पेरियार ललई सिंह के नाटकों में ब्राह्मणवादी-व्यवस्था का खंडन / विजय कुमार
ललई
सिंह को ‘उत्तर भारत का पेरियार’ भी
कहा जाता है। ‘पेरियार’
तमिल भाषा का एक सम्मान-सूचक शब्द
है जिसका अर्थ है – ‘सम्मानित व्यक्ति’। ललई सिंह को यह सम्मान
पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर की शोक-सभा में उनके क्रांतिकारी भाषण के बाद
दक्षिण भारत की जनता द्वारा दिया गया था। दरअसल ललई कापूरा नाम ललई सिंह यादव था
किंतु अपने अध्ययन और मिशनरी कार्यों को करते हुए उन्हें हिंदू धर्म में व्याप्त
जातीय भेदभाव व शोषण से घृणा होने लगी। जिसके चलते उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रति
झुकाव होने के कारण 21 जुलाई,
1967 ई. में कुशीनगर, उत्तर
प्रदेश में बाबा साहब के धर्मगुरु पूज्य भदन्त चंद्रमणि महाथेरा से विधिवत बौद्ध
धर्म की दीक्षा ग्रहण की तथा हिंदू धर्म से हमेशा के लिए मुंह मोड़ लिया। इस अवसर
पर ललई कहते है– “आज से मैं मनुष्य हूँ। एक संपूर्ण मनुष्य। अब न
मेरी कोई जाति है और न मेरा कोई वर्ण। अब मैं एक संपूर्ण मनुष्य हूँ। मानवतावादी
हूँ। सनातनी विधान के अनुसार मेरा जन्म एक अहीर (यादव) जाति में हुआ है लेकिन आज
के बाद मैं – चौधरी,
अहीर, यादव
आदि जातिवादी-वर्णवादी-सामंतवादी कथित मूल्यों और मान्यताओं से पूर्णतः मुक्त हुआ
हूँ। आज से मैं सिर्फ और सिर्फ ‘ललई’
हूँ।”
दुख
की बात है कि ललई ने जिस समतामूलक समाज को ध्यान में रख जाति-भेद का त्याग करते
हुए अपने नाम से जातिवादी शब्दों को सदा के लिए हटा दिया था, आज
उनके अनुयायी और कुछ स्वार्थी लोग जातीय आधार पर उनको ललई सिंह यादव संबोधित करते
हैं। जिसके कारण ललई एक जाति विशेष के नेता के रूप में देखे जाने लगे हैं। हमें
इससे बचना होगा।
पेरियार
ललई सिंह मानवतावादी, धर्मनिरपेक्ष और समतावादी व्यक्तित्व थे।
अल्पसंख्यकों, शोषितों,
दलितों, पिछड़ों
और आदिवासियों के परम हितैषी। वे वेदों के हवाले से बनी वर्ण-व्यवस्था में जन्मे, जातीय
भेदभाव, छुआछूत देखा-सहा और समय-समय पर उसका विरोध करते रहे। आगे चल कर
उन्होंने हिंदू धर्म को त्याग दिया और बौद्ध धर्म की शरण में चले गए। डॉ. भीमराव
अम्बेडकर और पेरियार ई. वी. रामास्वामी नायकर के धार्मिक, सामाजिक
तथा राजनैतिक आंदोलनों का प्रभाव उन पर व्यापक रूप से पड़ा। भारतीय समाज में
व्याप्त विसंगतियों का मूल हिंदू धर्मशास्त्रों, कर्मकांडों, अंधविश्वासों
तथा धर्मांधता को समझते हुए उन्होंने समाज के उत्थान में कार्य किया। इसके लिए
उन्होंने साहित्य का सहारा लिया और अपने क्रांतिकारी विचारों को हिंदू धर्म में
प्रचलित मिथकीय पात्रों के माध्यम से सरल भाषा में आम जनता तक पहुंचाने का सफल
प्रयास किया।
पेरियार
ललई सिंह के साहित्यिक योगदान की यदि बात की जाए तो उन्होंने अपनी साहित्यिक रुचि
का पहला परिचय 1946 ई. में ‘सिपाही की तबाही’ नामक एकांकी लिख कर दे
दिया था। इस क्रांतिकारी रचना ने अनुकूल प्रभाव डाला और हड़ताल करा दी। इसी क्रम
में ललई ने सामाजिक चेतना के उद्देश्य से आर्यों की पोल खोलते हुए हिंदू धर्म के
मिथकों को आधार बनाकर हिंदी में पांच नाटकों की रचना की–वीर
संतमाया बलिदान (1960), शम्बूक वध (1962),
एकलव्य (1963), अंगुलिमाल (1964)
