उर्दू का भाषा के रूप में विकास / विक्रम सिंह बारेठ
शोध-सार :
भारतीय भाषाओं के मामले में
हिंदी-उर्दू का विवाद जितना उलझा हुआ और पेचीदा है उतना अन्य किसी भाषा का नहीं है।
इसका कारण यह है कि दोनों भाषाओँ की उत्पत्ति एक ही सामाजिक परिवेश में हुई है और
दोनों भाषाओँ को लिपि के अलावा किसी अन्य आधार पर प्रामाणिक तौर पर नहीं अलगाया जा
सकता। हिंदी-उर्दू के इतिहास में नामकरण की बड़ी अहम भूमिका रही है। जिस भाषा को आज
हम उर्दू कहते हैं, पहले उसी भाषा को हिन्दवी, हिंदी, देहलवी, गुजरी, दकनी,
रेख्ता, रेख्ती आदि कहा गया है। ‘उर्दू’ शब्द भाषा के अर्थ में कब से प्रयुक्त और
प्रचलित हुआ, यह विषय आज तक विवादस्पद बना हुआ है। भाषाओँ के इतिहास में
साम्राज्यवादी ताकतें किस तरह अपने राजनीतिक फ़ायदों के लिए हस्तक्षेप करती है इस
बात की समझ भी शनैः शनैःहिन्दी–उर्दू के इतिहास को और उनके विकास को देखते हुए बनती है। प्रस्तुत लेख में
उर्दू का उदभव और विकास एक भाषा के तौर पर किन राजनीतिक व सांस्कृतिक परिस्तिथियों
के बीच हुआ, इसी बात पर चर्चा की गयी है।
बीज-शब्द : उर्दू, हिन्दी, अरबी, फ़ारसी, मुसलमान, उर्दू-ए-मुअल्ला, औपनिवेशिक, राजनीतिक, हिन्दवी, देहलवी, जबान, हिंदुस्तान, अस्मिता, भाषाएँ।
मूल आलेख
कई भाषा विज्ञानियों ने भारत को भाषाओं का ‘अजायबघर’ कहा है। डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार यहाँ लगभग 180 भाषाएँ तथा 550 बोलियाँ बोली जाती है। उर्दू भाषा पहले पहल दक्षिण भारत में पनपी, परन्तु कालान्तर में यह उत्तर भारत की एक प्रमुख भाषा के रूप में विकसित हुई। उर्दू भारत की एक ऐसी भाषा है जो अपनी लोच, कमनीयता तथा शोखी के लिए जानी जाती है। उर्दू भाषा में लिखी गई ग़ज़ल नाम की काव्य विद्या ने न सिर्फ़ भारत में बल्कि भारत के बाहर भी अपना परचम लहराया है। उर्दू का भाषा के रूप में विकास भारत में मुसलमानों के आगमन के साथ ही होना शुरू हो गया था। दसवीं शताब्दी के अन्त में मुसलमानों का महत्त्व बढ़ने लगा तथा साथ ही भारतीय संस्कृति पर उनका सांस्कृतिक प्रभाव भी। हिन्दू तथा मुसलमानों के इस मिश्रण से भारतवर्ष में कई नई चीजें पैदा हुई जिनमें से एक उर्दू भाषा भी थी। इसी बात की चर्चा करते हुए उर्दू आलोचक एहतेशाम हुसैन लिखते हैं- “जब दो राष्ट्र अथवा दो जातियों के लोग एक-दूसरे से इस प्रकार घुल-मिल जाते हैं, जैसे बाहर से आने वाले मुसलमान और हिन्दुस्तान के वासी, तो उनका प्रभाव एक दूसरे पर इतने असंख्य रूपों में पड़ता है, जिनको अलग-अलग व्यक्त करना या उन्हें पूर्णतः समझना बहुत कठिन हो जाता है। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक भावनाओं को अलग-अलग और मिला-जुलाकर देखना बहुत-सी उलझी हुई समस्याओं पर प्रकाश डालेगा। भाषा को मनुष्यों के सामाजिक व्यवहारों ने ही जन्म दिया है और उसी व्यवहार के बदल जाने से उसमें परिवर्तन होता है। मुसलमानों के आने से भारत का वह सामाजिक जीवन एक नयी राह पर चल पड़ा, जिसमें बहुत दिनों से कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं घटी थी। मुसलमानों के आने से पूर्व जो भाषाएँ भारत में प्रचलित थीं उनमें से कई भाषाओं में भी मुसलमानों के आने के कारण वैसा ही परिवर्तन हुआ जैसा संगीत, चित्रकला और भक्ति आदि में हुआ।”1 मुसलमानों के आगमन से भारत में जो परिवर्तन आए, उनमें उर्दू भाषा के विकास को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दिल्ली के आस-पास की खड़ी और कर्कश बोली में किस तरह इतनी लोच और कमनीयता पैदा हुई, यह जानना अपने-आप में एक दिलचस्प बात है। उर्दू भाषा के जन्म के बारे में अयोध्याप्रसाद गोयलीय लिखते हैं-
