्ला ब्ला.... जबकि जीजाजी नैशनल
पावर ट्रेनीज़ इंस्टिट्यूट में डायरेक्टर पद पर कार्यरत थे।
ज्ञात हो कि हिंदी में मोहनदास नैमिशराय,
मलखान
सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. तेज सिंह, डॉ. तुलसी राम,
कँवल
भारती, डॉ. धर्मवीर, माता प्रसाद, हरपाल सिंह अरुष,
सूरजपाल
चौहान, डॉ. एन. सिंह, डॉ. कालीचरण स्नेही, मूलचंद्र
सोनकर, जयप्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन, सुदेश
कुमार तनवर, असंगघोष, अजय नावरिया,
ईश
कुमार गंगानिया, आर. डी. आनंद, आशाराम जागरथ,
मुसाफ़िर
बैठा, डॉ. नामदेव, दयानन्द बटोही, अजय यतीश,
अरविंद
पासवान, सुशीला टॉकभौरे, डॉ. नीरा परमार, रजनी तिलक,
डॉ.
राधा वाल्मीकि, अनीता भारती, डॉ. रजत रानी
मीनू, प्रो. हेमलता महिश्वर, पूनम तुषामड़, डॉ. नीलम,
रजनी
अनुरागी, रजनी सिसोदिया जैसे हजारों लेखक हैं अथवा थे जो गांवों से आकर शहरों
में बस गए थे और मध्यवर्गीय चेतना से ओतप्रोत हो रहे थे. उनके लेखन में दलित जीवन
के शहरी और ग्रामीण परिवेश के जीवन को साक्षात् देखा जा सकता हैं।
‘टूटे पंखों से परवाज तक’ साहित्यकार और पेशे से प्रोफ़ेसर
सुमित्रा महरोल की हाल में ही प्रकाशित आत्मकथा हैं, जिसे ‘द
मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ दिल्ली ने प्रकाशित किया हैं। 21
जून सन 1965 ई. को दिल्ली में पैदा हुई सुमित्रा महरोल
सम्प्रति दिल्ली के ही श्यामलाल महाविद्यालय (सांध्य) शाहदरा के हिंदी विभाग में
अध्यापन और शोध के पेशे से जुडी हुई हैं। शारीरिक विकलांगता के बावजूद उन्होंने
खुद को दुनिया के सामने साबित किया कि इंसान अगर ठान ले तो कुछ भी असमभव नहीं हैं।
सुमित्रा अपनी आत्मकथा में बताती हैं कि दिल्ली के फिरोज शाह रोड स्थित एक कमरा,
रसोई
का साधारण घर जहाँ सुमित्रा महरोल अपने माता पिता और दो बड़े भाइयों के साथ रहती
थीं। पिता डेसू में क्लर्क की मामूली नौकरी पर अपना गुजारा करते थे। सुमित्रा
महरोल आत्मकथा में शहरी जीवन के ताप को कुछ इस तरह से रेखांकित करती हैं: ‘ग्रामीण
समाज में सवर्णों द्वारा दलितों पर किया जाने वाला शोषण आसानी से परिलक्षित किया
जा सकता हैं, चाहे वह श्रम से सम्बंधित हो, आर्थिक
हो अथवा सामाजिक, पर तथाकथित शहरी सवर्ण शिक्षितों द्वारा किया
जाने वाला भेदभाव इतना अप्रत्यक्ष और महीन होता हैं कि पीड़ित के अलावा अन्यों को
दृष्टिगत नहीं होता हैं’।
स्टाफ रूम में बैठने वाला ग्रुप यह चाहता हैं कि आप अपने स्वजातीय से ही
सम्बन्ध बनाये। आज के विभागों का ग्रुप कुछ इसी हिसाब का दिखाई देता हैं। यह शहरी
जातिवाद का जीवंत उदाहरण हैं।
बड़े नगरों में बसे हुए बहुत से अधिकारी,
कर्मचारी,
डॉक्टर,
वकील,
प्रोफेसर
और उद्यमी गाँव की गंदी मानसिकता को शहरों में ढोते हुए दिखाई देते हैं। वे शहर
में आकर भी अज्ञेय के शब्दों में ‘सांप’ बने रहते हैं।
शहरों में बसकर भी वे सभ्य नहीं होते :
‘सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं / नगर में बसना भी
तुम्हें नहीं आया
एक बात पूंछू, उत्तर दोगे
तब कैसे सीखा डँसना
विष कहाँ पाया’
पत्रकारिता से लेकर सोशल मीडिया तक पर निचली
जातियों के लिए अपमान की अभिव्यक्तियाँ जनसामान्य में दिखाई देती हैं। हिंदी
वामपंथियों की आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता इन्हीं महानगरों में दम तोड़ती दिखाई
