हिंदी साहित्य में ‘थर्ड जेंडर विमर्श’ विशेष संदर्भ : ‘मैं पायल’ (उपन्यास) / हर्षिता द्विवेदी
शोध-सार
हिंदी साहित्य में किन्नर या थर्ड-जेंडर
समुदाय को लेकर बहुत कम लिखा गया है| किन्नर-जीवन पर हिंदी साहित्य में
आत्म-कथाओं या ऐसे किसी साहित्य का अभाव है| ‘मैं पायल’
हिंदी
का पहला जीवनीपरक उपन्यास है, जिसे यथार्थ जीवन में किन्नर गुरु पायल
सिंह ने जिया है| एक किन्नर शिशु के बचपन से लेकर उसके जीवन के
तमाम पक्षों को इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है| भारत
समेत पूरी दुनिया में किन्नरों की संख्या लाखों में है, लेकिन फिर भी
साहित्य, समाज, भाषा, संस्कृति, संविधान,
सत्ता,
सम्पत्ति
और जीवन जीने के तमाम अधिकारों से उन्हें सदियों से बेदखल किया जाता रहा है|
रोजगार
और शिक्षा का आभाव है, जिसके कारण उन्हें सार्वजानिक स्थलों पर भीख
मांगनी पड़ती है, तालियाँ पीटकर नेग वसूलने होते हैं| इससे
भी जरूरत पूरी न हो तो ‘वेश्यावृत्ति’के ग़लीज दलदल
में उतर जाना होता है| सार्वजनिक स्थलों पर उन्हें हेय दृष्टि से देखा
जाता है| सामान्य लोगों के लिए बने अस्पतालों में उन्हें इलाज़ नहीं मिलता,
स्कूलों
में दाखिला नहीं मिलता, सरकारी-ग़ैरसरकारी जगहों पर रोजगार नहीं मिलता|
हम
उन्हें अश्लीलता की दृष्टि से देखने के आदी हैं| बचपन में ही
परिवार और समाज से विस्थापित होकर नर्क भोगते लाखों किन्नरों का प्रतिनिधित्व करती
है यह कृति।
बीज-शब्द : विमर्शवादी साहित्य, थर्डजेंडर, किन्नर समुदाय, भारतीय समाज, मिथक और तथ्य,
लिंगभेद की अवधारणा, हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श, ट्रांसजेंडर, किन्नरों के
अधिकार, भारतीय संविधान, हाशिए का समाज
“तुम फिर भी सबके मन के प्रश्नचिह्न हो
एक अलग जगह पर आसीन
जब हँसती हो तो स्त्री
और मुस्कुराने पर पुरुष लगते हो
चेहरे सपाट
जख्म के छोटे-छोटे बिंदु
कभी किसी को दिख जाते हैं
कोई देखना नहीं चाहता
मुस्कुराते गुजर जाते हो सब के सब
उनके मनुहार का एक अस्त्र होता है
बजाते हैं ताली
ठिठक जाते हैं सब के सब
अपनी व्यथा को मन में रखकर दुआएँ देते हो
कहते हैं त्रेता में तुम्हें शक्ति मिली
शुभ बनाने, निभाने और आशीर्वाद देने की”- निवेदिता झा [1]
हम सबके जीवन की पहली पाठशाला हमारा परिवार और
माँ-बाप होते हैं, जीवन का हर पहला पाठ हम यहीं सीखते हैं। परिवार और समाज के किसी एक पक्ष की अनुपस्थिति हमारे जीवन को प्रभावित अवश्य
करती है। भारतीय समाज व्यवस्था की संकल्पना ही परिवार, समाज और राज्य को केंद्र में रखकर की गई है। भारत विविधताओं का अजायबघर है, यहाँ प्रत्येक धर्म, जाति, वर्ग, रंग, नस्ल, विचारधारा, भाषा/बोली, पहनावे और खान-पान के लोग मिल जाएँगे। भारत की ख़ूबसूरती
भी इसी बात में है कि सदियों से दुनिया भर के आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण देखने
के बावजूद भी यहाँ की संस्कृति और परम्परा का मूल सौन्दर्य अभी भी बाकी बचा हुआ है। जहाँ हम रहते हैं, जीवन जीने के सलीके सीखते हैं और सामान्य सामाजिक
व्यवहार मूर्त-अमूर्त रूप में ग्रहण करते हैं वहीं जाने या अनजाने में वह व्यवहार
भी ग्रहण करते रहते हैं जो मानव और मानवीयता के ख़िलाफ़ है। प्रकृति का नियम कहता है कि यहाँ वही शासन करेगा जिसके पास ‘सर्वाइवल’ का सबसे बेहतरीन विकल्प होगा, या जिसके भीतर शक्ति और सत्ता संतुलन की सर्वोत्तम क्षमता होगी। सामाजिक संदर्भो में देखें तो हम पाते हैं कि ‘लैंगिक विभाजन और
भेदभाव’ का जो नियम हमारी समाज व्यवस्था पर लागू है..वह कहीं
न कहीं इसी संतुलन का अनुसरण करता है। दुनिया के तमाम
समाजों में हम देखते हैं कि उत्पादन या उत्पादकता को अत्यन्त महत्त्व दिया जाता है, फिर चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। जैसे ही कोई वस्तु या मनुष्य हमारे बनाए दायरे और नियमों से बाहर जाता है, हम साँप के अंडे की तरह या तो उसे तोड़ देते हैं या फिर उसका ‘बॉयकॉट’ कर देते हैं। परंपरागत रूप में
जो भी विचार हम अपने परिवार और समाज से ग्रहण करते हैं, अगली पीढ़ी को वही हस्तांतरित करते जाते हैं। कई बार कई बातों और विचारों पर सवाल उठाना, संदेह करना सामाजिक
और पारिवारिक नियमों के ख़िलाफ़ द्रोह के रूप में भी देखा जाता है। कई बार कुछ परम्पराएँ या नियम ‘रूढ़ि’ के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, कुछ समुदायों के
विषय में हमारी सोच पूर्वाग्रह से ग्रस्त होती है, परन्तु न तो हम उन
नियमों या परंपराओं और विचारों पर न तो कुछ अलग सोचते हैं और न ही उनके जीवन के
विषय में कुछ सोचते हैं। भारतीय समाज वर्ग, वर्ण और जाति व्यवस्था पर आधारित ऐसी समाज व्यवस्था है, जिसकी नींव कर्म और पेशे पर आधारित रही है। एक खास तरह की सामाजीकरण प्रक्रिया के तहत हमें समाज से परिचित कराया जाता है, जहाँ जाति, धर्म और समुदाय के नाम पर लोग बँटे हुए हैं। यह प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि हमें पता ही नहीं चलता कि कब हमने
