‘शिखर और सीमाएं’ उपन्यास में चित्रित पूर्वोत्तर, प्रेम और पितृसत्ता / चिन्मयी दास
विवाहेतर
प्रेम संबंधों को लेकर हिंदी साहित्य में अनेक उपन्यास लिखे गये हैं, किन्तु पूर्वोत्तर साहित्य में
यह किस तरह से दिखाया गया है और इसका अन्य साहित्य के साथ सांस्कृतिक साम्य या
वैषम्य कहाँ तक है यह देखा जाना आवश्यक है। प्रस्तुत शोध पत्र में यह देखने का
प्रयास किया गया है कि पूर्वोत्तर की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रस्तुत उपन्यास में
किस तरह से पूर्वोत्तर विशेषकर सिक्किम एवं हिमालय क्षेत्र की भौगोलिक पृष्ठभूमि
को भी समेटा गया है। साथ ही यह मानवीय संवेदना के विभिन्न पहलुओं को कहाँ तक अपने
में समेट पाता है, यह भी देखा जाएगा।
बीज-शब्द : उपन्यास, पूर्वोत्तर, सिक्किम, स्त्री, पुरुष, प्रेम, संबंध
मूल आलेख
‘शिखर और
सीमाएं’ शरत कुमार द्वारा लिखित उपन्यास है जो 1998 में लिखा गया। यह उपन्यास
साहित्य अकादमी से पुरस्कृत है। इसके बावजूद इस उपन्यास का जिक्र हमें किसी भी
महत्त्वपूर्ण आलोचक के आलोचना कर्म में देखने को नहीं मिलता। इस उपन्यास का हाल भी
पूर्वोत्तर संबंधी अन्य उपन्यासों की तरह ही है, जिसका जिक्र हिन्दी उपन्यास साहित्य
में न के बराबर है। बहरहाल मेरा सामना भी इस उपन्यास से अचानक ही दिल्ली के
साहित्य अकादमी में हुआ और जब मुझे इस उपन्यास को पढ़ने का मौका मिला तब प्रतीत हुआ
कि इस उपन्यास की कथावस्तु एक तरफ पूर्वोत्तर के कई राज्यों में से एक सिक्किम
राज्य की पृष्ठभूमि को अपने साथ लेकर चलती है तो दूसरी तरफ इसी पृष्ठभूमि के बीच
पनप रहे विवाहेतर प्रेम सम्बन्ध की कथा को भी लेकर चलती है। ये दोनों पक्ष आपस में
गुम्फित हैं और एक-दूसरे को बांधे हुए हैं।
इस उपन्यास
पर बात करते हुए इसके समयकाल पर सबसे पहले बात करना जरूरी है। 1998 का समय यह
बीसवीं शताब्दी का आखिरी दशक था और इक्कीसवीं शताब्दी की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा
था। यह एक तरह का संक्रमण का दौर था जिसमें प्रेम संबंधों विशेषकर विवाहेतर प्रेम
सबंधों को स्वीकृत कर सकना समाज और परिवार के लिए कठिन था। ऐसे समय में लिखे गये
इस उपन्यास की पटकथा सामाजिक स्वीकृति एवं आलोचकों की दृष्टिगत होने की तलाश करती
दिखती है।
उपन्यास के
शीर्षक से ही स्पष्ट होता है कि उपन्यास में सिक्किम प्रदेश के शिखर में होने और
सीमांत पर होने की स्थिति को दर्शाया गया है। यह सिक्किम के भौगोलिक परिवेश को कई
मनोरम वर्णनों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। उपन्यास का आरंभ ही इस प्रकार हुआ –
“उत्तरी सिक्किम के ऊंचे पहाड़ों के बीच एक संकरी घाटी में रहे पहाड़ों की ढलानें
बहुत तेज़ थीं पर जहाँ से सड़क गुजरती थी वहाँ चट्टानों से ऊपर थोड़ी समतल ज़मीन थी और
वहाँ मशीनें और मोटरगाड़ियाँ खड़ी रहा करती थीं।””[1]
उपन्यास
‘शिखर और सीमाएं’ पूर्वोत्तर केन्द्रित सिक्किम राज्य के हिमालय, चीन के सीमावर्ती क्षेत्र और
सामरिक दृष्टि से वहां चलते हुए सड़क के निमार्ण कार्य के बीच उभरी स्त्री-पुरुष के
एक अनोखे प्रेम सम्बन्ध की दास्तान को पेश करता है। इस उपन्यास में दीप्ति जो कि
एक आधुनिक सोच की स्त्री है, वह अपने पति के साथ खुश न होने के कारण समरेश नामक पुरुष के साथ
