‘जैसे उनके दिन फिरे’ में अभिव्यक्त समकालीन जीवन की विसंगतियाँ / डॉ. महावीर सिंह वत्स और डॉ. राजबीर वत्स
शोध-सार -
हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा रचनात्मकता
की एक सशक्त विधा है। हरिशंकर परसाई इस विधा के अप्रतिम हस्ताक्षर ही नहीं हैं
बल्कि इसको समृद्ध करने में आजीवन लेखनी चलाते रहें हैं। इन्होंने अपनी सृजनात्मक
शक्ति के माध्यम से समाज और सत्ता के उस रूप का चित्रण किया है जो एक मनुष्य को
मनुष्य के रूप में नहीं देखता है। साथ ही इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि
परसाई की रचनाशीलता समाज और सत्ता में उस बदलाव की पुरजोर मांग करता है जहाँ
मनुष्य की पहचान विविध अर्थों (धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र, नस्ल आदि) में की जाती
है। कहने को आज परसाई हम सब के बीच में नहीं हैं परंतु उनके द्वारा लिखी गयी
कहानियाँ, निबंध, लेख हमारे समाज में फैली समस्याओं का जीवंत दस्तावेज पेश करते
हैं। साथ ही हमारे समय के सच को बेबाकी से प्रस्तुत करते हैं। जिस ढंग से समाज और
सत्ता के चेहरे अमानवीय होते जा रहे हैं वैसे-वैसे परसाई की प्रसांगिकता हिंदी
समाज के लिए ही नहीं बल्कि भारतीय समाज के लिए भी बढ़ती जा रही है। इस शोध आलेख का
मुख्य उद्देश्य यही है कि परसाई की रचनाशीलता (विशेष रूप से 'जैसे उनके दिन फिरे'
कथा संग्रह) को वर्तमान संदर्भों में रखकर पढ़ा जाए और एक सार्थक निष्कर्ष पर
पहुँचा जाए। साथ ही समाज और सत्ता से उत्पन्न समस्या के उस मूल स्वभाव की भी जाँच
की जाए जिस कारण मनुष्य के जीवन में गतिरोध एवं विसंगतियाँ पैदा हो रही है।
निस्संदेह यह गतिरोध एवं विसंगतियाँ उनके लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए सबसे बड़ा
खतरा है। इस खतरे को पहचानना अत्यावश्यक जान पड़ता है। इस कार्य में परसाई का लेखन
हमारी नयी पीढ़ी को सकारात्मक रास्ता दिखा रहा है।
बीज शब्द -
समाज, सत्ता, राजनीति, लोकतांत्रिक मूल्य, सामाजिक विसंगतियां, मिथ्या, रिसर्च,
रचनाशीलता, विसंगति
मूल
आलेख –
हरिशंकर परसाई हिन्दी के ही नहीं समस्त भारतीय साहित्य के प्रमुख
व्यंग्यकार हैं। यह अकारण नहीं कहा जा रहा है। इनकी रचनाशीलता इस बात का स्वयं
प्रमाण है। इनकी रचनाशीलता की विश्वसनीयता के विषय में एक जगह प्रभाकर श्रोत्रिय
ने लिखा है कि 'परसाई ने जिस गम्भीर सामाजिकता और मानवीयता का परिचय अपने
व्यंग्यों में अक्सर दिया है उससे हिंदी व्यंग्य कि विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बढ़ी
है।' इनके लेखन से जिस पाठक वर्ग का निर्माण हुआ है वह केवल व्यंग्य से मनोरंजन
प्राप्त नहीं करना चाहता है बल्कि अपने इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं का जायजा लेना
चाहता है जो बदलाव का पहला पड़ाव है। यह कहने में शायद ही हिचक होगी कि परसाई का
व्यंग्य वर्गीय चेतना का मूल स्वर है जिस तरह से उन्होंने विसंगतियों का वर्णन
किया है वह कोरी कल्पना पर आधारित नहीं है बल्कि जीवन की समीक्षात्मक विसंगतियों
को व्यक्त किया है। "परसाई का व्यंग्य सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के खारेपन
का व्यंग्य है। मौजूदा यथार्थ का खुरदरापन परसाई की निजी विशेषता एवं साहित्यिक
उपलब्धि है। वह पाठकों को चुभता ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानवीय करुणा की धार भी
प्रवाहित करता है।"[1]
मनुष्य का निर्माण रचनाशीलता के समानुपाती होता है जिस ढंग की रचनाशीलता परसाई की
