समकालीन यात्रा वृत्तांतों
के विश्लेषण का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार / सुनील कुमार यादव
शोध-सार
प्रस्तुत लेख में
वर्तमान दौर के लिखे यात्रावृत्तांतों को सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर विश्लेषित
किया गया है। यात्रा साहित्य में समाज की विद्रूपता का चित्रण और क्षेत्रीय
विषमताओं के बदलते रूप को देखा गया हैं। औद्योगिकरण के बाद आदिवासी लोगों की
जीवनशैली पर अनेक दुष्प्रभाव पड़े हालांकि इससे पूर्व भी उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर
नहीं थी। वर्तमान समय में उन्हें तमाम संघर्षों से जूझना पड़ रहा हैं। क्षेत्रीय
विविधताओं के साथ-साथ वहाँ पर मौजूद विषमताओं को तुलनात्मक आधार पर विश्लेषित किया
गया हैं। प्रकृति के रूप को व्याख्यायित किया गया हैं। उसका दोहन किस प्रकार विकास
के नाम पर किया जा रहा हैं उसे दिखाया गया हैं। धर्म के बदलते स्वरूप पर बात की गई
हैं। बाजारीकरण के कारण समाज और संस्कृति कितनी तेजी के साथ बदल रही हैं उसे भी
दिखाने का प्रयास किया गया हैं।
बीज-शब्द : यात्रावृत्तांत,
समाज, संस्कृति, विविधता, परिवर्तन, शिक्षा।
मूल आलेख
मनुष्य के जीवन में यात्रा की प्रक्रिया
नैसर्गिक होती हैं। विचरण की यह प्रक्रिया नवीन नहीं हैं बल्कि मनुष्य द्वारा
निर्मित संस्कृतियों-सभ्यताओं के पहले से ही यह निर्वाध गति से आगे बढ़ती रही हैं
और आज भी लगातार बढ़ रही हैं। किसी भी देश की सामाजिक संरचना का निर्माण विचरण के
बाद ‘कृषि’ क्रांति के दौर में हुआ। मनुष्य ‘कृषि’ युग तक आते-आते
स्थाई निवास बनाकर रहने लगा था। अपने जीवन के निर्वाह के लिए वह कृषि पर आश्रित
था। इसी दौरान वह स्थानीय लोगों के संपर्क में आया और लोगों के सहयोग से ‘मानवीय’ जीवन का प्रारम्भ
हुआ। मनुष्य का ‘मानवीय’ जीवन ही ‘सामाजिक’ जीवन का रूप हैं।
एक स्थान पर रहने वाले व्यक्तियों का दल या समाज जब एक ही रीति से कुछ करता हैं, एक ही विश्वास रखता
हैं, एक ही प्रकार के आदर्श सामने रखता हैं तब ‘संस्कृति’ का जन्म होता हैं।
इस तरह ‘संस्कृति’ का प्रारम्भ मनुष्य के स्थाई निवास की परिधि से हुआ। ‘संस्कृति’ का संबंध मानव के
सामाजिक जीवन से हैं। इसलिए वह समाज में रह रहे व्यक्तियों के सामूहिक कार्य से भी
जुड़ा रहता हैं। ‘संस्कृति’ मानवीय जीवन या
कहें कि सामाजिक जीवन का प्राण हैं। बच्चन सिंह ने लिखा हैं, “संस्कृति का संबंध
मानसिकता से, उसके सर्जनात्मक क्रियाकलापों तथा तजन्य सौंदर्यबोधात्मक अभिरूचियों से हैं।”[1] ‘संस्कृति’ विचारों की दुनिया हैं
जिसकी मंजिले सामाजिक संगठन, पूजा, धर्म, दर्शन, राष्ट्र आदि हैं। किसी भी देश की
संस्कृति, सभ्यता पर बात करते समय उसके मूल पर विचार किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा
सकता। यात्रावृत्तान्तों में आयी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अवधारणा
पर जब बात होगी तो इतिहास की पृष्ठभूमि को समझे बिना बात मुकम्मल नहीं हो सकेगी।
दरअसल, भारत का अध्ययन जटिलताओं से भरा हैं। यह जटिलता सिर्फ एक स्तर पर दिखाई नहीं
देती बल्कि अनेक स्तरों पर इसके स्वरूप उभरकर सामने आते हैं। यहाँ पर सामाजिक
विभाजन, सांस्कृतिक भिन्नताएँ, साहित्यिक अलगाव, आर्थिक असमानता और राजनीतिक
बिखराव से जूझना पड़ता हैं। जैसे, सामाजिक स्तर पर
भारत अनेक वर्णों, जातियों और उपजातियों में विभाजित हैं, तो सांस्कृतिक भिन्नताएँ
हर क्षेत्र की अपनी हैं। अपने विचार हैं, अपनी भाषा हैं, अपने धर्म हैं इत्यादि।
आर्थिक असमानता से आज पूरा देश परेशान हैं।
साहित्यिक स्तर पर भारत में अनेक भाषाओं के
साहित्य मौजूद हैं। जैसे, तेलुगु, कन्नड, तमिल, बंगाली आदि। भारत
में राजनीतिक संगठन का संरचनात्मक रूप संविधान लागू होने के दिन से मौजूद हैं।
भारत बहुदलीय देश हैं जहां पर लोगों को अपनी पार्टी बनाने का अधिकार हैं। यह
विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों का बेहतरीन उदाहरण हैं किंतु विकेंद्रीकरण का यह
स्वरूप सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलता। नंदकिशोर आचार्य लिखते
हैं, “हम उसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को उचित कह सकते हैं जो मनुष्य के
अर्थात् चेतना के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण की भूमिका निभा सके।”[2] रेमण्ड विलियम्स भी
चेतना के विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
उन्होंने स्वीकार किया, “अगर हम अपने चिंतन
की शुरुआत उस स्थापना से करें जिसके अनुसार ‘चेतना’ अपने सामाजिक
परिवेश से निर्धारित होती हैं तो वह एक बेहतर स्थिति होगी, क्योंकि यह स्थापना
मूलतः आधार और ऊपरी ढांचे की स्थापना के समान ही केंद्रीय और प्रामाणिक हैं।”[3] अतः किसी भी समाज
की बेहतरी के लिए मनुष्य में मूल्यबोध और चेतना प्रतिबिंबित होनी चाहिए जो मनुष्य
को मनुष्य बनाए। यह मूल्यबोध और चेतना व्यक्ति को समाज से ही मिलती हैं। आज यदि
समाज को परखा जाए तो निःसंदेह कहना पड़ेगा कि सामाजिक विघटन से सांस्कृतिक चेतना का
मूल्य क्षरित हुआ हैं।
आज का समाज प्राचीन और मध्यकालीन समय से
भिन्न हैं जो विशेष रूप से सामाजिक भिन्नता को अपने अंदर समेटे हुए हैं। जिसे एच.