“बहमन वंश की बादशाहत के विनाश के बाद बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर तीन छोटी-छोटी सल्तनतें कायम हुईं। इस युग (ईस्वी सन् 1489 से 1686) में दक्खिनी ज़बान घुटनियों चलने लगी। हिन्दू रानियों के कारण देशी भाषा को और भी बल मिला। दक्खिनी उर्दू में फ़ारसी की बहुतायत नहीं पायी जाती। इसका कारण यही है कि मुसलमान शासकों ने वहाँ की प्रांतीय भाषाओं-मराठी, तमिल, तेलगु और कर्नाटकी को तथा हिन्दुओं को खूब अपनाया और हिन्दुओं ने बादशाही शासन में लगन और ईमानदारी से हाथ बँटाते हुए शासकों की भाषा को भी सीखा। परिणाम इसका यह हुआ कि जब दो कौमें मिली तो एक नयी बच्ची को जन्म दिया, जो आगे चलकर अरबी-फ़ारसी के परिधान में लपेटकर ‘वली’ ने बादशाहों की चहेती दिल्ली बेगम को गोद दे दी। बड़ी मुश्किल से उसने इस सुकुमार बच्ची को पाया था, कहीं नजर न लगे इस डर से नदीदी माँ ने इसका नाम भी बिगड़ा हुआ, भद्दा नाम ‘रेख़्ता’ रखाऔर जब यह जवान हुई तो लाड़-प्यार की वजह से काबू से बाहर होकर शोख़ हो गई। फ़ौजी लश्करों में जा-जाकर फ़ौजियों से दीदे लड़ाने लगी तो इसे सब बाजारु, लश्करी (उर्दू) कहने लगे।”2 उपर्युक्त उद्धरण में बच्ची के रूपक से गोयलीय जी ने अत्यन्त नाटकीय शब्दावली में जो बात कही है उससे उर्दू भाषा के बारे में जो बातें मालूम होती हैं, वे इस प्रकार हैं- (i) इसका जन्म दक्षिण में दो कौमों (हिन्दू-मुसलमान) के मेल से हुआ। (ii) ‘वली’ इसे दिल्ली लेकर आए। (iii) दिल्ली में यह परिपक्व हुई और इसका शुरूआती नाम ‘रेख़्ता था। (iv) बादशाह के फ़ौजी लश्करों और छावनियों के सम्पर्क में आने पर इसे बाजारू, लश्करी या उर्दू भाषा कहा जाने लगा।
हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों के मेल-मिलाप को उर्दू भाषा के उद्भव का प्रमुख कारण मानते हुए ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ नामक पुस्तक की भूमिका में अरबी-फ़ारसी के लगभग आठ-नौ-सौ शब्दों की सूची देकर लिखते हैं- “बाहर से आकर हिन्दुस्तान में बस जाने वाले मुसलमानों ने सत्तर-अस्सी हजार शुद्ध हिन्दू शब्द, हिन्दी मुहावरे, हिन्दी कहावतें, टकसाली हिन्दी के टुकड़े अपना लिए और टकसाली हिन्दी के व्याकरण को भी अपना लिया। हिन्दुओं ने भी ऐसे अरबी-फ़ारसी शब्दों को अपना लिया जो शताब्दियों के मेल-जोल से टकसाली हिन्दी का अंश बन चुके थे। इसी मिली जुली हिन्दी का नाम बाद को उर्दू पड़ गया। उर्दू शब्द शाहजहाँ के काल में पहले-पहल फ़ौज के लिए प्रयोग किया गया था। मुगल फ़ौज का नाम था उर्दू-ए-मोअल्ला अर्थात् महान सेना। इस फ़ौज के साथ बहुत बड़ा बाज़ार था जो उर्दू बाज़ार (फ़ौजी बाज़ार) कहलाता था।....... वस्तुओें के क्रय-विक्रय के साथ शब्दों का लेन-देन भी शुरू हो गया और इसी तरह मुसलमानों ने सत्तर अस्सी हजार शुद्ध हिन्दी शब्द और हिन्दी भाषा के समस्त टुकड़े और नियमावली अंगीकार कर ली।”