देती हैं। वैवाहिक विज्ञापन इसके ठोस उदाहरण हैं जो महानगरों में जातियों के
चरित्र को उजागर करते हैं। बड़े नगरों और महानगरों में दलितों का जीना मुहाल हो
चुका हैं। उन पर आये दिनों चोरी और लूटपाट के आरोप लगा दिए जाते हैं। बलात्कारियों
में उनका नाम लिख दिया जाता हैं जबकि पैसे वाले गरीब-बेसहारा महिलाओं का शोषण अपने
पैसे के दम पर करते रहते हैं। वही फैक्ट्रियों के मालिक हैं जो हाड़-तोड़ मेहनत के
बाद भी कामगारों का वेतन हडप कर बैठ जाते हैं।
अमूमन देखा जाता हैं कि शिक्षा के बड़े
केन्द्रों में जो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी सामान्य वर्ग से आते हैं उन्हें फ़ाइल ले
जाने या पानी पिलाने का काम दिया जाता हैं और समाज के निचले तबके के लोगों को
बाथरूम साफ़ करने, झाड़ू लगाने का काम महानगरों में भी लिया जाता
हैं। अंबेडकर, दलित और शहरीकरण नामक एक आलेख बताता हैं कि ‘डॉ.
अंबेडकर चाहते थे कि दलितों का शहरों की तरफ पलायन हो। अंबेडकर मानते थे कि
शहरीकरण और इससे जुडी समस्या, दलितों-वंचितों की एक केंद्रीय समस्या
हैं। इसे इस रूप में कम ही देखा गया हैं। यह अंबेडकर के लिए कितना आधारभूत विषय था,
इसका
अंदाजा इससे लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘द
अनटचेबिल्स’ (1948) में अस्पृश्यता की उत्पत्ति के कई कारणों में
से एक शहरी व्यवस्था के विकास और उसकी सुरक्षा से जुडी आवश्यकताओं को भी बताया था।
अम्बेडकरवादी चिन्तक और अन्तराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय वर्धा में हिंदी के प्राध्यापक डॉ. सुनील कुमार सुमन फेसबुक पर 24
नवम्बर 2015 की पोस्ट में जो खुलासा किया हैं वह हमारे
महानगरीय जीवन की पोल पट्टी खोलता हैं और बताता हैं कैसे आज भी भारतीय महानगरों की
आबादी जाहिल और घृणा से भरी हुई हैं। वे लिखते हैं कि - एक दोस्त बता रहे थे कि एक
बार रेलयात्रा के दौरान किसी कारणवश ट्रेन रूक-रूककर चल रही थी तो उनके बगल में
बैठे एक आदमी ने कहा कि 'लगता हैं कोई चमार ट्रेन चला रहा हैं।'
पिछले
हफ्ते मैं बस से मुजफ्फरपुर जा रहा था तो सबसे पीछे वाली सीट पर पटना में कोचिंग
करने जा रहे कुछ नौजवान बिहार चुनाव-परिणाम पर बातें कर रहे थे। एक ने तो यह कहते
हुए कि 'नीच लोग नीच ही रहेंगे', कई बार 'चमार' और 'अहीर'
शब्द
का प्रयोग किया। उन 'होनहारों' का मानना था कि
बिहार में 'नीच' लोगों का शासन आ गया हैं! एक बार
दिल्ली से लौटते समय एसी-2 में संभ्रांत से दिखने वाले परिवार के
लोग (जिनमें महिलाएँ भी शामिल थीं) ज़ोर-ज़ोर से आरक्षण के खिलाफ़ अपने 'पेट
दर्द' का प्रस्फुटन कर रहे थे। इस दौरान उन लोगों ने कई बार आपत्तिजनक व
जातिवादी शब्दों का प्रयोग किया।
युवा कवि अनुज लुगुन ने हाल में अपनी ट्रेन
यात्रा का ज़िक्र करते हुए बताया ही था कि 'दिमाग' वाले लोग कैसे
आदिवासियों को बिना दिमाग वाला बता रहे थे। सितंबर-अक्तूबर, 2015
में जोधपुर विश्वविद्यालय में रिफ्रेशर कोर्स के दौरान कुछ मूढ़मगज और जाहिल
प्राध्यापक व प्रतिभागी आरक्षण के खिलाफ बोलते-बोलते हदें पार करने लगते, जबकि
वहाँ प्रतिभागियों में 70 फीसदी बहुजन समाज के लोग थे। हमें
लगता हैं कि बहुत कुछ बदल गया हैं, लेकिन एक वर्ग के खिलाफ़ 'खास'
समुदाय