एम. जॉनसन ने आंतरिक, बाह्य और गैर-सामाजिक पर्यावरणके रूप में विभाजित किया हैं
जबकि ऐन्थेनी गिडेंस ने भौतिक पर्यावरण,राजनीतिक व्यवस्था एवं संस्कृतिके रूप में।
आधुनिक समाज अपने पूर्ववर्ती समाज से प्रौद्योगिकी, सांस्कृतिकएवं जैविककारणों से
अलग दिखाई देता हैं। ऐसा मकीवर एवं पेज मानते हैं। अतः आधुनिक समाज में जो बदलाव
आया हैं उसके लिए ‘भौतिक’ कारक सबसे
महत्त्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से भूमंडलीकरण के प्रभाव से आए बाजारीकरण के कारण। मॉर्गन,
मार्क्स आदि विचारकों ने यह प्रमाणित करने की कोशिश की हैं कि सभ्यता और संस्कृति
के विकास में ‘भौतिक’ कारकों की अहम भूमिका होती हैं। आधुनिक समाज में ‘प्रौद्योगिकी’ जैसे भौतिक कारकों
के कारण ही बदलाव बहुत तेजी से हो रहा हैं। प्राचीन समय में भौतिक पर्यावरण का
मुख्य आधार ‘प्राकृतिक’ पर्यावरण था। मानव-समाज ने अब तक परिवर्तन की एक लम्बी दूरी तय की हैं जिसका
मुख्य कारण प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण से मानव-निर्मित पर्यावरण की ओर बढ़ना हैं
जबकि ‘औद्योगीकरण’ का प्रारंभ पूंजी के विकास से हुआ और समाज तीव्र गति से बदलने लगा। उत्पादन
के साधनों में निरंतर विस्तार से सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था बन-बिगड़ रही हैं
जिससे व्यक्ति के जीवन मूल्यों, आदर्शों एवं व्यवहार में क्रांतिकारी परिवर्तन हो
रहा हैं। संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार का विस्तार हो रहा हैं। जैसे-जैसे
समय और परिस्थितियों में बदलाव हो रहा हैं,‘राजनीतिक’ व्यवस्था भी बदल
रही हैं। वर्तमान समय में राजनीतिक एवं सामाजिक संरचना के बीच एक सीधा संबंध बन
गया हैं। इसके विपरीत आदिमकाल में सामाजिक जीवन में राजनीति की भूमिका नगण्य थी
लेकिन आज जिस तरह राजनीतिक संस्थाओं में परिवर्तन हो रहा हैं, वैसे-वैसे सामाजिक
और आर्थिक व्यवस्थाएं बदल रही हैं। ‘राजनीतिक’ चेतना के कारण
विभिन्न प्रकार के सामाजिक आंदोलन जन्म ले रहे हैं। अतः कहा जा सकता हैं कि आदिम
और आधुनिक समाज में अंतर सिर्फ ‘सामाजिक’ और ‘आर्थिक’ ही नहीं बल्कि ‘राजनीतिक’ भी हैं। समाज में
आए बदलावों और मौजूदा विसंगतियों को सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक
व्यवस्थाएँ किस रूप में रेखांकित करती हैं उसे मृदुला गर्ग, प्रकाशवती पाल, मधु कांकरिया, ओम थानवी, असगर वजाहत, अनिल यादव, गोविंद मिश्र, रामशरण जोशी, रामजी तिवारी, अजय सोडानी, राकेश
तिवारी और अमृतलाल वेगड़ के यात्रावृत्तांतों द्वारा समझा जा सकता हैं। चूंकि, कला
और साहित्य जैसे उपकरण ही समाज की विसंगतियों को दिखाते हुए नवीन सांस्कृतिक चेतना
का निर्माण करते हैं।
प्रत्येक समाज की अपनी अलग-अलग ऐतिहासिक
परिस्थिति एवं सांस्कृतिक विरासत होती हैं इसलिए उसकी पहचान और खासियत भी अलग होती
हैं। भारतीय समाज और संस्कृति का अस्तित्व लगभग पांच हजार वर्षों का हैं जिसमें
बहुत सी सांस्कृतिक विचारधाराओं का समन्वय हैं। इसमें प्राचीन इतिहास, जिसकी संस्कृति
विलक्षण भूगोल के साथ-साथ सिंधुघाटी सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग
में विकसित हुई जिसे हिंदू संस्कृति के नाम से अभिहित किया जाता हैं और जो बौद्ध
एवं जैन धर्म की परम्पराओं का मेल भी हैं। इन सभी के सहयोग से ही भारत की प्राचीन
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का निर्माण हुआ। इसमें पड़ोसी देशों के रिवाज, भाषाएँ,
प्रथाएँ और परम्पराएँ भी शामिल हुईं। इसी के साथ सांस्कृतिक और ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में ‘विकास’ और ‘परिवर्तन’ के स्वरूप को भी
देखा जाना चाहिए। समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और
साहित्यकारों ने भी भारतीय संस्कृति पर नवीन ढंग से विचार किया। जिससे यह निष्कर्ष
निकला कि भारतीय संस्कृति सिर्फ हिन्दू संस्कृति का पर्याय नहीं हैं, बल्कि इसमें
बाहरी संस्कृतियों एवं भीतरी सांस्कृतिक समूहों के तत्वों का भी समावेश हैं।
भारतीय संस्कृति की इस पाचन शक्ति के बारे में इतिहासकार डाडवेल ने लिखा हैं, “भारतीय संस्कृति
महासमुद्र के समान हैं जिसमें अनेक नदियां आ-आकर विलीन होती रही हैं।”[4] मुसलमानी आक्रमण के
पूर्व तुर्क के लोगों को भी भारतीय समाज का हिस्सा बनते देखा गया हैं। बाद में
मुस्लिमों और ईसाइयों की संस्कृति ने भी देश को प्रभावित किया। 19वीं सदी में भारत
पर चिंतन करने वाले मैक्समूलर ने लिखा, “अगर मैं अपने आपसे
यह पुंछू कि केवल यूनानी, रोमन और यहूदी
भावनाओं एवं विचारों पर पलने वाले हम यूरोपीय लोगों के आंतरिक जीवन को अधिक
संवृद्ध, अधिक पूर्ण और अधिक विश्वजनीन, संक्षेप में, अधिक मानवीय बनाने