विवाहेतर संबंध स्थापित करती है। समरेश और दीप्ति के विचारों में काफी समानता है
जिसके कारण इस सम्बन्ध में वह अपने आप को पूर्ण और तृप्त अनुभव करती है। वह अपने
जीवन के सभी फैसले खुद करती है। चाहे उसका परिणाम जो भी हो जिससे वह एक सशक्त
महिला के रूप में उभरकर सामने आती है। प्रेम को सर्वोपरि दर्शाते हुए इस उपन्यास
में छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से लेखक द्वारा इस भावनात्मक प्रेम की
संघर्ष-कथा को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया है।
इस उपन्यास
में बॉडर रोड में रह रहे समरेश नामक उपन्यास के नायक के माध्यम से लेखक ने सिक्किम
के अंतर्गत आने वाली विभिन्न भीतरी स्थानों का वर्णन किया है –“आसाम राइफल्स
हेडक्वार्टर समरेश के कैंप से आठ मील आगे चुँग थाँग घाटी में था, जहां से तीस्ता नदी दो धाराओं
में विभाजित होकर तिब्बत सीमावर्ती लाचेन और लाचुंग घाटियों में ऊपर उठती जाती
है।लाचेन तिब्बत सीमा पर स्थित अट्ठारह हज़ार फीट ऊंचे डोंगकुंग दर्रे के राह का
आखरी गाँव था।””[2]
साथ ही लेखक
ने विभिन्न कठिन परिस्थितियों में बॉडर रोड के कर्मचारियों को जो काम करना पड़ता है
उसे उजागर किया है। उन्होंने लिखा भी है, “बरसात शुरू होने पर बॉडर रोड के यूनिटों
को हिदायत दी गई कि बन चुकी सड़के हर हालात में खुली रखी जाएँ। इनफेंट्री के यूनिट
और अग्रिम दस्ते शीघ्र नोटिस एक ओर एक से दूसरी जगह भेजे जा रहे थे। सड़क खुली रखने
के लिए बुलडोज़रों को नई सड़क काटने के काम से हटाकर चुंगथांग तक कच्ची बन चुकी सड़क
पर फैला दिया गया था, जिससे कि बरसात में पहाड़ और पत्थर टूट जाने पर जल्दी से रास्ता
साफ किया जा सके। उस साल बुलडोज़रों के ड्राइवरों ने बरसात में लुढ़कते पत्थरों का
खतरा झेलकर सड़क खुली रखने का रिकार्ड कायम किया। बरसात का मौसम ख़त्म होने तक
उत्तरी सिक्किम सड़क पर तैनात तीन बुलडोज़र अपने ड्राइवरों समेत बरसाती पत्थरों की
चपेट में आकर तीस्ता घाटी की गहराइयों में विलीन हो गए थे।””[3] दुर्गम इलाके के सामान्य जन-जीवन का चित्रण कर लेखक ने भौगोलिक
दुरूहताओं एवं उससे प्रभवित होने वाले सामान्य जन-जीवन एवं उनके जीवन पर पड़ने वाले
प्रभाव को दिखाने का प्रयास किया है।
उपन्यास में
लेखक ने सिक्किम के सांस्कृतिक परिवेश से ज्यादा भौगोलिक परिवेश को महत्ता दी है।
इस नाते हम इस उपन्यास को पूर्वोत्तर केन्द्रित उपन्यास की श्रेणी में रख सकते हैं
क्योंकि इस उपन्यास के केंद्र में सिक्किम में स्थित हिमालय, चीन से मिलती हुई सीमाओं का
क्षेत्र और सामरिक दृष्टि से वहाँ चलते हुए सड़कों के निर्माण कार्य को प्रमुख रूप
से दिखाया गया है और इसी के साथ उभरती एक अनोखी प्रेम कथा को प्रस्तुत किया है।
प्रस्तुत
उपन्यास का वैशिष्ट्य इस बात में है कि यह आज, कल और आने वाले समय के समाज के
कई ऐसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को सामने रखता है जिन पर आधुनिक समय में बात करना
अत्यंत आवश्यक है। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने बड़ी सरलता से अपने नायक-नायिका के
माध्यम से अर्थात् आम स्त्री-पुरुष की सामान्य रोजमर्रा की जिंदगी के माध्यम से कई