3 इस वक्तव्य में भी निष्कर्षतः वही सब बातें सामने आती हैं, जिनका ज़िक्र हम गोयलीय साहब वाले उद्धरण में कर चुके हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि शाहजहाँ के समय में हिन्दी का या शुद्ध हिन्दी का वही स्वरूप नहीं था जो आज है। इसलिए टकसाली या शुद्ध हिन्दी शब्दावली से फ़िराक़ साहब का आशय ब्रज, अवधी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी आदि क्षेत्रीय बोलियों की शब्द-सम्पदा से रहा होगा। और गम्भीरता से इस पर विचार करे तो हम पाते हैं कि दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली कई बोलियां शनैः-शनैः उर्दू भाषा के रूप में विकसित हुई। इसके कई नाम थे जैसे-‘हिन्दवी’, ‘हिन्दी’, ‘देहलवी’, ‘गुजरी’, ‘दकनी’, ‘रेख़्ता’ और खड़ी बोली। उर्दू भाषा के समालोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब अपनी पुस्तक “उर्दू का आरम्भिक युग”में लिखते हैं-“हम लोग अक्सर भूल जाते हैं कि जिस भाषा को आज हम ‘उर्दू’ कहते हैं, पुराने ज़माने में उसी भाषा को ‘हिन्दवी’, ‘हिंदी’, ‘देहलवी’, ‘गुजरी’, ‘दकनी’ और फ़िर ‘रेख्ता’ कहा गया है। और ये नाम लगभग उसी क्रम में प्रयोग में आए, जिस क्रम में मैंने इन्हें दर्ज किया है।”4 इस बात को और खोलते हुए वे आगे लिखते हैं-
“एक भाषा के नाम के तौर पर इस शब्द (उर्दू) का जीवन सम्भवतः ‘ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला शाहजहाँबाद’ के रूप में आरम्भ हुआ और इसका आशय था-“शाहजहाँबाद के शहर-ए-मुअल्ला/ दरबार-ए-मुअल्ला की भाषा।”
अठारहवीं शताब्दी के आते-आते, बल्कि शायद उससे कुछ पहले ही ‘उर्दू’ शब्द को ‘शहर देहली/ शाहजहाँबाद’ ख़ासकर ‘फ़सील बन्द शहर’ के अर्थ में आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा और यह अर्थ कम से कम उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक प्रचलित रहा।”5 ‘उर्दू’ शब्द के भाषा के अर्थ में प्रयोग पर पदमसिंह शर्मा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी’ में लिखते हैं– “ ‘उर्दू’ शब्द भाषा के अर्थ में कब से प्रयुक्त और प्रचलित हुआ, यह विषय अब तक विवादास्पद बना हुआ है। इसका ठीक निर्णय किसी पुष्ट प्रमाण के आधार पर अभी नहीं हो सका है। कुछ विचारशील विद्वानों का कथन है कि आमतौर पर उर्दू शब्द भाषा के लिए अठारहवी सदी के अंत में इस्तेमाल होना शुरू हुआ। नब्बाव शुजाउद्दौल्ला और आसुफुद्दौला के शासन काल (सन1797 ईस्वी) में सय्यद अताहुसैन ‘तहसीन’ ने ‘चहार-दरवेश’ का तजुर्मा ‘नौतार्जगुरस्या’ के नाम से किया था। उसमें उन्होंने अपनी जबान के लिए रेख्ता, हिंदी और जबान उर्दू-ए-मुअल्ला- इन तीन नाम का प्रयोग एक ही प्रसंग और एक ही पृष्ठ में साथ-साथ किया है।”6 फ़ारूक़ी साहब ने अपनी पुस्तक “उर्दू का आरंभिक युग”में यह स्थापना दी है कि पहले-पहल उर्दू शब्द स्थान विशेष यानी ‘दिल्ली शहर’ के लिए या ‘परकोटे के भीतरी शहर’ के लिए प्रयुक्त होता था। इसके समर्थन में उन्होंने मुसहफ़ी के तीसरे दीवान (संकलन काल लगभग 1794 ई.) और छठे दीवान (संकलन काल लगभग 1809 ई.) से दो शेर उदधृत किये हैं-
“ये रेख़्ते का जो उर्दू है मुसहफ़ी इसमें
नयी निकाली हैं बातें हज़ार हमने तो।”7
और