का नुस्खा हमें किस जाति के साहित्य में मिलेगा, तो बिना किसी
हिचकिचाहट के मेरी उंगली हिंदुस्तान की ओर उठ जाएगी।”[5] अतः सिंधुघाटी
सभ्यता के केंद्र में उपजी और समय-समय पर उसमें विलीन हुई अनेक संस्कृतियों के मेल
से ही भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ। ओम थानवी ने अपनी पुस्तक ‘मुअनजोदड़ों’ में बहुत ही बारीक
ढंग से सिंधुघाटी सभ्यता के भीतर मौजूद मानवीय संस्कृति को दिखाने का प्रयास किया हैं।
‘मोहन जोदड़ो’ इतिहास और संस्कृति
का दस्तावेज़ हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के इस शहर पर हम आज भी इतराते हैं। इतराना भी
जरूरी हैं क्योंकि यह भारतीय जनमानस पर आज भी अपनी अमिट छाप बनाए हुए हैं। भारतीय
संस्कृति इन्हीं दोनों संस्कृतियों से कुछ लेती और कुछ छोड़ती हुई आगे बढ़ी हैं।
समाज और संस्कृति के बदलते स्वरूप के संबंध में युवाल नोआ हरारी ने लिखाहैं, “संस्कृति के अपने
ख़ास विश्वास, मानक-मूल्य होते हैं जो निरंतर बदलते रहते हैं। संस्कृति अपने
पर्यावरण में आए बदलावों के साथ-साथ अन्य संस्कृतियों के संपर्क में आये बदलावों
के साथ भी अपने को रूपांतरित करती रहती हैं। पारिस्थितिक दृष्टि से एक स्थिर
पर्यावरण में मौजूद संस्कृति भी परिवर्तन की प्रक्रिया से बच नहीं सकती क्योंकि हर
मानव-व्यवस्था आंतरिक अंतर्विरोधों से भरी होती हैं। संस्कृतियाँ इन अंतर्विरोधों
से लगातार सामंजस्य बनाने की कोशिश करती हुई परिवर्तन को उकसाती रहती हैं।”[6] इक्कीसवीं सदी के
यात्रा साहित्य के लेखकों ने भारत की सामाजिक संरचना के बदलते स्वरूप को अपने ढंग
से देखने का प्रयास किया हैं। केरल का समाज उत्तर प्रदेश, बिहार से उसी
प्रकार भिन्न हैं जैसे अंडमान का समाज उत्तर-पूर्व के समाज से। जम्मू-कश्मीर हो या
पश्चिम बंगाल सब एक-दूसरे से सामाजिक आधार पर अलग दिखाई देते हैं। अलगाव या
परिवर्तन के इस रूप को सिर्फ भौगोलिक सीमाओं के आधार पर नहीं बल्कि उनके रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक असमानता
में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव, शिक्षा और
स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में देखना भी महत्त्वपूर्ण रहेगा। रामजी
तिवारी ने यदि अंडमान, केरल और लद्दाख जैसे क्षेत्रों का
जिक्र किया हैं तो अनिल यादव ने सात बहनों का। असगर वजाहत ने यदि अंडमान-निकोबार, मिजोरम और कर्नाटक
का जिक्र किया हैं तो मृदुला गर्ग ने सिक्किम, केरल, दिल्ली और असम का।
असगर वजाहत ने अंडमान के ‘डिगलीपुर’ के जंगलों में रहने
वाले आदिवासियों के बारे में लिखा हैं,‘यहां के आदिवासियों
को बाहर के खाने, कपड़ों तथा संपर्क आदि से बहुत नुकसान
हो रहा हैं। ये लोग पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर हैं। अंडमान में द ग्रेट अंडमानीज़, ओंगी, जारवा और सेंतेनली
जनजातियों का इतिहास ही नहीं बल्कि वर्तमान स्थिति भी बहुत दारुण हैं। उनकी संख्या
लगातार कम हो रही हैं। इन्हें सभ्य बनाने की कोशिश मेंबहुत नुकसान पहुंचाया गया हैं।
सेंतेनली आदिवासी तो आज भी अपने विशेष द्वीप पर रहते हैं और संसार से उनका कोई
संपर्क नहीं हैं। वे चाहते भी नहीं हैं कि बाहर का कोई व्यक्ति उनसे संपर्क करे।
शायद संसार को अच्छी तरह जानते हैं।’[7] अंडमान के
आदिवासियों की यह स्थिति सामाजिक अलगाव का बेहतरीन उदाहरण हैं। वर्तमान भारतीय
समाज में परिवर्तन की आहट आंतरिक और संरचनात्मक दोनों स्तरों पर मौजूद हैं। यहां
के लोगों के मूल्य एवं आदर्श भी बदल रहे हैं और पारिवारिक, वर्गीय एवं जातीय
चरित्र भी। यह बदलाव प्राकृतिक और भौगोलिक कम मानवीय ज्यादा हैं जिसे लैंगिक, वर्गीय, क्षेत्रीय और
जनजातीय आधारों पर विभाजित किया जा सकता हैं।
भारतीय संस्कृति में सिर्फ समन्वय, समरसता और सामंजस्य
ही नहीं हैं बल्कि दमन, शोषण, भेदभाव, अधीनता और अन्याय
भी मौजूद हैं। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों का समन्वय इसमें मिलता हैं।
दासवृत्ति, स्त्री शोषण, जातीय व्यवस्था के नाम पर किया गया
सामाजिक शोषण, बौद्ध और जैन धर्मों के साथ-साथ क्षेत्र का सांस्कृतिक समन्वय भारतीय
संस्कृति में दिखाई देता हैं। वाल्टर बेंजामिन ने लिखा हैं,“प्रायः संस्कृति के
दस्तावेज बर्बरता के भी दस्तावेज होते हैं।”[8] मैनेजर पाण्डेय ने
अपनी पुस्तक भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा में लोगों का ध्यान ‘संस्कृति’ के इसी रूप की ओर
खींचा हैं। वह लिखते हैं,‘जब तक संस्कृति
संबंधी सोच में सिर्फ समरसता, समन्वय और सामंजस्य
की खोज होती हैं और दमन, भेदभाव, अधीनता और अन्याय
की उपेक्षा होती हैं तब तक संस्कृति की आधी-अधूरी समझ पैदा होती हैं।’[9] इसलिए इस संस्कृति