श्रेष्ठ और गुणहीन का भेद करना सीख लिया, कब हमने ऊँच-नीच की
भावना अपने भीतर काई की तरह जमा ली, कब हमने अपने ही
बीच के लोगों से ईर्ष्या, छुआछूत, और घृणा करना सीख
लिया? कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि समाज व्यवस्था ‘सहजता और असहजता’ के बीच पलने वाला एक नियम है, जहाँ ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का सूत्र कार्य करता है, और समाजीकरण की भेदभाव-पूर्ण प्रक्रिया ‘स्त्री-और पुरुष’ का सामाजिक व्यवहार तय करती है। दूसरा सबसे
महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि जबसे मानव समाज है, तब से हमारे बीच
सिर्फ ‘स्त्री या पुरुष’ ही नहीं पाए जाते
बल्कि स्त्री और पुरुष के बीच एक तीसरी पहचान भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस स्त्री और पुरुष के बीच अपने अस्तित्त्व को बचाने और अपनी अस्मिता को कायम
रखने के लिए जो तीसरी पहचान संघर्षरत है, उसे किसी भी तरह के
परिचय की मोहताज नहीं है। इस तीसरी पहचान के
भीतर आने वाला समुदाय हमसे कतई अलग नहीं है, सिवाय इसके कि वे
सामान्य रहने नहीं दिए जाते। बल्कि पैदा होते ही
उनकी अलग पहचान रेखांकित कर दी जाती है, विभिन्न विशेषणों
और अपमान-सूचक नामों से उनकी पहचान स्थापित कर दी जाती है। आगे चलकर हम साहित्य और समाज के बरअक्श इस विषय पर विस्तार से बात करेंगे।
भाषा, साहित्य और संस्कृति...किसी भी राष्ट्र और समाज की
विशेष पहचान के सूचक होते हैं। भाषा या बोली की
प्राचीनता, संस्कृति की संरचना और साहित्य की समृद्धि यह जताते
हैं कि उस देश या समाज की व्यवस्था कैसी है, वहाँ रहने वाले
लोगों की विचारधारा किस तरह की है इत्यादि। हिंदी साहित्य का
इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है, उसके पहले का
आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य भी बहुत समृद्ध है। बौद्ध और जैन साहित्य के आने तक या उसके बाद प्राकृत भाषा या स्थानीय बोलियों
में लिखे गये साहित्य..इन सबकी पड़ताल करें तो पाते हैं कि एक ख़ास वर्ग के लोग
साहित्य और सृजन प्रक्रिया में ‘हावी’ हैं। पठन-पाठन या साहित्य और संस्कृति की संरचना में वही
लोग पाए गए, जिनकी सामाजिक स्थिति उच्च कुल से जुड़ती है। भारत में हाशिये के समाज का दायरा बहुत बड़ा है, स्त्री, दलित, आदिवासी, तृतीयलिंगी समुदाय
यहाँ तक कि वृद्ध स्त्री-पुरुष भी इस हाशिए के दायरे में आते हैं। चूँकि हिंदी साहित्य का आस्वादन देश-काल-वातावरण के अनुसार बदलता रहा है, यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं मिलता। आदिकाल से लेकर
मध्यकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल और उत्तर-आधुनिक युग तक हिंदी
साहित्य लेखन की एक श्रृंखला सी बनती नजर आती है, युग-प्रवृत्तियाँ
साहित्य के आस्वादन का प्रतिनिधित्व करती हैं। मध्यकाल में कबीर, मीरां और रैदास से हाशिए के साहित्य की रेखा खिंचती
है और आगे चलकर रीतिकाल में सब मटियामेट हो जाता है। आधुनिक काल में गद्य की आवश्यकता ने न केवल खड़ी बोली का विकास किया बल्कि उन
लोगों को भी अपनी बात कहने का सुनहरा अवसर दिया, जो तुकबंदी के
मनोरंजन में स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम पाते थे। स्त्रीवादी साहित्य से हिंदी साहित्य में विमर्शवादी लेखन का प्रारंभ माना
जाता है और साथ ही यह इल्जाम भी लगता है कि यह लेखन या आन्दोलन पाश्चात्य नारीवाद
से प्रभावित था। खैर जो भी रहा हो, 20वीं सदी का पहला
50 वर्ष भारतीय नारीवादी विमर्श को साथ लेकर चलता है, जहाँ प्रेमचंद, जैनेन्द्र, यशपाल जैसे पुरुष
लेखक यथार्थवादी तरीके से स्त्री की स्थिति बयाँ करने में स्त्रीवादी विमर्श को
सहयोग करते हैं। 20वीं सदी का नारीवाद और दलित
लेखन को स्थापित करती है, उसे दिशा देने का कार्य करती है। आदिवासी विमर्श भी इसी क्रम में अपनी पहचान स्थापित करने और बचे-खुचे को
सहेजने में लगा हुआ है। इन सबके दरमियाँ
अगर हम बात करते हैं ‘तृतीय लिंगी समुदाय या किन्नर समुदाय’ की तो हम पाते हैं कि सदियों से अपनी पहचान रखने वाला यह समुदाय वास्तव में
कहीं है ही नहीं। महाभारत और रामायण से लेकर ग्रीक और रोमन साम्राज्यों
तक में अपनी सेवायें देने वाले, अपना अस्तित्व कायम
रखने वाले लोग, दिल्ली सल्तनत और मुग़लकाल में एक सामान्य व्यक्ति से
ज्यादा दिलेरी और वफादारी कायम रखने वाले लोग साहित्य, समाज और संस्कृति में केवल एक पहचान रखते हैं ‘हिजड़ा’। आश्चर्य की बात यह है कि लाखों की संख्या में अपना
अस्तित्व रखने वाला किन्नर समुदाय, जो मध्य एशिया के
पुरातन साहित्य से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र और अरब के तिलस्मी और अय्यारी
साहित्य में और भारतीय जैन और बौद्ध ग्रंथों में भी पाया जाता रहा है, उसे हम आज भी अपने बीच का हिस्सा नहीं मानते हैं। हिंदी साहित्य की अगर बात करें तो किन्नर समुदाय को लेकर 20वीं सदी तक कुछ भी
नहीं लिखा गया था। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ शिवप्रसाद सिंह और राही मासूम रजा या बांग्ला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक या