“वाक़िफ़ नहीं ज़बान से उर्दू की तिस पे
आह क्या-क्या अज़ीज करते हैं अशआर का घमंड।”8
पहला शेर पहले दीवान का है। इसमें ‘उर्दू’ शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त है। फिर ‘रेख़्ते का उर्दू’ में दोनों शब्द भाषा के नाम के अर्थ नहीं दे सकते। इसलिए सम्भवतः ‘उर्दू’ से यहाँ मतलब ‘शहर’, ‘किला’ है न कि वह भाषा जिसे आज हम उर्दू कहते हैं। दूसरे शेर में बिल्कुल स्पष्ट है कि ‘उर्दू’ से शहर दिल्ली मुराद है।” उर्दू शब्द का भाषा के रूप में पहली बार प्रयोग ‘मुसहफ़ी’ के निम्नलिखित शेर में मिलता है-
“खुदा रक्खे ज़बाँ हमने सुनी है मीर ओ मिर्ज़ा की
कहें किस मुँह से हम ए मुसहफ़ी उर्दू हमारी है।”9
पदमसिंह शर्मा ने मुसहफ़ी के इस शेर के साथ ही दाग का ये शेर भी उदधृत किया है–
“नहीं खेल ऐ दाग़ यारों से कह दो
कि आती है उर्दू जबान आते-आते।”10
पहले पहल उर्दू को हिन्दी, हिन्दवी, दक्खिनी, रेख़्ता आदि नामों से पुकारा जाता था। शाहआलम द्वितीय ने हिन्दवी को फ़ारसी पर तरजीह प्रदान की और इसे राज्य का व्यावहारिक संरक्षण दिया तो इस भाषा में काव्य सृजन प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे फ़ारसी को हटाकर यही भाषा मुख्य हो गई और इसे उर्दू कहा जाने लगा। कुल मिलाकर बात इतनी है कि फ़ारसी की जगह हिन्दवी (उर्दू) का प्रयोग लगभग 1790 से 1820 ई. के मध्य प्रारम्भ हुआ होगा। उर्दू भाषा के जन्म और विकास के बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी का मानना है कि मुगलों ने जब दक्षिण में अपना राज्य स्थापित किया तो उनके साथ-साथ उत्तर भारत की संस्कृति भी दक्षिण में पहुँची। वहाँ मुगलों ने हिन्दुओं को बड़े-बड़े ओहदो पर नियुक्त किया। चूँकि वहाँ उत्तर भारत की तरह फ़ारसी जानने वाले लोग कम थे अतः उत्तरी भारत की जनसामान्य की भाषा वहाँ अधिक प्रयुक्त होने लगी और महत्त्वपूर्ण भी हो गई। वो (फ़िराक़ साहब) साफ कहते हैं कि जिस समय उर्दू उत्तर भारत में बिगड़ी हुई या बाज़ारू बोली से ज़्यादा हैसियत नहीं रखती थी, उस समय दक्षिण में वह इतनी महत्त्वपूर्ण हो चुकी थी कि उसे सांस्कृतिक माध्यम एवं समन्वय का वाहक माना जाने लगा था। इस विचार से भिन्न विचार प्रकट करते हुए एहतिशाम हुसैन लिखते हैं कि- “उर्दू की उत्पत्ति के विषय में हिन्दी के कई लेखकों ने बहुत ग़लत विचार प्रकट किये हैं। उर्दू के लेखकों से भी बड़ी-बड़ी गलतियाँ हुई हैं। उनकी छानबीन या आलोचना इस स्थान पर नहीं हो सकती, पर इतना कहना आवश्यक है कि उर्दू न तो विदेशी भाषा है, न वह सिंध में पैदा हुई और न दक्षिण भारत में, न पंजाबी से निकली है न ब्रज भाषा से। वरन् जैसा कि ऊपर कहा गया, दिल्ली के चारों ओर बोली जाने वाली कई बोलियों में, जिसे खड़ीबोली कहा जाता है, रूप ग्रहण करने से एक नयी भाषा का विकास हुआ। आरम्भ में उस पर पंजाबी का प्रभाव अधिक रहा, पर धीरे-धीरे खड़ीबोली ही उर्दू के रूप में निखरती गई।”