में अभिजन संस्कृति के साथ ही उसके प्रतिरोध के रूप में विकसित बौद्ध संस्कृति और
आदिवासी समाजों की संस्कृति की बात भी होनी चाहिए। विश्व की अधिकांश संस्कृतियों
की अपेक्षा भारतीय सांस्कृतिक जीवन में धर्म का हस्तक्षेप अधिक रहा हैं जिसमें
धार्मिक कृत्यों, अनुष्ठानों एवं रीतियों पर बहुत जोर दिया जाता हैं। इसलिए भारतीय
संस्कृति की गौरवगाथा कहना सिर्फ उसके एकपक्षीय रूप को दिखाना हैं। अतः संस्कृति
और उसके सामाजिक ढांचे पर यदि मुकम्मल बात करनी हैं तो उसके सकारात्मक और
नकारात्मक दोनों पक्षों पर विचार करना होगा।
भारत सांस्कृतिक बहुलता का देश हैं। इसमें
अन्य उपसंस्कृतियों की भांति जनजातीय उप-संस्कृति का मिश्रित रूप भी दिखाई देता हैं।
भारत में मौजूद जनजातीय उप-संस्कृति भारतीय संस्कृति का ही अंग हैं जो मौखिक
परम्परा पर आधारित हैं। जनजातीय लोककथाएं, दंत-कथाएं, मुहावरें, विश्वास एवं आस्था
पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता हैं कि यह ‘हिंदू’ संस्कृति से कितनी
मिलती-जुलती हैं। इसके बाद भी इस उप-संस्कृति की अपनी अलग पहचान हैं। इसमें ‘प्रजातीय’ समूहों के साथ-साथ
भाषाई, धार्मिक, साहित्यिक विविधताएँ भी दिखाई देती हैं। यात्रियों ने अपने यात्रा
साहित्य में भारत के अलग-अलग क्षेत्रों के जिन आदिवासी समुदायों का चित्रण किया हैं, उनका विभाजन सिर्फ
भौगोलिक आधार पर नहीं मिलता बल्कि प्रजातीय आधार पर भी मिलता हैं। अंडमान का
आदिवासी, उत्तर-पूर्व भारत के आदिवासी से अलग तरह के सामाजिक परिवेश में जीवन व्यतीत
करता हैं जबकि छत्तीसगढ़, झारखंड का अलग
परिवेश में। इन लोगों की शारीरिक बनावट तो भिन्न हैं ही, जीवन की दैनिक गति
और रहन-सहन में भी भिन्नता हैं। इस भिन्नता के बाद भी भारत में इन वर्गों के साथ
हो रहे भेदभाव का रूप एक जैसा हैं। भाषाई विविधता भी इस देश की सांस्कृतिक
विशिष्टता हैं। असगर वजाहत ने अपने यात्रावृत्तांतरास्ते की तलाश मेंके एक
उप-अध्याय में कर्नाटक के शिमोगा क्षेत्र की जिस भाषाई विशिष्टता का चित्रण किया हैं
वह उस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का प्रमाण हैं। भारतीय विविधता का एक अन्य रूप ‘समुदायों’ और ‘क्षेत्रों’ की सांस्कृतिक
पहचान में भी मिलता हैं। चूंकि कुछ जातियों, पंथों और समुदायों के अपने लोकाचार
होते हैं। इनके बीच ‘सांस्कृतिक’ क्षेत्र का निर्माण
लोगों के नृजातीय मूल, भाषा और सांस्कृतिक विशेषताओं से बनता हैं जिसमें सबसे
महत्त्वपूर्ण इनका साझा ऐतिहासिक अनुभव, पारिस्थितिकी और पर्यावरण होता हैं। जैसे, असम के शंकरदेव ने
असम को एक नया सांस्कृतिक व्यक्तित्व दिया लेकिन उन्होंने भारत की छवि धूमिल नहीं
होने दी। इसी प्रकार सिंधुघाटी सभ्यता द्वारा उसके लोकाचार को समझा जा सकता हैं
जिसने अपनी अलग पहचान रखते हुए भारतीय संस्कृति को मजबूत किया। ‘मुअनजोदड़ो’ की ख़ूबी को
रेखांकित करते हुए ओम थानवी ने लिखा हैं, “इस आदिम शहर की
सड़कों और गलियों में आप घूम-फिर सकते हैं। यहां की सभ्यता और संस्कृति का सामान
चाहे अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था अब भी
वहीं हैं। आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं। वह कोई खंडहर
क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रख कर सहसा सहम जा सकते हैं, जैसे भीतर कोई अब
भी रहता हो।”[10]‘मुअनजोदड़ो’ सुसंस्कृत समाज की
स्थापना थी जो मूलतः खेतिहर और पशुपालक संस्कृति थी। आधुनिक समाज के बदलते स्वरूप
ने संस्कृति पर नए ढंग से सोचने के लिए विवश किया हैं। विज्ञान ने यदि इसकी
विविधता को बदला हैं तो इसके अंदर मौजूद विषमताओं के खोखलेपन को उजागर भी किया हैं।
तार्किक रूप से विज्ञान ने विविधता की गौरवगाथा को सराहा हैं तो उसकी कमियों को
उजागर भी किया हैं जहां पर संस्कृति नए रूप में समाज के सामने आती हुई दिखाई देती हैं।
उत्तर-पूर्व का आदिवासी समाज हो या छत्तीसगढ़
का। उनमें धार्मिक परिवर्तन बहुत तेजी से हो रहे हैं। इस तरह के धार्मिक परिवर्तन
के पीछे क्या कारण हैं, इसे देखे जाने की
आवश्यकता हैं किंतु एक बात तय हैं कि धर्म के क्षेत्र में इस तरह के धर्मांतरण से
उन विश्वासों को त्यागा नहीं जा सकता जिनकी जड़े गहरी जमी हुई हैं। प्रारंभ में
इस्लाम और ईसाई दोनों धर्मों की तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल लोगों ने
धर्म परिवर्तन किया। धर्मांतरितों का धार्मिक परिवर्तन चाहे सामाजिक शोषण की
प्रवृत्ति से मजबूर होकर किया गया हो या जीविका के साधन को बेहतर करने के उद्देश्य
से। लेकिन उनके मूल व्यक्तित्व में बदलाव कम ही हो पाता हैं। अनिल यादव और रामशरण
जोशी ने अपने यात्रा साहित्य में धार्मिक परिवर्तन का जिक्र किया हैं। भारत में