रही है 'सभी प्रकार के सत्ता विरोधी स्वभाव वाली' वैसे ही उनका पाठक वर्ग भी
निर्मित हुआ है। इस बात के परिप्रेक्ष्य में डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के कथन से
सहमत हुआ जा सकता है। उनके शब्दों में 'परसाई की व्यंग्य रचनाओं ने एक नए
बुद्धिवादी पाठक का निर्माण किया है। जो केवल रंजित नहीं होता उसका चेतन, अवचेतन
सब कुछ यह सोचने में लीन हो जाता है कि परसाई ने सामाजिक दंभ के किस पक्ष का
विस्फोट किया है।' इस बात की ओर ध्यान उद्दृत करना चाहिए कि हरिशंकर परसाई ने जब
लेखन शुरू किया तब तक साहित्य में व्यंग्य लेखन का क्षेत्र बड़ा सीमित रहा। अगर
भारतेंदु युग या उससे आगे के रचनाकारों को देखा जाए तो उनकी रचनाओं में राजनीति पर
व्यंग्य के माध्यम से गहरी चोटें होती थी परंतु "परसाई ने व्यंग्य के विषय
क्षेत्र का अभूतपूर्व विकास किया।...उन्होंने व्यंग्य के लिए असंख्य नये क्षेत्र
जुटाए जिन पर पहले किसी की दृष्टि नहीं हई थी।"[2]
हरिशंकर परसाई के लेखन की शुरुआत जबलपुर से प्रकाशित
'प्रहरी' में छपी कहानी 'पैसे का खेल' से प्रारंभ हुआ। यह लेखन कार्य विविध विषयों
से संदर्भित होते हुए आजीवन प्रवाहित होता रहा है। जिसमें सत्ता है, सत्ता की
विडम्बना है, जीवन के कटु अनुभव है, सरकारी योजना की विफलता है, गाँव है, शहर है,
परिवार है, शोध छात्र है, शोध परियोजना का व्यावहारिक रूप है। इत्यादि इत्यादि
विषयवस्तु को इन्होंने रचना का आधार बनाया है। लेखन की इसी कड़ी में ‘जैसे
उनके दिन फिरे’ यह उनका व्यंग्य कथा संग्रह है।
इस संग्रह में उन्नीस कथाएँ संग्रहित हैं।
इस कहानी संग्रह के अलावा परसाई के प्रमुख व्यंग्य कथा संग्रह
निम्न हैं जैसे ‘हँसते
हैं रोते हैं’, ‘भोलाराम का जीव’, इसके
अतिरिक्त परसाई जी ने अनेक लेख संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, यात्रा
वृत्तान्त और लघु कथा संग्रह की रचना की है।
सन् 2011 में भारतीय
ज्ञानपीठ द्वारा 'जैसे उनके दिन फिरे' के पेपरबैक संस्करण का सम्पादन करते हुए रवीन्द्र
कालिया पिछले पृष्ठ पर लिखते हैं कि “ये मात्र
हास्य-कहानियाँ नहीं हैं यों हँसीं इन्हे
पढ़ते-पढ़ते अवश्य आ जाएगी, पर पीछे
जो मन में बचेगा, वह गुदगुदी
नहीं, चुभन होगी। मनोरंजन प्रांसंगिक
नहीं है, वह लेखन का उदेश्य नहीं। उदेश्य
है- युग का, समाज
का, उसकी बहुविध विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विकृतियों
और मिथ्याचारों का उद्घाटन। परसाई जी की इन कहानियों में हँसी से बढ़कर जीवन की तीखी
आलोचना है।”[3] निश्चित
रूप से कहा जा सकता है कि हरिशंकर परसाई का व्यंग्य सामाजिक जीवन कि सच्चाईयों को
व्यक्त करता है और इनके पास सार्थक आलोचना दृष्टी भी है, इसी दृष्टि के विषय में
वे स्वयं एक जगह लिखते हैं कि "व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन कि
आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।"[4]
‘जैसे उनके दिन फिरे’ की कथावस्तु
और शैली दोनों बेजोड़ है। कहानी एकदम लोक कथा शैली में आरंभ होती है। एक राजा था। राजा
के चार लड़के थे। राजा बड़ा न्याय प्रिय है। अपना उत्तराधिकारी तय करने के लिए वह अपने
बेटों की परीक्षा लेता है। जिसमें एक वर्ष राज्य से बाहर रहकर उनको धन कमाना है और
विशेष योग्यता प्राप्त करनी है। चारों बेटे एक वर्ष बाद लौटते हैं तो बारी-बारी
से सबकी बात सुनी जाती है और अंत में मंत्री सबसे छोटे बेटे को सबसे योग्य बताता