11 शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा है कि जॉन गिलक्राइस्ट ने भी अपनी ‘ग्रामर’ में उर्दू को मिलवाँ भाषा (Mixed Language) बताया था। ‘उर्दू का आरम्भिक युग’नामक अपनी पुस्तक के “इतिहास, विश्वास एवं राजनीतिः आरम्भ की कुछ मिथ्याएँ नामक लेख़ में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लखनऊ के एक हकीम और शायर अहद अली खाँ द्वारा 1798 के आस पास लिखी किताब “दस्तूरुल-फसाहत” एवं इसकी भूमिका का ज़िक्र किया है। फ़ारूक़ी साहब के मतानुसार यकता ने भूमिका में उर्दू भाषा विषयक जो बातें कही हैं वे काबिले गौर हैं। यकता के अनुसार भारत एक उपजाऊ और समृद्ध देश था, यहाँ लोग अपनी आजीविका और किस्मत चमकाने की गरज से दूर-दूर से आकर इकठ्ठे होते थे। इन कलाकारों, लेखकों, अभिजातों एवं हुनरमंदों को कभी निराश भी नहीं होना पड़ा और इस कारण बहुतों ने इसे ही अपना वतन भी मान लिया। अब इन लोगों और यहाँ के वासियों धीरे-धीरे ने अपनी आवश्यकता के अनुसार एक-दूसरे के शब्दों एवं मुहावरों को सीख लिया। इस भाषिक आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप एक ऐसी ज़बान वज़ूद में आई जिसे पूरी तरह न तो फ़ारसी कहा जा सकता था और न ही हिन्दी। हिन्दी के भीतर भी जो बोलियाँ थी, उनमें भी इस आदान प्रदान से बदलाव आया और उनका स्वरूप भी काफ़ी हद तक बदल गया। इस प्रकार ज़रूरत ने इस भाषा को बनाया परन्तु इसका कोई निश्चित व्याकरण उस समय स्थिर नहीं हो सका और ना ही उस समय भाषा का वह परिष्कृत रूप बन पाया जो आज है। उर्दू की उत्पत्ति को समझने के लिए हमें शौरसेनी अपभ्रंश से उपजी आधुनिक आर्य-भाषाओं का अध्ययन करना पडेगा। दिल्ली, हरियाणवी, पश्चिमी पंजाबी, खड़ीबोली अपने मूल रूप में एक ही थीं और इन्हीं भाषा-बोलियों ने मिलकर एक ऐेसी भाषा को जन्म दिया जिसका आधार खड़ीबोली थी। जिसको साधारणतः ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाता था। एक आम धारणा यह है कि अरबी-फ़ारसी शब्दों की अधिकता वाली भाषा जिसे अरबी लिपि में लिखा जाए उर्दू कहलाती है।
उर्दू भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मतों का अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि-
(i) उर्दू शब्द का प्रयोग शुरू में स्थान विशेष के लिए किया
जाता था। भाषा के अर्थ में यह शब्द काफ़ी बाद में प्रयुक्त होने लगा।
(ii) इस भाषा का जन्म हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी मेल जोल
जिसका मुख्य कारण व्यापार और आजीविका था के कारण हुआ। इसलिए इस भाषा में दो
संस्कृतियों की शब्दावली, परम्पराएँ, मिथक
और प्रतीकों का समावेश दिखाई देता है।
(iii) इस भाषा का जन्म दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में बोली
जाने वाली विभिन्न बोलियों से मिलकर हुआ जिनमें ब्रज, खड़ीबोली, पंजाबी, हरियाणवी प्रमुख है। इसलिए यह तथ्य भ्रामक है कि उर्दू
का जन्म दक्षिण भारत में हुआ, हाँ, यह अवश्य है कि उत्तर भारत से पहले साहित्यिक रचनाएँ इस
भाषा में दक्षिण भारत में ही हुई थी। जिस समय उत्तर में यह बाज़ार की बोली मात्र थी, उस समय दक्षिण में यह साहित्यिक व सांस्कृतिक विचारों की
वाहिका के रूप में प्रतिष्ठा पा गई थी। इसके अनेक राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण थे, जिनका वर्णन करना यहाँ प्रासंगिक नहीं है।
(iv) खड़ीबोली जिसमें अरबी फ़ारसी और संस्कृत के आमफहम शब्द
शामिल थे, इस भाषा का आधार है। धीरे-धीरे यह तथ्य प्रतिष्ठा पा गया
कि अरबी-फ़ारसी शब्दावली की बहुलता वाली हिन्दुस्तानी जिसे फ़ारसी (अरबी) लिपि में