दो कहानियों के अलावा कहीं भी किन्नर समुदाय नहीं मिलता। ये इस तरह का लेखन है जो संस्मरणात्मक रूप में ज्यादा आता है, हमारे आस-पास ही ऐसे चरित्र मिलते हैं जो इन कहानियों में अभिव्यक्त हुए हैं। किन्नर समुदाय आधारित लेखन प्रारम्भ होने के बीच एक लम्बा ‘अंध-युग’ रहा है, और ऐसा होना इसलिए
भी स्वाभाविक था क्योंकि भारतीय साहित्य में हाशिए के सन्दर्भ में 20वीं सदी से
पहले कोई ख़ास लेखन नहीं हो सका था। 21वीं सदी को
किन्नर समुदाय आधारित हिंदी साहित्य के लिए मील के पत्त्थर के रूप में जाना जाएगा। वर्ष 2002 में ‘यमदीप’ की रचना करते हुए
नीरजा माधव ने हाशिए के विमर्श के लिए एक सशक्त विषय प्रदान किया और किन्नर समुदाय
से जुड़े ‘टैबू’ को खत्म करने का
प्रयास किया। आज 2021 में जब हम किन्नर
विमर्श की साहित्यिक यात्रा पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि 10-12 उपन्यास, 2-3 दर्जन कहानियाँ, कुछ नाटक, काव्य संग्रह, लगभग एक दर्जन आलोचनात्मक कृतियाँ और 2-4 नाटक लिखे जा चुके हैं। साहित्य के रूप में एक समुदाय को समझने के लिए यह लेखन पर्याप्त तो नहीं है, परन्तु एक बेहतरीन शुरुआत जरूर मानी जा सकती है।
हिंदी साहित्य में किन्नर समुदाय को लेकर अभी तक जो भी रचनात्मक कार्य हुआ है, उनमें हम यह पाते हैं कि वंचित व्यक्ति जिस भी राज्य, भाषा, बोली या धर्म से आता हो, उन सबके दुःख एक हैं, सबकी समस्याएँ एक हैं। प्रस्तुत आलेख में हम ‘किन्नर कथा’ उपन्यास के लेखक
महेंद्र भीष्म रचित ‘मैं पायल’ उपन्यास की बात
करेंगे, यह एक जीवनी-परक उपन्यास है, जो लखनऊ की किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन-संघर्ष पर आधारित है। ‘मैं पायल’ की परतों को खोलने से यह बता देना जरुरी है कि भारत
की जनगणना 2011 के अनुसार भारत में लगभग 4.5 लाख किन्नर हैं, यह वो संख्या है जो सरकारी आंकड़े पर आधारित है। वास्तविक संख्या इससे ज्यादा हो सकती है और आंकड़े बहुत अलग हो सकते हैं। हम बचपन से ही अपने आस-पास शादी-विवाह या बच्चे होने जैसे अवसरों पर किन्नर
समुदाय के लोगों को देखते आए हैं। उनके विषय में तमाम
तरह की बातें सुनना, भ्रमपूर्ण किस्से गढ़ना, डर का वातावरण, एक तरह की घृणापूर्ण दृष्टि का लगातार बने रहना अभी भी हमारे लिए सामान्य बात
है। हम यह भी नहीं समझ पाते थे कि ऐसे ख़ास अवसरों पर
उपस्थित हो जाने वाले लोग आते कहाँ से हैं, जाते कहाँ है और
सबसे बड़ी बात कि इन लोगों को बुलाता कौन है जो ऐसे बच्चों को पकड़ ले जाते हैं
(बचपन में अक्सर यह कहा जाता था कि ‘हिजड़ों’ के आस-पास मत जाना और बात तो बिलकुल भी मत करना नहीं तो ये पकड़ कर ले जाएँगे
और भेड़ बना देंगे)। सवाल यह उठता है कि
इस तरह के भय का वातावरण बनाने, कहानियाँ गढ़ने, उन्हें समाज से निकाल बाहर करने या अपमानित नामों से अविहित करने की आवश्यकता
क्यों हुई? क्या यह सिर्फ डर महज था या लाखों की संख्या में अपना
अस्तित्त्व कायम रखने वाले किन्नर समुदाय के प्रति एक ख़तरनाक साजिश? साजिश भी थी तो क्यों? क्या महज सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखने और सृजन
प्रक्रिया में भागीदार न हो पाने की सजा थी? अगर हम सामान्य
नज़रिए से देखेंगे तो सामान्य निष्कर्ष भी निकलेगा। लेकिन जब हम इसी सवाल को पितृ-सत्तात्मक अवधारणा और शक्ति-सत्ता संतुलन के
नज़रिए से देखते हैं तो पाते हैं कि ‘किन्नर समुदाय’ को हर तरह से वंचित रखना पितृसत्ता की साजिश थी, जो आधे-अधूरे लोगों
को मुख्यधारा के समाज के लिए कलंक मानती थी। इसके दो कारण थे- एक तो यह कि जिस भी पुरुष के यहाँ ‘किन्नर संतान’ पैदा होगी, उसकी समाज में कोई
इज्जत नहीं या उसके ‘पुरुषत्त्व’ पर सवाल उठेगा और
दूसरी यह कि हमारा समाज किन्नर समुदाय को ‘यौनिकता’ की नजर से देखने का आदी रहा है। अजीब विडंबना है कि
आधी-अधूरी संतान को पता भी नहीं होता कि उसका गुनाह क्या था, और उसे हर रिश्ते, हर अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। जो लोग प्रजनन प्रक्रिया में भागीदार नहीं हो सकते, हम उन्हें ‘यौनिकता’ और ‘मनोरंजन’ के नजरिए से ‘जज’ करने के आदी हैं। सत्ता और शक्ति से
वंचित रखना पितृसत्ता की दूसरी साजिश थी किन्नरों के खिलाफ़। जो कुछ भारतीय समाज व्यवस्था से बाकी रह गया था, उसे पूरा कर दिया
1871 की क्रिमिनल ट्रिब्यूनल एक्ट ने, जिसके तहत
अंग्रेजों ने किन्नर समुदाय को ‘जरायमपेशा जनजातियों’ में शामिल कर दिया। एक ऐसा समुदाय, जिसका उदहारण दुनिया के हर इतिहास में मिलता है, हर मिथकीय कथा में
मिलता है या हर समाज में मिलता है, वह आपराधिक दायरे
में आने लगा। सामजिक अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, परिवार, रिश्ते-नाते और सार्वजनिक जीवन की सभी स्वतंत्रताएँ
छीन कर हर चीज से बेदखल कर दिए जाने के पीछे की साजिश यही थी कि जो लोग उत्पादन या
सृजन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन सकते, उनको समाज के बीच