है। परसाई लिखते हैं कि “मंत्रिवर
बोले, महाराज, इसे सारी
राजसभा समझती है कि सब से छोटा कुमार ही सबसे योग्य है। उसने एक साल में बीस लाख मुद्राएँ
इकट्ठी की। उसमें अपने गुणों के सिवा शेष तीनों कुमारों के गुण भी हैं- बड़े जैसा
परिश्रम उसके पास है, दूसरे
कुमार के समान वह साहसी और लुटेरा भी है। तीसरे के समान बेईमान और धूर्त भी। अतएव उसे
ही राजगद्दी दी जाए।”[5] इस प्रकार
इस कथा के माध्यम से परसाई जी ने योग्य राजा के गुणों पर बड़ी सहजता से चुटकी लिया
है। पाठक देर तक सोचता रहता है कि क्या यह सच में हमारे समय की राज्यव्यवस्था का प्रतिमान
तो नहीं? जहाँ राजा का गुण उसके
चारित्रिक पतन से तय किया जाता है।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘इति श्री
रिसर्चाय’ है। इस कहानी में भारतीय भाषाओं
में हो रहे शोध कार्य पर व्यंग्य किया गया है और भविष्य में साहित्य का अनुसंधान किस
प्रकार का होगा इसकी कल्पना की गई है। कैसे गोबरधन दास जैसों को महाकवि घोषित किया
जाएगा। सन् 1950 की बात है। एक बड़े नेता थे बाबू
गोपाल चंद उन्होने स्वतन्त्रता सेनानियों की स्मृति में एक स्मारक बनवाया। उस पर अंकित
करने के लिए किसी बड़े कवि की कुछ पंक्तियों की आवश्यकता पड़ी। सभी बड़े कवि की खोज में
लगे हैं। अकबर बीरबल के किस्से से उन्हें अपने बेटे गोबरधन दास में महान कवि के दर्शन
हो जाते हैं। गोबरधन शराब के नशे में अपने पिता से कहता है कि उसने वह बुरी लत छोड़
दी है। बाबू गोपाल दास अपने बेटे के भीतर छुपे जीनियस को पहचान जाते हैं। और उससे कहते
हैं कि कल देशभक्ति और बलिदान पर चार लाईने लिख के दे देना। आज कल बलिदान, त्याग
और देशप्रेम का फैशन है। अगले दिन शाम तक गोबरधन दास ने चार पंक्तियाँ जोड़ दी। इस कथा
का दूसरा भाग सन् 1950 का है।
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के शोध-कक्ष
में डॉ वीनसनन्दन के छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ बीसवीं सदी के साहित्य पर शोध कर रहे
हैं। अपनी रिसर्च में वे बीसवीं शताब्दी के महान कवियों की खोज करते हैं। रॉबर्ट मोहन
को अपनी रिसर्च में गोबरधन दास की पंक्तियाँ उन्हें किसी मंदिर के अवशेषों पर मिलती
है। लेकिन समस्या ये है कि उनकी कोई और रचना नहीं मिल रही है न ही कोई अन्य जानकारी।
शोध निर्देशक इसे कोई समस्या नहीं मानते और अनेक सुझाव देते हैं। वह कहते हैं कि
शोध अनुमान पर चलते हैं। अपनी इस स्थापना के साथ परसाई जी अपने समय हो रहे शोध कार्यों
पर बड़ी सहजता से व्यंग्य करते हैं।
इस संग्रह की तीसरी कथा है ‘भेड़ें
और भेड़िया’। इस कथा में जंगल में लोकतन्त्र
की स्थापना का वृत्तान्त है। भेड़ें लोकतन्त्र की व्यवस्था में सुरक्षा और अधिकार से
प्रसन्न है। भेड़िया सत्ता चले जाने के डर से चिंतित है और साथ ही उनकी जयकार करने वाले
सियार भी। फिर चुनाव से पहले योजना के तहत भेड़िया और सियार अपना रूप रंग बदल लेते हैं।
“मस्तक पर तिलक लगाया गया, गले में
कंठी पहनायी और मुँह में घास के तिनके खोंस दिये।... अब आप
पूरे संत हो गए।”[6]
बूढ़ा सियार बड़ी होशियारी से अपनी योजना को कार्यरूप दे देता है। भेड़ और भेड़िया दोनों
एक ही जाति के हैं। भेड़िया आपकी आवाज बनेगा। भेड़ों ने अपने शुभचिंतक को चुना। भेड़ियों
ने फिर भोली-भाली भेड़ों का प्रतिनिधि बनकर उनका
शिकार करना जारी रखा। वर्तमान राजनीति इसी प्रकार जाति के आधार पर मतदाताओं के मतों