प्राचीन समय से ही संस्कृतियों में मिश्रण दिखाई देता हैं। मध्य एशिया और पश्चिमी
एशिया से इस्लामी संस्कृति और यूरोप से ईसाई संस्कृति का आगमन भारत में हुआ हैं।
रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा हैं, “जब दो भिन्न
संस्कृतियों के बीच संपर्क स्थापित होता हैं तो जिस संस्कृति के पास उन्नत विज्ञान
और तकनीक होती हैं वह आसानी से दूसरों पर हावी हो जाता हैं।”[11] भारत में भी यही
हुआ। इन दोनों संस्कृतियों ने अपनी भिन्नता के कारण अनेक समुदायों को विशेष रूप से
आदिवासी समुदायों को प्रभावित किया जिसे मानवशास्त्री ‘परसंस्कृति-ग्रहण’ कहते हैं! भारतीय
समाज पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव 9वीं-10वीं सदी में जबकि यूरोपीय संस्कृति का
प्रभाव 18वीं सदी में पूर्णरूप से पड़ने लगा था।
समाज और संस्कृति के अंतर्संबंधों पर यदि गहराई
से अध्ययन करें तो ज्ञात होता हैं कि शाब्दिक दृष्टि से ‘संस्कृति’ शब्द समाज से अधिक
व्यापक अर्थ रखता हैं। ‘सांस्कृतिक’ बदलाव जीवन के सभी
पक्षों में दिखाई पड़ता हैं। इसके अंतर्गत धर्म, ज्ञान, कला, विश्वास, प्रथा,
कानून, विज्ञान, दर्शन, साहित्य, वास्तुकला, आदतें आदि आते हैं जबकि सामाजिक बदलाव
का संबंध सामाजिक संबंधों में बदलाव से हैं। जे. पी. सिंह ने अपनी पुस्तक आधुनिक
भारत में सामाजिक परिवर्तन :21वीं सदी में भारत[12] में सामाजिक और
सांस्कृतिक अलगावों को निम्न बिंदुओं द्वारा रेखांकित किया हैं-
- सामाजिक परिवर्तन मात्र सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन से हैं, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन धर्म, ज्ञान, विश्वास, कला, साहित्य, प्रथा, कानून, आदर्श, मूल्य आदि क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तन से हैं।
- सामाजिक परिवर्तन से सामाजिक संरचना में परिवर्तन का बोध होता हैं, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन से ‘संस्कृति’ के विभिन्न पक्षों में होने वाले परिवर्तन का बोध कराता हैं।
- सामाजिक परिवर्तन चेतन एवं अचेतन दोनों परिवर्तनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता हैं, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन प्रायः जागरूक प्रयत्नों से घटित होता हैं।
- सामाजिक परिवर्तन की गति काफी तीव्र भी हो सकती हैं, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत कम तीव्र होती हैं। इसका तात्पर्य यह हैं कि सामाजिक संबंधों में परिवर्तन तेजी से हो सकता हैं, जबकि धर्म, विश्वास, जीवन के मूल्यों आदि में परिवर्तन धीमी रफ्तार से होता हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक
अलगाव के बाद भी ये दोनों संरचनाएं एक-दूसरे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
प्रभावित करती हैं क्योंकि दोनों संरचनाएँ समाज से जुड़ी हुई हैं। नंदकिशोर आचार्य
ने लिखा हैं, ‘‘संस्कृति का आधार समाज का मूल्य-बोध और उसकी कसौटी उस समाज का आचरण हैं। इस
प्रकार यदि संस्कृति मूल्य-बोध हैं तो वह सार्वभौमिक हैं। ऐसी स्थिति में उसे
देश-प्रदेश की सीमाओं में बांटकर देखना बुनियादी रूप से गलत हैं। संस्कृति को
अक्सर किसी भाषा या धर्म-संप्रदाय या देश के साथ जोड़कर देखा जाता रहा हैं- यथा
बंगला संस्कृति, हिन्दू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, ईसाई संस्कृति, भारतीय संस्कृति, फ्रेंच संस्कृति
आदि। लेकिन ऐसा विभाजन यदि मूलभूत संस्कृति के संदर्भगत और परिवेशगत विभिन्न
स्वरूपों को समझने के लिए किया जाए तो कुछ सीमा तक उस की अपनी उपादेयता भी हैं
लेकिन इस विभाजन को आत्यंतिक मान कर इसे ही विभिन्न समाजों या व्यक्तियों के
सांस्कृतिक आचरण की एक मात्र कसौटी बना देना सांस्कृतिक पाखंड हैं। इसलिए कभी भी
हमारा ध्यान प्रकृतिगत एकता की ओर नहीं जा पाता जिससे सांस्कृतिक विकास की
प्रक्रिया में ऐतिहासिक विसंगति पैदा होने लगती हैं।’’[13] भौगोलिक सूत्र यदि
क्षेत्र को विभाजित करता हैं तो वह क्षेत्रीय विविधताओं के साथ भारत को जोड़ता भी हैं।
क्षेत्रीय स्थानों की अपनी विशेषताएं होती हैं जिसको अलग रूप से देखना उसकी
अनिवार्यता को स्वीकार करना हैं न कि उसमें ऐतिहासिक विसंगति पैदा करना।
‘सांस्कृतिक’ कारको के संदर्भ
में यदि बात करें तो सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन से सिर्फ समाज और संस्कृति
में ही नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी परिवर्तन होता हैं। मार्क्स ने बताया हैं
कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे अहम कारक ‘आर्थिक’हैं। इसलिए सामाजिक
संरचना और संस्कृति को उन्होंने ‘अधिरचना’ कहा। लेखिका मृदुला
गर्ग ने अपने यात्रा साहित्य में दिखाया हैं कि कैसे आर्थिक समस्याएँ समाज को