रहने का भी हक़ नहीं है। आजादी के बाद 1951
ई० में किन्नर समुदाय पर लगे सभी तरह के प्रतिबन्ध हटा लिए गए। लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी उपस्थिति अभी भी सहज नहीं थी, डर और नफरत का वातावरण अभी भी वैसा था। मतदान, शिक्षा, चिकित्सा, घर, राशन कार्ड, बिजली-पानी जैसी बुनियादी जरूरतें अभी भी लगभग वैसी
की वैसी हैं।
‘मैं पायल’ एक जीवनीपरक उपन्यास है, जो किन्नर-गुरु पायल सिंह पर आधारित है। एक उपन्यास की कल्पना से ज्यादा एक जीवनी का यथार्थ इस रचना में अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास को हम तीन हिस्सों में बाँटकर देखेंगे, जिसमें पहला हिस्सा उनके जीवन के प्रारंभ से लिया गया है। यह उपन्यास हर कोण से ‘पितृसत्ता’ के ‘ईगो’ से टकराता है, हर जगह पुरुष-समाज के दंभ को उजागर करता है। जुगनी या जुगनू अपने माता-पिता की 5वीं संतान के रूप में जन्म लेती है, और इसके साथ ही पिता और पड़ोस के लोगों का तिरस्कार प्राप्त करना शुरू कर देती है। “जब कभी पिताजी दारु के नशे में कोसते, गाली देते, ‘ये जुगनी!हम क्षत्रिय वंश में कलंक पैदा हुई है, साली हिजड़ा है...आदि जाने क्या-क्या वे बकते रहते थे। ‘हिजड़ा’ यह शब्द सबसे पहले मैंने उन्हीं के मुख से सुना था, पर तब मायने से बिल्कुल अनभिज्ञ थी।”[2] जुगनी के जन्म का समय वह समय था, जब मध्य-वर्गीय भारतीय समाज में दहेज़ के लिए सबसे ज्यादा स्त्रियों की हत्या हुई, यह एक तथ्य है। पुत्र को जन्म देने का दबाव एक सामाजिक दबाव है, जिसे एक स्त्री विवाह से महले ही महसूसने लगती है। पुत्र पैदा होना स्त्री की सामाजिक स्थिति को कायम रखता है और पुरुष के रुतबे को। चूँकि सत्ता का हस्तांतरण पुरुष से पुरुष को जाता है, इसलिए बेटियाँ होना न केवल बोझ की तरह था बल्कि पिता की सामाजिक स्थिति और रुतबे को भी कम करने जैसा था। धर्म-व्यवस्था और नियम यह कहते हैं कि केवल पुत्र ही पिता को ‘बैकुंठ’ पहुँचा सकता है, उसे विभिन्न ऋणों से मुक्ति दिला सकता है। सामाजिक नियम यह कहते हैं कि बेटियाँ ‘पराया धन’ होती हैं, इसलिए उनका न होना ही अच्छा है। प्रारंभ में ही पायल कहती हैं कि “मैं उनकी पाँचवीं संतान एक हिजड़ा बच्चे के रूप में संसार में जन्म लेते ही उन्हें तमाम दुःख, कष्ट और संताप देने के लिए आ चुकी थी। सभी को इस बार उनसे बेटे को जन्म देने की पूरी-पूरी उम्मीद थी। उम्मीद तो पहली दीदी के बाद से ही थी, पर जब दूसरी, तीसरी और चौथी बार लगातार कन्या के जन्म लेने से अम्मा और उनकी कोख को गालियाँ मिलने लगी थीं”[3]।
जाहिर है सामान्य भारतीय समाज की तरह ही उन्नाव का बहराजमऊ भी था, जहाँ किन्नरों को लेकर वही विचार व्याप्त थे जैसा भारत के अन्य हिस्सों में है। जुगनी को बचपन में परिवार से जितना प्यार मिला, अपने पिता से उतनी
ही नफरत और मार मिली। एक पिता के हिस्से
से सोचें तो ये समझ आता है कि समाज के नियमों और दबाव के तहत उनका व्यवहार स्वाभाविक
था। पुत्र होने की ख्वाहिश ने उन्हें जुगनी को जुगनू
बनाने के लिए मजबूर कर दिया, फिर भी जुगनी का
अंतर्मन जुगनू न बन सका। एक हिजड़े का पिता
होना भारतीय समाज में किसी श्राप से कम नहीं है, ख़ास करके तब जब
पुत्र की चाहत में पाँच-पाँच बेटियों क पिता बनना पड़े और एक संतान ‘किन्नर’ हो। जुगनी के हिस्से का
सच देखें तो हम पाते हैं कि उसे वह सजा मिल रही थी, जो गुनाह उसने किया
ही नहीं था “मैं ही तो उनका निशाना थी कुल कलंकिनी। क्षत्रियों के खानदान में हिजड़ा पैदा होने का जैसे सारा श्रेय मेरा ही
हो...मैं हिजड़ा हूँ...ठीक है, पर इसमें मेरा क्या
कुसूर? हिजड़ा होने में मेरी अम्मा बल्कि पिताजी का भी तो कोई
दोष नहीं, फिर मेरे साथ ही ऐसा दुर्व्यवहार क्यों? लोग अपने विकलांग बच्चे को पाल लेते हैं, पर एक हिजड़ा बच्चे
को नहीं क्योंकि हिजड़ा बच्चा होना वे अपनी आन, बान, शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। क्षत्रियों में
सिंह पैदा होते हैं, हिजड़े नहीं।”[4]
किन्नर समुदाय का प्रत्येक सदस्य लगभग एक ही तरह के व्यवहार का शिकार होता है, भले ही वह आर्थिक और सामाजिक रूप से अलग-अलग परिस्थिति का हो। जुगनी के पिता और उसका परिवार ठीक-ठाक आर्थिक और सामाजिक स्थिति वाले लोग थे, पर सामाजिकता का दबाव उसके पिता को बेचैन किये रहता था। जुगनी के प्रति उसके पिता की बढ़ती हिंसा इस बात का द्योतक है कि जब बात सामाजिक मान-मर्यादा की आती है तब व्यक्ति अपनी संतान की बलि देने से पीछे नहीं हटता। यहाँ तक कि वह अपनी ही संतान से ईर्ष्या करने लगता है और उसकी ह्त्या करने के लिए फाँसी तक पर चढ़ा देता है। “मुझे लगता था जिजीविषा जीवनदायिनी होती है। नींद या बेसुधी मेरे लिए जानलेवा हो सकती थी। मेरी गर्दन रस्सी से फँसी थी। गर्दन में खिंचाव और भीषण दर्द हो रहा था।
मुँह से सारी शक्ति से चीखने पर भी आव़ाज नहीं निकल रही थी। चीख स्वयं को ही सुने नहीं दे रही थी।”[5] जुगनी के जीवन में माँ की उपस्थिति ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी। विद्यालयी जीवन के दौरान ही जुगनी से जुगनू बनाने की उसके पिता की कोशिश बेकार