को प्राप्त करके फिर उनका ही शोषण करते हैं। जिन्होंनें सुरक्षा का आश्वासन दिया था
वे ही लूट रहें हैं। ‘चार बेटे’ नामक
कथा में स्वर्ग में पति-पत्नी
के कलह की कथा वर्णित है। पचासों साल तक आदर्श पति-पत्नी
के रूप में रहने के बाद दोनों का महीने भर के अंदर देहांत हो जाता है। दोनों स्वर्ग
में मिलते हैं। कुछ समय बाद गाँव से स्वर्ग पहुंचे धोबी से वे अपने घर का हाल चाल पूछते
हैं और तभी से पति पत्नी से लगातार नाराज है। साथ नहीं रहना चाहते। सभी समझा चुके हैं।
दोनों अपार संपदा छोड़कर आए हैं। चारों बेटों में संपत्ति को लेकर विवाद होता है। दो
लड़कों ने अदालत में अर्जी दी है कि बाबा के लड़के हम दो ही हैं। जब से बाबा को ये बात
पता चली है बेचारी साध्वी बुढ़िया से पूछते हैं बता बाकी दो लड़के किसके हैं। भारतीय
समाज में पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों और उन
पर सामाजिक दबावों की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति की गयी है। भारतीय पुरुष पूर्ण रूप से समर्पित
पत्नी पर भी संदेह करता हैं। ‘अपने-अपने
इष्टदेव’ में आधुनिक साहित्यकार के सामने
पहचान के संकट और उसकी रचनाओं की व्यापक जन समाज में पहुँच का मार्ग बतलाया गया है।
वर्तमान परिदृश्य में पाठ्यक्रम में निर्धारित होने पर ही किसी रचना और रचनाकार को
पहचान प्राप्त होती है। पाठ्यक्रम में शामिल होना ही वर्तमान श्रेष्ठ साहित्य का पैमाना
बन गया है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए किसी इष्टदेव को साधना होता है। उसी के आशीर्वाद
से रचना पाठ्यक्रम में स्वीकृत होती है। ‘मौलाना
का लड़का: पादरी की लड़की’ कहानी
में मौलना के लड़के रफीक और पादरी की लड़की बेला के बीच प्रेम और धर्म के बीच के टकराव
और प्रेम की विजय की कथा है। मौलाना ने अपना घर पादरी को चर्च और रहने के लिए किराए
पर दे रखा है। रफीक रोज दोपहर को बेला से बाइबिल सुनता है। बेला भी रफीक को पसंद करने
लगती है। दोनों में प्रेम हो जाता है। दोनों एक दूसरे को अपना धर्म अपनाने की कहते
हैं। कोई भी अपना धर्म छोड़ने को तैयार नहीं। लेकिन प्रेम दोनों को विवश कर देता है।
दोनों घर छोड़ देते हैं और सिविल मैरिज के रजिस्ट्रार के दफ्तर की ओर जाते देखे गए।
व्यक्ति की धार्मिक आस्था और प्रेम के बीच दोनों प्रेम को चुनते हैं।
‘सुदामा के चावल’ कहानी
व्यवस्था में अंतर्निहित भ्रष्टाचार के घुन की पड़ताल करती हुई कथा है। कृष्ण के बाल
सखा सुदामा के कथित संस्मरण के माध्यम से व्यवस्था और समकालीन राजनीति के विविध पक्ष
उद्घाटित होते हैं। कृष्ण द्वारा दो लोक देने और सुदामा द्वारा वापस लौटाने की कथा
लोगों में चर्चा का विषय बन गई है। सब उसे मूर्ख मान रहें हैं। सुदामा का सत्य वहीं
जानता है। द्वारिका जाते समय उसकी पत्नी ने दो मुट्ठी चावल पड़ोसियों से उधार लेकर उसके
गमछे में बांध दिये थे कि राजपुरुष बिना भेंट किसी का कोई काम नहीं करते। दूसरा चोरी
और उधारी के माल से वे बड़े प्रसन्न होते हैं। कृष्ण चावल पाने को आतुर हैं। आस-पास खड़े
चित्रकार भी उस दिव्य अवसर को चित्रबद्ध करने को तत्पर हैं। चावल ना पाकर कृष्ण रुष्ट
हैं। सत्य जानना चाहते हैं। आश्वासन पाकर सुदामा सत्य बताता है। चावल उसके सुरक्षा
अधिकारी खा गए। कृष्ण के राज्य में खुरचन का चलन है। कृष्ण इस रहस्य को जानकार बड़ी
दुखी होते हैं। सुदामा से अपने मन की बात बताते हैं। जब से वो राजा बने हैं कितने ही
लोग संबंधी बन कर आए हैं। वह सुदामा से इस बात को बाहर ना बताने का वचन लेते हैं और