तर्कपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण मुद्दो को हमारे समक्ष एक-एक कर प्रस्तुत किया है।
सर्वप्रथम हम देख सकते है कि इस उपन्यास के केंद्र में हमें एक विवाहित जोड़ा
दिखाया गया है जिस जोड़े की स्त्री दीप्ति इस उपन्यास की नायिका है और प्रमुख पात्र
भी। पात्रों में एक अविवाहित पुरुष भी है जिसका नाम है समरेश। प्रमुख रूप से
उपन्यासकार ने इन्हीं दोनों के माध्यम से उपन्यास का ताना-बाना बुना है। एक
विवाहित स्त्री का संबंध अपने पति के अलावा अन्य पुरुष के साथ दिखाया गया है जिसे
हम आज के दौर में विवाहेतर संबंध (एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर) की संज्ञा देते हैं। आम
तौर पर इस रिश्ते को अनैतिकता के स्तर पर ही आँका जाता है। लेखक ने भले ही इसमें
विवाहेतर संबंध दिखाया हो लेकिन उसने सच्चे प्रेम को भी दर्शाने का प्रयास किया
है। यह सम्बन्ध नैतिक रूप से भले ही गलत समझा जाए पर भावनात्मकता से परिपूर्ण
है-समरेश कहता है “तुम कितनी सुंदर हो, इसे मैं नहीं जानता। मेरा मन कहता है कि तुम संसार की सबसे सुंदर
स्त्री हो। मेरा शरीर मन के इस आदेश को मानता है और तुम्हारे शरीर के स्पर्श आनंद
में मग्न हो जाता है। अगर मन में ऐसी सुंदर मधुर भावना न रहे जिसका मूल है आदर और
विश्वास, और जिसका
केवल एक भाग मात्र है शाररिक सौंदर्य।””[4]
लेखक ने
उपन्यास के सहारे विवाहेतर सम्बन्ध पर सही या गलत का विचार करने का भार पाठकों की समझ
पर छोड़ दिया है। लेकिन प्रस्तुत उपन्यास में हम इस सम्बन्ध को इस प्रकार देख सकते
हैं कि एक स्त्री जो विवाहित है परंतु अपने रिश्ते में खुश नहीं है। वह आज की
आधुनिक नारी है, समाज के साथ चलना भी चाहती है और अपने मन का भी सुनना चाहती है।
उसके विचार केवल भावनात्मक नहीं हैं बल्कि उन्हें वह तर्क की कसौटी पर भी रखती है-
“आचरण-संस्कार बौद्धिक रूप से मन पर नहीं थोपें जा सकते और संकल्प की ढृढ़ता से जो
कुछ भी अपने आप को मनवाया जाता है, अचेतन मन अपने आप और पक्के विरोध में धीरे धीरे उस सब को उलट
देता है।”[5]
इस उपन्यास
में लेखक ने वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) अर्थात् पति -पत्नी के बीच जो यौन
संबंध पत्नी के मर्जी के बिना स्थापित हुए हों जैसे एक महत्वपूर्ण और ज्वलंत
मुद्दे को उठाया है। उपन्यास की नायिका दीप्ति के एक ओर उसका पति है दूसरी ओर उसका
प्रेमी साथी, जिसके साथ उसका भावानात्मक जुड़ाव है, जिसके साथ उसके विचारों का मेल
है, जिसके साथ
वह मन से खुश रहती है। पहला वह (पति) जो उसकी मर्ज़ी जाने बिना ही उसके साथ यौन संबंध बनाना चाहता है।
वे दोनों समाज के सामने पति-पत्नी हैं और भारतीय समाज में अभी भी अधिकतर लोग इसी
मानसिकता को लेकर चलते हैं कि पत्नी है तो उन्हें संबंध बनाने की आज़ादी है, इसी
प्रवृति से ग्रसित नायिका के पति को दिखाया गया है। सीमोन द बोउआर ‘द सेकण्ड
सेक्स’ में लिखती हैं- “विवाह का निर्धारित उद्देश्य ही औरतों को बंधन में रखना
है; लेकिन हम जानते हैं की बिना स्वातंत्र्य के न कोई प्रेम कर सकता है और न अपने
व्यक्तित्व का निर्माण। यौन-संतुष्टि में स्त्री की व्यक्तिगत रुचि और अरुचि का
प्रश्न ही नहीं उठता। उसके नारीत्व की भूमिका समाज द्वारा निधारित कर दी जाती है।
