ओमप्रकाश वाल्मीकि के कविता कर्म का आन्तरिक यथार्थ / अमृत लाल जीनगर और डॉ. विदुषी आमेटा
हिन्दी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि का योगदान अतुलनीय है। प्रारम्भिक दौर में उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम कविता रही है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहने के साथ-साथ
कविताओं की ओर उनका झुकाव लगातार बढ़ता गया। हताशा और निराशा के समय कविताओं ने उन्हें सम्बल प्रदान किया।शायद कविता की आन्तरिक बुनावट ही ऐसी होती है कि इसमें मानवीय संवेदना की गुँजाइश अधिक होती है। आन्तरिक और सामाजिक बोध के साहित्य ने दलित कविताओं को वस्तुनिष्ठ बनाया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने कविता संग्रहों में दलित जीवन की विभिन्न समस्याओं, यातनाओं
एवं अत्याचारों को अभिव्यक्त करते हुए दलित समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया है। शोषित मानव की आह ही उनकी कविता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविताओं में चारों वर्णों के समाज द्वारा थोपे गए नियमों को चुनौती देते हैं। भाग्य, ईश्वर, नियति के विरूद्ध वाल्मीकि उनके पीछे व्याप्त स्वार्थ एवं षड्यन्त्र को उजागर करते हैं। उनकी कविताएँ दलित जीवन की करूण अभिव्यक्ति है, जो
गहराई तक कचोटती है।
बीज-शब्द : दलित जीवन, संघर्ष
चेतना, विद्रोह, यथार्थ, कविता, समाज।
मूल-आलेख :
भारतीय समाज व्यवस्था की असमानता पर आधारित जीवन की विषमताओं, विसंगतियों के बीच दलित कविता का जन्म हुआ है। यह नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है। यह कविता नवीन जीवन-मूल्यों को स्थापित करने की पक्षधर है। दलित कविता दलित समाज की स्थिति और सम्भावनाओं को मुखर करती है। उसने दलित जीवन के प्रति एहसास पैदा किया है। दलित समाज हजारों वर्ष से मूक बन नारकीय जीवन को भोगते हुए, जीवन का अर्थ ही भूल गया था। दलित कविता ने उनके भीतर चेतना का विस्फोट किया है। यह दलित कविता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता एवं उपलब्धि है।
“दलित विमर्श का जिस तरह राजनीतिक विकास हुआ, उस तरह साहित्यिक विकास नहीं हुआ। साहित्य में हम तीन धाराएँ या श्रेणियाँ देखते हैं। पहली धारा स्वयं दलित जातियों में जन्में लेखकों की हैं, जिनके पास स्वानुभूतियों का विराट संसार है। दूसरी धारा हिन्दू लेखकों की है, जिनके रचना संसार में दलितों का चित्रण सौन्दर्य सुख की विषय-वस्तु के रूप में होता है। तीसरी धारा प्रगतिशील लेखकों की है, जो दलित को सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं।”1 हिन्दी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रारम्भिक दौर में ओमप्रकाश वाल्मीकि की अभिव्यक्ति का माध्यम कविता रही है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहने के साथ-साथ कविता लेखन की ओर उनका झुकाव लगातार रहा। हताशा और निराशा के समय कविताओं ने उन्हें सम्बल प्रदान किया। कविता की आन्तरिक बुनावट ही ऐसी होती है कि इसमें मानवीय संवेदना की गुँजाइश ज्यादा होती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के आन्तरिक और सामाजिक बोध ने उनकी कविताओं को वस्तुनिष्ठ बनाया है। उनकी कविताएँ समय से संवाद करती हैं। इसी संवाद में दलित चिन्तन पुरानी जड़ता को खत्म करने की कवायद करता है। वर्ण और जाति समाज की सबसे बड़ी जड़ता रही है। वर्ण और जाति आधारित व्यवस्था को नकारकर समता आधारित व्यवस्था की निर्मिति दलित साहित्य का मुखर स्वर है।