रही, क्योंकि वे यह नहीं जानते थे कि उनकी संतान की आंतरिक संरचना और उसका मानसिक
व्यवहार कुछ और ही चाहता है अपने जीवन से। एक सामान्य बच्चे
की तरह ही जुगनी अपने घर-परिवार और हमउम्र बच्चों के साथ बड़ी हो रही थी, लेकिन उसे यह नहीं पता था कि यह वृद्धि उसके लिए अभिशाप की तरह होगी। जुगनी की इच्छा जैसे-जैसे लड़की होने के प्रति बढ़ रही थे, वैसे-वैसे उसके पिता की नफरत और हिंसा भी उसके प्रति बढ़ती जा रही थी। “पिताजी ने पास रखी बाल्टी में भरे पानी से मुझे नहला दिया, फिर वहीं रखी चप्पल को तब में भरे पानी में डुबा डुबाकर मेरे नग्न शरीर की
चमड़ी उधेड़ने लगे...रस्सी का एक छोर बाँधकर मुझे मारने क लिए रस्सी के दूसरे छोर का
फंदा मेरी गर्दन में बाँध पिताजी ने मुझे फाँसी दे दी थी।”[6] अपनी ही संतान को अहिंसक तरीके से पीटना और उसकी
हत्या की कोशिश भारतीय संस्कार तो नहीं कहे जा सकते, लेकिन क्या कहें यह
भी असमंजस भरा सवाल है। जुगनी के बड़े भाई
की गलतियाँ उसके पिता को नजर नहीं आती थीं, क्योंकि लड़का अगर
गलत भी करता है तो उससे इज्जत नहीं बिगड़ती, उनको छूट है नशा
करने या अन्य व्यसन पालने का। जुगनी को बार-बार
यह एहसास उसके पिता ही कराते कि वह ‘हिजड़ा’ है, उसका पैदा होना ही गलत है। गालियाँ और मारपीट बढ़ने के साथ ही पिता की नफरत और परिवार की स्थिति ने जुगनी
के भीतर एक तरह की असुरक्षा की भावना पैदा कर दी, उसके भीतर लगातार
अपराधबोध बढ़ता गया। जुगनी का बड़ा भाई
भी उसके प्रति नफरत का भाव रखने लगता है, क्योंकि उसके मित्र
उसकी बहन के हिजड़ा होने पर उसका मजाक बनाते हैं। क्या हिजड़ा होने के साथ ही उस बच्चे का भाग्य अपने ही पिता या भाई की गालियाँ
और मार खाने की गवाही देने लगता है? इस तरह जीवन के कई
साल तक ‘पिता’ नामक रिश्ते का
कड़वा अनुभव जुगनी के हिस्से आया। उसका यह सोचना कि
शायद एक दिन सब ठीक हो जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। जब जीवन जीने के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं, तब मनुष्य अंतिम
विकल्प के रूप में मौत को चुन कर जीवन से मुक्त हो जाना चाहता है। पर किशोर उम्र में जुगनी का ‘ख़ुदकुशी’की तरफ सोचना उसके बचपन में ही ‘बड़ा’ हो जाने की अभिव्यक्ति करता है। प्रायः हर ‘किन्नर बच्चा’ कुछ इसी तरह से अपने घर, परिवार और समाज से दूर हो जाता है। एक ऐसी दुनिया में
अपनी जगह बनाने, जहाँ उसका अपना कोई नहीं होता। “घर, परिवार, समाज से बहिष्कृत, तिरस्कृत और त्रासदी लिप्त हुए। जब तक जीवन है, त्रासदियाँ उनके साथ हैं, वह जो न नर है, न नारी है, है तो सिर्फ और सिर्फ एक ‘हिजड़ा’, यही उसकी पहचान है, यही कटु सत्य है”।[7] आगे चलकर यही लोग जब अपनी दुनिया में सिमट जाते हैं तब न तो मुख्यधारा में आना
चाहते हैं और न ही उनसे अपने समाज या दुनिया से जुड़ी कोई बात बताना चाहते हैं।
‘मैं पायल’ उपन्यास की बात करें तो जुगनी उर्फ़ पायल का जीवन अनुभव दूसरे किन्नरों से काफी
अलग है। जुगनी को घर, परिवार और समाज के
बीच रहने का ज्यादा समय मिला और दूसरी बात यह कि जीवन के शुरूआती दौर में घर
त्यागने के बाद भी प्रत्यक्ष रूप से वह कभी किन्नर समुदाय के बीच नहीं गईं। बचपन के अनुभवों के ऐसी बहुत सारी बातें शामिल हैं, जिनसे उठने वाले सवालों से अक्सर बड़े भी भागना चाहते हैं। तीन-चार वर्ष की अवस्था में जुगनी के जीवन में दाऊ का जो प्रसंग आता है, वह कोई साधारण प्रश्न नहीं था। स्त्री-पुरुष संबंध
या मानव शरीर और उसके विकास से जुड़े प्रश्न अक्सर जिज्ञासु बच्चों के मन में आते
हैं, पर ऐसे सवालों का ज़वाब उनके बड़े उतनी सहजता से नहीं दे पाते। यही कारण है कि कम उम्र में बच्चे कई बार ऐसे सवालों का ज़वाब बाहर खोजने का
प्रयास करते हैं, या फिर गलत संगति में खोजने का प्रयास करते हैं। विद्यालय में भी जुगनी को कुछ ज्यादा बुरे अनुभव नहीं हुए, जैसा कि प्रायः किन्नरों का रहा होता है। सामान्यतः शिक्षक को पता चलते ही वे उसे विद्यालय से निकाल देते हैं, उच्च शिक्षा में दाखिला लेने के लिए भी कुछ साल पहले तक
उनके लिए कोई विकल्प नहीं होता था। पिछले कुछ सालों
में लोग जागरूक हुए हैं और इस मुद्दे की तरफ देखना शुरू किया है।