लिखा जाता है उर्दू कहलाती है। यद्यपि हिन्दी और उर्दू का व्याकरण और थोड़े-बहुत
हेरफेर से शब्दावली भी कमोबेश समान ही है, तथापि
आज यह एक सर्वमान्य बात है कि ये दो अलग-अलग भाषाएँ है जिनकी अपनी-अपनी समृद्ध
साहित्यिक परम्पराएँ हैं।
(v) यहाँ इन भाषाओें के सम्बन्ध में एक और रोचक तथ्य का
ज़िक्र करना ज़रूरी है, और वो ये है कि जाने कैसे आम जनता के बीच यह बात प्रचलित
है और काफ़ी हद तक मान भी ली गई है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है तथा हिन्दी
हिन्दुओें की। जबकि यह सामान्य सा तथ्य है कि भाषा किसी क्षेत्र की होती है किसी
धर्म या जाति की नहीं। धर्म के आधार पर इस भाषिक विलगाव के बहुत से राजनैतिक और
भावनात्मक कारण हैं, जिनका वर्णन यहाँ नहीं किया जा सकता, बस शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब के हवाले से इस सन्दर्भ में
यहाँ इतना ही कहा जा सकता है कि पहले तो यह प्रश्न उर्दू/हिन्दी के इतिहास के बारे
में औपनिवेशिक, साम्राज्यवादी हितों के अधीन अंग्रेजों की राजनीतिक
नीतियों का शिकार रहा। और फिर आधुनिक हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तानी (हिन्दू) अस्मिता
के बारे में राजनीतिक और भावनात्मक परिकल्पनाओं के जगत में प्रवेश कर गया।
इस प्रकार हम उर्दू भाषा के विकास को देखते हुए समझते हैं कि किस प्रकार एक भाषा औपनिवेशिक एवं राजनीतिक हितों के चलते सम्प्रदाय विशेष की सीमाओं में जकड़कर रह जाती है। जिसके परिणामस्वरूप एक साझा संस्कृति की साझा विरासत को समझने के प्रयासों में भारी कमी दिखाई देती है। अमृतराय की किताब “ए हाउस डिवाइडे़ड” में इस तथ्य को और बारीक़ी से देखा समझा जा सकता है।
सन्दर्भ :
- एहतेशाम हुसैन, उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चौथा संस्करण, पृ. सं. 5
- अयोध्याप्रसाद गोयलीय, शेर-ओ-सुखन, पृ. 49
- फ़िराक़ गोरखपुरी, उर्दू भाषा और साहित्य, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ,(भूमिका) पृ. 7
- शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, उर्दू भाषा का आरम्भिक युग, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली पहला
संस्करण, पृ. 11
- वही, पृ. 14-15
- पदम् सिंह शर्मा, हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी, पहला
संस्करण 2012, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ. 33-34
- शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, उर्दू भाषा का आरम्भिक युग, राजकमल
प्रकाशन नई दिल्ली पहला संस्करण, पृ. 14
- वही, पृ. 11
- जानकीप्रसाद शर्मा, उर्दू साहित्य की परम्परा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली दूसरा
संस्करण, पृ. 15
- पदम् सिंह शर्मा, हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी, पहला
संस्करण 2012, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ. 34
- सय्यद एहतेशाम हुसैन, उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चौथा संस्करण, पृ. 9-10
tunnasingh07@gmail.com, 9314989578
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021 चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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