‘‘ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अस्सी के दशक से लिखना शुरू किया, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में वे चर्चित और स्थापित हुए 1997 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ से। इस आत्मकथा से पता चलता है कि किस तरह वीभत्स उत्पीड़न के बीच एक दलित रचनाकार की चेतना का निर्माण और विकास होता है। किस तरह लम्बे समय से भारतीय समाज-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़ी ‘चूहड़ा’जाति का एक बालक ओमप्रकाश सवर्णों से मिली चोटों-कचोटों के बीच परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ दलित आन्दोलन का क्रान्तिकारी योद्धा ओमप्रकाश वाल्मीकि बनता है। दरअसल यह दलित चेतना के निर्माण का दहकता हुआ दस्तावेज है।’’2 दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने लेखन कार्य में दलित कविता की रचना प्रक्रिया को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। इस सन्दर्भ में वे कहते है - ‘‘मेरी रचना प्रक्रिया में जातीयदंश बहुत गहरें हैं। मुझे यह कहने में या स्वीकार कर लेने में भी कोई गुरेज दिखाई नहीं देता कि मेरे लेखन में, चाहे कविता हो, कहानी या आत्मकथा हो सभी जगह यह स्वर प्रमुख है।’’3 वाल्मीकि जी के चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जो इस प्रकार है - ‘सदियों का संताप’ (1989), ‘बस्स! बहुत हो चुका’ (1997), ‘अब और नहीं’ (2009), तथा ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ (2012)।
‘सदियों का संताप’ ओमप्रकाश
वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसमें
जातीय दंश के विरूद्ध आक्रोशित स्वर में एक आन्दोलन का स्वरूप है। ये कविताएँ 1974 से 1989 के बीच लिखी गयी थीं जब हिन्दी दलित कविता अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही थी। इन कविताओं में ‘जाति व्यवस्था’ और
उससे उपजे यातनापूर्ण जीवन के विरूद्ध मुखरता ज्यादा गहरी है। इस कविता संग्रह में ऐसी कोई कविता नहीं हैं, जिनके
मूल में जातिवाद और दलित जीवन की पीड़ा और दुःख न हो।
वाल्मीकि ने अपनी कविताओं के माध्यम से दलित समाज का आक्रोश, विद्रोह, नकार, आग्रह, आक्रामकता, भाषिक
विकास, दलित
जीवन संघर्ष की पृष्ठभूमि, उत्पीड़न
के सन्दर्भ बिन्दु और उनसे उत्पन्न वेदनाओं के दंश, दलित
संस्कृति की विशिष्ट जीवन दृष्टि आदि का यथार्थ चित्रण किया है।
‘बस्स! बहुत
हो चुका’ ओमप्रकाश
वाल्मीकि का दूसरा कविता संग्रह है। इसमें उनके क्रान्तिकारी विचारों का प्रभाव है। उनकी कविताएँ छोटी है, लेकिन
गुणात्मक दृष्टि से अभिव्यक्ति में बेहद सशक्त और मजबूत हैं। कविताओं का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है। वाल्मीकि ने इस संग्रह की कविताओं में मानव के दारूण दुःख, पीड़ा, आक्रोश, वेदना, गरीबी और जातिवाद की समस्या का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। यह कृति हिन्दी दलित साहित्य की चर्चित एवं बहुप्रशंसित कृति है। यह दलित जीवन के दाहक-अनुभवों, संघर्षों की सशक्त अभिव्यक्ति है, जिसे