समाज का हित सर्वोपरि है जिसमें व्यक्ति की इच्छा और संतुष्टि सामाजिक हितों के
अधीनस्थ रहती है।’’[6] एक अनुगृहीत स्त्री और एक शरीर पर आधिपत्य जताता पुरुष इस
उपन्यास के उस परिवेश को निर्मित करते हैं जिससे एक स्त्री किसी अन्य पुरुष की ओर
आकर्षित हो यह स्वाभाविक सा लगने लगता है। विनय का यह कथन- “कहाँ छिपाकर रखा है
उसे? विदेशी संस्कृति की इन बदज़ात औरतों को जितनी ढील दो उतनी ही सिर पर चढ़ जाती
है””[7] इस प्रसंग से उपन्यास में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच को जाहिर
करता है।
उपन्यास में
एक और ऐसे मुद्दे को भी दर्शाया कि आम तौर पर कोई भी पति पत्नी के रिश्ते में
परेशानी आए या मतभेद हो तो लोग एक बच्चा पैदा करने का सुझाव देते हैं- “विनय चाहता
है कि हम अपना परिवार बढ़ाएँ शायद वह सोचता है कि हमारे संबंध की गिरती दीवारों को
एक नन्हा प्राणी रोक सकेगा।”[8] बच्चा होना संबंधों के मधुर होने का प्रतीक बना दिया जाता है
जबकि लेखक यह समझाना चाहता है कि संतान से सुख भले हो किन्तु संबंधों की प्रगाढ़ता
तो केवल प्रेम से ही संभव है। लेखक ने जैसा कि उपन्यास में वर्णित किया है नायिका
आज के समय की आधुनिक सोच रखने वाली स्त्री है और वह विदेश में रहकर आई है तो वह
अपनी एक विचारधारा रखती है अपनी सोच को दूसरे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करती है
और उसको कुछ अपने मुताबिक गलत लगता है तो वह तर्क भी करती है। लेखक ने समरेश और
दीप्ति के कई संवादों में इसे दिखाया है। उदाहरण के लिए-“ “समरेश की बात अनसुनी कर
दीप्ति कहती गई, “मैं कल सोच
रही थी कि जापान में गीशा युवतियों को पुरुषों से चपल बातें करने का चातुर्य
सिखाया जाता है और हमारी पार्टी में पुरुषों से बातें करने में असमर्थ अधिकतर
महिलाएं सोफासेटों पर ही जमी रहीं। अगर आज भी स्त्री केवल पुरुष के सहारे ही जी
सकती है, तो पुरुष को
रिझाने की कला को ही परिष्कृत किया जाए।””[9]
इसी प्रकार
लेखक ने उपन्यास के नायक समरेश को भी एक प्रगतिशील सोच के व्यक्तित्व के साथ
प्रस्तुत किया है। और वह भी वक़्त -वक़्त पर अपने विचारों को पेश करता है। जैसे
दीप्ति पूछती है-“ “आप सौंदर्य के विरोधी हैं ?” बिल्कुल नहीं, पर स्त्रियों पर थोपे गए
सौंदर्य के झूठे मापदंडो ने स्त्री को पालतू पशु के स्तर पर उतार दिया है और उसे
सेक्स को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना सिखाया है। स्त्री सुंदर होनी चाहिए
पुरुष क्यों नहीं ? आप जानती हैं कि पशु और पक्षी संसार में नर स्वाभाविक रूप से
मादा से अधिक सजीला है और जीवन की भौतिक परिस्थितियों से जूझ सकने की क्षमता में
मादा नर से किसी तरह कम नहीं है।””[10] कभी-कभी इसे एक सामान्य कथन के तौर पर इस्तेमाल कर लिया जाता है
कि पूर्वोत्तर पितृसत्ता से रहित एक मातृसत्तात्मक समाज है किन्तु यह कथन गलत है
समस्त पूर्वोत्तर पर यह लागू करना ठीक नहीं। लेखक के द्वारा प्रयुक्त किये गये इन
शब्दों से यह देखा जा सकता है कि पूर्वोतर में भी पितृसत्तात्मकता कितनी गहरी पैठ
जमाए है- “उस शाम वयोवृद्ध दंपत्ति घर में अकेले थे। मैं रात वहीं बिता रही थी। तब
प्रौढ़ा पत्नी ने अलग ले जाकर कहा कि पुरुष की ओर पांव कर लेटना स्त्री के लिए उचित