वालों की चिढ़ और नफ़रत कहाँ बदली। यह हैं अभी। यह हमारे नगरीय जीवन की विडंबना
हैं.....।
ऊपर के अनुभवों से जब दलित साहित्यानुरागी अपनी
आत्मानुभूति को व्यक्त करता हैं। जातिगत घृणा वाले लोग उनके लेखन को नकारने की
कोशिश करते दिखाई देते हैं। हिंदी के प्रमुख जातिवादी आलोचक नामवर सिंह ने अपनी
कुंठा का वमन करते हुए कहा था कि क्या घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा होना पड़ेगा। यह
वही जातीय अहंकार हैं जो श्रेष्ठता के दंभ से भरा हुआ हैं और साहित्य, कला,
समाज,
संस्कृति
पर अपना एकाधिकार समझता हैं।
‘छत की तलाश’
नामक
अपनी कविता में मलखान सिंह महानगरीय दलितों की त्रासद अवस्था के बारे में लिखते ही
नहीं अपितु दलितों का घर होने की कामना भी करते हैं। वे लिखते हैं कि :
इस अपरिचित बस्ती में/ घूमते हुए मेरे पाँव थक
गए हैं
अफ़सोस! एक भी छत/ सर ढंकने को तैयार नहीं
हिन्दू दरवाजा खुलते ही/ कौम पूछता हैं और
नाक भौं सिकोड़ / गैर सा सलूक करता हैं
महानगरों में दलितों का हद से ज्यादा शोषण होता
हैं। उन्हें अपनी औकात से अधिक खटना पड़ता हैं। अधिक लालच में वह अपने जीवन की
परवाह किये बिना अपने परिवार के पोषण का इंतजाम करता हैं। भूख को मारकर कभी भूखा
सो जाता हैं तो कभी पानी पीकर अपना गुजारा करता हैं। कभी-कभी जिन्दगी में मिले
अपमान और पीड़ा को छुपाने के लिए नशे का साधन भी अपना लेता हैं। गाँव से आने वाला
दुसाध-चमार यहाँ पर भी गंदी नालों का कीड़ा मात्र रह जाता हैं। उसी नारकीय जीवन के
बारे में अपनी पीड़ा, दर्द, घुटन को व्यक्त करता महानगर का एक
कामगार कहता हैं कि :
मैं आदमी नहीं हूँ साब/ जानवर हूँ/
दो पाया जानवर/ जिसकी पीठ नंगी हैं
हिंदी दलित साहित्य के स्वनाम धन्य हस्ताक्षर
और आत्मकथा जैसी विधा के पुरोधा आदरणीय ओमप्रकाश वाल्मीकि जब अपनी कविता में
महानगरीय जीवन के जीवन का चित्रण करते हैं तो हमें हमारे सभ्य समाज से खुद ही
उबकाई आने लगती हैं। चाँद पर पाँव रखने वाला भारत हमें लगता हैं कि निरंतर किस
गर्त में गिरता जा रहा हैं। गाँव हो या शहर उसे कहीं भी मुक्ति नहीं मिलती। गाँव
में जातीय प्रथा का सामंत मारता हैं तो शहर में उसका शहरी संस्करण पूंजीपति मार
देता हैं। ऐसे समय में कवि ओमप्रकाश लिखते हैं :
जब भी देखता हूँ मैं/ झाड़ू या गंदगी से भरी हुई
बाल्टी – कनस्तर
किसी हाथ में / मेरी रगो में / दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हजार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर /ठंडे रेतकनों की तरह
शहरी सवर्णों को देखकर दलित बस्तियों की स्त्री
और पुरुषों के मानसिक लेबल में काफी बदलाव आया हैं। यथा राजा तथा प्रजा। आधुनिकता
और उत्तर आधुनिकता ने दलित लाइफ स्टाइल को भी काफी हद तक प्रभावित किया हैं। शहरी
मध्यवर्ग को रेखांकित करने वाली विपिन बिहारी कि ये पंक्तियाँ कुछ ऐसे ही विचारों
को प्रस्तुत करती हैं :
लक्स के विज्ञापन पर / घर की बहू / उतारने लगती
हैं कपड़े
और करने लगती हैं फरमाइश / अपने मर्द से /
जांघिये और ब्रेसरी की
‘क्या खूबसूरत दीखती हैं/विज्ञापन वाली लड़की’
काश, कि मैं भी हो
जाती विज्ञापन/ बड़े बुजुर्ग की आँखें हो गई हैं लालची
निहारने के लिए जंघाएँ और अधर खुले उरोज
और कोसते हैं बुढ़ापे को / बुढापे में / शरीर
क्यों पड़ा जाता हैं शिथिल