पाठकों ने ही नहीं समीक्षकों, आलोचकों, विद्वानों, शोधार्थियों
ने दलित चेतना की महत्त्वपूर्ण कृति माना है।
‘अब और नहीं...’ ओमप्रकाश
वाल्मीकि का तीसरा कविता संग्रह है। इस संग्रह की कविताओं का यथार्थ गहरे अन्तः भावबोध के साथ सामाजिक शोषण के विभिन्न आयामों से टकराता है और मानवीय मूल्यों की पक्षधरता में खड़ा दिखाई देता है। दलित कविताओं का मानवीय मूल्यों से गहरा सम्बन्ध रहा है अतः इन कविताओं में मानवीय पक्ष को प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। वाल्मीकि की मानवीय दृष्टि दलित कविता को समाज से जोड़ती है। इस संग्रह में उनके विचारतत्त्वों की प्रधानता है। संग्रह की कविताओं में वाल्मीकि ने अतीत का दंश, वर्तमान
की विषमतापूर्ण स्थितियों, दलित
संघर्ष तथा दलित चेतना के व्यापक स्वरूप का यथार्थ चित्रण किया है। इस कविता संग्रह में वाल्मीकि का आशावादी दृष्टिकोण निराशा में बदल जाता है, फलस्वरूप
उनका विद्रोही स्वर कविता में सुनाई देता है।
‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ ओमप्रकाश
वाल्मीकि का चतुर्थ कविता संग्रह है। इस कविता संग्रह में 2005 से 2011 के बीच लिखी गई कविताएँ हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का क्षेत्र विस्तृत है। जहाँ समाज और जीवन के ऐसे अनेक प्रसंग उपस्थित हैं, जो
भारतीय संस्कृति की महानता का राग अलापने वालों के समक्ष एक नहीं, अनेक
प्रश्न करता हैं। वाल्मीकि के लिए कविता आनन्द या रसास्वादन की चीज नहीं, बल्कि
कविता के माध्यम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्य के सरोकारों और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है। इस कविता संग्रह में वाल्मीकि ने मनुष्य, भाषा
और संवेदना के अन्तःसम्बन्ध को विश्लेषित करते हुए विभिन्न पहलुओं से दलित जीवन के समस्त आवश्यक मुद्दों को उठाते हुए उनकी सार्थकता सिद्ध की है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के कविता संग्रहों में दलित जीवन के संघर्ष की गाथा का ज्वलन्त यथार्थ चित्रण है। उनके अनुसार दलित कविता का जन्म हजारों वर्ष की दलित चेतना के अनुभवों का परिणाम है। वे दलित चेतना को कविता के माध्यम से मुखर करने वाले पूर्वपुरूष है। वाल्मीकि ने अपनी कविताओं के सन्दर्भ में कहा है – ‘‘कविता
मेरे लिए आनन्द, रस, मनोरंजन के लिए नहीं हैं। न ही
कविता का ऐसा उद्देश्य रहा होगा। कविता हमें मनुयष्ता के निकट ले जाने का काम करती है। उम्मीदों के साथ, जीवन
में बदलाव की आकांक्षा उत्पन्न करती है। इसलिए कविता में संवेदनात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ज्यादा गहरी होती है।’’4
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ दलित साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखती है। इस कविता में जीवन के संसाधनों का उत्पादन करने वाली जातियों और मेहनतकश लोगों को सामंतवादी और पूँजीवादी व्यवस्था का गुलाम बताया गया हैं। रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताएँ हैं। दलित इन वस्तुओं से भी वंचित रहें। समस्त संसाधन ठाकुर अथवा जमींदार के पास है और दलित रोटी या पानी के लिए भी तरस जाता हैं इस वंचित जीवन की अभिव्यक्ति को निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है -