और नागयज्ञ (1966)। इन नाटकों के अतिरिक्त ललई ने जन-जागृति और शोषण के विरुद्ध
दर्जन-भर पुस्तकें भी लिखीं।
पेरियार
ललई सिंह आजीवन अपने समाज में व्याप्त जातीय एवं ब्राह्मणवादी-व्यवस्था का पुरजोर
विरोध करते रहे। दरअसल यह व्यवस्था विदेशी आर्यों की देन है। आर्यों ने भारतीय
सत्ता को हड़पने के इरादे से भारत के भोले-भाले मूल निवासियों को वर्ण-व्यवस्था के
आधार पर विभाजित किया और खुद को शीर्ष पर रखते हुए उनका भरपूर शोषण किया। आर्यों
द्वारा यह घोषित किया गया कि वेदों की रचना स्वयं ईश्वर ने की है और ऋग्वेद में
पुरुषसूक्त के दसवें मंडल के बारहवें श्लोक में वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में
लिखागया–
‘ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीत्बाहु राजन्य: कृत:।
उरू तदस्य यद्वैश्य: पदाभ्यां शूद्रो अजायते्।।’
(ऋग्वेद,
10/90/12)
अर्थात्
“उस पुरुष (ब्रह्म) के मुख से ब्राह्मण, बाहों
से क्षत्रिय, उर या जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुए।” ब्राह्मण की उत्पति मुख से हुई इसलिए उसे समाज में
अध्ययन-अध्यापन का कार्य दिया गया। भुजाओं से क्षत्रिय की उत्पति हुई इसलिए उसे
समाज की सुरक्षा का दायित्व दिया गया। वैश्य पेट/जांघों से उत्पन्न हुए इसलिए
उन्हें समाज के भरण-पोषण के लिए कृषि तथा व्यापार संबंधी कार्य दिए गए। शूद्र
चूंकि पैरों से उत्पन्न हुए और पैर मनुष्य के संपूर्ण शरीर का भार वहन करते हैं, इसलिए
शूद्रों को तीनों वर्णों की सेवा करने का कार्य दिया गया। शूद्रों को छूत व अछूत
जातियों में विभाजित कर दिया ताकि वे कभी संगठित न हो सकें। साथ ही साथ शूद्रों
एवं सभी वर्णों की स्त्रियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना वर्जित कर दिया। यदि गलती
से भी उन्होंने मंत्रों को सुन लिया तो उनके कानों में शीशा पिघला कर डाल देने का
कठोर दंड निर्धारित किया गया। ब्राह्मणों ने अनेक धर्माडंबर, अनुष्ठान, यज्ञ
आदि का प्रावधान कर अपना उल्लू सीधा करने का जुगाड़ किया। ऐसे ही अनेक भेदभावों से
भरी इस जातीय एवं ब्राह्मणवादी-व्यवस्था को अनार्यों पर लादा गया।
ललई
अपने सभी नाटकों में अलग-अलग ढ़ंग से मानववाद विरोधी इस सामाजिक-व्यवस्था के
विरुद्ध बिगुल फूंकते हैं और इससे मुक्ति दिलाने की बात करते हैं। ‘अंगुलिमाल’ नाटक
में ब्राह्मणी चातुर्वर्णी समाज-व्यवस्था की बखिया उधेड़ते हुए वे लिखते हैं –“ब्राह्मणी
चातुर्वर्णी समाज रचना अधर्म है। ...यह चारों वर्ण सामाजिक असमानता में बंधे हैं।
...चारों वर्णों के अधिकार व सुविधाएं भी क्रमवार असमानता के कानून के अनुसार ही
हैं। शूद्र को कोई अधिकार व सुविधा नहीं है। ...शूद्र और स्त्री पढ़-लिख नहीं सकते
हैं। ...ब्राह्मणी समाज केवल असमानता के कारण ही जीवित है।”
यह
ब्राह्मणवादी-व्यवस्था समाज को ऊंची-नीची जातियों में तोड़ती है और यह जातियां
छुआछूत को जन्म देती है। जिससे समाज में रहेने वाले निम्न वर्ग (शूद्रों) को अपमान
तथा असीम पीड़ा सहनी पड़ती है। सवर्ण सदैव उनसे घृणा करते रहे है। यदि गलती से कभी
किसी शूद्र का साया भी किसी सवर्ण पर पड़ जाता तो सवर्ण को पुन: स्नान आदि के
द्वारा अपना शुद्धीकरण करना पड़ता और इस दंड के लिए शूद्र को प्रताड़ित किया जाता।
छुआछूत से संबंधित ऐसी ही घटना ‘एकलव्य’