मान्य जयप्रकाश कर्दम हिंदी समय पर प्रकाशित
अपने आलेख में लिखते हैं कि – ‘प्रत्येक दलित कवि ने अपने जीवन में
कभी न कभी, किसी न किसी रूप में जातिगत अन्याय, अपमान
और उपेक्षा का दंश झेला हैं। दर्द के साथ दलित का रिश्ता जन्म से हैं। जन्म से ही
वे निम्न जातीय और हेय समझे जाते हैं। जातिगत भेदभाव, उपेक्षा और
अस्पृश्यता का शिकार होते हैं। यह अन्याय और अमानवीयता का घृणितम रूप हैं। दलित की
अनुभूति दर्द की अनुभूति हैं। दर्द के अलावा उन्हें और कुछ नहीं मिला हैं। इसकी
पीड़ा उसे निरंतर व्यथित और विकल बनाती हैं। यह दर्द ही उनकी कविताओं में अभिव्यक्त
हुआ हैं। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक हैं कि दलित कवि का मन जाति के प्रति नकार और
विद्रोह से भरा हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि जाति का विरोध दलित कविता का
प्रमुख स्वर हैं। दलित कविता जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का तीव्र
प्रतिकार करती हैं। जाति का प्रतिकार दलितों द्वारा प्रत्येक काल में किया गया
हैं। यह अलग बात हैं की समय के दबाव अथवा अन्य कारणों से जाति के प्रतिकार का यह
स्वर मंद अथवा तीव्र रहा हैं।’
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हिंदी के
प्रोफेसर रामचंद्र लिखते हैं- अधिकांश जगहों पर यही स्थिति हैं। लगभग 3
साल पहले CSRD, JNU के तीन प्राध्यापकों के समूह ने प्रमुख
महानगरों में एससी/एसटी और मुस्लिम के किराए के घर की समस्या पर ही शोधपरक सर्वे
किया था, जिसकी संक्षिप्त रिपोर्ट संभवतः इंडियन एक्सप्रेस में छपी भी थी। जो
भुक्तभोगी नहीं हैं, उनमें से अधिकांशतः इस सच्चाई को मानने को
तैयार नहीं हैं। इसीलिए समाज में इतनी दूरियां बनी हुई हैं।
‘भारत में जातिवाद की समस्या और जाति की जकड़न
में कराहता लोकतंत्र’ में
देवेन्द्र सुथार लिखते हैं कि– जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य
वैमनस्यता को बढ़ाती हैं बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करती हैं। जाति
प्रथा प्रत्येक मनुष्य के बचपन से ही ऊंच-नीच, उत्कृष्टता-निष्कृष्टता
के बीज बो देती हैं। दलित टोलो का अगर एक बिम्ब हमें देखना हो तो वह इस प्रकार से
हो सकता हैं- महानगर में जहाँ चारो तरफ ऊँची अट्टालिका बन गई। वहीं वार्ड नंबर 23 की
सबसे पुरानी दलित बस्ती आज भी मलिन ही हैं। यहां पूरे मुहल्ले में दूर तक कहीं
विकास की किरण नहीं दिखती। बस्ती में प्रवेश करते ही बजबजाती नालियाँ, कूड़े
का ढेर और उसमें नंगे दौड़ लगाते यहाँ के बच्चे। यह हैं महानगर की पुरानी दलित
बस्ती दाउदपुर। बस्ती में 1200 से अधिक दलित परिवार बसते हैं। इस
बस्ती में जरूरी सुविधाएँ सड़क, बिजली व शुद्ध पानी तक नहीं हैं।
चिकित्सा, शिक्षा अन्य सुविधाएँ तो दूर की बात हैं। हाइवे से नीचे उतरने पर
मुहल्ले के लिए मुड़ते ही उबड़ खाबड़ रास्ता हैं। उसमें भी कूड़े करकट से जाम हुए नाले
और शौचालय का सड़ा बदबूदार पानी बह पसरा हैं। रास्ते के दोनों किनारे पर कूड़े का
ढेर हैं। यहाँ पाँच साल पहले एक इंडिया मार्कहैंडपंप लगा था। वह कुछ ही दिन बाद
खराब हो गया। दोबारा उसकी मरम्मत नहीं हो सकी। बिजली के पोल पर भी रोडलाईट लगी हैं
लेकिन कभी जली नहीं। मुहल्ले में दर्जनों बेवा और बुजुर्ग महिलाएँ हैं। इन महिलाओं