दलित रचनाकार स्वयं वितृष्णापूर्ण जिन्दगी का अहम हिस्सा होता है। सवर्ण समाज की उपेक्षा जो ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लगातार देखी, भोगी
और सही है, इसके
प्रति आक्रोश और तिलमिलाहट उनके रचना संसार का अंग बनकर आई है। वाल्मीकि स्वयं ‘चूहड़ा’ कही
जाने वाली दलित जाति से थे और जाति का दंश लगातार उन्होंने सहा भी। इस घृणित जीवन के प्रति आक्रोश उनके शिल्प का मूल स्वर बना, जो
‘मुट्ठी भर चावल’ कविता
में दिखाई देता है -
ओ, मेरे अज्ञात, अनाम
पुरखो
तुम्हारे
मूक शब्द जल रहे हैं
दहकती
राख की तरह
राख
:
जो लगातार काँप रही है
रोष
में भरी हुई।6
दलित व्यक्ति ‘जाति’ के
वीभत्स रूप को भोगते हुए बड़ा होता है, इस
कारण उसके मन में जाति को लेकर गहरी वेदना और वितृष्णा भरी होती है। वह धर्म, दर्शन, परम्पराओं में इसके कारण खोजने का प्रयास करता हैं तथा हताश होकर समस्त प्रतिमानों के विरूद्ध मोर्चा खोल देता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता ‘जाति’ में
मृत्यु के बाद स्वर्गलोक जाने की चर्चा को लेकर व्यंग्यात्मक ढाँचा स्थापित किया है -
स्वीकार्य
नहीं मुझे जाना,
मृत्यु
के बाद
तुम्हारे
स्वर्ग में।
वहाँ
भी तुम
पहचानोगे
मुझे
मेरी
जाति से ही!7
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित जीवन की मार्मिक संवेदनाओं को बहुत नजदीकी से अनुभव किया है, उसे
जिया है, भोगा
है। वे दलित जीवन की सच्चाइयों से पूर्णतः परिचित रहे है। उनके लिए शब्दों का विशेष स्थान है, वे
शब्दशक्ति से सीधा सम्बन्ध रखते है। उनका भूत, भविष्य
और वर्तमान से भी सीधा सम्बन्ध है, जिसे
‘उत्सव’ कविता
में स्पष्ट देखा जा सकता है -
अँधेरा
सिर्फ एक शब्द भर
नहीं
हैं मेरे लिए
पूरा
इतिहास है
जिसे
ढोया है
हजारों
साल से
एक
बोझ की तरह
अभ्यस्त
होकर जिए
पीढ़ी-दर-पीढ़ी।8
दलितों की जिन्दगी शोषितों और दबे-कुचलों
की भाँति हमेशा अंधेरों में व्यतीत हुई है। उन्होंने अंधेरों के बीच अपने जीवन की अस्मिता को तिलांजलि दी है। शोषण और दमन के अंधेरे में दलित व्यक्ति के शब्द भी दफन है, उसकी
सिसकियाँ व आहे
भी। समाज के एक बड़े वर्ग को दलित व्यक्ति के चीख की आवाज सुनाई नहीं देती, जो
सामाजिक दोष को संकेतित करता है। अतः वह अपने साहित्यिक चिन्तन द्वारा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए सुरक्षित प्रबन्ध का आकांक्षी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का मानना है कि इस अंधेरे में बहुत कुछ दफन हुआ है यथा - व्यक्ति, समाज, वजूद, पहचान, समता, स्वतन्त्रता, अधिकार, आवाज
आदि -
रात
गहरी और काली है
अकाल
ग्रस्त त्रासदी जैसी
जहाँ
हजारों शब्द दफन हैं
इतने
गहरे
कि
उनकी सिसकियाँ भी
सुनाई
नहीं देती।9
“दलित साहित्य
सौन्दर्यशास्त्र की
बुनावट पारम्परिक, पाश्चात्य और
रामचन्द्र शुक्ल
की अवधारणाओं
से निःसंदेह
अलग होगी
और किसी
भी रचना
को सामाजिक
सन्दर्भों से
जोड़ेगी। साहित्य
का समाजशास्त्रीय
मूल्यांकन जरूरी
है। दलित
साहित्य समाज
के सम्बन्धों
को ज्यादा
गंभीरता से
लेता है।
सौन्दर्यशास्त्र का
जो स्वरूप
बनेगा वही
दलित साहित्य
की ठीक
से व्याख्या
कर पाएगा।”10 बुद्ध का दर्शन, संतों
का प्रतिरोध तथा तार्किक विचार महात्मा ज्योतिबा फुले तथा डॉ.