पायल के जीवन का दूसरा पड़ाव उनका सार्वजनिक जीवन में कदम रखना है। पिता की हिंसा और परिवार व माँ की सुरक्षा को लेकर उपजे असुरक्षा भाव ने उनको घर त्यागने के लिए मजबूर किया। यह जीवन का सबसे दर्दनाक हिस्सा है, जहाँ उन्होंने दुनिया के हर मुखौटे को उतरते हुए देखा। भूख से सर्वप्रथम परिचय यहीं हुआ। मौत की इच्छा लेकर निकली जुगनी ने काँटा चुभने के दर्द इतने गहरे तक महसूस किया कि मौत का विचार मन से निकाल दिया। अजनबी रास्ते की तरफ जा रही ट्रेन पर बैठने के साथ ही उन्होंने जीवन की पहली हद को पार किया, इसके पहले एक सीमित दायरे में ही उनकी दुनिया बसी हुई थी। जीवन में पहली बार लड़की होने के दर्द को अभिशाप के रूप में लिया, जब अपने पिता से भी बड़ी उम्र के व्यक्ति ने पायल का शारीरिक शोषण करने का प्रयास किया, पैसे का लालच देकर उन पर शारीरिक संबंध के लिए दबाव बनाने की कोशिश की। बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि एक अकेली लड़की ‘खुली हुई तिजोरी’ की तरह होती है, जिसे जो चाहे..जैसे चाहे उसे लूट सकता है, उसका इस्तेमाल कर सकता है। “मैं तो औरत हिजड़ा हूँ , जब अनाथालय में थी तो वहाँ तुम्हारी दुनिया के पुरुष से ही पहली बार मेरा बलात्कार हुआ”।[8] हमारी दुनिया, हमारा समाज दिनों-दिन वीभत्स होता जा रहा है। वर्तमान में अकेले भारत में ‘सेक्स बाज़ार’ की बात करें तो यह 4000 करोड़ से ज्यादा का है, यह हमारी उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ हम नैतिकता की बात करते हैं, नारी-पूजा की दुहाई देते हैं और छोटी-छोटी बच्चियों का बलात्कार भी करते हैं। बहरहाल जुगनी को यह समझ भी नहीं आया होगा कि जिस उम्र के लोगों से उसे दुलार मिलता आया है, उसी उम्र का शख्श उससे किस तरह की माँग कर रहा है। दूसरी बार वह पुलिसवाले के चंगुल में फंसती है, जहाँ पुलिसवाला भी जुगनी से बलात्कार करने की मंशा के साथ उस पर दबाव बनाता है। “घर-परिवार से दूर होते ही बाहर के समाज में लड़की का रूप लिए रहना असुरक्षित है...हे भगवान! यह मैं ही जानती हूँ और जानती होंगी वे सब स्त्रियाँ जो मेरी जैसी स्थिति से अक्सर दो-चार होती होंगी या कभी परिवार से अलग-थलग पद गई होंगी। देह के नरभक्षी भेदियों की चुभती नज़रों को बड़ी शिद्दत से महसूस किया होगा, जो मादा गंध के उठते ही खूँखार हो उठते हैं और मौका मिलते ही दबोच लेने के लिए उतावले बने रहते हैं। सारी जोर आजमाइश के बाद क्रूरता, नग्नता पर उतर आते हैं और मसल देना चाहते हैं नारी देह को। नोच-खसोट के साथ अपनी बर्बरता की निशानियाँ उसपर छोड़ देना चाहते हैं”।[9]
आज जब कानून के
रक्षकों पर सवाल उठते हैं, तब वह पूर्णतया बेबुनियाद नहीं होते। पुलिसवाले की अमानुषिक हरकतें कहीं न कहीं जुगनी के पूरे जीवन पर अजीब सी दहशत
बनकर छाई दिखती हैं। जब रक्षक ही भक्षक
बन जाए तब किससे क्या उम्मीद की जा सकती है। अनवर से उसकी दोस्ती और उसके परिवार से मिलने वाला अनुभव शरणार्थी बस्तियों का
सच उजागर करता है। शरणार्थी शिविरों की स्त्रियाँ अपना और बच्चों का पेट
पालने के लिए देह व्यपार करने के लिए मजबूर हैं, उनके बच्चे छोटी-मोटी
चोरियाँ करने, भीख मांगने या दातून बेचकर अपनी जरूरते पूरी करने का
प्रयास करते हैं। आज सीरिया, भारत, इजराइल जैसे देशों में शरणार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भारत में बांग्लादेश, तिब्बत और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का भारत
में शरण लेना भारतीय सरजमीं के लिए भी एक तरह का खतरा बनता जा रहा
है। ऐसे शिविरों में रहने वाले बच्चे शिक्षा, उचित पोषण और अन्य सुविधाओं से वंचित रहते हैं और चोरी, नशा, तस्करी या देह व्यापार और कई बार आतंकी शिविरों की
तरफ भी मुद जाते हैं। सार्वजानिक स्थलों
या ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगने वाले लोगों या बच्चों को हम यह सोचकर दरकिनार
करते हुए आगे बढ़ जाते हैं कि दुनिया ऐसी ही है, यहाँ सब चलता रहता है। सत्य तो यह है कि
अगर हम उनका इतिहास खोजने निकलें तो शायद पागल होने की स्थिति आ जाएगी । घर छोड़कर भागे बच्चे, नशे का शिकार बच्चे, सौतेले माँ-बाप या
भाई बहनों की ज्यादती का शिकार, भीख मँगवाने वाले
गिरोह, गन्दी बस्तियों में रहने वाले बच्चे, ज्यादा संख्या में भाई-बहनों का होना, अति
महत्वाकांक्षाएँ, अत्याधुनिक होती जाती जीवन-शैली का प्रभाव, भूख, बढ़ता क्राइम जैसे हजारों मुद्दे हैं, जिनकी वजह से बच्चे भीख माँगते या छोटे-मोटे अपराध करते पाए जाते हैं। भूख दुनिया का सबसे ईमानदार सच है, यह सत्य जुगनी को
स्टेशन पर रहने के दौरान वहाँ के बच्चों और बुजुर्गों से पता चलता है। भूख लगने पर भीख भी माँगना पड़ता है और जूठे दोने भी चाटने पड़ जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों का अपहरण करके उनसे भीख मँगवाने का धंधा चलाने वालों के
चंगुल में फँसी जुगनी को उसके जैसे बच्चों से मिलाता है जो उसी की तरह अलग-अलग
कारणों से घर से भागे होते हैं। भूख, सहानुभूति, आर्थिक स्थितियाँ कई बार लोगों को एक होने के लिए
पर्याप्त अवसर प्रदान करती हैं। पायल उर्फ़ जुगनी का
चाय की दुकान में काम करने से लेकर सिनेमा में प्रोजेक्टर चलाने तक का एक लम्बा और
दिलचस्प सफ़र रहा। हर जगह जुगनी को अपने आपको बचाने की मशक्कत करनी पड़ी, समाज के कुछ भूखे भेड़ियों की नजर से बचने के लिए पुरुष वेश में छिपना पड़ा। संतोष सिंह के सिनेमा हॉल में काम के दौरान वहाँ का चौकीदार प्रमोद भी उसका
बलात्कार करने का प्रयास करता है। जुगनी को घर
त्यागने के साथ ही ऐसी बुरी परिस्थितियों से लगातार दो-चार होना पड़ता है। आज यह कुप्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है, असिड अटैक, रेप, अपहरण या तस्करी की घटनाएं दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही
हैं। कोई भी समाज, नैतिकता, नियम या क़ानून इन घटनाओं पर कम कर पाने या खत्म कर पाने में नाकाम रहा है। इस तरह जुगनी जीवन में अपने पैरों पर खड़े होने का साहस करती है, और उसमें कामयाब भी होती है। यह पायल उर्फ़ जुगनी
का आंतरिक साहस ही था कि जीवन की विषम परिस्थितियों से जूझते हुए भी जीवन-जीने का
और आगे बढ़ने का आत्मविश्वास लगातार मजबूती से बनाए रखा। अपने कमाए पैसों को माँ के हाथ में देने के साथ ही उसे यह विशवास दिलाने में
भी कामयाब रहती है कि वह किसी बेटे से कम नहीं है।
जुगनी उर्फ़ पायल के जीवन का तीसरा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा है उसका लखनऊ जाना
और किन्नर गुरु मोना के चेलों द्वारा पकड़ लिया जाना। वहीं से जुगनी को यह पता चलता है कि वह पैदाईशी ‘किन्नर’ यानि ‘बुचरा’ है। मोना लगातार पायल पर लगातार यह दबाव बनाती है कि वह नाच-गाना सीखकर उसकी
मण्डली के काम में शामिल हो जाए परन्तु जुगनी लगातार इस बात से इंकार करती है। जुगनी को पहली बार किन्नर समुदाय की बस्ती से रूबरू होने का मौका मिलता है, जहाँ उसे बहुत वीभत्स परिस्थितियाँ मिलती हैं। “मैं एक छोटे से
कमरे में क़ैद कर दी गई थी। एक व्यक्ति इस जीवन
में अपने अनुसार स्वतंत्र जी नहीं सकता क्या? मुझे मालूम है कि
मैं एक किन्नर हूँ, तो क्या किन्नर होना अपराध है, जो उसे उसके व्यवहार के विपरीत कार्य करने के लिए विवश किया जा रहा है। क्या एक किन्नर को बधाई टोली के अलावा अन्य कार्य-दायित्व नहीं सौंपे जा सकते। मैं टॉकीज में प्रोजेक्टर चलाती हूँ। उसके पहले अन्य
छोटे-मोटे कार्य भी मैने किये हैं, फिर मुझे क्यों
बाध्य किया जा रहा है कि मैं इनकी तरह ताली पीटूँ, ढोलक बजाऊं, नाचूँ और बधाई गाऊं”।[10] बस्ती के सभी
किन्नर और गुरु मोना तक नशे में चूर रहते हैं, देहव्यापार का भी
बहुत ज्यादा चलन दिखाई देता है। जुगनी को लगातार
मारा-पीटा और भूखा रखा जाता है। अपनी मेहनत की कमाई
खाने वाली जुगनी दूसरी बार खुद को असहाय पाती है। परिस्थितियाँ उसे झुकने के लिए मजबूर करती हैं और वह नाच-गाना सीखने और लड़की
के वेश में रहने के लिए तैयार हो जाती है। शराब और शबाब में
चूर किन्नर समुदाय के लोग खुलकर देह व्यापार में लिप्त दिखाई देते हैं। हमारे सामने बहुत सारे भ्रम चटक कर टूट जाते हैं, हम हमेशा से उनको सहानुभूति की नजर से देखते हैं, लेकिन यह उपन्यास हमें यथार्थवाद की तरफ खींचता है। प्रतिभा किसी चीज का मोहताज नहीं होती, पायल के मामले में
यह बात साफ़ हो जाती है। साथ के किन्नर जब
उसे भी देह-व्यापार की तरफ खींचना चाहते हैं, तब पायल का सब्र
ज़वाब दे जाता है और वह बगावत कर बैठती है। जीवन का दूसरा सबसे
बड़ा सबक उसे यहाँ मिलता है कि किन्नर गुरु मोना को उससे कोई लगाव नहीं है, बल्कि वह उससे मोटी कमाई करना चाहती है। पप्पू द्वारा पिटाई के दौरान कोई उसे बचाने नहीं आता, सारे साथी भाग जाते हैं। निहायत शर्मनाक है
कि एक ‘सभ्य मनुष्य’ एक ‘हिजड़े’ को नंगा कर रहा है और ऐसा करके उसने यह जता दिया कि ‘असली हिजड़ा कौन है’? इस तरह परिस्थितियाँ जुगनी को लगातार संघर्ष करने के
लिए मजबूर करती हैं, लगातार भागते रहना उसकी नियति बन गई है। पप्पू से बदला लेने से लेकर, आर्केस्ट्रा में
काम करने और स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनाने तक समय बहुत कुछ देखने
और समझने लायक बना देता है। अशोक सोनकर के रूप
में प्रेम का आगमन जहाँ पायल को भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस कराता है, वहीं कालांतर में अशोक सोनकर का पुरुषवादी अहं और शक करने की आदत उन दोनों के
रिश्तों को बहुत जल्द विराम की तरफ भी ले जाता है।
कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि एक किन्नर इंसान के जीवन में जितनी भी विषम
परिस्थितियाँ हो सकती हैं, वे सब पायल को प्राप्त होती हैं। परिवार में माँ-बाप, भाई-बहन, पड़ोस और विद्यालय
के जीवन के बाद पायल को जीवन का वह पक्ष देखना पड़ा जिसे सार्वजनिक जीवन कहते हैं। बहुत कम किन्नर ऐसा मानते हैं कि उन्होंने इस स्तर तक संघर्ष किया। कई बार लोग हार मानकर नियति को स्वीकार कर लेते हैं। पायल भी चाहती तो ढोलक उठाकर या ताली पीटकर अपने जैसे तमाम किन्नरों की तरह
उनके जैसे जीवन को स्वीकार कर लेती, परन्तु ऐसा हो न
सका। पायल अपने जीवन के तीन पक्ष को बहुत ईमानदारी से
व्यक्त करती है। अपने जीवन संघर्ष के दौरान अपने आस-पास की
परिस्थितियों, भाषा, आस-पास के वातावरण
पर उनकी पैनी नजर रहती है। जिस भी तरह का जीवन
उनके सामने है, उसे उन्होंने उसी भाषा में प्रकाट किया है।
एक संवेदनशील उपन्यास का अध्ययन करने के दौरान हम पाते हैं कि उपन्यास कुछ
सीमायें और संभावनाएं साथ लेकर चलता है। सीमाओं की बात करें
तो हम पाते हैं कि कई बार उपन्यास में कई परिस्थितियाँ खुलते-खुलते रह जाती हैं, जैसे कुछ कहा जाने के लिए छूट जाता हो। प्रायः यह माना