उसके बदले एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ, एक मकान
और एक ग्राम देते हैं। इस कथा के माध्यम से शासन व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर व्यंग्य
किया गया है। ‘लंका-विजय
के बाद’ संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण
कहानी है। इस कहानी के माध्यम से परसाई जी ने लंका विजय के बाद की स्थितियों में वानरों
के अयोध्या में उत्पात और राज पदों की लालसा को प्रस्तुत किया है। परसाई जी ने ऋषि
भारद्वाज की जिज्ञासा पर ऋषि याज्ञवल्क्य के माध्यम से ये कथा प्रस्तुत की है। इसे
एक वर्जित प्रसंग मानते हुए सुनने के बाद तीन दिन का मौन धारण किया। परसाई जी ने इस
कथा के माध्यम से उन धूर्त लोगों पर व्यंग्य किया है जो सत्ता की मलाई खाने के लिए
झूठे घाव दिखाते हैं। बहुत से तो ऐसे हैं जिन्होंने युद्ध में भाग ही नहीं लिया लेकिन
पद प्राप्ति के लिए वे अपने शरीर पर झूठे घाव बना रहे हैं। स्वतन्त्रता के बाद सत्ता
में भागीदारी के लिए ऐसे ही अवसरवादी लोग अपने हित साधने में संलग्न रहते हैं।
‘मेनका का तपोभंग’ में भैया
साहब की तपस्या से इन्द्र आसन के डोलने और इन्द्र द्वारा मेनका को भेजकर भईया जी की
तपस्या भंग करने का प्रसंग आया है। भैया साहब के समाजसेवक, भिक्षुक
सेवक, महिला सेवक, दलित
सेवक आदि विविध भूमिकाओं से इन्द्र का आसन डोलने लगता है। नारद से उसके बारे में जानकर
इन्द्र मेनका को एक युवती किरनबाला के शरीर के माध्यम से भैया साहब के पास भेज देते
हैं। उसे भैया साहब को मोहित करना है। लेकिन मेनका को आश्चर्य होता है। भैया साहब तो
पहले ही उस पर मोहित हैं। उसके घर पहुँच जाते हैं। प्रणय निवेदन करते हैं। मेनका उसके
सामने अपना सत्य प्रकट करती है कि उसे इन्द्र ने आपकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा
है। भैया साहब मुस्करा देते हैं और मेनका को बताते है कि उसने इंद्रासन प्राप्त करने
के लिए तपस्या नहीं की बल्कि उसने तो मेनका को प्राप्त करने के लिए तपस्या की है। सम्पन्न
वर्ग के पास आज सब सुविधाएं उपलब्ध हैं। उसे इंद्रासन की आवश्यकता नहीं है लेकिन मेनका
के प्रति उसका आकर्षण आज भी बना हुआ है। ‘त्रिशंकु
बेचारा’ कथा के अंतर्गत आधुनिक जीवन में
किराए के मकान और व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर व्यंग्य किया गया है। विश्वामित्र शहर
के रेंट कंट्रोलर हैं। त्रिशंकु का लड़का उनकी कक्षा में पढ़ता है। उसके पास होने पर
विश्वामित्र उससे प्रसन्न हैं। वे उन्हें शहर की सबसे अच्छी बस्ती में एक अच्छा घर
दिलवाने की बात करते हैं। त्रिशंकु अपनी आर्थिक स्थिति के कारण वहाँ नहीं जाना चाहता
लेकिन विश्वामित्र ने उसे विश्वास दिलाते हैं। अपना सामान लेकर उस कॉलोनी पहुँचे त्रिशंकु
को वापस लौटना पड़ता है। मकान मालिक मामूली शिक्षक को अपना मकान किराए पर देने से मना
कर देता है। लौटने पर पता चलता है कि उसका पहले वाला मकान किसी और को दिया जा चुका
है। तब से त्रिशंकु एक धर्मशाला में रह रहा है। परसाई जी ने महानगरीय समाज में किराए
के मकान का तंत्र और साधारण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के यथार्थ को बड़ी सरलता से अभिव्यक्त
किया है।
‘बैताल की छब्बीसवीं कथा’ के अंतर्गत
देवदत्त के पूर्व जन्म में दांत अर्पण की कथा है। प्राइवेट कॉलेज की प्रबंध समिति के
प्रमुख मिठाईलाल हैं। उसी कॉलेज में देवदत्त असिस्टेंट प्रोफेसर थे। स्थायी पद पाने