अम्बेडकर
के चिन्तन का प्रमुख आधार है। ये दोनों विचारक दलित आन्दोलन के प्रेरणा स्त्रोत है।
ये दोनों नवजागरण काल की देन नहीं है बल्कि सामाजिक व्यवस्था की देन हैं, ये
जाति-व्यवस्था
के खिलाफ है। इनकी विचारधारा ने शिक्षा और संघर्ष से समाज को मुक्ति की राह बताई है। ओमप्रकाश वाल्मीकि इन दोनों विचारकों की प्रेरणा से अपनी कविता में दलित समाज को मुक्ति के लिए संदेश देते है -
हजारों
साल का
मैल
रगड़-रगड़कर निकालने
में
समय
जाया मत
करो
भीड़
भरी सड़कों
पर
यातायात
के बीच
अपनी जगह
बनाकर
रूकने
का संकेत
पाने से
पहले
लालबत्ती
का चैराहा
पार करना
है।11
ओमप्रकाश वाल्मीकि के लिए कविता आनन्द, रस
या मनोरंजन का साधन मात्र नहीं है। उनकी कविता मनुष्यता के निकट जाने का एक माध्यम है, जो
जीवन में उम्मीदों के साथ बदलाव की आकांक्षा उत्पन्न करती है। इसलिए उनकी कविता में संवेदनात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ज्यादा गहरी है। उनकी यह संवेदनात्मक अभिव्यक्ति ‘इतिहास’ कविता
में आकार ग्रहण करती है -
फिर
भी बचा है अभी तक
मेरा
वजूद
टूटे-फूटे मिट्टी के बर्तनों की शक्ल में
जो
दबे पड़े हैं
खँडहरों
के नीचे
इतिहास
बनकर।12
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित अस्मिता की पहचान को लेकर सदैव प्रश्न उठाते रहे है। मानवीय मूल्यों को स्थापित करना उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है। उन्होंने दलित जीवन को साहित्य के माध्यम से समाज के समक्ष लाने की जो संघर्ष यात्रा पूर्ण की है, वह
सहज और सरल नहीं थीं। इस संघर्ष के निर्वाह के लिए वे सदैव तत्पर रहे और एक सजग शिक्षित जाग्रत दलित होने का पूर्ण उत्तरदायित्व अपनी रचनाओं में निभाया। कविता ‘विरासत’ में
वे समाज से दलित को मिली अस्पृश्यता की विरासत पर इस प्रकार ध्यान आकर्षित करते हैं -
लोहा, लंगड़, गारा-सीमेन्ट, ईंट-पत्थर
सभी
पर है स्पर्श हमारा
लगे
हैं जो घरों में आपके
फिर
भी बना दिया आपने
हमें
अछूत और अन्त्यज
भंगी-डोम-चमार
माँग-पासी और महार।13
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था हमेशा से ही समता, स्वतन्त्रता, बन्धुता तथा न्याय के विरोध में रही है। दलित कविता की अन्तःधारा में जो दुःख, पीड़ा, वेदना, बैचेनी, विद्रोह, नकार, आक्रोश, प्रतिरोध
दिखाई देता है, उसका
प्रकाश ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘लावा’ कविता
में स्पष्ट दृष्टिगत होता है, जो
इस प्रकार है -
मैं बेचैन हूँ
क्यों नहीं उगता ज्वालामुखी
मेरी हथेली पर
क्यों नहीं फूट पड़ता
उबलता लावा मेरे सीने से
हर रोज लड़ना पड़ता है
निहत्थे ही गुप-चुप युद्धों से!14
दलित कवि का मानवीय दृष्टिकोण दलित कविता को समाज से जोड़ता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता में मानवीय पक्ष को प्रभावशाली ढंग से उभारा है। दलित कवि जीवन से असम्पृक्त नहीं रह सकता। वह घृणा में नहीं, प्रेम में विश्वास करता है। वाल्मीकि ने अपनी क्रान्ति चेतना को दलितों के प्रति सम्पृक्त करते हुए ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ कविता में उजागर करने का प्रयास किया है -
हजारों
साल की यातना भूलकर
निकल
आए हैं शब्द
कूड़ेदान
से बाहर
खड़े
हो गए हैं
उनके
पक्ष में
जो
फँसे हुए हैं अभी तक
अतीत
की गहरी दलदल में!15
दलित कविता ने दलित समाज की चुप्पी तोड़ी है। यह चुप्पी हजारों वर्ष से मूक-वेदना