नाटक में दिखाई गई है। शिक्षा
प्राप्त करने के उद्देश्य से तथाकथित शूद्र एकलव्य, आर्य गुरु द्रोणाचार्य के
पास जाता है। वहां एकलव्य का जातिगत अपमान करते हुए छुआछूतपूर्ण व्यवहार किया जाता
है। आर्य शिष्यों के साथ एकलव्य को शिक्षा प्राप्त करने की बात पर आर्य शिष्य धनेष
कहता है –
“हम इस शूद्र के साथ नहीं बैठ सकते। इसके स्पर्श से
अपनी पुस्तकों एवं अपने शरीर को अपवित्र नहीं बना सकते। ”
गुरु
द्रोण भी इसी ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिचय देते हैं। एकलव्य को अपना शिष्य
स्वीकार नहीं करते क्योंकि वह ब्राह्मणी-व्यवस्था के शूद्र वर्ग से आता है। एकलव्य
द्वारा चरण-स्पर्श कर लेने से द्रोणाचार्य क्रोधित हो जाते है और अपमानजनक शब्दों
का प्रयोग करते हैं–
“दूर हट बदमाश ! धृष्ट !! पतित !!! शूद्र होकर छू
लिया। मुझे अपवित्र कर दिया। स्नान करना पड़ेगा।”
एकलव्य
के साथ छुआछूतपूर्ण व्यवहार करते हुए उसे धक्के मार पाठशाला से बाहर निकाल देने का
आदेश देते हैं। इस प्रकार की अनेकों घटनाएं सदियों से भारत के मूल निवासियों का
अपमान करती आई हैं। इन्हीं के विरोध में ललई आवाज उठाते हैं और समाज के ठेकेदारों
को ठेंगा दिखाते हुए इस असमानता वाली सामाजिक व्यवस्था को तोड़ते हैं।
स्वर्ग-नरक
का लालच और भय देने वाली इस ब्राह्मणी-व्यवस्था में यज्ञों में दी जाने वाली
पशु-बलि को धर्मोचित माना गया किंतु ललई इसे अधर्म मानते हुए इसका खंडन करते हैं–“यज्ञों
में पशुओं की बलि अधर्म है। ब्राह्मणी यज्ञों में पशुओं की बलि के साथ-साथ सुरापान, वेश्यागमन
आदि हर प्रकार के आमोद-प्रमोद शामिल रहते हैं। इस समय के विरोधी धर्म वाले कहते
हैं, अगर यज्ञ में पशुओं के वध से पुरोहित, यजमान
और पशु को स्वर्ग मिलता है, तो पुरोहित और यजमान को अपने-अपने माता तथा पिता का
वध यज्ञ में करके उन्हें जल्दी से जल्दी स्वर्ग में पहुंचाना चाहिए। मगर वे ऐसा
नहीं करते।”
नाटककार
का यह तर्क सही है कि यदि पशु बलि से,
बलि चढ़ाए गए पशु एवं पुरोहित और
यजमान दोनों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो क्यों नहीं दोनों अपने माता-पिता को
बलि कर देते। हिंदू धर्म का सारा क्रिया-व्यापार स्वर्ग प्राप्ति के लिए ही तो
किया जाता है। यज्ञों के नाम पर अपनी जिह्वा के स्वाद के लिए बेजुबान पशु को मारना
निंदनीय है किंतु अनपढ़, धर्मांध जनता इस प्रकार के षड्यंत्रों को नहीं समझ
पाती।
ललई अपने नाटकों के माध्यम से बहुजन समाज को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि हिंदू धर्म एवं अन्य धर्मों में स्वर्ग-नरक की जो मन-गढ़ंत काल्पनिक व्यवस्था है। वह जन-साधारण को लालच और भय दिखा कर ठगने के लिए बनाई गई है। ललई इस व्यवस्था को सिरे से ख़ारिज करते हैं और लिखते हैं –“पादरियों, मुल्ला-मौलवियों व पंडों-पुजारियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नरक की बात बिलकुल झूठ है। ”
इस
कारण ललई हिंदू धर्म को ‘उधार धर्म’
कहते हैं क्योंकि हिंदू धर्म में
मनुष्य के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलने का प्रावधान है। आज तक वैज्ञानिक रूप
से कोई भी यह सिद्ध नहीं कर सका है कि वास्तव में पुनर्जन्म होता है। इसलिए ललई
हिंदू धर्म को ‘उधार धर्म’
कहते हुए हिंदू धर्म की सभी