के लिए वे अक्सर मिठाईलाल के यहाँ जाते रहते थे। यहाँ तक कि मिठाईलाल को प्रसन्न करने
और प्रेत शांति हेतु अपना दांत तक अर्पण कर देते हैं। बिना कुछ लिए दिये नियुक्ति संभव
नहीं है। इस कथा के अंतर्गत आधुनिक शिक्षण संस्थानों की नियुक्ति प्रक्रिया पर व्यंग्य
किया गया है। ‘बैताल की सत्ताईसवीं कथा’ में डाकुओं
के हृदय परिवर्तन अभियान की कथा है। सरकार इस कार्य के लिए एक संत की सहायता लेती है।
संत द्वारा हृदय परिवर्तन के डर से डाकू जंगल से भाग जाते हैं। एक डाकू नेता भैया साब
के पास अपना हृदय बचाने के लिए रख देता है और नेता उसे धारण कर लेता है और वापस मांगने
पर मना कर देता है। आधुनिक राजनेताओं ने डाकूओं का हृदय तो बदल दिया लेकिन डाकूओं का
हृदय स्वयं धारण कर लिया है। ‘बैताल
की अट्ठाईसवीं कथा’ में एक
व्यापारी धरमचंद द्वारा अपने हित साधने हेतु आयोजित प्रपंच कथा है। धरमचंद जैसे धूर्त
व्यापारी किस प्रकार ईमानदार से ईमानदार अधिकारी को भी अपने हित पूर्ति हेतु उपयोग
कर लेते हैं। धरमचंद का मुकदमा चल रहा है। क्षेत्र के नए अधिकारी उनकी दुकान से कपड़ा
खरीदने आ जाते हैं। उनकी पसंद का कपड़ा बड़ा महंगा था। साहब को महंगा लगा तो खरीदा नहीं।
धरमचंद अवसर को ताड़ लेता है। कुछ दिन बाद वहीं कपड़ा लेकर उनके घर पहुँच जाता है और
बताता है कि किसी काम से बंबई गया था वहाँ उसे कटपीस की दुकान में वहीं कपड़ा बड़ा सस्ता
मिल गया। साहब को पसंद है इसलिए धरमचंद चार पीस उनके लिए भी ले आया। साहब ईमानदार आदमी
थे सो उन्होंने कीमत देकर वे ले लिए। धरमचंद ने साहब से कहा कि यहाँ के दर्जी बड़े चालाक
हैं इसलिए वो अपना जानकार दर्जी भेज देगा। साहब की नई कमीज बन कर आ गई। साहब बड़े प्रसन्न
थे उसी दिन साहब के सामने धरमचंद का मुकदमा आया। पूरा मामला जानकर साहब ने निर्णय लिखा।
पता नहीं क्यों उनके नए कुर्ते ने उनकी ईमानदारी को जकड़ लिया। निर्णय धरमचंद के पक्ष
में आया। ये कैसे हुआ कोई नहीं जानता। धरमचंद भी नहीं। बस वह साहब को देखकर थोड़ा सा
झुका और मुस्कराया था।
‘राग-विराग’ कथा में
एक संन्यासी के राग विराग की कथा है। बस में यात्रा के दौरान एक महिला के साथ बैठने
से इंकार करना, साथ बैठने से सहम जाना और फिर धीरे-धीरे
विराग से राग की ओर लौटने की कथा है। दूसरी ओर महिला जो पहले सन्यासी के साथ बैठने
में बड़ी प्रसन्न थी, अपने
को सुरक्षित समझ रही थी। बड़ी खुल कर बैठी थी। शाम होते-होते
वो सीट के किनारे पर आ जाती है। संन्यासी जो पहले बड़ा डरा सहमा सा बैठा था, खुल गया
है। उसका गीता का पाठ भी लगातार जारी है। कभी-कभी हाथ
हिल जाता है और देवी को छू जाता है। जितना संन्यासी का मन अशांत हो रहा है उतने ही
ज़ोर से वो पाठ करने लगते हैं। “संन्यासी
का पाठ जारी है। स्त्री भी एक किताब पढ़ रही है। बीच-बीच में
एकदम किताब बंद कर देती है। बड़ी परेशानी से आस-पास देखती
है। वह खीजकर बोली, महाराज, जरा ठीक
से बैठो।"[7] अब संन्यासी
का व्यवहार असहनीय हो जाता है। वह सीट से उठ खड़ी होती है। संन्यासी को एक चांटा जड़
देती है। ‘ईडेन के सेब’ कहानी
में आधुनिक विज्ञापन के द्वारा नारी सौन्दर्य के प्रभाव को प्रस्तुत किया गया है। ‘नहुष
का निष्कासन’ कहानी में शहर में किराए पर मकान
लेने के लिए फैमिली का होना कितना आवश्यक है बताया गया है। ‘फैमिली
प्लानिंग’ नामक व्यंग्य कथा में फैमिली प्लानिंग
और गरीब मास्टर के जीवन की स्थिति की बड़ी रोचक कथा है। पूर्व जन्म में 'फैमिली प्लानिंग'