प्रभावित करती हैं लेकिन राजनीतिक महत्त्वकांक्षा से पोषित होकर उसे किस संस्कृति
का जामा पहना दिया जाता हैं। उन्होंने लिखा हैं, “लड़ाई रोटी की होती
हैं पर ऊंचे खयालात का जामा पहना कर लड़ी संस्कृति के नाम पर जाती हैं। बेकारी, भूख, रोजी-रोटी में वह
कशिश कहाँ, जो राष्ट्रीयता, परंपरा, सांस्कृतिक धरोहर, इतिहास आदि में हैं।
इसलिए लेखिका ने आसु के विद्यार्थियों को समझाते हुए कहा कि यदि वे सांस्कृतिक
सुचिता को प्रमुख मुद्दा बनाएंगे तो उन्हें कट्टरपंथी ठहरा दिया जाएगा। उसके बाद
फ़ासीवादी, आतंकवादी और युयुत्सु। बेहतर हैं कि वे आर्थिक तंत्र के निकम्मेपन की बात
करें, औद्योगिक विकास, पूंजी निवेश की जरूरत, बेरोजगारी को
मुद्दा बनाएं।”[14] आज की सरकारी व्यवस्थाएँ
आर्थिक रूप से मौजूद विसंगतियों को ऐसे ही सांस्कृतिक सुचिता के नाम पर लोगों को
गुमराह कर रही हैं। वर्तमान में आदिवासी समाज विज्ञान और दूसरे धर्म की संस्कृति
से बहुत प्रभावित हुआ हैं/हो रहा हैं। विज्ञान से उनके समाज में नवीन वस्तुओं के
उपभोग की लालसा बढ़ रही हैं जिससे आदिवासी समाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा हैं।
विज्ञान की भूमिका ने उन इलाकों पर नकारात्मक प्रभाव डाला हैं। संस्कृति में
प्रसार हो या परिवर्तन उससे सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था भी प्रभावित
होती हैं। मृदुला गर्ग और रामशरण जोशी जैसे लेखकों ने अपनी दृष्टि से यह देखने का
प्रयास किया हैं कि सांस्कृतिक सुचिता के कारण मनुष्य का आर्थिक शोषण किस प्रकार
से होताहैं।
‘संस्कृति’ का रूप ‘प्रकृति’ का ही रूप हैं।
प्रकृति भी समाज का हिस्सा हैं। समाज की निर्मिति इसी से हुई हैं। देवताओं की
कल्पना प्रकृति की शक्तियों से ही शुरू होती हैं, चाहे जिस संस्कृति
में हो। प्रकृति के विविध रूपों को ही देवता मान लिया जाता हैं। जैसे, आर्यों के यहाँ, अग्नि, जल, वायु को देवता माना
गया। ठीक इसी प्रकार सुंदरवन के देवता यहाँ मौजूद ‘सिंह’ और ‘वन’हैं जिसका वर्णन
गोविंद मिश्र ने अपने यात्रावृत्तान्त में कियाहैं। राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी
पुस्तक वोल्गा से गंगा में प्रकृति के रूप को ही देवता स्वीकारने की ओर
संकेत किया हैं। मृदुला गर्ग ने अपने यात्रा साहित्य में आधुनिक समाज पर व्यंग्य
करते हुए प्रकृति के विकृत हो रहे रूप पर लिखती हैं,‘शाम को मैं जब ‘कुमारग्राम’ चाय बागान पहुंची, जो बंगाल, असम और भूटान की
तरफ खुलता था। जहां पर भूटान से ‘राइडन’ नदी निकलती हैं और
रफ्ता-रफ्ता, हिंदुस्तान पहुंचती हैं। भूटान में उसका पानी, बिल्लौरी कांच की
मानिंद, पारदर्शी, साफ शफ़्फ़ाफ था। पर हिंदुस्तान में कुमारग्राम चाय बागान से आगे, उसके बहाव को रोकता
हर तरह का कचरा मौजूद था। खास तौर पर प्लास्टिक के थैले और नमकीन के खाली पैकेट।
भूटानी और हिन्दुस्तानी स्वरूप इतना भिन्न क्यों? क्या यह फर्क
राजतंत्र और लोकतंत्र का था? पुरातन और नवीन
संस्कृति का था? या महज आदिम जातियों के प्रकृति प्रेम और नव धनाढ्यों की, उपभोग में डूबी
अराजकता का? कौन ज्यादा खुश था? अगली पीढ़ियों के
लिए अपनी प्राकृतिक धरोहर बचाते, कायदे से उसका
उपयोग करते, राजसत्ता से अनुशासित भूटानी या राइडन के तट पर, उच्छृंखल पिकनिक
मनाते, अपनी उपभोग क्षमता पर इतराते लोकतांत्रिक भारतीय।’[15] यह अंश लोकतंत्र और
राजतंत्र का आधुनिक आख्यान हैं जिसका संबंध सीधे आज के औद्योगीकरण से हैं। हमारा
समाज आज नित-नवीन ऊंचाइयों को भले ही छूता जा रहा हैं लेकिन हम अपनी संस्कृति और
सभ्यता को खोते हुए अपने समाज को पंगु भी बनाते जा रहे हैं।प्रकृति का यही रूप
संस्कृति का प्राण हैं जिसको सत्तायें सही ढंग से संरक्षित नहीं कर पा रही हैं।‘प्रकृति’ में आ रहे परिवर्तन
को लेकर अजय सोडानी, अनिल यादव, अमृतलाल वेगड़, गोविंद मिश्र, राकेश तिवारी जैसे
यात्रियों ने चिंता व्यक्त की हैं। कहीं पर नदी का रूप विरूपित हो रहा हैं तो कहीं
हिमालय का। विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति से लगातार खिलवाड़ किया जा रहा हैं। अनिल
यादव ने प्रकृति के स्वरूप से प्रभावित होते हुए लिखा,‘यदि कभी कोई मेरा
धर्म हुआ तो वह ऐसा ही सादा, इकहरा और पवित्र
होगा क्योंकि यहाँ प्रकृति का अपना अलग रूप देखने को मिलता हैं। आज के समय में
धर्म पाखंड, छूआछूत, कट्टरपन, घृणा, अंधविश्वास और शोषण के महीन तरीके लाता हैं।’[16] प्रकृति के रूप और
प्रभाव को उसकी गोद में ही बैठकर जाना जा सकता हैं। वर्तमान लेखकों ने प्रकृति को
बहुत करीब से देखा-समझा और उसके विकृत होते रूप को भी रेखांकित किया। यात्रा
साहित्य में अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद प्रकृति का चित्रण मिलता हैं। प्रकृति का