नहीं है। सुनकर मैं सन्न रह गयी। उन दोनों को मैं बचपन से जानती थी। उनकी परस्पर
शालीनता मेरे भारतीय अनुभव का अभिन्न भाग बन चुकी थी, पर इस युग में पुरुष की ओर
पाँव न करने की बात! जैसे स्त्री पुरुष की दासी हो।””[11]
इस उपन्यास
में लेखक ने प्रमुख रूप से एक ऐसे स्त्री-पुरुष के अनोखे प्रेम को प्रस्तुत किया
है जो दुनिया के नजर में गलत है लेकिन उनकी अपनी नजरों में उनका प्रेम पाक है, दोनों एक दूसरे को पूर्ण रूप
से समर्पित है। किन्तु साहस का एक अभाव सा नायिका अवश्य महसूस करती है- “कितना
साहस जोड़कर मैं तुम्हारे पास आई थी। आज भी वही कंपन मेरे साथ है। उसी साहस को मैं
ढूंढ रही हूं।””[12] हालाँकि दोनों सच से भी वाकिफ है। दीप्ति एक विवाहित स्त्री है
और इस भारतीय समाज में विवाह संबंध इतनी आसानी से नहीं टूटते लेकिन इस उपन्यास में
लेखक ने समरेश के माध्यम से यह दर्शाया है कि दीप्ति एक ऐसी स्त्री है अगर वह
चाहेगी तभी वह लोग साथ रह सकते है या किसी प्रकार का संबंध स्थापित कर सकते हैं और
विवाह के बंधन को वह तोड़ सकती है कोई उससे जबरदस्ती कुछ नहीं करा सकता। “शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से
स्त्रियों का दमन करने वाले पुरुषों से अपनी रक्षा करते हुए साथ ही स्त्रियों को
दबाकर रखने की पुरुषों की बद्धमूल प्रवृत्ति की उन्मूलन विधियों का अन्वेषण करने
वाली चेतना ही स्त्रीवाद है।’’[13] यह कहना सही जान पड़ता है कि यहाँ लेखक नायिका के माध्यम से एक
ऐसा ही स्त्रीवाद खड़ा करते दिखते हैं।
समरेश को लेखक
ने एक आधुनिक सोच से परिपूर्ण व्यक्ति के रूप में उजागर किया है। वह एक ऐसे
व्यक्ति के रूप में उभरकर आया है कि वह स्त्री के मत को सम्मान देता है- “उन तीनों
दिन हम अपने कमरे से बाहर बहुत कम गए। दिन, दोपहर, रात और सुबह एक दूसरे में
विलीन होते गए पर शरीर के सब वर्ग इंचों के स्पर्श की तर्षणा जैसे अतृप्त बनी रही
हो और फिर मैं समझी कि उस स्पर्श और संभोग का स्रोत शरीर नहीं था। उसका मूल भावना
में था। हृदय और मस्तिष्क के अनजान कोनों में दबी भावना एक उन्मुक्त प्रवाह पा गई
थी।””[14] अंत में जब दीप्ति उसे बिन बताए चली जाती है। उससे न मिलने, साथ न रहने का फैसला करती है
तो वह उसका भी सम्मान करता है। वह दीप्ति के खत से जब जान पाता है कि दीप्ति
गर्भवती है और शायद वह बच्चा उसका भी हो सकता है लेकिन दीप्ति इस बात को अकेले ही
संभालना चाहती थी तो समरेश ने दीप्ति की इस बात का भी सम्मान किया।
निष्कर्ष
रूप में हम कह सकते हैं कि लेखक ने दीप्ति को एक सशक्त नारी के रूप में दिखाया
है।वह अपने लिए सभी फैसले खुद लेती है इसीलिए वह कहती है- ““परिस्थितियों
से उठे प्रश्नों का उत्तर अंत में अपना आंतरिक ही तो होता है।””[15] वह अपने पति से संबंध विच्छेद की कानूनी कार्यवाही का फैसला भी
करती है। लेखक नायिका के माध्यम से प्रेम का असल अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास कर
रहे हैं कि अगर प्रेम संसार का मूल तत्त्व होता तो पूरा संसार सुख से भरा होता, मुक्ति प्रेम मांगने में नहीं, देने में है। किसी दूसरे
व्यक्ति को सुखी करने में है लेकिन सभी लोग स्वयं से ही सर्वाधिक प्रेम करते हैं।
प्रेम पाने का लोभ हमें कमज़ोर बनाता है। अपेक्षाओं को भी बढ़ाता है। इसलिए प्रेम को