के डॉक्टर की आत्मा को पुनः जन्म लेने के लिए भेजा जा रहा है। आत्मा पूछ उठती है कहाँ
भेज रहो हो ? पता लगता है खंडवा में हरी प्रसाद
पांडे के यहाँ जन्म मिल रहा है। आत्मा उछल पड़ती है। वो तो उसके क्लीनिक के पास ही रहते
थे। उनके पहले ही कई बच्चे हैं। पता लगा उनका नंबर सातवाँ है। बड़े दुखी हुए। भगवान
से मिले और बहस करते हुए कहा कि आप तो राजाओं के घर जन्म लेते हो और मुझे गरीब मास्टर
के यहाँ भेज रहे हो। मास्टर की आर्थिक हालत कितनी खराब है। बच्चे एक दूसरे का उतारा
कपड़ा पहनते हैं। सारी बहस के बाद भी उसे उसी मास्टर के यहाँ भेज दिया जाता है। ‘पाठकजी
का केस’ कहानी में सरकारी कर्मचारी के जीवन
में प्रमोशन की लालसा और ईश्वर की पूजा की पोल खोलती एक कथा है। सरकार चुनाव के आस
पास कोई ऐसे निर्णय नहीं लेती जिससे कर्मचारी नाराज हो जाए। ईश्वर भी चिंतित हैं की
उनकी पूजा में कमी हो गई है। “भगवान
पिछले छ्ह महीनों से सरकार ने कर्मचारियों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं की क्योंकि आगे
आम चुनाव होने वाले हैं। असंतुष्ट कर्मचारी सरकारी दल के लिए खतरनाक होते हैं।”[8] सरकारी
कर्मचारी थोड़ी सी उम्मीद होते ही भगवान की पूजा अर्चना में लग जाते हैं। पाठकजी भी
ऐसा ही करते हैं। सरकारी कर्मचारियों की स्थितियों का बड़ा सटीक वर्णन इस कथा में किया
गया है।
‘वे सुख से नहीं रहे’ इस कथा
संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कथा है। इस कथा में परोपकारी हातिम की किस्सेबाजी से
ऊबे परिवार की कथा है। परोपकारी परोपकार किए बिना नहीं रह सकता। उसका मन बार बार उसे
ऐसा करने को विवश करता है। हातिम भी बार-बार मुनीरशामी
के घर पहुँच जाते हैं। अपने किस्से सुनाते हैं। पति-पत्नी
उनके किस्सों को अनेक बार सुन चुके हैं। अंत में मुनीरशामी हातिम के सामने कुछ नए सवाल
रख देता है। जब जाकर उन्हें उससे छुटकारा मिल पाता है। इस कथा संग्रह की अंतिम कथा
है ‘आमरण अनशन’। कहानी
भविष्य की है। इसमें हमारे महान पूर्वज की कल्पना की गई है। जो सत्य के लिए आमरण अनशन
करते थे। गांधी जी की मूर्ति स्थापित की जा रही है। सेठ किशोरी लाल मूर्ति तक पहुँचने
के लिए फाटक के नीचे अपना नाम खुदवाना चाहते है, गोबर्धन
बाबू अपना और उद्घाटनकर्ता भैया साहब अपना। तीनों इसी बात पर आमरण अनशन शुरू कर देते
हैं। जो दूसरे का हृदय परिवर्तन कर देगा उसी का नाम सामने खुदेगा। मूर्ति से ज्यादा
मूर्ति तक पहुँचने वाले द्वार पर किसका नाम हो यह महत्त्वपूर्ण है। अनशन की खूब चर्चा
होती है। कई दिन बीत जाते हैं। मुख्यमंत्री आते हैं किशोरी लाल के कान में कहते हैं
कि “अगर एक घंटे के अंदर तुम्हारा हृदय
नहीं बदला तो चपरासियों की वर्दी के कपड़े की सप्लाई का जो आर्डर तुम्हें मिल रहा है, वह नहीं
मिलेगा।”[9] फिर
गोबर्धन बाबू से कहते हैं कि “अगर एक
घंटे में तुम्हारा हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, तो नगरपालिका
भंग कर दूँगा।”[10] थोड़ी
देर बाद दोनों का हृदय परिवर्तन हो गया। राजनीति में हृदय परिवर्तन के पीछे कारण अवश्य
होता है। आम जनता उस सत्य को नहीं जान पाती। वो तो हृदय परिवर्तन के नेक उत्सव की जय-जयकार
करती है। परसाई जी ने बड़ी पैनी दृष्टि से राजनेताओं, व्यापारियों
के यथार्थ को उद्घाटित किया है।
'भेड़ और भेड़िया' के माध्यम से प्रजा और शासक के सम्बन्धों पर
व्यंग्य किया गया है। भेड़ रूपी जनता को कैसे भेड़िएं संत बनकर शिकार बनाते है। मस्तक