बनकर दलित जीवन को हीनताबोध से भर रही थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता के माध्यम से दलित समाज को मुखर ही नहीं किया बल्कि उसके हीनताबोध को भी तोड़ा है और साहित्य की कुलीनतावादी प्रवृत्ति को भी झकझोरा है। ‘तुम्हारी गौरवगाथा’ कविता
के माध्यम से वे कहते है -
क्यों
नहीं जाग्रत हो जाता देवता
प्राण
प्रतिष्ठा के बाद
क्यों
रह जाता है जड़
भूख
और जुल्म देखकर।16
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता ‘बस्स! बहुत
हो चुका’ में
‘झाडू’ शब्द
का प्रयोग कर दलित समाज की दशा और दिशा को व्यक्त किया है। ‘झाडू’ दलित
की कर्मठता, निष्ठा
व निपुणता
का प्रतीक है। सामाजिक स्थिति में परम्परागत रूप से कार्य विभाजन कर दलितों के लिए जो दोयम दर्जा रखा गया। कर्मशीलता के प्रति जो घृणा-भाव
हमारी परम्परागत समाज व्यवस्था का अंग बन गया है। इस घृणा-बोध
से आक्रोशित होकर कवि वाल्मीकि लिखते हैं -
जब
भी देखता हूँ मैं
झाडू
या गन्दगी से भरी बाल्टी-कनस्तर
किसी
हाथ में
मेरी
रगों में
दहकने
लगते हैं
यातनाओं
के कई हजार वर्ष एक साथ
जो
फैले हैं इस धरती पर
ठण्डे
रेत कणों
की तरह।17
ओमप्रकाश वाल्मीकि जानते हैं कि चीखों की वेदनाएँ ज्ञान चक्षु के माध्यम से ही देखी-समझी
और अभिव्यक्त हो सकती है। संस्कृति के दोहरे मापदण्ड़ों, सामाजिक व्यवस्था के खोखलेपन और धार्मिक कठमुल्लापन के विरूद्ध दलित कविता ने संघर्ष का रास्ता चुना, जो
धारा के विरूद्ध चलने वाला रास्ता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कल्पना लोक में नहीं, बल्कि
अपने भोगे गए यथार्थ की अनुभूति और संवेदना को अपनी कविता ‘सदियों का संताप’ में
स्थान दिया है। वह जीवन से असम्पृक्त नहीं थे, इसलिए
घृणा में नहीं प्रेम में विश्वास करते थे, यथा -
इसलिए, हमने अपनी घृणा को
पारदर्शी
पत्तों में लपेटकर
ठूँठ
वृक्ष की टहनियों पर
टाँग
दिया है।18
धर्म, दर्शन, पौराणिक मिथकों की पुनर्व्याख्या दलित कविता की विशेषता रही है। हिन्दू दर्शन जीव-मात्र
की आत्मा को एक ‘ब्रह्म’ का
अंश मानता है। लेकिन व्यावहारिक रूप में दलितों के प्रति उसकी अमानवीय निर्ममता दिखाई देती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शायद आप जानते हो’ कविता
के माध्यम से जातिवाद की इस मानसिकता पर प्रहार करते नजर
आते हैं -
चूहड़े
या डोम की आत्मा
ब्रह्म
का अंश क्यों नहीं है
मैं
नहीं जानता
शायद
आप जानते हो!19
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओं में ऐतिहासिक सन्दर्भों को वर्तमान से जोड़कर मिथकों को नए अर्थों में प्रस्तुत किया है। उन्होंने कविता ‘शम्बूक का कटा सिर’ में
मिथक कथाओं एवं जातक कथाओं के माध्यम से दलित जीवन की पीड़ा का यथार्थ चित्रण किया है। उनके विद्रोह, विक्षोभ
भावना, अस्मिता
की तलाश, अस्तित्व
के लिए जूझते सरोकार इस पीड़ा के साथ अभिव्यक्त होते हैं -
शम्बूक, तुम्हारा रक्त जमीन के अन्दर
समा
गया है,
जो
किसी भी दिन
फूटकर
बाहर आएगा
ज्वालामुखी
बनकर।20
दलित कविता में पारम्परिक प्रतीकों, मिथकों
को नए अर्थ और सन्दर्भों से जोड़कर देखे जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, जो
दलित कविता की विशिष्ट पहचान बनाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कविता में ऐतिहासिक सन्दर्भों को वर्तमान से जोड़ मिथकों को नए अर्थ में प्रस्तुत किया गया है। उनकी कविता ‘किष्किंधा’ में
‘बालि’ का
आक्रोश लेखकीय आक्रोश में रूपान्तरित होकर स्पष्ट होता है -
मेरा
अँधेरा तब्दील हो रहा है