विद्रुप होता रूप चिंतनीय हैं। विकास और औद्योगीकरण के नाम पर प्रकृति के जिस रूप
को विरूपित किया जा रहा हैं वह आने वाले भविष्य के लिए संकट उत्पन्न कर सकता हैं।
प्रकृति का क्षरण सिर्फ भौगोलिक स्थिति को ही नहीं बदल रहा बल्कि सामाजिक और
सांस्कृतिक बदलाव भी ला रहा हैं।
इतिहास के लगभग सभी समाजों में ‘अपवित्रता’ और ‘शुचिता’ की धारणाएं सामाजिक
और राजनैतिक विभाजनों को मजबूत बनाती हैं। कुलीन वर्ग अपनी हैंसियत को बनाए रखने
के लिए इन धारणाओं का उपयोग करते हैं। हिन्दू वर्ण-व्यवस्था और उससे जुड़ी शुचिता
हिंदुस्तान की संस्कृति में गहरी पैठी हुई हैं। इंडो-आर्य आक्रमण को भूल जाने के
बाद हिंदुस्तानियों ने वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करना प्रारंभ कर दिया और वर्णों
के मिश्रण से पैदा होने वाले बच्चों से घृणा करने लगे। जैसे-जैसे समय गुजरता गया
इन वर्णों का विभाजन उप-जातियों में होता गया। प्रारंभिक चार वर्ण आज लगभग तीन
हजार जातियों में बदल गए हैं लेकिन जातियों के प्रसार ने वर्ण-व्यवस्था के
बुनियादी नियम में कोई परिवर्तन नहीं किया। आधुनिक हिंदुस्तान में विवाह और काम के
मसले आज भी जातीय और लैंगिक व्यवस्था से प्रभावित होती हैं। फिर भी हिंदुस्तान की
लोकतांत्रिक सरकार द्वारा इस तरह के भेदभाव को खत्म करने और हिंदुओं को समझाने की
तमाम कोशिशें की गई हैं। लैंगिक समस्या एकमात्र ऐसी समस्या हैं जो वैश्विक समाजों
को समान-रूप से प्रभावित करती हैं। कृषि क्रांति के बाद से ज्यादातर मानव-समाज
पितृसत्तात्मक समाज रहे हैं, जो पुरुषों को स्त्रियों से ज्यादा महत्त्व देते थे।
लगभग सभी कृषि-प्रधान और औद्योगिक समाजों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही हैं।
इसने राजनीतिक परिवर्तनों, सामाजिक क्रांतियों और आर्थिक रूपान्तरणों को
दृढ़तापूर्वक झेला हैं। बीसवीं सदी लैंगिक क्रांति के उद्देश्य से महत्त्वपूर्ण रही
हैं जिसके कारण स्त्रियों को समान क़ानूनी अधिकार, राजनीतिक अधिकार और आर्थिक अवसर
उपलब्ध हो रहे हैं, इसके बाद भी लैंगिक शोषण खत्म नहीं हुआ हैं। प्रकाशवती पाल ने
समाज में मौजूद लैंगिक असमानता पर अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए हैं, “इस स्कूल की लड़कियाँ
बैलगाड़ी से आती थीं। चारो ओर पर्दे लगे रहते थे। यह आजाद पंजाब नहीं, इलाहाबाद था। लाहौर
में पढ़ने जाने वाली लड़कियाँ और लड़के पैदल जाते थे। लड़के साइकिल भी इस्तेमाल करते
थे। मुहल्ले की दो-चार लड़कियाँ गप्प लड़ाती स्कूल पहुंच जाती थी, वैसे ही वे वापस आ
जाती थी।”[17] क्षेत्रीय
परिस्थितियाँ किस प्रकार मुकम्मल समाज के निर्माण में बाधक का काम करती हैं उसे
समझा जा सकता हैं!भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि स्त्री
शिक्षा पर दृष्टि डाली जाए तो पुरानी ब्राह्मणवादी परम्परा में वेदों के अध्ययन का
अधिकार स्त्री की अपेक्षा सिर्फ उच्चवर्गीय पुरुषों तक ही सीमित था। यदा-कदा ही
मैत्रेयी और गार्गी जैसी बौद्धिक महिलाओं के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने शिक्षा
में अपना नाम स्थापित किया। व्यापक स्तर पर नारी शिक्षा का प्रारम्भ बीसवीं सदी
में हुआ। वस्तुतः उन्नीसवीं सदी के अंत में 1875 में
कुर्ग, अंडमान-निकोबार द्वीपों
तथा त्रावणकोर एवं कोचीन की रियासतों ने नारी शिक्षा के लिए प्रयास किया था। भारत
में नारी साक्षरता की बदहाली के लिए भारत की स्कूली व्यवस्था की दुर्दशा उत्तरदायी
हैं। प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में सरकारी विफलताओं का सबसे अधिक दुष्प्रभाव
स्त्री शिक्षा पर ही पड़ा हैं साथ ही स्त्री-पुरुष के असमान संबंधों ने भी स्त्री
शिक्षा को प्रभावित किया। स्त्री और जातीय विभाजन भारतीय समाज में आज भी मौजूद
हैं। ऐसा नहीं हैं कि इसमें सुधार नहीं आया लेकिन इस तरह के मामूली सुधार देश को
आगे ले जाने के लिए नाकाफी हैं। यानी विकास और विचार के स्तर पर सार्थक सिद्ध नहीं
हुए हैं।
समाज में धार्मिक
भेदभाव बढ़ रहा हैं। ऐसी स्थिति में धार्मिक उन्माद को राज्य कैसे रोक सकता हैं। यह
चिंता का विषय बना हुआ हैं। मृदुला गर्ग ने अपने वृत्तांत में इसका जिक्र किया हैं।
उन्होंने लिखा हैं, “आप किसी धर्म के बारे में कुछ न जानते
हों या गलत-सलत जानते हों, तब भी दूसरों को
उसे पूजने का अधिकार दें और उस मान्यता को निज धर्म जितना सम्मान दें। उससे भी
महत्त्वपूर्ण पक्ष यह हैं कि आप व्यक्ति को धर्म से जोड़कर देखे ही नहीं।”[18] कोच्चि में ईश्वर
प्रकृतिजन्य हैं। यहां पर धर्म-कर्मकांड खूब हैं, फिर भी मल्लाह के
गीतों और नारियल के रेशों में ईश्वर दिखाई देता हैं। मृदुला गर्ग आगे लिखती हैं कि