पर तिलक लगाया, गले में कंठी पहनाई गई और मुँह
में घास के तिनके सोख दिये। बस बन गए पूरे संत। ऐसे ही राजनेता अपने मुखोटों से आम
जनता को ठगते हैं। सुदामा के चावल कहानी में व्यवस्था में अंतर्निहित भ्रष्टाचार की
गहनता और व्यापकता को उजागर किया गया है। अपनी शाख बनाए रखने के लिए शासक वर्ग किस
प्रकार से घुन लगी व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं। इसका बड़ा तीखा व्यंग्य इस कहानी
से व्यक्त होता है। सुदामा के चावल व्यवस्था के लिए खुरचन है। जिस पर पहले उन्हीं का
अधिकार है। अपने-अपने
इष्टदेव कहानी में वर्तमान साहित्य और शिक्षा व्यवस्था में लेखन कर्म की पहचान और पुस्तकों
के पाठ्यक्रम में शामिल करने एवं कराने पर व्यंग्य किया गया है। इसके अतिरिक्त मौलाना
का लड़का : पादरी की लड़की, लंका
विजय के बाद, मेनका का तपोभंग, त्रिशंकु
बेचारा, राग विराग, दो कथाएँ, फ़ैमिली
प्लानिंग, पाठकजी का केस, वे सुख
से नहीं रहे और आमरण अनशन जैसी कथाएँ संग्रहित है। भाषा बहुत ही सहज और सरल है। अपने
समकालीन समाज और व्यवस्था पर इन कथाओं के माध्यम से बड़ा तीखा व्यंग्य किया गया है।
इसके साथ ही इस संग्रह की शैली भी विशिष्ट है। ये कहानियाँ लोक कथाओं की शैली में रची
गयी हैं। जैसे कथा सुनाई जाती है उसी प्रकार अपने पाठकों के सामने ये कथाएँ प्रस्तुत
की गई हैं। निस्संदेह इस संग्रह की कथाओं को पढ़ते हुए पाठक हास्य रस में डूबता है परन्तु
तत्काल वह विचार के स्तर पर व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप पर की गयी चोट की मीठी चुभन
का भी अनुभव करता है। परसाई का यही
उद्देश्य भी दिखाई पड़ता है कि पाठक वर्ग सभी प्रकार के सत्ता से सचेत रहे।
संदर्भ
-
[1] कमला प्रसाद (सं.)
: आँखन देखी, वाणी प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-1981,
पृ. 38
[2] वीर भारत तलवार :
सामना, वाणी प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2005, पृ. 19
[3]
रवीन्द्र कालिया : जैसे उनके दिन फिरे, आवरण पृष्ठ की टिप्पणी से
उद्धृत
[4] हरिशंकर परसाई, सदाचार
का ताबीज, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2004, पृ. 90
[5]
हरिशंकर परसाई : जैसे
उनके दिन फिरे, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-
2016, पृ. 11
[6] वही, पृ. 19
[7] वही,
पृ. 8
[8] वही, पृ. 94
[9] वही,
पृ. 112
[10] वही,
पृ. 112
एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दी
विभाग, डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-07
डॉ. राजबीर वत्स
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-07
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
नमस्ते जी। मेरा नाम रोहित है और मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय से हिंदी विषय के अंतर्गत हरिशंकर परसाई के निबंध संग्रह "विकलांग श्रद्धा का दौर" पर अपनी दर्शन निष्णात का अध्ययन कर रहा हूँ। मुझे एक जानकारी चाहिए। यदि सम्भव हो तो आप उसे पूरा करने की कोशिश करें। "अपनी माटी" पत्रिका में यदि किसी भी प्रकार का हरिशंकर परसाई पर अथवा व्यंग्य विधा पर कोई भी लेखादि प्रकाशित है तो क्या आप उसकी जानकारी मुझे मुहैया करा सकते हैं ?
जवाब देंहटाएंयरी ऐसा हो तो आप मुझे इस नम्बर या मेल पर सूचित कर सकते हैं
9582452338
Rk1383122@gmail.com
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