ने पेंशन के लिए दसों बार आवेदन किया लेकिन पेंशन नहीं मिली। कुछ की पेंशन स्वीकृत
हुई तो एक बार मिलकर बंद हैं।’
''खास'' समुदाय में जन्म ले लेने के बाद कुछ
लोगों का कॉनफिडेंस लेवल कितना 'हाई' हो जाता हैं कि
चाहे वे बस में बैठे हों या ट्रेन में या फिर स्कूल-कॉलेज या किसी भी पब्लिक प्लेस
में हों, वंचित तबके के खिलाफ अपनी मानसिक उल्टियाँ करते समय वे खुलेआम
जातिसूचक अपशब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। उन्हें इसकी ज़रा भी चिंता नहीं
होती कि उनके पास कोई उस समुदाय का व्यक्ति भी हो सकता हैं। पीड़ित तबके का कोई
व्यक्ति उनके जीवन के बारे में सहज अनुमान लगा सकता हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी
वे कितने जाहिल और कमअक्ल लोग हैं। अनीता भारती की कवितायें ऐसी ही कामगार
स्त्रियों की पीड़ा को अपना विषय बनाती हैं। वे लिखती हैं :
जहांगीरपुरी की औरतें / मेहनत की धूप में /
तपकर
फीकी हो चुकी अरगनियों पर / झूलती कपड़ों- सी
लचक-लपक-झपक / लम्बे-लम्बे डग भरती /
जल्दी-जल्दी
घरों में, दुकानों में,
कारखानों में / काम करने के लिए खप जाती हुई
किसी दिन / मुश्किल से मिली छुट्टी में /
कभी-कभी अपने नन्हें मुन्नों को
गोद में लादे / छाती से चिपकाये, उंगली थामे / खुशी से गालों में हजारों गुलाब समेटे ले जाती हैं
दिखाने / मैट्रो में
लालकिला या कुतुब मीनार
नयी पीढ़ी के लिए, स्वतन्त्रता का
अर्थ था, तमाम शोषणों से मुकित और ताकतवर एवं वैभवशाली राष्ट्र के रूप में
भारतवर्ष की प्रतिष्ठा। पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के साथ देश-विभाजन से उद्भूत भीषण
समस्याओं से जूझना हमारा अभिशाप बना। नगरीय एवं महानगरीय समस्याएँ भी असन्तोषजनक
आर्थिक स्थिति एवं बढ़ती जनसंख्या से जुड़ी हुई हैं। परिणामतः परम्परागत
आचार-व्यवहार तो बदल रहे हैं, नैतिक मानदंड तथा लोगों के रीति-रिवाज
भी बदल रहे हैं पर शोषण में किसी तरह का बदलाव दिखाई नहीं देता हैं। आजाद भारत के
समकालीन परिवेश के सन्दर्भ में उभरे नयी पीढ़ी के लेखक अभावों, संघातों,
संघर्षों
एवं गहराते जीवन-मूल्यों के विघटन के गुजरते हुए जीवन की तह में जाकर उसके मर्म को
छूने के लिए प्रयत्नशील हैं। ऐसे समय में महानगरों में बसने वाले दलित भी निरंतर
संघर्ष करते हुए अपनी रचनात्मकता को धार दे रहे हैं। शहरी दलित स्त्रियों की पीड़ा
को व्यक्त करते हुए दलितस्त्रीवाद की प्रमुख रचनाकार अनीता भारती अपनी एक कविता ‘जहांगीरपुरी
की औरतें’ में दलित स्त्रियों की पीड़ा को व्यक्त करती हैं :
जहांगीरपुरी की औरतें / चल पडती हैं निन्हेबासी
/और बच्चियां
झुग्गियों के अंधेरे कुएं से निकल / फैल जाती
हैं
आस-पास की पॉश कलोनियों में / महज झाडू-पोछा ही
नहीं करतीं
करने निकलती हैं / मल की सफाई भी / पन्नी चुगने
और फैक्ट्रियों में ठुसने / ये काली गोरी पतली
छोटी लम्बी
चेहरे पर वीरभाव रुआंसापन मुर्दानापन
तटस्थ- सा पीलापन लिए / बैठती हैं बस में
एक-एक रुपये के लिए / खाती हैं कंडक्टर से
घुड़कियां
पहुँचती हैं अपने-अपने गंतव्य
जाति के कारण ही समाज में दलितों को निम्न
श्रेणी का मनुष्य माना जाता हैं। जाति-समाज में सामाजिक सम्मान की दृष्टि से उच्च
जातीय व्यक्ति सदैव कंफर्ट जोन में और दलित अनकंफर्ट जोन में रहता हैं। गैर-दलितों