कविताओं
में
याद
आ रही
है मुझे
बालि
की गुफा
और
उसका क्रोध!21
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं ने सदियों से सामाजिक जीवन में गहराई तक जड़ जमाए बैठी घृणा के स्थान पर सामाजिक समता, स्वतन्त्रता
और बन्धुत्व को अपनी आन्तरिक चेतना का हिस्सा बनाया। इसलिए उनकी कविता दलित-समूह
के पक्ष में खड़ी हुई, जो
हजारों साल की दासता से मुक्ति की आकांक्षा अपने भीतर संजोए हुए था और सामाजिक, धार्मिक
नियमों और शास्त्र सम्मत वर्जनाओं के सामने स्वयं को बेबस मान बैठा था। क्योंकि उसके विरोध करने के सभी साधन सामंतवादियों ने उससे छिनकर, उसके
भीतर हीनता बोध भर दिया गया था। जिसके कारण उसने इन सभी सामाजिक कुटिलताओं और वर्जनाओं को अपनी नियति स्वीकार कर लिया था।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अदम्य साहस और बेहद धैर्य के साथ अपनी कविताओं के माध्यम से दलितों में ऊर्जा का संचार किया है। उनकी कविताएँ दलितों को एक नई दिशा प्रदान करती है तथा दलितों द्वारा भोगे गए जीवन के ज्वलन्त यथार्थ को प्रस्तुत करती है, जिसमें दलितों की पीड़ा, वेदना, आक्रोश, संघर्ष और अस्मिता की तलाश स्पष्ट दिखाई देती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता को एक आन्दोलन की भाँति बताया है। इस सन्दर्भ में वाल्मीकि ने लिखा है - ‘‘मेरे लिए कविता सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है। मेरे जीवन का मिशन है। एक आन्दोलन है।’’22 इस प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं व कार्यों ने एक आन्दोलन की भाँति दलितों में साहित्यिक चेतना जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से दलित समाज में जाग्रति लाने का प्रयास किया है, यही उनके लिए सच्चा सम्मान, पुरस्कार है। आज भी उनकी यशः काया का जीवन्त रूप उनके साहित्य में अवश्य देखा जा सकता है। प्रख्यात साहित्यकार हरपाल सिंह ‘अरूष’ ओमप्रकाश वाल्मीकि को स्मरण करते हुए कहते है - ‘‘उनसे प्रेरणा लेकर कितने दलितों ने साहित्य में पदार्पण किया और भविष्य में कितने और पदार्पण करेंगे अनानुमेय है।’’23
स्पष्टतः ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं ने हजारों वर्ष से चले आ रहे
जातिगत पूर्वाग्रहों पर प्रहार कर सामाजिक भेदभाव, वर्ण-व्यवस्था, वैमनस्य, विषमताओं आदि से उपजी अमानवीयता का विरोध किया है। उनकी कविताओं ने दलितों में चेतना जाग्रत की है। अन्ततः यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं
होगा कि
वाल्मीकि दलित
चेतना को कविता के माध्यम से मुखर करने वाले पूर्वपुरूष है। इस कथन से शायद ही कोई असहमत होगा। उनकी कविताओं ने दलितों के अन्तर्मन में चेतना का विस्फोट किया, जो
उनके साहित्य की अनुपम उपलब्धि है। अटूट विश्वास की उनकी कविताएँ भावी पीढ़ी, पाठकों
एवं शोधार्थियों के लिए एक ऐसा जीवन्त दस्तावेज सिद्ध होगी जो, उनमें
न केवल
चेतना का संचार करेगी बल्कि जीवन में आने वाली विविध समस्याओं, संघर्षों
के बारे में पूर्णतः सचेत करती रहेगी।
निष्कर्ष -
ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रवाहमयी भावाभिव्यक्ति कविताओं को विशिष्ट और बहुआयामी बनाती है। उनकी कविताओं में यथास्थिति के विरूद्ध बार-बार
आक्रोश उभरता नजर आता है। कविता के प्रतीकों में उपस्थित हिंसा व मानवीय
घृणा समाज में समता, स्वतन्त्रता