कर्नाटक में मैसूर के चामुंडेश्वरी मंदिर में शबाना नाम की मुस्लिम लड़की हमारे साथ
गई और पूजा भी की। लेकिन केरल? कर्नाटक से कहीं
अधिक साक्षर, शिक्षित, आधुनिक, उदार, घुमंतु होते हुए भी केरल में इस प्रकार का निषेध क्योंहैं? ठीक इसी तरह का
जिक्र अनिल यादव ने अपने वृत्तांत में किया हैं। उन्होंने लिखा,‘नागालैंड में धर्म
को वहाँ के लोगों ने अपनी सहजता के अनुसार स्वीकार किया हैं। यहां के चर्च में
इंका क्राइस्ट, विदेशी नहीं बल्कि नागा हैं। नागाओं ने चर्च और वामपंथ को अपने हिसाब से
मरोड़कर अपनाया हैं। यहां का उग्रवादी संगठन एनएससीएन (आईएम) की विचारधारा माओवादी हैं
लेकिन उनका घोषित उद्देश्य ‘मसीही समाजवाद’हैं। उनके घोषणा
पत्र में नागाओं को भारत (हिंदू) और बर्मा (बौद्ध) से सावधान करते हुए लिखा गया हैं
कि हिंदुत्व की शक्तियाँ... फौज, थोक-खुदरा
व्यापारियों, अध्यापकों, हिंदी फिल्मों-गानों, रसगुल्ला बनाने
वाले हलवाइयों और गीता... इन सबके जरिए मसीही भगवान को हमारी धरती से बेदखल करने
के मिशन में लगी हुई हैं।’[19]‘ धर्मनिरपेक्षता’ शब्द की उपयोगिता
धर्म के इसी स्वरूप को स्वीकार करने से मजबूत होगी न कि धार्मिक भावनाओं को आहत
करने से। व्यक्ति जब धर्म के उदारवादी स्वरूप को अपनाएगा तभी समाज की जम्हूरियत को
बचाया और बनाया जा सकेगा। इसलिए व्यक्ति धर्म को किस रूप में अपनाता हैं यह ज्यादा
जरूरी हैं।
निष्कर्ष -
समाज और संस्कृति में
हो रहे बदलाव को साहित्य में देखा जा सकता हैं। आज के यात्रावृत्तांत सामाजिक-सांस्कृतिक
परिवर्तन से सीधे तौर पर प्रभावित हैं। यानी साहित्य, समाज और संस्कृति
का उपकरण हैं किंतु ये अपने विचारों की पूर्ति समाज से करता हैं। यात्रावृतांत समाज
और संस्कृति के विविध रूपों को समझने में मदद करते हैं, क्षेत्रीय
विविधताओं को रेखांकित करते हैं और उनके सकारात्मक-नकारात्मक बिंबों को हमारे
सामने रखते हैं। उपर्युक्त विश्लेषण को यदि ध्यान से देखा जाए तो क्षेत्रीय
विविधताओं के साथ-साथ समाज की विषमताओं-असमानताओं को भी यात्रा साहित्य ने बारीकी
के साथ रेखांकित कियाहैं। सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर इक्कीसवीं सदी के
यात्रावृत्तांतों में मौजूद स्त्री-शोषण, आदिवासी लोगों के
प्रति उदासीनता और उपेक्षा का भाव, समाज में शिक्षा और
स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरत, असमानता की गहरी
होती खाई को विश्लेषित किया जा सकता हैं। शिक्षा एक ऐसा माध्यम हैं जो समाज को सही
दिशा में सोचने-समझने के लिए माध्यम का काम करता हैं। केरल या पूर्वोत्तर भारत या
फिर भारत के पहाड़ी क्षेत्र यदि सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से मजबूत हैं तो इसका कारण ‘शिक्षा’हैं। इक्कीसवीं सदी
के यात्रा साहित्य इन समस्याओं को समझने में पाठक को नवीन दृष्टि प्रदान करते हैं।
यह नवीन दृष्टि यथार्थवादी दृष्टि हैं।
[1]बच्चन
सिंह,आधुनिक
हिंदी आलोचना के बीज शब्द, नई दिल्ली
: वाणी प्रकाशन,
2007,
पृ.106.
[2]आचार्य
नंदकिशोर,संस्कृति
का व्याकरण,बीकानेर : वाग्देवी प्रकाशन,
संस्करण 1997,
पृ.22.
[3]मैनेजर
पाण्डेय,संकट
के बावजूद, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन,
संस्करण 2002,
पृ.123.
[4]रामधारी
सिंह ‘दिनकर’,संस्कृति
के चार अध्याय, इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन,
तीसरा संस्करण 2012, पृ.85.
[5]उप.पृ.85-86.
[6]युवाल
नोआ हरारी,सेपियंस
: मानव-जाति का संक्षिप्त इतिहास, अनुवाद,
मदन सोनी,भोपाल
: मंजुल पब्लिसिंग हाउस,संस्करण
2011,पृ.47.
[7]असगर
वजाहत,रास्ते
की तलाश में, गाजियाबाद : अंतिका, 2012, पृ.30.
[8]मैनेजर
पाण्डेय,भारतीय
समाज में प्रतिरोध की परंपरा,नई दिल्ली :
वाणी प्रकाशन,
संस्करण 2013,भूमिका.
[9]उप.
पुस्तक,भूमिका.
[10]ओम
थानवी,मुअनजोदड़ो, नई
दिल्ली : वाणी प्रकाशन, संस्करण 2011,
पृ.49.
[11]जे.पी.
सिंह,आधुनिक
भारत में सामाजिक परिवर्तन : 21वीं सदी का भारत,दिल्ली
: पीएचआई लर्निंग, संस्करण 2016,पृ.116.
[12]जे.पी.
सिंह,आधुनिक
भारत में सामाजिक परिवर्तन : 21वीं सदी का भारत,
पृ.6.
[13]आचार्य
नंदकिशोर,
संस्कृति का व्याकरण,पृ.24.
[14]मृदुला
गर्ग,कुछ
अटके कुछ भटके,नई दिल्ली :पेंगुइन बुक्स,
संस्करण 2014,
पृ.122-23.
[15]उप.
पृ.164-65.
[16]अनिल
यादव,वह
भी कोई देश है महराज, गाजियाबाद
: अंतिका,
संस्करण तीसरा 2014, पृ.42.
[17]प्रकाशवती
पाल,लाहौर
से लखनऊ तक, इलाहाबाद : लोकभारती,2009,
पृ.60.
[18]मृदुला
गर्ग,कुछ
अटके कुछ भटके, पृ.64.
[19]अनिल यादव,वह भी कोई देस है महराज, पृ.60.
sunilkumaryadav2591@gmail.com, 9582347210
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
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