जाता है कि हर किन्नर बस्ती का अपना एक शब्द-कोष होता है, जिससे वे सार्वजानिक स्थलों पर आपस में बात-चीत करते हैं, परन्तु इस उपन्यास में ऐसा कुछ भी नहीं देखने को मिलता। दूसरी प्रमुख बात यह कि किन्नर समुदाय की अपनी कुछ मान्यताएं, परम्पराएँ और रीति-रिवाज होते हैं, किसी नए सदस्य के
आगमन पर अनुष्ठान या क्रिया-कलाप होते हैं..परन्तु यहाँ इस तरह की कोई बात देखने
को नहीं मिलती। तीसरी प्रमुख बात कि उस समय की राजनीतिक परिस्थितियाँ
कैसी थीं, उनके जैसे अन्य लोग भी जब उनको मिलते हैं तब उनके
विषय में भी कोई बात खुल नहीं पाती। किन्नर समुदाय के
विषय में जो बातें भ्रमपूर्ण हैं, उन पर कोई बात नहीं
होती है। उस समय किन्नर समुदाय को लेकर कोई आन्दोलन चल रहा था
या नहीं, इस विषय की तरफ भी नहीं जा सके हैं। एक जीवनी-परक उपन्यास के संदर्भ में हम ऐसे सवाल उठा सकते हैं, क्योंकि वह किसी के जीवन का भोगा हुआ निजी यथार्थ होता है, यहाँ हम कल्पना को कम ही स्थान दे सकते हैं।
जब हम इस उपन्यास की संभवनाओं पर गौर करते हैं, तो पाते हैं कि
विभिन्न मुद्दों पर खुलकर बात करने के साथ ही यह उपन्यास किन्नर समुदाय पर बात
करने, उनकी समस्याओं को समझने और उनको सहज रूप से स्वीकार करने का एक बेहतरीन अवसर
प्रदान करता है। घर त्यागने के बाद पायल के समक्ष कई रास्ते थे, परन्तु उन्होंने संघर्ष और मेहनत का रास्ता चुना। आज उनके जैसे कई लोग होंगे परन्तु उनके जैसा बन न सके होंगे। “मुझे किन्नर के रूप में रहना और किन्नर समाज भाने लग गया था। रहना-खाना, पहनना-ओढ़ना, सबमें अपनी मर्जी
चलती। रुपयों-पैसों की कोई कमी नहीं। अपने समाज में अपने लोगों के मध्य में इज्जत भी कमा रही थी। बहुत तपी भी थी मैं। बहुत मारी-कूटी भी
गई। लानत-मलानत, अपमान सब मैंने
झेले थे। मुझे ‘हिजड़ा’, ‘छक्का’ कह देना ही
मेरे लिए बहुत बड़ी गाली थी। दूसरे किन्नरों की
तरह मैने स्वयं के लिए दूसरों के द्वारा ‘हिजड़ा’ कहा जाना सुना ही नहीं था, फलस्वरूप जब कभी कोई मुझे या मेरे साथियों को ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित करता या
चिढ़ाता तो मेरे कानों में ‘हिजड़ा’ शब्द गाली ही नहीं पिघला शीशा सा उतरता। मन करता कहने वालों का मुँह नोच लूँ।”[11] उपन्यास एक बिंदु छोड़ जाता है, जहाँ से उसके आगे
बढ़ने का अगला चरण शुरू हो सकता है। उपन्यास में कुछ भी ‘टिपिकल’ नहीं दिखाई देता, कुछ स्थानों पर
यथार्थवाद इतना ज्यादा हावी हो जाता है कि हम सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि
हम कैसे समाज में जी रहे हैं? “रोजगार गारंटी व
शिक्षा का अभाव, नैतिक चरित्र का पतन कई ऐसे मूलभूत कारण हैं, जो हमारे किन्नर समाज की उन्नति में रूकावट बन सामने आ खड़े होते हैं, फिर भी आशा की नई-नई किरणें खुल रही हैं। माननीय उच्चतम न्यायलय के द्वारा हमारे किन्नर समाज के उत्थान के लिए, जो एतिहासिक निर्णय 15 अप्रैल, 2014 को लिया गया
है उससे हम लोगों में न केवल उम्मीद बँधी है बल्कि समाज की मुख्य धारा में आने का
मार्ग प्रशस्त हुआ है।”[12] किन्नर विमर्श की
अवधारणा महज डेढ़ दशकों की है, इस विमर्श में अभी
कई बिंदु अधूरे हैं। पायल जैसे लोग जब
तक आगे नहीं आयेंगे, अपनी संघर्ष-गाथा ईमानदारी से व्यक्त नहीं करेंगे तब
तक यह विमर्श आधा-अधूरा ही है। आगे चलकर इस विमर्श
पर भी सहानुभूति और स्वानुभूति के सवाल उठना लाजमी है। इसके अलावा जो भी काम हो रहे है, जो कुछ भी लिखा जा
रहा है, उसमें यथार्थ और पारदर्शिता की अत्यंत आवश्यकता है। उपन्यास के छूटे पहलू इसके अगले भाग की माँग करते हैं, और इस बात की बेहतर सम्भावना भी है कि अगले भाग में छूटे हुए बहुत से
महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला जाए। भाषा और शिल्प के
स्तर पर उपन्यास बेहद सफल है, वाक्य संरचना और
शब्द चयन में कोई कमी नहीं मिलती, बल्कि प्रचलित
शब्दों का बहुत बेबाकी से प्रयोग किया गया है। कुल मिलाकर हिंदी में अब तक लिखे गए गिनती के उपन्यासों में इस जीवनी-परक
उपन्यास का बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान है।
संदर्भ-
‘मैं पायल’,
महेंद्र भीष्म, अमन प्रकाशन-कानपुर, संस्करण-2016.
अन्य संदर्भ
2. महेंद्र
भीष्म, मैं पायल, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृष्ट संख्या-24
3. वही, पृष्ठ संख्या-13
4. वही, पृष्ठ संख्या-37
5.
वही, पृष्ठ
संख्या-37
6.
वही, पृष्ठ
संख्या-36
7.
महेंद्र भीष्म,
किन्नर कथा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ संख्या-51
8.
डॉ० सूरज
बड़त्या, कबीरन (कहानी), हम भी इन्सान हैं, संपादक- डॉ० एम्० फ़ीरोज़० खान,से उद्धृत,
वांग्मय बुक्स, अलीगढ़, 2018, पृष्ठ संख्या-11
9.
महेंद्र भीष्म, मैं
पायल, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृष्ठ संख्या-57
10. वही, पृष्ठ संख्या-97
11. वही, पृष्ठ
संख्या-117-18
12. वही, पृष्ठ संख्या-118
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल'
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