और बन्धुता को बढ़ाने हेतु आवश्यक है। वे अन्याय के पक्षधर जातिवादी व्यवहारों पर सख्ती से पेश आते है। वे प्रकृति के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति करते हुए बौद्ध दर्शन के सूत्र वाक्य ‘अप्प दीपो भव’ के
उद्घोष के साथ ज्ञान का दीप स्वयं जलाने के लिए प्रतिबद्ध है। दलित कविता में भाव पक्ष की प्रधानता है, शिल्प
पर जोर नहीं है। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता का सौन्दर्य जाति, धर्म, लिंग, स्थान
आदि में न होकर
मानवीय गुणों के संघर्ष में है। उनकी कविता शोषण के जाने-माने
हथियारों से निर्मित सामाजिक ताने-बाने
को नकारकर, न्यायपरक
समाज का पुनर्निर्माण करती नजर आती है। इस प्रकार उनके काव्य-सृजन
में आन्तरिक यथार्थ स्पष्ट नजर आता है।
सन्दर्भ -
1. ममता
देवी : दलित विमर्श : अवधारणा और इतिहास, International Journal of Information
Movement, Vol. 2 Issue XII (April 2018) Page No. 242-247
2.
वहाँ
भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति
से ही!, दलित दस्तक न्यूज, जून 30, 2017
3.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2020, पृ. सं. 26
4.
वही, पृ. सं. 29
5.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : सदियों का संताप, गौतम
बुक सेंटर, नई दिल्ली, 2008, पृ. सं. 13
6.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : बस्स!
बहुत हो चुका, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2017, पृ. सं. 15
7.
वही, पृ. सं. 78
8.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : शब्द झूठ नहीं बोलते, अनामिका
पब्लिशर्स, नई
दिल्ली, 2012, पृ. सं. 39
9.
वही, पृ. सं. 15
10.
साक्षात्कार,
नवम्बर, 2001, सम्पादक - आग्नेय,
पृ. सं. – 98
11.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : शब्द झूठ नहीं बोलते, अनामिका
पब्लिशर्स, नई
दिल्ली, 2012, पृ. सं. 12
12.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : अब और नहीं, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2018, पृ. सं. 79
13.
वही, पृ. सं. 92-93
14.
वही, पृ. सं. 71
15.
वही, पृ. सं. 54-55
16.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : बस्स!
बहुत हो चुका, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2017, पृ. सं. 52
17.
वही, पृ. सं. 79
18.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : सदियों का संताप, गौतम
बुक सेंटर, नई दिल्ली, 2008, पृ. सं. 45
19.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : बस्स!
बहुत हो चुका, वाणी
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2017, पृ. सं. 13
20.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : सदियों का संताप, गौतम
बुक सेंटर, नई दिल्ली, 2008, पृ. सं. 23
21.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : अब और नहीं, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2018, पृ. सं. 23
22.
ओमप्रकाश
वाल्मीकि : दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई
दिल्ली, 2020,
पृ. सं. 27
23.
हरपाल
सिंह ‘अरूष’ :
आदरांजलि (संस्मरण), दलित अस्मिता, जनवरी-जुलाई, 2014, पृ. सं. 59
डॉ. विदुषी आमेटा, अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
माधव विश्वविद्यालय, पिण्डवाड़ा (सिरोही), राजस्थान
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
बहुत सुंदर आलेख
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