धार्मिक मान्यताओं का खंडन करते हैं और ‘नकद धर्म’
के रूप में बौद्ध धर्म का नाम
लेते हैं। वे लिखते हैं–“दुनिया में धर्म दो ही हैं, तीसरा
नहीं, एक नकद धर्म,
दूसरा उधार धर्म। ‘ई
हाथसे लेव, या हाथ से देव; यह नकद धर्म है। या जनम
में देव वा जनम में लेव; यह उधार धर्म है। ”
नाटककार असमानता पर आधारित इस कुव्यवस्था के ठेकेदार ब्राह्मणों के दोगले व्यक्तित्व पर कटाक्ष करता हैं और उनके कुटिल व्यवहार का पर्दाफाश करते हुए लिखता हैं कि ब्राह्मण, आर्यों से कहते हैं –
“पुरोहित नाम लड्डू, दक्षिणा नाम खीर।
शासन
नाम मिश्री, घोर-घोर पी।।”
जबकि
अनार्यों अर्थात शूद्रों को उपदेश देते हैं –
“भगवान नाम लड्डू, बैकुंठ नाम खीर।
सेवा
नाम मिश्री, घोर-घोर पी।।”
इस
प्रकार की दुमुहीं बातें ही समाज को बर्बाद कर रहीं हैं। समाज के उत्थान में बाधक
सिद्ध हो रहीं हैं। नाटककार चाहता है कि बहुजन समाज इस प्रकार के स्वार्थ-सिद्धि
के लिए गढ़े गए उपदेशों से सतर्क रहें और पंडे-पुरोहितों के षड्यंत्र में न फंसे।
ललई से भाव-साम्य रखते हुए कँवल भारती भी ब्राह्मणवादी-व्यवस्था और जातीय भेदभावों
पर प्रहार करते हैं और लिखते हैं –“हिंदू-धर्म मानव-मात्र का धर्म नहीं। यह थोड़े से
मानव-शिकारी, शोषक,
प्रबंधक, भोगैश्वर्य
में लिप्त, स्वार्थी लोगों की स्वार्थ-सिद्धि के लिए
ब्राह्मणों के द्वारा गढ़ा एक ब्रह्मजाल या मायाजाल है। जिसमें फंसाकर वे
भोले-भाले मानवों को गुमराह करके अपना भक्त और दास बनाते हैं। वर्ण-व्यवस्था और
जाति-भेद को यदि खत्म कर दिया जाए तो हिंदू धर्म का प्राण निकल जाता है और फिर
ब्राह्मणों को अपनी श्रेष्ठता बघारने का कोई आधार नहीं रह जाता तथा इस
वर्ण-व्यवस्था के समर्थन और प्रचार के लिए ब्राह्मणी साहित्य में जितनी रचना की गई
है, सब व्यर्थ हो जाती है।”
ललई
स्त्री-सशक्तीकरण के हिमायती है। उनका मानना है कि सामाजिक उत्थान के लिए
स्त्रियों को भी समाज में बराबर की भागीदारी दिखानी होगी। ‘नाग
यज्ञ’ नाटक में जरत्कारु के आश्रम में बालकों एवं बालिकाओं दोनों को
समान रूप से शिक्षा दी जाती है। दोनों में किसी-भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया
जाता। मणिमाला विदुषी के रूप में नाटक में उपस्थित है। वह अपनी कुशाग्र बुद्धि का
परिचय देती है और तर्क-वितर्क करती नजर आती है। ललई का माना है कि “प्रत्येक
समाज की तरक्की के लिए जरूरी है,
उस समाज के प्रत्येक मनुष्य तथा
स्त्री दोनों को ज्ञान प्राप्त करने का हक हो।”
स्त्री-सशक्तीकरण
के संबंध में जे. एन. आदित्य लिखते हैं–“आज समाज का सबसे बड़ा दायित्व माताओं, बहनों
के ऊपर ही है। उन्हें अपने आपको,
पति और परिवार दोनों को ऊपर उठाना
होगा।” यह बात
बिलकुल सही है। स्त्री अपने जीवन में दो परिवारों को लेकर चलती है। पहला, अपने
पिता का घर और दूसरा, अपने पति का घर। यदि वह शिक्षित होगी तो दोनों
परिवारों में अच्छे मूल्यों को स्थापित करते हुए समाज के उत्थान में अपना बहुमूल्य
योगदान दे सकती है।
हिंदू
धर्म का वास्तव में भय पर चलने वाला धर्म है। वह इसलिए क्योंकि इसके सभी धार्मिक
क्रियाकलाप, अनुष्ठान आदि ईश्वर के क्रोध से बचने और उसकी कृपा
प्राप्त करने से जुड़े हुए हैं। ललई का मानना है कि ईश्वर की कोई सत्ता नहीं होती।