के बीच दलित को निरंतर उपेक्षा और अपमान की आशंका बनी रहती हैं। वह इस आशंका से
मुक्त नहीं हो पाता। जाति के कारण वह समाज में अनजान, अपरिचित और पराए
की तरह जीता हैं। कवि एन.आर. सागर ने अपनी एक कविता में दलित जीवन के इस दर्द को
इस प्रकार अभिव्यक्त किया हैं :
'गिनती में हम नहीं हैं तो वोट की खातिर/
वरना तो जी रहे हैं सर्वनाम की तरह।'
उपसंहार
दलित गाँवों से जातीय दमन को झेलते हुए बड़े शहरों में आजीविका के लिए आये उनके साथ उनके माथे पर उनकी जाति लिखी हुई आयी। वे सवर्ण मुहल्लों में अंततः पहचान ही लिए गए। यहाँ उनके साथ पहचान का संकट नहीं रहा बल्कि यह पहचान उनकी त्रासदी लेकर आया। धर्मसत्ता और जातीय अहंकार में डूबा हुआ घृणित हिन्दू अपने ही लोगों को मारता दुतकारता रहा। यह जातीय अहंकार ठीक वैसे ही हैं जो पद्मावती के जौहर को अपनी जातीय गौरव बताता हैं और उसके खिलाफ बोलने वाले का सिर काटकर लाने वाले को दस करोड़ देने की बात करता हैं पर अपनी जाहिल कौम को पढ़ने-लिखने की योग्यता बनाने के लिए कभी एक स्कूल नहीं खोलता। यही झूठा अहंकार उसे दलितों के लिए घृणा का भाव भी जगाता हैं। यह वही समुदाय हैं जो जाति दूर करने की बात तो करता हैं पर जातीय मलाई के चक्कर में किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता हैं। यह मनु का वंशज अपनी वर्ण श्रेष्ठता और जातीय दंभ को समाज के हर तबके पर लागू करता हैं। शहरों और महानगरों में रहने वाला दलित समाज इसी तरह की पीड़ा और कुंठा को झेलते हुए अपना जीवन यापन करता हैं।
संदर्भ
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- कश्यप, सुभाष, हमारा संविधान, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण-2004, पृष्ठ -91-92
- संजय श्रमण जोठे, फारवर्ड प्रेस, अप्रैल 2016
- https://www.forwardpress.in/2016/04/cities-let-down-dalitbahujans-phule-and-ambedkars-dream-betrayed_hindi/
- https://www.facebook.com/rajani.anuragi
- रामधारी सिंह दिनकर, रश्मि रथी, खण्ड एक
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- सुमित्रा महरोल, ‘द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ नई दिल्ली, 2020
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- Kavitakosh.org/ साँप/अज्ञेय-कविता कोश
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- देवेन्द्र सुथार, भारत में जातिवाद की समस्या और जाति की जकड़न में कराहता लोकतंत्र, अभिमत, अमर उजाला (ऑनलाइन) 07 जनवरी 2020
- जहांगीरपुरी की औरतें, http://www.streekaal.com/2014/12/blog-post.html
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- एन.आर. सागर, आजाद हैं हम, पृष्ठ-15
सहायक प्राध्यापक, भारतीय
भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय
गया, बिहार– 823004, 8863093492
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021,
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
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आपके आलेख को पढ़ कर बहुत कुछ नये आयाम मन में उद्धरित हुये हैं। आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपकी धारदार लेखनी इसी रफ्तार में रहे कामना करता हूँ। धन्यवाद सर।
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