पाने की आस नहीं रखनी चाहिए। प्रेम तो शक्ति है इसलिए प्रेम को हमेशा अपनी ताकत
बनाना चाहिए। लेखक ‘प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय’ और ‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय’ के
रूप में प्रेम की महत्ता को स्थापित करते दिखते हैं।
उपन्यास के
अंत में लेखक यह संदेश देना चाह रहे हैं कि चाहे प्रेम में लोग साथ रहे या न रहे
प्रेम सदा रहता है, प्रेम एक सर्वोपरि भाव है जो किसी भी बंधन में बंधने का मोहताज
नहीं। और ऐसे किसी भी दबाव में स्वीकार किया गया कोई भी बंधन ज्यादा दिनों तक टिक
नहीं पाता। चूंकि दीप्ति गर्भवती थी और वह अपने आप को किसी पर भी थोपना नहीं चाहती
थी। इसलिए वह साथ बिताए हुए अच्छे पल और प्रेम की स्मृतियों को साथ लेकर चली जाती
है। सब फैसला वह सही वक्त पर छोड़ती है। उपन्यास की अंतिम पंक्तियों में उपन्यासकार
ने जीवन संयोगों से परिपूर्ण होता है यह बख़ूबी बतलाया है जैसे – ““दीप्ति ने अपने
पत्र में लिखा था कि जीवन संयोग है। संयोग ही से तो दिप्ति उसे मिली थी और भाग्य
के आखरी दांव का वह अंतिम खोया दिन भी तो संयोग ही था।””[16]
यह उपन्यास
अपने कथ्य में तो नया नहीं है क्योंकि इससे पूर्व और इसके बाद भी कई उपन्यास
प्रेम-संबंधों, विवाहेतर
संबंधों पर लिखे गये हैं जैसे- प्रभा खेतान का ‘आओ पेंपे घर चलें’, मृदुला गर्ग का ‘चितकोबरा’, पत्रकार नीलांशु रंजन का
‘खामोश लम्हों का सफर’ साथ ही इस उपन्यास की पूरी कथा तसलीमा के उपन्यास ‘दो औरतों
के पत्र’ से काफी हद तक मिलती-जुलती है। किन्तु इसकी विशिष्टता इस बात में है कि
यह एक नये परिवेश (सिक्किम और हिमालय की भौगोलिक पृष्ठभूमि) में स्त्रीप्रेम, विवाहेतर सम्बन्ध और पितृसत्ता
को प्रस्तुत करता है। जो यह स्वीकार करने पर विवश करता है कि पितृसत्तात्मकता केवल
स्थानिक न होकर सार्वजनिक है किन्तु प्रेम उससे भी ज्यादा विस्तृत है। प्रेम
पितृसत्तात्मकता को समाप्त तो कर सकता है किन्तु उसके लिए उसकी निश्छलता एवं
कपटहीनता आवश्यक है। यह उपन्यास स्त्री-विमर्श की एक पुख्ता पृष्ठभूमि तैयार करता
है और अपनी सशक्त नायिका के माध्यम से समस्त सामाजिक मानदंडों को तोड़ता भी है।
संदर्भ
[1] शरत कुमार : शिखर और सीमाएं, हिन्दी पॉकेट बुक्स, प्रथम संस्करण, 1998, पृ. 7
[2]वही, पृ. 28
[3]वही, पृ. 28
[4]वही, पृ. 78
[5]वही, पृ. 38
[6]सीमोन द बोउवार[अनुवाद डॉ प्रभा खेतान] : स्त्री
:उपेक्षिता (The Second Sex का हिन्दी रूपांतर) हिन्दी पॉकेट बुक्स, नवीन संस्करण, 2002, पहला रिप्रिंट
:मार्च 2004, पृ.199
[7]शरत कुमार : शिखर और सीमाएं, हिन्दी पॉकेट बुक्स, प्रथम
संस्करण, 1998, पृ. 112
[8]वही, पृ. 18
[9]वही, पृ. 23
[10]वही, पृ. 26
[11]वही, पृ. 25
[12]वही, पृ. 123
[13]सुमन राजे : हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ,
2004, पृ. 305
[14]शरत कुमार : शिखर और सीमाएं, हिन्दी पॉकेट बुक्स, प्रथम
संस्करण, 1998, पृ. 77
[15]वही, पृ. 124
[16]वही, पृ. 128
शोधार्थी
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
chinmayikitu@gmail.com, 8142836081
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
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