वास्तविकता तो यह है कि “पुरोहितों ने ईश्वर की रचना इसलिए की है, जिससे
मनुष्य जीवन भर पुरोहितों का दास बना रहे।” ललई
बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के अध्ययन के बाद अनीश्वरवादी हो चले थे। स्वर्ग, नरक, आत्मा, पुनर्जन्म
आदि का खंडन करते हुए वे इन्हें स्वार्थ-सिद्धि के उपकरण से ज्यादा कुछ नहीं
समझते। उनकी इस विचारधारा का स्पष्ट उदहारण ‘अंगुलिमाल’
नाटक के अंत में सरलता से देखा जा
सकता है।
पेरियार
ललई सिंह ने आजीवन हिंदू धर्म में व्याप्त जातीय भेदभाव और ब्राह्मणवादी व्यवस्था
का विरोध किया। वे सदा मानवतावाद और समतामूलक समाज के लिए प्रयासरत रहे।
मुद्राराक्षस अपनी आलोचनात्मक पुस्तक ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ में
हिंदू धर्म के अंदर व्याप्त वर्ण-व्यवस्था के संबंध में कहते हैं कि– “सभी
धर्मग्रंथों का मूल उद्देश्य समाज को व्यवस्थित करना बताया गया है। पर समाज को
व्यवस्थित करने के तथाकथित उद्देश्य से लिखे गए इन धर्मग्रंथों का मकसद रहा है
स्त्री और गैर-सवर्ण मूलवासी समाज का खून चूसना और उनका बेजा लाभ उठाते हुए
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को समृद्धि के शिखर पर बनाए
रखना।”
पेरियार
ललई सिंह के समस्त नाटकों का सार यह है कि आर्यों द्वारा बनाई गई
ब्राह्मणवादी-व्यवस्था शोषण व असमानता पर आधारित है। जिसमें सबसे अधिक
सुख-सुविधाएँ यदि किसी को प्राप्त है तो वह स्वयं उन्हें हैं। जो इस व्यवस्था के
शीर्ष पर विराजमान हो पूरे समाज को अपनी इच्छानुसार नियंत्रित करते है। इस
शोषणकारी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए वह ईश्वर का भय दिखाते हैं, स्वर्ग-नरक
की बातें गढ़ते हैं, अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर समाज को
जातियों-उपजातियों में तोड़कर संगठित होने से रोकते हैं, बहुजन
वर्ग को शिक्षित होने से रोकते हैं आदि। ऐसा करते हुए वे सदियों से भारत के मूल
निवासियों का शोषण करते हुए आ रहे हैं और यह वर्तमान समय में भी विभिन्न क्षेत्रों
में भिन्न-भिन्न रूपों में विद्यमान है।
संदर्भ
- धर्मवीर यादव ‘गगन’: पेरियार
ललई: एक शोधपरक जीवनी, पृ. 20
- कँवल भारती : चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु रचना-संचयन, पृ. 202
- पेरियार ललई सिंह : अंगुलिमाल, पृ. 57
- राम अवतार पाल और ललई सिंह यादव : एकलव्य, पृ. 34
- वही,
पृ. 35
- पेरियार ललई सिंह : अंगुलिमाल, पृ. 56
- जे. एन. आदित्य : महाप्राण कर्मवीर पेरियार ललई
सिंह का जीवन संघर्ष, पृ. 35
- वही,
पृ. 62
- पेरियार ललई सिंह और राम अवतार पाल, शम्बूक
वध, पृ. 40
- वही,
पृ. 40
- कँवल भारती : चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु
रचना-संचयन, पृ. 181
- पेरियार ललई सिंह, अंगुलिमाल, पृ. 58
- जे. एन. आदित्य : महाप्राण कर्मवीर पेरियार ललई
सिंह का जीवन संघर्ष, पृ. 74
- पेरियार ललई सिंह : अंगुलिमाल, पृ. 55
- मुद्राराक्षस. धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ, पृ. 126
शोधार्थी
हिंदी, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, ईटानगर
vijayvipakshi@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल'
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